ईगोफ्रैन्डली
भोंचूशास्त्री की झरखंडिया सायकिल में
किसी मोटरसायकिल वाले ने टक्कर मार दी और बिना सॉरी बोले, आँखें तड़ेरते आगे निकल
गया ऍनरॉयड पर गर्दन झुकाये । व्यथित शास्त्रीजी सीधे मेरे पास पहुँचे और करुणाभरे
स्वर में पूछने लगे— “ईगोफ्रैन्डली
सिद्धान्त के बारे में कुछ पता है गुरु ! ”
मैंने उन्हें समझाते हुए कहा— नहीं
शास्त्रीजी ! ईगोफ्रैन्डली नहीं होता है कुछ,
ईकोफ्रैन्डली होता है । पर्यावरण सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए, नये जमाने
में ईकोफ्रैन्डली गाड़ियों का इज़ाद हो गया है । इसके प्रचार-प्रसार पर सरकारों का
काफी जोर है । इन गाड़ियों में पेट्रोल-डीज़ल आदि किसी ज्वलनशील और धुआँ छोड़ने वाली
फूएल का प्रयोग नहीं होता, बल्कि विजली(वैट्री), सोलर पैनल आदि से ऊर्जा प्रदान की
जाती है।
मेरी बात पर वे झल्ला उठे— “ दुनिया की तरह तुम भी मुझे निरा
बेवकूफ ही समझ लिए हो या तुम्हें भी ईगो हो गया है । पर्यावरण के प्रति सौहार्द
रखने वाली व्यवस्था को आजकल ईकोफ्रैन्डली कहा जाने लगा है- ये कौन नहीं जानता,
किन्तु मैं इससे भी बड़ी वाली समस्या की बात कर रहा हूँ । ”
पर्यावरण से बड़ी समस्या ?
मैं कुछ समझा नहीं ।
“ खुद समझे नहीं और चल दिए मुझे
समझाने । यही तो सबसे बड़ी समस्या है - लोग खुद समझते नहीं । समझना-जानना भी जरुरी
नहीं समझते और चल देते हैं दूसरों को समझाने । तुम्हें शायद नहीं मालूम या मालूम
भी हो तो भी इस ओर ध्यान नहीं गया हो- देश ही नहीं दुनिया की सबसे बड़ी समस्या है ‘
ईगोफ्रैन्डली ’ व्यवस्था का नितान्त अभाव । इस ईगोफ्रैन्डली
को समझाते-समझाते हमारे ऋषि-मुनि थक गए पर किसी ने ठीक से समझा ही नहीं । समझ लिये
होते तो दुनिया का स्वरुप ही कुछ और होता । हमारी धरतीमाता बारुद के ढेर पर बैठी
नहीं होती आज । सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वेसन्तु निरामयाः, सर्वेभद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चित दुःख भाग्भवेत - के स्लोगन वाली दुनिया में एक दूजे के प्रति
ऐसी गिद्धदृष्टि नहीं होती । सत्य और
न्याय इस तरह से कराहता नहीं होता । मानवता इस तरह शर्मसार नहीं होती । ”
अच्छा
तो अब समझा । आप ‘ अहं ’ की बात कर रहे हैं न ?
शास्त्रीजी
ने सिर हिलाते हुए कहा— “ बिलकुल सही समझा
तुमने । अरे गुरु ! इसी अहं को तो ईगो बोलते हैं न
अंग्रेजीवाले ? मैं उसी ईगो की बात कर रहा हूँ । और ईगो के
प्रति संवेदनशील होने की बात कर रहा हूँ । अब संवेदनशील का भी नेताओं वाला अर्थ मत
लगा लेना । या पत्रकारों वाले अन्दाज में कुछ का कुछ समझकर छाप-छूप मत देना । मैं
इस ‘ ईगो ’ नामधारी, मानवता के सबसे
खतरनाक दुश्मन की बात कर रहा हूँ । इसे ठीक से पहचानने की बात कर रहा हूँ । और
पहचान कर इससे सावधान रहने की बात कर रहा हूँ । क्यों कि अनजाने में ही ये जब-तब,
जहाँ-तहाँ सिर पर सवार हो जाता है और कुछ का कुछ करवा लेता हैं लोगों से ।
राहुग्रह की तरह इस ईगो के पास खुद का सिर्फ खोपड़ी है। हाथ-पैर और कुछ हैं नहीं ।
दिल-दिमाग भी नहीं है। अतः किसी के माध्यम से ही सारा अनर्थ कर गुजरता है । और मजे
की बात ये है कि खुद को काबिल, होशियार और प्रबुद्ध मानने वाले लोग ही इसके ज्यादा
शिकार होते हैं । और इससे भी अधिक मजेदार बात ये है कि ज्यादातर लोग इसे पाल-पोस
कर बड़े जतन से अपने दिलोदिमाग में सुरक्षित रखते हैं । खासकर बड़े लोगों की, बड़ी
उपलब्धियों में एक है ये । जितने बड़े लोग, उतना बड़ा उनका ईगो- एकदम से फोरवीलर
के माफिक । किसी को धन का ईगो, किसी को रुप का ईगो, किसी को बल का ईगो, किसी को ज्ञान
का ईगो, किसी को पद-प्रतिष्ठा का ईगो । यहाँ तक कि किसी को त्याग और तपस्या का ईगो
। बड़े-बड़े सन्त-महात्मा भी इससे बच नहीं पाये । दुनिया में विरले ही कोई ऐसा
मिले जिसपर इसका प्रभुत्व न हो, आधिपत्य न हो ... । ”
“…मैंने एक ऐसे जजसाहब के बारे में सुना है, जो अपने बेडरुम में भी जज ही
रहते थे, जिसके कारण उनकी पत्नी बहुत दुःखी और परेशान रहती थी । जज भी हाईकोर्ट के
थे, इस कारण ईगो भी हाईलेबल वाला ही था । लाचार होकर पत्नी ने फैमिलीकोर्ट में
तलाक की अर्जी लगायी, किन्तु भला उस अबला का कौन सुने ! किसी
जज के खिलाब मुकदमा लेने का हिम्मत किसे हो ! जिस विधान से
बंधकर न्यायाधीश लोग न्याय करते हैं, उस विधान को बनाने वाले नेता लोग इस ईगो के
सबसे बड़े पालनहार होते हैं । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि बेरोजगारी बहुल देश
में ईगो की सबसे बड़ी फैक्ट्री के मालिक नेतागण ही होते हैं । खुद को ईश्वर से भी
ऊपर समझते हैं । कानून-व्यवस्था को मर्यादित ढंग से सक्रिय करने में जिन
वाक्-कीलों(वकीलों)का सहयोग न्यायाधीश लोग लेते हैं वो भी अब्बल दर्जे के ईगो वाले
होते हैं । इण्डियन पिनलकोड तो उनकी जेब में होता है सदा, फिर क्योंकर परवाह करें ! वो चाहें तो निरपराधी को फाँसी पर लटकवा दें, चाहें तो अपराधी को अपराध
करने की खुली छूट दिलवा दें । कानून-व्यवस्था को सुचारु रुप से पालन कराने की
जिम्मेवारी और जनता की रक्षा का दायित्व है पुलिस-प्रशासन पर । स्वाभाविक है कि उनका
ईगो किसी से कम विकराल कैसे हो सकता है ! माँ-बहन की गालियों
के ‘ ऐक्गेक्टिवक्लौज ’ या कि तकियाकलाम
सहित, बातें करने का संवैधानिक अधिकार सिर्फ उन्हें ही प्राप्त है । आरोपी को
कानून की कौन सी धारा में बहाना है, बहाकर पार निकाल देना है, या कि मंझधार में
डुबो देना है- ये सब इनके ही हाथों में होता है । अपराध-विश्वविद्यालय के वी.सी.
का पद प्राप्त है इन्हें... ।
“… गहराई
से विचार करें तो पता चलता है कि एक जाति के ईगो की ही कई प्रजातियाँ विकसित हैं
समाज में । सन्त-महात्मा, पंडित-पुरोहित, मुल्ला-मौलवी, डॉक्टर-वकील सबके
अपने-अपने ईगो हैं । और जाहिर है कि अलग-अलग तरह के ईगो होंगे तो आपस में टकराव की
आशंका भी बहुत अधिक होगी । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि एक ही मानवजाति अनेक
जाति, धर्म और मज़हबों में बटी हुयी है, उसी तरह एक ही ईगो अनेक रुप लेकर आपस में
जूझने-टकराने का काम करती रहती है और स्वर्गीय सुखदायी संसार को नरक बना छोड़ा है ।
आये दिन इस ईहो के तरह-तरह के कारनामें चैनलों और अखबारों की सुर्खियाँ बनती रहती हैं
। ‘ विज्ञापन और टी.आर.पी. के पैदाइशी पुत्र ’ इसे और भी हवा देते रहते हैं, ताकि उनकी सजी-धजी दुकानों
के ग्राहकों में इज़ाफा होता रहे...।
“…ईगो-प्रभाव-ग्रस्त,
संवेदनहीन मानव किसी भी दृष्टि से तात्कालिक मानव रह ही जाता, विशुद्ध दानव बन
जाता है । उस स्वरुप में आविष्ट व्यक्ति को पहचान पाना बड़ा ही मुश्किल होता है कि
वो प्राण-रक्षक डॉक्टर है या कानून रक्षक वकील, पुलिस-प्रशासक है या न्यायपीठिका
पर आसीन जज , नेता है या अभिनेता, क्रेता है या विक्रेता, पंडित-पुरोहित है,
मुल्ला-काज़ी है या आतंकवादी...! ईगो के ज़ाम का असर जैसे ही
चढ़ता है दिमाग में बस एक ही स्वरुप दीखता है- आतंकवादी का..मानवता के शत्रु का...
।
“…अतः
मैं किसी ऐसे सिद्धान्त की तलाश में हूँ, किसी ऐसी विधि की तलाश में हूँ, किसी ऐसे
डिवाइस (ऐप) की तलाश में हूँ जो फटाफट ईगोफ्रैन्डली बना दे दुनिया को । इसके बारे में तुम भी सोचो । मैं भी सोचता हूँ
। अच्छा तो अब चलता हूँ । जयरामजी । वन्देमातरम् । ”
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