सूर्यविज्ञानःआत्मचिन्तन भाग 3

                           द्वितीय चिन्तन        
               सूर्यविज्ञान : सृजन और चमत्कार
           
ये (द्वितीय) चिन्तन स्वनाम धन्य स्वामी श्री विशुद्धानन्द सरस्वती जी एवं डॉ.गोपीनाथ कविराजजी के व्यक्तिगत संवाद पर आधारित है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि श्री गोपीनाथजी भारतीय रहस्यमय विद्याओं— तन्त्र, योगादि के अद्भुत मर्मज्ञ थे ।  उन्हें श्री स्वामीजी के बारे में बहुत सी रहस्यमय बातें सुनने का अवसर मिला था, किन्तु एकबार प्रथम दर्शन का भी सौभाग्य जब मिला तो अभिभूत हो उठे उनके व्यक्तित्व से । हालाँकि प्रबुद्धजन किसी चमत्कार से कदापि आकर्षित नहीं हुआ करते, अन्धश्रद्धा और अन्धविश्वास का लेश मात्र भी स्थान नहीं होता; किन्तु स्वामीजी के एक प्रयोग ने इन्हें मुग्ध कर दिया था ।
जिस समय वे उनके पास पहुंचे थे, वहां पहले से ही कई जिज्ञासु उपस्थित थे और महर्षि पतंजलि के " जात्यन्तरपरिणाम सिद्धान्त पर चर्चा चल रही थी । स्वामीजी की बातें कोरी किताबी बातें न होकर, विशुद्ध अनुभवसिद्ध प्रमाण-दर्पण की भाँति झलक रही थी । वे दृढ़तापूर्वक कह रहे थे कि शास्त्रवचन और तत् वर्णित विविध क्रियायें अकाट्य सत्य हैं । यत्किंचित कमी जो दिख रही है वो सिर्फ योग्य अधिकारी, जिज्ञासु वा साधक की है ।
सच में कलिकाल में अनधिकारियों का बाहुल्य हो गया है । शिश्नोदरी-आडम्बरियों की भरमार है । पता नहीं कौन कब किस गूढ़ विद्या का कहाँ दुरुपयोग कर बैठे और चुँकि विद्या के दुरुपयोग का परिणाम विद्या-दाता को भी अवश्य भुगतना ही पड़ता है, इस कारण सही जानकार (ज्ञानी) अपने आप को यत्नपूर्वक गुप्त रखने का प्रयास करते हैं । अत्यावश्यक स्थिति में गूढ़ रहस्यों को कूटात्मक शैली में सत्पात्रता-विचार करते हुए, किसी को ईंगित मात्र कर देते हैं ।
हालाँकि अन्यान्य कारण भी हैं, किन्तु अयोग्यता के साम्राज्य-
विस्तार के कारण भी हमारी बहुत सी विद्यायें लुप्त हुयी हैं । ध्यान दें - यहाँ
मैं नष्ट शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ। निरुक्तकार यास्क ने "लुप्त की व्याख्या अ-दर्शन" कहकर की है,यानी मेरी दृष्टि से ओझल हो गयी है सिर्फ । कहीं गयी नहीं है । और इसके लिए प्रज्ज्वलित दीपक का उदाहरण दिया है । दीपक  की लौ तैल और बर्तिका से कुछ ऊँचाई तक दीखती है, फिर नहीं । थोड़ी और ऊँचाई पर हम अपना हाथ रखकर परीक्षण करें तो लौ तो नहीं, किन्तु उसकी ऊष्मा की प्रतीति अवश्य होती है । थोड़ी और ऊँचाई पर जाने पर उस ऊष्मा का अनुभव भी नहीं हो पाता । यही अ-दर्शन वास्तव में लोप है ।

          गहन अर्थ में सच्चाई ये है कि सृष्टि की समस्त रश्मियाँ सूर्य-सम्पदा हैं । जो कुछ भी है, सूर्यांश है । कोई भी आलोक सूर्य-रश्मियाँ ही है, भले ही दीपक का हो या कि चाँद का या किसी अन्य स्रोत-निःसृत । इतना ही नहीं हम सृष्टि मात्र में जो कुछ भी देख रहे हैं, जो भी नेत्रेन्द्रिय का विषय है, वह सब किसी न किसी रुप में सूर्यांश ही है, सूर्यरश्मियाँ ही हैं । सृष्टि को सूर्य का रुपान्तरण कहें तो अतिशयोक्ति नहीं । विश्व के समस्त रुपों (रंग,आकृति इत्यादि) के केन्द्र सूर्य ही हैं। यथा -  विश्वरुपं हरिणं जातवेदसं परायणं ज्योतिरेकं तपन्तम् । सहस्ररश्मिः शतधा वर्तमानः प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः ।। (प्रश्नोपनिषद् १।८) इन्हीं सूर्य-रश्मियों के रहस्य को समझकर (साधकर) उन्हें नियन्त्रित करने और पुनः उनका मनोनुकूल प्रयोग करने की विद्या को सावित्री विद्या, सूर्यविद्या,सूर्यविज्ञान वा सूर्यतन्त्र कहते हैं । ब्रह्माण्ड वस्तुतः सूर्यतन्त्र का ही क्रिया व परिणाम है ।

       सुनने में बिलकुल आश्चर्यजनक लगेगा किन्तु सत्य ये है कि जगत में सर्वत्र सत्तामात्र रुप से , सूक्ष्मभाव से सभी पदार्थ सर्वत्र-सर्वदा विद्यमान रहते हैं, परन्तु जिसकी मात्रा अधिक प्रस्फुटित होती है, वही सिर्फ अभिव्यक्त और दृष्टिगोचर होता है, शेष कदापि नहीं । इस 'व्यंजना' का कौशल (कला) जान-समझ लेने से किसी भी स्थान में किसी भी वस्तु को कभी भी प्रकट-अप्रकट किया जा सकता है। सूर्यतन्त्र-साधना का यही चमत्कारिक प्रभाव है ।

         यहाँ हम इस बात को मनःसात कर लें कि व्यावहारिक जगत् में जिस किसी पदार्थ को जिस किसी रुप में हम देखते-जानते-समझते हैं, वो उसकी आपेक्षिक सत्ता मात्र है। वह केवल वही है जिस रुप में हम पहचानते हैं उसेकिन्तु बात ऐसी बिलकुल नहीं है । स्पष्टरुप से कहें तो कह सकते हैं कि जिसे हम लोहा कह रहे हैं वह सिर्फ लोहा नहीं है, प्रत्युत प्रकृति के समस्त पदार्थ अव्यक्त रुप से निहित हैं वहां । हां लौहभाव की अभिव्यक्ति का आधिक्य है, इस कारण हम उसे लोहे के रुप में ही देख पा रहे हैं । अन्यान्य भाव विलीन हैं लोहे में।
इस सिद्धान्तानुसार किसी भी विलीन (अव्यक्त) भाव की मात्रा में यथोचित परिवर्तन, परिवर्द्धन कर दिया जाये तो पूर्व में अव्यक्त रुप , अभिव्यक्त हो उठेगा और तब हम उसे उसी रुप में देखने-कहने को विवश हो जायेंगे । लोहे में सोने और सोने में लोहे को हम सहज ही देख पायेंगे । गेंदे के फूल को हम गुलाब फूल के रुप में स्पष्ट देख पायेंगे,सुगन्ध भी ले पायेंगे । आपातदृष्टि से ऐसा ही प्रतीत होगा कि लोहा सोना हो गया या सोना ही लोहा हो गया । गेंदा ही गुलाब हो गया। इत्यादि ।

            ऋषि कहते हैं कि प्रकृति के आपूरण से जात्यन्तरपरिणाम होता है जात्यन्तरपरिणामःप्रकृत्यापूरात्। (पा.यो.कै.पा.२) ।  प्रकृति उपादान कारण को कहते हैं । शरीर की प्रकृति पृथिव्यादि पञ्चमहाभूत हैं और इन्द्रियों की प्रकृति अस्मिता है। प्रकृति का कारणरुप से कार्यरुप अवयवों के आकार में भरने (प्रवेश करने) को प्रकृत्यापूर कहा गया है यहाँ । भाव ये है कि साधक के इन्द्रियों आदि में जो जात्यन्तर परिणाम लक्षित होते हैं, अर्थात पूर्व से भिन्न शक्ति, बलादियुक्त हो जाना जो प्रतीत होता है वह औषधि, मन्त्र, तप, समाधि इत्यादि के प्रभावस्वरुप है । इस बात की भूमिका इसके पूर्व प्रसंग यानि कैवल्यपाद के प्रथमसूत्र में ही  बना दी जा चुकी हैजन्मौषधिमन्त्रतपःसमाधिजाः सिद्धयः ।। इसकी विस्तृत व्याख्या मूल ग्रन्थ में देख सकते हैं । स्वामी ओमानन्दजी इत्यादि अनेक चिन्तकों ने अपने-अपने ढंग से इसे व्याख्यायित किया है।

            योगियों ने 'मूलपृथकत्व' कहकर अव्यक्तभाव से बीज-निष्ठ रुप में भी पृथकता की सत्ता स्वीकार की है । ऐसा न करने से  सृष्टिवैचित्र्य का कोई मतलब ही नहीं रह जाता । महर्षिव्यास ने 'जात्यनुच्छेदेन सर्वं सर्वात्मकम्' कह कर स्पष्ट कर दिया है कि जाति का उच्छेद प्रलयावस्था में भी नहीं होता है, यानी सृष्टि की अव्यक्तावस्था में भी जातिभेद बना रहता है । परन्तु 'अधिष्ठान' के लोप के कारण अव्यक्त रहता है और सृष्टि के साथ ही साथ उसकी स्फूर्ति होती है। प्रलय की परमावस्था में समस्त प्रकृति पर आवरण पड़ जाता है, इसलिये उसमें विकारोन्मुख परिणाम नहीं आ पाता ।

            सामान्यतौर पर जिसे सृष्टि कहा जाता है वह मूलतः आंशिक सृष्टि है । निश्चित है कि सृष्टि आंशिक है तो प्रलय भी आंशिक ही होगा । स्पष्ट सिद्धान्त है कि आवरण जहाँ नहीं है वहाँ निरन्तर विकार पैदा होता रहता है । निहित स्पष्टी ये भी है कि आवरण है तो विकार नहीं है । जहाँ कोई आवरण नहीं होता वहाँ प्रकृति सर्वतोभावेन मुक्त होकर अखिल परिणाम की ओर उन्मुख हो जाती है ।
युगपत् अनन्त आकारों का स्फुरण होता है, इसलिये किसी विशिष्ट आकार का भान नहीं होता, उसीको निराकार स्फूर्ति कहते हैं- वस्तुतः वही ब्रह्म है ।
        सृष्टि को प्रकृति का विकृति कहने का भी यही कारण है । नये जिज्ञासुओं के लिए यहाँ स्पष्ट कर दूं कि विभिन्न शब्दों के लौकिक प्रचलित अर्थ से किंचित भिन्न भाव हैं तन्त्र, दर्शनादि शास्त्रों में । सामान्यतौर पर विकृति को खराबी (बिगड़ने) के अर्थ में हम समझते हैं, जबकि यहाँ बात इससे बिलकुल भिन्न है ।
पुनः पतञ्जलि-सिद्धान्त पर आते हैंनिमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रकवत् । (कैवल्यपाद ३) इस सूत्र की स्वामी ओमानन्दजी ने बड़ी ही सुन्दर व्याख्या दी है । विशेष कुछ कहने से पहले, सूत्र के शब्दार्थों पर एक दृष्टि डाल लेंनिमित्तम् = धर्मादि निमित्त, अप्रयोजकम् = अप्रयोजक - प्रेरक नहीं है, प्रकृतीनाम् = प्रकृतियों का, वरण-भेद = आवरण- प्रतिबन्धक- रुकावट का तोड़ना, तु = किन्तु, ततः = उससे अर्थात् धर्मादि निमित्त से, क्षेत्रिकवत् = किसान की तरह ।
अब इसका अन्वयार्थ देखें -  धर्मादि निमित्त प्रकृतियों का प्रेरक नहीं होता है, किन्तु उससे किसान की तरह रुकावट दूर होती है ।
            (नये जिज्ञासुओं के लिए पुनः स्पष्ट कर दूँ कि धर्म का वो अर्थ नहीं है यहां, जो सामान्य बोलचाल की भाषा में प्रचलित है)
व्याख्या धर्मादि निमित्त प्रकृतियों (उपादान कारणों) के प्रवृत्त करने वाले नहीं होते, क्यों कि धर्मादि प्रकृत्ति के कार्य हैं और कार्य कभी भी कारण का प्रवर्तक नहीं होता । जैसे किसान जल से भरी एक क्यारी से दूसरी क्यारी में जल को ले जाना चाहता है, तो हाथ से पानी को उलीच कर नहीं ले जाता, प्रत्युत उस क्यारी की मेड़ को थोड़ा सा काट देता है और जल स्वतः एक क्यारी से दूसरी क्यारी में प्रवाहित होने लगता है । और इस प्रकार थोड़ी देर में दूसरी क्यारी जलपूर्ण हो जाती है । यहाँ किसान ने कुछ और नहीं किया, वल्कि जल-प्रवाह के प्रतिबन्धक को हटा दिया ।  इसी भाँति धर्म प्रकृतियों के वरण(आवरण- प्रतिबन्धक- अधर्म) को नष्ट कर देता है। उस अधर्म रुपी प्रतिबन्धक के नष्ट होते ही, प्रकृतियाँ स्वयं अपने-अपने कार्य को नये-नये अवयवों से भर देती है ।
            इसे एक और उदाहरण से भी समझ सकते हैं खेत में लगे फसल को जल, लवणादि पोषक तत्त्व प्रदान कराने के लिए किसान सिर्फ जल-सिंचन का कार्य कर देता है । भूमि के रसों को प्रत्येक पौधे में पहुँचाने की आवश्यकता नहीं होती । इसके लिए उसे किसी प्रकार का अतिरिक्त श्रम नहीं करना पड़ता । इस प्रकार प्रकृति से प्रवृत्त करने में धर्म उपादान कारण नहीं होता, वल्कि निमित्त कारण होता है ।
अब पूर्व कथन पर पुनः ध्यान दें । ऋषि कहते हैं कि निमित्त प्रकृति को प्रेरित नहीं कर सकता, प्रवृत्ति नहीं दे सकता । प्रकृति में विकारोन्मुखता की ओर स्वाभाविक प्रेरणा विद्यमान है । प्रतिबन्धक रहने के कारण ये कार्य नहीं कर पाती । पूर्वीकृत कौशल (प्रयास-क्रिया) उस प्रतिबन्धक को हटा भर देता है ।

            इन्हीं बातों को दूसरे कथन से स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है शमप्रधानेषु तपोवनेषु गूढं हि दाहात्मकमस्ति तेजः । स्पर्शानुकूला अपि सूर्यकान्तास्तेह्यन्यतेजोऽभिभवाद् दहन्ति ।। जो शीतल (शम प्रधान) है उसमें भी दाहात्मक तेज विद्यमान है, परन्तु वो गूढ़ (गौंण) है अर्थात् सभी जगह सभी वस्तुएं विद्यमान हैं, किन्तु छिपी हुयी हैं- अव्यक्त हैं । उसकी क्रिया  भी नहीं होती और जो व्यक्त है उसीकी क्रिया होती है, वही दृश्य है । 
           
इसे दूसरी ओर से देखें - गूढ़ धर्म की क्रिया न हो सकने के कारण व्यक्त धर्म की प्रधानता है ।  यदि व्यक्त धर्म बाह्यतेज (अन्य तेज) के द्वारा अभिभूत कर दिया जाय तो विद्यमान धर्म, जो अभी तक गुप्त था, वह अनभिभूत होने के कारण प्रकट हो जाता है और क्रिया करने लगता है ।

            लौह में सुवर्ण प्रकृति विद्यमान है, किन्तु वह आवरणित है और लौह प्रकृति आवरण-मुक्त है, इसी से लौहपरिणाम चल रहा है (दृश्य है) । किसी कौशल (आर्षविज्ञानादि) से सुवर्ण प्रकृति का ये आवरण हटा दिया जाय यदि तो लौह प्रकृति हट जायेगी और सुवर्ण प्रकृति परिणाम की धारा में विकार उत्पन्न करने लगेगी । यह स्वाभाविक है । ये कौशल ही प्रकृति विद्या है । सूर्यविज्ञान इसी क्रिया-कौशल को जताता है ।
            परन्तु  ध्यान रहे- इसके द्वारा सत् को असत् और असत् को सत् कदापि नहीं किया जा सकता । केवल अव्यक्त को व्यक्त किया जा सकता है । वस्तुतः सत्कार्यवाद में सृष्टिमात्र ही अभिव्यक्त है । जो कभी नहीं था, वो कभी हो नहीं सकता । इन्हीं तथ्यों को गीता अध्याय २ श्लोक संख्या १६ में वासुदेव श्रीकृष्ण और भी दृढ़ता पूर्वक कहते हैं-
             नासतो विद्यते भावो ना भावो विद्यते सतः।
            उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।।

        सत्ता मात्र सत् है और सत्ता के सिवाय जो कुछ भी प्रकृति वा प्रकृति का कार्य (क्रिया व पदार्थ) है वह असत् अर्थात् परिवर्तनशील है। जिन महापुरुषों ने सत् और असत् दोनों का तत्त्व देखा है अर्थात् सत्तामात्र में अपनी स्वतःसिद्ध स्थिति का अनुभव (ज्ञान) हो गया है जिन्हें, उनकी दृष्टि (अनुभव) में असत् की सत्ता विद्यमान है ही नहीं और न सत् की सत्ता का  किंचित मात्र भी अभाव विद्यमान है ।

            इसी भांति समस्त जगत में प्रकृति का खेल चल रहा है। जो इस खेल के तत्त्व को ठीक से समझते हैं, वे ही ज्ञानी हैं । अज्ञानी तो प्रकृति के खेल से सिर्फ मोहित हो सकता है, आत्मविस्मृत हो सकता है। योगसाधना के बिना इस ज्ञान की, इस विज्ञान की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती  और विज्ञान के बिना वास्तविक योगपद पर आरोहण नहीं किया जा सकता ।

            योगी के लिए सब कुछ सम्भव है । जो यथार्थ योगी है उनकी सामर्थ्य की कोई इयत्ता नहीं । क्या हो सकता है और क्या नहीं, इसकी कोई निर्दिष्ट सीमा रेखा भी नहीं है । परमेश्वर ही तो आदर्शयोगी है । इनके सिवा महाशक्ति का पूरा पता और किसी को प्राप्त नहीं है और न प्राप्त हो ही सकता है। जो निर्मल होकर परमात्मशक्ति के साथ जितना युक्त हो सकता है, उनमें उतनी ही ऐसी शक्तियां स्फुरित हो सकती हैं ।
और ध्यान रहे ये सब कोई एक दिन का काम नहीं है । क्रमिक होने वाली चीज है । इसलिए शुद्धि के तारतम्य के अनुसार शक्ति-स्फुरण भी न्यूनाधिक हुआ करता है। शुद्धि जब सम्यक् सिद्ध हो जाती है, तभी ईश्वर-सायुज्य होता है। उस समय योगी  की शक्ति निःसीम होती है। शरीर-शुद्धि, विचार-शुद्धि, भाव-शुद्धिशरीर-शून्यता, विचार- शून्यता, भाव-शून्यता यही तो क्रम है साधना का । अस्तु ।
                                
                                    ।। जयभास्कर ।।   
क्रमशः........                        

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