तृतीय
चिन्तन
सूर्यविज्ञान :: उद्बोधन और प्रक्रिया
उपायमात्र
ही योग है। दो वस्तुओं को एकत्र करने की क्रिया को सामान्य बोलचाल की भाषा में योग
कहते हैं, किन्तु यथार्थ में योग कुछ और ही है । सूर्यविज्ञान उसी योग की बात करता
है ।
भौतिक वस्तुओं में विभिन्न तरह के परिवर्तन किये जाते हैं, किये जा सकते हैं अपनी शक्ति के अनुसार । योगबल या विशुद्ध इच्छाशक्ति से
समस्त सृ्ष्टि कार्य हो सकता है ; किन्तु इच्छाशक्ति का
प्रयोग किये बिना भी किंचित सृष्टि का कार्य हो सकता है विज्ञान कौशल से ।
यहाँ
‘विज्ञान’ शब्द से कोई ये न समझ ले कि पाश्चात्य
विज्ञान की तरह ये किसी जड़ विज्ञान की बात की जा रही है। हालाकि जड़ नाम की कोई
पृथक सत्ता (वस्तु) नहीं है। हमलोग जिसे सामान्य तौर पर जड़ कहते-समझते हैं, वो भी
एकान्तिक भाव से जड़ नहीं है।
‘विशिष्ट ज्ञान’ ही विज्ञान है। इस प्रकार स्पष्ट है
कि ज्ञान की तुलना में ये अति श्रेष्ठ है। वस्तुतः ज्ञान का सारांश ही विज्ञान है।
तत्ववस्तु को सामान्य रुप से जानने का नाम ज्ञान है और उसके अशेष-विशेष को
जानकर, उसे सम्पूर्ण रुप से स्वाधीन कर लेने का नाम ही विज्ञान है । ज्ञान के
द्वारा परमात्मा की तुरीयाभूमि तक की उपलब्धि की जा सकती है, किन्तु तुरीयातीत
महाशक्ति का स्वरुप समझने के लिए, उन्हें पकड़ने के लिए विज्ञान के अलावा अन्य कोई
उपाय नहीं है । ज्ञानी का चित्त भी महामाया के मायाचक्र के वशीभूत होकर,
प्रायःविचलित हो जाया करता है, किन्तु ज्ञान का विज्ञान में जब प्रस्फुटन हो जाता
है (परिवर्तन हो जाता है) ऐसी अवस्था विशेष में विचलन, मायाभूत, मोहावर्त होना
असम्भव है।
ज्ञान
और विज्ञान के परस्पर सम्बन्ध को हम इस प्रकार समझ सकते हैं— विज्ञान के समुज्ज्वल
प्रकाश में ज्ञान और अज्ञान समसूत्र होकर दोनों ही निष्प्रभ हो जाते हैं। द्वैत,अद्वैत,नित्य,अनित्य,गति,स्थित्यादि
का समभाव से दर्शन करने हेतु एकमात्र विज्ञान का ही आश्रय लेना पड़ता है।
ज्ञान
और विज्ञान दोनों के साथ सवितृतत्त्व का घनिष्ट सम्बन्ध है। पतंजलि का
सूत्र-संकेत- भुवनज्ञानं सूर्यसंयमात् इसी बात की ओर ईंगन है। इसका मूल
कारण है कि सूर्य ही सविता- प्रसविता— सृष्टि के सभी पदार्थो का प्रसवकर्ता –
मूलस्तम्भ है ।
समान्यतौर पर जिसे हम
जड़-चेतन कहकर विभेदित करते हैं- ये दोनों ही विज्ञान के विषय हैं।
यहाँ मूल बात ये है कि
सृष्टि का केन्द्रविन्दु सूर्य है। सूर्य ही समस्त ज्ञान का भी केन्द्र है। सूर्य
ही मूल आश्रय है। इसलिए सूर्यविज्ञान कहा गया । समस्त जागतिक व्यवहार- सृष्टि, स्थिति,
संहारादि सूर्याधीन ही है। इसे और भी स्पष्ट रुप से कहा जा सकता है कि इच्छाशक्ति,
ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति का प्रसार सूर्य से ही हो रहा है। वेदोपनिषदादि शास्त्र
कहते हैं कि एक ऐसा पदार्थ है, जिसका ज्ञान लब्ध हो जाने पर सर्व विषयक
ज्ञानोपलब्ध हो जाता है। ये क्रिया स्वयमेव घटित हो जाती है । कालक्रम भी नहीं
रहता। प्रकाश के आलोकित होते ही अन्धकार की विलीनता की तरह यानी दोनों क्रियायें
एक साथ घटित होने जैसी स्थिति है यहाँ भी ।
अतः विशुद्ध आत्मज्ञान –
स्वरुपोपलब्धि हेतु सौरतत्त्व का आलम्बन निश्चित रुप से आवश्यक है। योग का चरम
उद्देश्य सूर्यविज्ञान की उपलब्धि ही है, चाहे इसे हम जिस नाम से जाने-समझें-कहें-माने
।
सूर्यविज्ञान
आयत्त हो जाने पर अन्य सभी विज्ञान निष्प्रयोज्य सिद्ध हो जाते हैं। इसकी तुलना गीतोक्त श्रीकृष्ण के इस वचन से कर
सकते हैं—
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः
।।(२।४६)
स्पष्ट है कि सूर्यविज्ञान
के अंगविन्यास की तरह हैं अन्यान्य समस्त विज्ञान । इस प्रकार ये कहना अतिशयोक्ति
नहीं होगी कि सूर्यविज्ञान सभी विज्ञानों का चरमोत्कर्ष है।
यहाँ हमारा आलोच्य विषय वही
मूल विज्ञान— सूर्यविज्ञान है। सूर्य को जगत् का प्रसविता कहा गया है । यथा-
आदित्यो
ह्यादिभूतत्वात् प्रसूत्या सूर्य उच्चते ।
परम ज्योतिस्तमःपारे सूर्योऽयं सवितेति च ।।
ये जो परमज्योति की चर्चा होती है, वह शब्दब्रह्ममय
परम मन्त्रज्योति है । यही अखण्ड अविभक्त प्रणवात्मक वेदस्वरुप है, जो विभक्त होकर वेदत्रय- ऋक्, यजुः और सामरुप दर्शित-बोधित होता है । वेद- किसी मोटी,
पुरानी पुस्तक का नाम मात्र नहीं है, जो हमने
अपनी सुविधा के लिए दे रखा है सिर्फ । वेद ब्रह्म का साक्षात् वाङ्गमय स्वरुप है।
यथा- नत्वा सूर्य परं धाम
ऋग्यजुःसामरुपिणम् । (सूर्यपुराण) ये वेदत्रय पृथक रुप से क्रमशः
लोकत्रय (भूर्भुवःस्वः)को प्राप्त कराने वाला है । वेदत्रय को घनीभूत करने पर ही ॐकार
रुप ऐक्य का स्फुरण होता है।
ध्यातव्य है कि यहाँ तक के ये तीनों लोक पुनरावर्तनशील हैं। आब्रह्मभुवनाल्लोकाः
पुनरावर्तिनोऽर्जुन। (गीता ८-१६ पूर्वार्द्ध)
यानी यं प्राप्य न निवर्तन्ते
तद्धाम परमं मम । (गीता ८-२१उत्तरार्द्ध)
वाली बात नहीं है यहां तक । अनिवर्तनशील परमधाम में प्रविष्टि हेतु वेदत्रय के
घनीभूत स्वरुप ॐकार रुप ऐक्य के स्फुरण से ही सूर्यविज्ञान में प्रवेश मिल सकता है
। क्रमिक अभ्यास से शुद्ध आत्मतेज अन्ततः सूर्यमण्डल भेदकर जगत् में उतर आता है।
शुद्धभूमि से जगत् में अवतीर्ण होने के लिए और जगत् से शुद्धधाम गमन हेतु सूर्यविज्ञान
ही द्वार स्वरुप है । और इस सू्र्यविज्ञान में मूल रुप से सारा कुछ सूर्य रश्मियों
का खेल है । इस विषय पर आगे के प्रसंगों
में विशेष चर्चा करने का प्रयास करुंगा ।
संघटन और विघटन का खेल सूर्यरश्मियों का है । प्रसंगवश यहाँ ये स्पष्ट कर
देना उचित होगा कि सूर्यरश्मियाँ अनन्त हैं- जाति में और संख्या में भी, जिनमें सात रश्मियों को प्रधान माना गया है । यथा— सुषुम्णा, सुरादना, उदन्वसु,
विश्वकर्मा, उदावसु, विश्वव्यचा
और हरिकेश । किन-किन रश्मियों से किन-किन पदार्थों की
व्यक्ति (सृजन) हुयी है, हो सकती है- ये सारी बातें
सूर्यविज्ञान के विवेच्य विषय हैं। सूर्य की प्रथम (सुषुम्णा) रश्मि से ही
पूर्णकला प्राप्त करके चन्द्रमा अमृत
प्रसारण (वर्षण) करते हैं ।
ध्यातव्य है कि सृष्टि
में मूल वर्ण (रंग) भी सात ही हैं — 'बै नी आ
ह पी ना ला '—बैंगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल । '
वर्ण '
का एक और अर्थ होता है-
अकारादि वर्णमाला । रहस्य की बात ये है कि इन तीनों - रश्मि, रंग और वर्णमाला में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । सामान्य रुप से कहें तो
कहना चाहिए कि ये तीनों एक ही सत्ता (अस्तित्व) के तीन प्रकार के दृश्य हैं ।
रश्मि का एक अर्थ अश्व भी होता
है। यही कारण है कि सूर्य के सात घोड़े कहे गए हैं— सप्ताश्वरथमारुढं
प्रचंडं कश्यपात्मजम् । (सूर्याष्टक) एवं सप्ताश्व
रथसंयुक्तो द्विभुजः स्यात् सदा रविः । (भविष्योत्तरपुराणोक्त
आदित्यहृदयस्तोत्रम् श्लोक १६८ का उत्तरार्द्ध) ।
वस्तुतः कथा शैली में इन सप्तरश्मियों की
ओर ही संकेत है। उक्त स्तोत्र के १२१ वें श्लोक में सप्त किरणों (अश्वों) का नाम
भी गिनाया गया है— जयोऽजयश्च विजयो जितःप्राणो जितश्रमः । मनोजवो जितक्रोधो
वाजिनः सप्त कीर्तिता ।। (जय, अजय, विजय, जितप्राण, जितश्रम, मनोजव और
जितक्रोध—इन शब्दों पर ध्यान देंगे तो स्पष्ट हो जायेगा कि अपने नामानुसार
कार्यसिद्ध करने में ये रश्मियाँ सक्षम हैं । अश्वों यानि रश्मियों का ज्ञान और
फिर उनपर नियंत्रण तत्पश्चात् उनका प्रयोग- यही तो रहस्य है सूर्यविज्ञान का ।
जो पुरुष समस्त सूर्यरश्मियों, प्रधान सप्तवर्णों और
वर्णमाला को भलीभांति पहचान गया है और वर्णों को शोधित करके परस्पर मिश्रित करना
भी सीख गया है, वह व्यक्ति सहज ही सभी पदार्थों का संघटन या
विघटन (सृजन वा विनाश) कर सकता है। सभी पदार्थों का मूल बीज इस रश्मि-कला के
विभिन्न प्रकार के संयोजन से ही उत्पन्न होता है । वर्णभेद से और विभिन्न
वर्णों के संयोग से विभिन्न पद उत्पन्न
होते हैं । स्थूल दृष्टि से बीज-सृष्टि का एक रहस्य है ये । सूक्ष्म दृष्टि में
अव्यक्त गर्भ में बीज ही रहता है। बीज न होता तो इस प्रकार संस्थान-भेद जनक रश्मि
विशेष से और इच्छाशक्ति या सत्संकल्प के प्रभाव से भी सृष्टि होने की सम्भावना
नहीं रहती। इसीलिए योग और विज्ञान का परस्पर एक होने पर भी एक प्रकार से दोनों का
किंचित पृथकत्व रुप में व्यवहार होता है।
रश्मियों को शुद्धरुप से
पहचान कर उनकी योजना करना ही सूर्यविज्ञान का प्रतिपाद्य विषय है। जो साधक ऐसा कर
सकते हैं,
वे सभी सूक्ष्म-स्थूलादि कार्य करने का सामर्थ्य रखते हैं, इसमें
किंचित मात्र संदेश नहीं है । सुख-दुःख, पाप-पुण्य, काम-क्रोध, लोभ-मोह, प्रीति-अप्रीति,
जुगुप्सा, भ्रान्ति, भक्ति
आदि सभी चैतसिक वृत्तियाँ और संस्कार भी सूर्यरश्मियों के संयोग-वियोग के ही
परिणाम हैं । ऐसे में स्थूल पदार्थादि के विषय में कहना ही क्या ! जो साधक इस योजन-वियोजन, संघटन-विघटन-प्रणाली
को यथोचित रुप से जानते-समझते हैं, वे चाहें तो सब कुछ कर
सकते हैं- इसमें आश्चर्य नहीं । निर्माण वा संहार उनके लिए हस्तामलक तुल्य होता
है।
प्रसंगवश ये भी स्पष्ट कर दूं कि सूर्यविज्ञान की भांति ही हमारे यहाँ वायुविद्या,
वरुणविद्या, शब्दविद्या, क्षणविद्या, शब्दविज्ञान , चन्द्रविज्ञान,
नक्षत्रविज्ञान, मनोविज्ञान (आधुनिक साइकोलॉजी
नहीं) आदि अनेक विज्ञान प्रचलन में रहे हैं, जो कालान्तर में
लुप्तप्रायः होते चले गए हैं।
पूर्व प्रसंग में कहा जा
चुका है कि सूर्यरश्मियाँ अनेक हैं, किन्तु ध्यान रहे-
मूल प्रभा एक ही है- जो कि शुक्लवर्ण है ।
यही शुक्लवर्ण लाल, नीलादि के परस्पर मिलने के कारण विभिन्न
उपवर्णों में प्रकाशित होता है । शुक्लवर्ण से सर्वप्रथम रक्त-नीलादि प्रथम स्तर
का आविर्भाव होता है । शुक्ल से अतीत जो वर्णातीत तत्व हैं, उसके साथ शुक्ल का
संघर्ष होने से प्रथम भूमि का विकास होता
है। ये अन्तःसंघर्ष का परिणाम है । ये वर्णातीत तत्त्व ही चिद्रूपा शक्ति है । इस प्रथम
स्तर से परस्पर संयोग या वहिःसंघर्ष होने पर द्वितीय स्तर का आविर्भाव होता है ।
इन दोनों की तुलना यदि करें तो कहना चाहिए कि पहली वाली शुद्धसृष्टि है और दूसरी वाली मलिन सृ्ष्टि ।
अन्य विधि से विचार करें वा समझने का प्रयास करें तो कह सकते हैं कि ब्रह्म
एक और अखण्ड है, अविभक्त है, फिर भी
पुरुष और प्रकृति स्वरुप द्विधा विभक्त भी है । यही आत्मविभाग वा
अन्तःसंघर्षोत्पन्न स्वाभाविक सृष्टि है । निम्नवर्ती सृष्टि पुरुष और प्रकृति के
परस्पर सम्बन्ध वा वहिर्संघर्ष से आविर्भूत है- यही मलिन सृष्टि या कहें मैथुनी सृष्टि
है ।
सूर्यविज्ञान के मूल सिद्धान्त को समझने के लिए रश्मियों और वर्णों
को ठीक से हृदयंगम करना अत्यन्त
आवश्यक है । ऊपर जिन वर्णों की चर्चा हुयी- अवर्ण, शुक्लवर्ण,
मौलिक विचित्र वर्ण और यौगिक उपवर्ण इत्यादि सबको ठीक से समझने की
आवश्यकता है ।
ऊपर जो शुक्लवर्ण की बात कही
गयी—
शुक्लांवरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् । प्रसन्न वदनं
ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये।। इत्यादि कहकर त्रिगुणातीत,
तुरीयातीत सत्त्वस्वरुप विष्णु के इसी श्वेताम्बर स्वरुप की ओर
संकेत है । अब यहाँ इस भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं है कि सूर्यविज्ञान में
विशुद्ध सत्त्व की बात करते-करते ये विष्णु की बात कहाँ से आ गयी। आदित्यहृदय के
पाठक (साधक) इस बात को भलीभांति जानते हैं कि सूर्य, विष्णु
और शिव में रत्ती भर भी भेद नहीं है—
उदये ब्रह्मणे रुपं मध्याह्ने तु
महेश्वरः ।
अस्तमाने स्वयं
विष्णुस्त्रिमूर्तिश्च दिवाकरः ।
एवं
त्रिगुणं च त्रितत्त्वं च त्रयो देवास्त्रयोऽग्नयः ।
त्रयाणां च त्रिमुर्तिस्त्वं तुरीयस्त्वं
नमोऽस्तुते ।। (आदित्यहृदय)
वस्तुतः यही विशुद्ध सत्त्व है और इस श्वेत प्रकाश के ऊपर जो अनन्त
वैचित्र्यवर्ण प्रहेलिका निरन्तर चल रही है वही संसार है । विश्वलीला है ।
विश्वम्भर की लीला है । शक्ति के पथ से विचार करें तो कह सकते हैं कि
त्रिभुवनेश्वरी का लीलाविलास है ये सब । जैसा बाहर है वैसा ही भीतर भी— एक समान
कार्य-व्यापार जारी है । मकड़ी द्वारा स्वयं बनायी जाल की तरह, सृजन और विनाश, संघटन और विघटन का परिवर्तनशील खेल
नित्य-निरन्तर जारी है और हम अज्ञानवश विस्मित हैं इसे देख-देख कर । इतना ही नहीं
विवश भी हैं देखने-भोगने को ।
सौभाग्य से सदगुरु की कृपा से उपदिष्ट होकर इस श्वेतज्योति के स्फुरण को
प्राप्त करके, उसके ऊपर वाले यौगिक विचित्र उपवर्ण के
विश्लेषण से प्राप्त मौलिक चित्रित वर्णों को एक-एक करके अलग-अलग पहचानना होता है,
तभी आगे कुछ हो सकता है । ठीक वैसे ही जैसे आपको मुट्ठीभर मोती के
दाने दे दिए जायें तो सबको बारी-बारी से एक-एक करके गौर से देखना-पहचानना होगा या
सोने के कई टुकड़े दे दिये जायें तो उन्हें भी एक-एक कर कसौटी पर घिसना-परखना होगा
। किसी एक के देख-परख लेने से काम नहीं चलेगा ।
ध्यातव्य है कि मूल वर्ण को जानने के लिए श्वेत वर्ण का सहयोग अति आवश्यक
है । आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से देखें तो कह सकते हैं कि जिस प्रकाश में रंग
पहचानना है, वह प्रकाश यदि स्वयं रंगीन हुआ तो फिर उसके
द्वारा ठीक-ठीक रंग की पहचान कैसे हो सकती है ? रंगीन चश्मा
लगा करके किसी वस्तु के रंग का सम्यक् निर्धारण हम कैसे कर पायेंगे- सोचने वाली
बात है ।
महर्षि पतञ्जलि कहते हैं- योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।
चित्तशुद्धि की बात बारम्बार योगशास्त्र में की जाती है। क्यों कि चित्तशुद्धि हुए
वगैर तत्त्वदर्शन सम्भव नहीं । उसी भाँति वर्णशुद्धि हुए वगैर वर्णभेद का तत्त्व
दर्शित नहीं हो सकता और ये वर्णभेद का तत्व ही सूर्यविज्ञान का रहस्य है ।
इस संसार में हम जो कुछ भी देख पाते हैं वो सबके सब शुद्ध हैं ही नहीं,
सारे के सारे मिश्रण हैं। यानी कि सृष्टि के अन्दर शुद्धवर्ण कहीं
है ही नहीं । अतः इन मिश्रणों को बारी-बारी से श्वेत वर्ण की कसौटी पर परखने की
आवश्यकता होती है । किन्तु परख कौशल प्राप्ति हेतु पहले कसौटी तो चाहिए ही न ।
गुरु सानिध्य में सर्वप्रथम विशुद्ध शुक्लवर्ण को प्रस्फुटित करने की आवश्यकता है
। यहाँ ये कहने की आवश्यकता नहीं कि सारा संसार सादे कागज पर खेल रहा है । रंगों
के इस खेल को स्थान विशेष में अवरुद्ध कर देने मात्र से ही शुक्लवर्ण का तेज स्वतः
विकसित हो जाता है। फिर कुछ काल तक उसे वहीं रोके रखकर (स्तम्भित करके) उससे
पूर्वोक्त विचित्र वर्णो के स्वरुप को पहचानना होता है । इस प्रकार वर्णों की
सम्यक् पहचान हो जाने पर, संयोजन-वियोजन की कला का अभ्यास
करना होता है। दीर्घकाल तक ये क्रिया प्रशान्त और निरुद्विग्न चित्त से करते रहने
पर सृजन (परिवर्तन) की सफलता मिलने लगती है। वशर्ते कि चमत्कारों की दुनिया में धन
वा यश का भूत सवार न हो जाये । क्यों कि पतन का द्वार भी बिलकुल समीप ही है
यश-पिपासा की चौखट से ही उधर का मार्ग है ।
स्वामी विशुद्धानन्दजी के
दर्शन का सौभाग्य तो नहीं मिला है, किन्तु अन्य संतों
का दर्शन और कृपा प्रसाद अवश्य लब्ध हुआ है । तदनुसार, प्रसंगवश
स्वरुप परिवर्तन विषयक ज्ञात-श्रुत, कुछ सच्ची घटनाओं की
जानकारी देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ ।
घटना क्रमांक (क)
बिहार में एक ऐतिहासिक नगर है सासाराम (वर्तमान में रोहतास जिला मुख्यालय)
। यहाँ शिवानन्द सरस्वती नामधारी एक सन्त हुआ करते थे । लोग उन्हें गीताघाट के
बाबा के नाम से जानते हैं । आज भी सासाराम में उनका आश्रम है। बिलकुल एकान्त सेवी
सच्चे साधक थे ।
अपनी ख्याति की डंका बजाने के विचार से उनका ही एक शिष्य एक बार चमत्कारों
का प्रदर्शन करने की घोषणा कर बैठा । आसपास के लोगों में जंगल की आग की तरह ये खबर
फैल गयी कि एक महात्मा पधारे हैं नगर में, जो लोहे से सोना
बनाने की कला जानते हैं । अपनी शेखी में महात्मा ने ये भी कह डाला कि यदि मैं ऐसा नहीं कर पाया, तो इसी स्थान पर आत्मदाह कर लूंगा । स्वाभाविक है- ऐसी खबर पाकर काफी भीड़
जुट गयी । पुलिस-प्रशासन भी सक्रिय हो गया ।
महात्माजी के कथनानुसार
आवश्यक व्यवस्था कर दी गयी । जमीन में एक गड्ढा खोद दिया गया,
जिसमें घुस कर सात दिनों का अनुष्ठान शुरु हो गया । सातवें दिन अपार
भीड़ जुटी- आज सबको लोहे से सोना बनता देखने का सौभाग्य मिलेगा । चौकसी भी बढ़ा दी
गयी। विज्ञान के युग में भला ऐसी बातों पर किसे विश्वास होता । फिर भी कौतूहल तो
सहज मानव स्वभाव है ।
घोषित समय बीतने लगा । गड्ढे में
वैठे हाथ में लोहे का एक टुकड़ा लिए ध्यानस्थ
महात्माजी को पसीना छूटने लगा । घोषित समय पर सोना नहीं बना तो, समाज को छलने के आरोप में हथकड़ी निश्चित लगनी थी, क्यों
कि आत्मदाह तो कोई करने नहीं देता ।
अचानक भीड़ को चीरते स्वामी शिवानन्दजी का पदार्पण हुआ। कभी क्रोध न जताने
वाले, ओजपूर्ण चेहरे पर क्रोध का सामाज्य था । बिना कुछ बोले
सीधे गड्ढे के समीप गए और हाथ लटका कर तपाक से चेले के हाथ से लोहे का टुकड़ा उठा
लिए । साथ ही दूसरे हाथ से उसे खींचते हुए ऊपर घसीट लाये— " नालायक कहीं का यही
सब तमाशा दिखाने के लिए तूने विद्या सीखी थी ? अपने साथ मुझे
भी डुबायेगा ? "
इतना कह कर हाथ में पकड़े
लोहे पर अपना दूसरा हाथ फेरने लगे - मानों उस पर पड़ी धूल झाड़ रहे हों और कड़क कर
बोले- “
मूर्ख, पापिष्ठ ! जरा आँखें खोल कर देख तो -
ये लोहा तो कब का सोना बन चुका है । अब तुम्हें नहीं दिखता तो तुम्हारी आँखों का
दोष है न ! ”
उपस्थित जनसमुदाय अचम्भित था । कुछ पल पूर्व स्वामीजी के हाथों में पड़ा
लोहे की सरिया सच में सोने की सरिया में परिवर्तित हो चुका था । प्रशासन स्वामीजी
के चरणों में नतमस्तक हो गया । पूर्व वाले महात्मा की पलकें नीचे झुकी हुयी थी,
लज्जित होकर ।
उक्त प्रसंग में ध्यान देने की बात ये है कि लोभ
या यश की कामना से तन्त्र का प्रयोग कदापि न किया जाये । उस अ-सिद्ध ने यही भूल की,
जिसका परिणाम हुआ कि क्रिया(प्रयोग) फलीभूत होकर भी अलक्षित रही ।
सूर्यविद्या ने लोहे को सोने में संघटित तो कर लिया, किन्त
उसे अक्षुण्ण न रख पाया । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि प्रयोग अधूरा रह गया ।
घटना क्रमांक (ख)
मगविभूति
श्रीविश्वनाथशास्त्रीजी सिर्फ पराविद्या के जानकार ही नहीं अद्वितीय विद्वान और
साधक भी थे । शास्त्रीजी मेरे चाचाजी पं.बालमुकुन्द पाठक जी के अभिन्न मित्र थे और
इन दोनों के एक मित्र थे (नाम स्मरण नहीं) जो सूर्यविज्ञान के अद्भुत साधक थे। उनके
जीवन की बड़ी विचित्र घटना है ।
एक बार उनकी पत्नी ने अचानक
मैके जाने की इच्छा प्रकट की। कारण पूछने पर पत्नी ने कहा कि भैया दो दिनों बाद
सन्यास लेने वाले हैं । इसकी घोषणा वर्षो पहले कर चुके हैं।
महानुभाव मुस्कुराये— “ ऐसे भी भला कोई सन्यास लेता है क्या- वर्षों पूर्व घोषणा करके ? ”
पत्नी तो पत्नी होती है, भाई
के विषय में ऐसा मजाक कैसे सहन कर पाती । पति ने समझाते हुए कहा- “
देखो भाग्यवान ! तुम्हें मैके जाना है तो जाओ।
कोई रोक नहीं रहा है, किन्तु घोषित सन्यास गले से उतर नहीं रहा है। क्योंकि सन्यास
अचानक घट जाने वाली घटना है।”
कुछ और समझाने पर बात और
विगड़ गयी । पत्नी ताना मारने लगी— “ इतना आसान है तो
तुम भी सन्यास ले क्यों नहीं लेते ।”
पति फिर मुस्कुराये । चट
चोला बदले और घर से बाहर हो गए। बहुत दिनों तक कुछ अता-पता न मिला ।
मौलिक
सन्यास ऐसे ही उतर जाता है जीवन में । तैयारी से उतारा गया सन्यास स्थायी नहीं हो
सकता कदापि ।
वे ही महानुभाव एक बार यज्ञ
का आयोजन किये वाराणसी में । यज्ञान्त भण्डारा में अप्रत्याशित जन-सैलाब उमड़ा । रात
करीब बारह-एक बजे किसी सेवक ने चिन्ता जतायी— “ महाराज जी ! घी तो बिलकुल खतम हो गया । अभी बहुत लोग जिमने को बाकी हैं । ”
महाराजजी ने पल भर विचार
किया, फिर बोले— “ चिन्ता न करो । बिना प्रसाद पाये कोई नहीं जायेगा यहाँ से । दो-तीन खाली
टीन ले आओ और जाकर गंगाजी से जल भर लाओ । ”
महाराजजी के आदेश का पालन
हुआ । पांच टीन गंगाजल लाया गया। महाराजजी एक–एक कर पाँचो टीनों को उठाये और
कड़ाही में उढेलना शुरु किये । देखने वाले अचम्भित थे- गंगाजल की जगह शुद्धघी गिर
रहा था कड़ाही में।
अगले दिन महाराजजी ने बाजार
खुलने पर पाँच टीन शुद्धघी मंगवाया और सेवकों को कहा कि जाकर गंगाजी को लौटा आओ।
सेवक टीन उठाकर गंगातट पर
पहंचे । टीन खोला गया । और उढ़ेलते समय भी वैसा ही चमत्कार हुआ- बाजार से लाया गया
घी, गंगाजल के स्वरुप में गंगा में विसर्जित हो गया ।
ये कोई बाजीगरी नहीं, कोई
सम्मोहन नहीं, प्रत्युत सूर्यविज्ञान का जात्यन्तरपरिणाम है । सूर्यविज्ञान
का साधक सृष्टि और संहार दोनों ही सहज ही करने में समर्थ है, किन्तु ध्यान रहे-
सूर्यविज्ञान कोई तमाशा नहीं ।
स्वामी विशुद्धानन्दजी ऐसे
चमत्कार अपने कई शिष्यों को समय-समय पर दिखाते रहे हैं, प्रयोग भी कराते रहे हैं ।
उद्धव नारायण उनके विशेष प्रिय शिष्यों में एक रहे हैं। उन्होंने अग्निवाण,
वरुणवाण, वायुवाण आदि कई प्रयोग देखा है । इनकी चर्चा स्वामी श्रीयोगानन्दजी ने
अपनी आत्मकथा “ योगी कथामृत ” में विस्तार से की है।
घटना क्रमांक (ग)
एक और मगविभूति को मैं बहुत
करीब से जानता हूँ । सूर्यतन्त्र के अद्भुत साधक रहे हैं वे । यही कोई पचास वर्ष
पहले की ही तो बात है। उन दिनों उनका प्रवास राँची में हुआ करता था । विशुद्ध
गृहस्थ जीवन में रहते हुए गुप्त रुप से साधना रत रहते थे । परिवार सीमित था ।
पत्नी को हिदायत थी कि रात में सोते समय उनके कमरे में कोई न आवे । और न बाहर से
ही छेड़-छाड़ की जाये । संयोग की बात या कहें परमात्मा की लीला—एक रात अचानक पत्नी
की तवियत खराब हो गयी । चुँकि कष्ट असह्य था, ऐसे में अचानक उनके कमरे में जा घुसी
। और फिर जो घटित हुआ- वो न भूतो न भविष्यति बन कर रह गया ।
पत्नी ने देखा – एक बहुत
बड़ा आग का चक्र है कमरे में- बिलकुल बैलगाड़ी के चक्के की तरह, जिसके बीचोबीच पति
ध्यान-मग्न बैठे हैं। आहट पाकर पति का शरीर पल भर के लिए जोरों से कम्पायमान हुआ
और अगले ही क्षण खपरैल का छप्पर धू-धूकर जल उठा । उस घटना के बाद अचानक पंडितजी गायब
हो गए और फिर कहीं नजर नहीं आए किसी को आजतक। लोगों ने यही समझा कि उसी अग्निकांड
में दग्घ हो गए। किन्तु बात ऐसी नहीं ।
वस्तुतः वे सूर्यमण्डल की
साधना में लीन थे । अन्तःमण्डल को बाह्यतल पर उतार कर क्रियालीन थे । अचानक की आहट
ने ठीक से संयमित होने का अवसर ही नहीं दिया । चक्राकार वाह्य सूर्यमण्डल को
आत्मसात नहीं कर पाये, फलतः अग्नि अपना कार्य कर गुजारा ।
पुनः मुख्य प्रसंग पर आते हैं—
ध्यातव्य है कि कुछ वर्णों के निर्दिष्ट क्रम मिलने पर ही निर्दिष्ट वस्तु
की नूतन सृष्टि हो पाती है । किंचित मात्र भी क्रम भंग करने से ऐसा नहीं हो पाता ।
ये कुछ कुछ वैसा ही है जैसे कोई चित्रकार उपलब्ध मूल रंगों को खास अनुपात में
मिश्रित करके एक नये रंग (शेड) की रचना कर लेता है और फिर उससे नयी चित्रकारी करने
में सफल होता है। रसायनशास्त्री को भी इसी भांति रसायन की निर्दिष्ट मात्रा का सदा
ध्यान रखना अपरिहार्य होता है । वर्ण-योजना का सम्यक खेल ही नूतन सर्जना है। किस
वस्तु में कौन से वर्ण किस क्रम से व्यवस्थित रहते हैं यह सीखना-जानना होता है।
जगत के यावत् पदार्थ ही जब मूलतः वर्णसंङ्कर्षजन्य हैं, तब जो पुरुष वर्ण-परिचय तथा वर्ण-संयोजन और वियोजन की प्रणाली सम्यक् रुप
से जानते हैं, उनके लिए उन-उन पदार्थों का सृजन और संहार अति
सरल होता है।
सृजन प्रक्रिया को और भी स्पष्ट करने हेतु किंचित उदाहरणों के द्वारा
विचार करते हैं । सबसे पहली बात ये ध्यान में रखने योग्य है कि जो भी पद और पदार्थ
हम देख रहे हैं, सामान्य तौर पर हम वस्तु और उनकी संज्ञा की
बात करते हैं- जैसे कमल, गौ, वृषभ,
सर्प,श्वान इत्यादि । ये सभी अन्य भाषाओं की तरह मात्र संज्ञाशब्द
नहीं हैं, बल्कि एक पद हैं, जिनसे पदार्थ
का सम्यक् बोध होता है। भले ही Book, Table जैसे अंग्रेजी के
संज्ञा शब्दों से एक जाने-पहचाने वस्तु का बोध भी हो जाता है, किन्तु फिर भी इनमें मौलिक समानता नहीं है । कमल की अपनी विशिष्ट वर्ण (रश्मि)
योजना है, जबकि Book रोमन के चार
अल्फावेट से बना एक शब्द मात्र है, जिससे किताब का बोध होता
है। सृष्टि-सिद्धान्त के अनुसार कमल एक पदार्थ है, जबकि Book
कोई पदार्थ नहीं है, वस्तु भले हो सकता है। Book को
हम copy
भी कह सकते थे, इसी संज्ञा का चलन समाज में
चला सकते थे, और चल भी जाता जो हम चला देते, किन्तु कमल या गौ के साथ ऐसा चलन कदापि नहीं हो सकता । कमल को हम मकल नहीं
कह सकते, क्यों कि वो शाश्वत वर्णयोजना पर आधारित है । क-म-ल
की वर्णयोजना से कमलपुष्प का सृजन हुआ है और पा-ट-ल से पाटलपुष्प का । कमल सिर्फ
और सिर्फ कमल ही है, वह पाटल कदापि नहीं हो सकता और न कहा ही
जा सकता है। इसमें हम चाह कर भी हेर-फेर कदापि नहीं कर सकते ।
यहाँ मेरे कथन से आपको कुछ भ्रम हो, किन्तु आगे की
सृष्टि-संचरना-प्रक्रिया और वर्णों (रश्मियों) का परिचय (ज्ञान) प्राप्त हो जाने
पर ये बात बिलकुल स्पष्ट हो जायेगी । वर्णों को एक विशिष्ट क्रम में विशिष्ट विधि
से समायोजित करने पर वांछित पदार्थ का सृजन होता है- पूरी सृष्टि में यही खेल चल
रहा है महामाया का - प्रकृति देवी का लीलाविलास ।
स्रजक (साधक) क-म-ल इन तीन
रश्मियों (वर्णों) को क्रमशः श्वेत वर्ण के ऊपर प्रक्षेपित करेगा एक खास विधि से
और कमल का सुगन्ध मिलना शुरु हो जायेगा ।शुद्धसत्त्व ही वास्तविक आकर्षण-शक्ति का
मूल है ।
ध्यान रहे सृष्टिक्रम का पहला
तत्त्व आकाश है और इसकी तन्मात्रा है शब्द । इसी भाँति अन्तिम तत्त्व है पृथ्वी और
इसकी तन्मात्रा है गन्ध । आकाश से पृथ्वी (सूक्ष्म से स्थूल) तक की यात्रा सम्पन्न
होते-होते पदार्थ का सृजन हो जायेगा ।
सृष्टि में जो कुछ भी है वो सब पञ्च तत्त्वात्मक ही है। किन्तु ध्यान रहे
- ऐसा नहीं कि एक ही साथ शीघ्रतापूर्व क-म-ल को श्वेतवर्ण पर प्रक्षेपित कर देंगे,
क्यों कि इससे कुछ भी उपलब्धि नहीं होगी । सृजन हेतु नियत 'काल' का भी महत्व है । उसका भी अपना योगदान है ।
सृष्टि काल में ही सम्पन्न होती है और काल में विनष्ट (समाहित) भी होती है। '
क्रम ' काल का धर्म है। क्रमोलङ्घन असम्भव है,
व्यर्थ है, अस्रजक भी । अतः सत्वशोधन करके
पहले 'क' वर्ण को डालेंगे, फिर क्रमश 'म’ और ‘ल’ वर्णों को और इस प्रकार कमल नामधारी पदार्थ का प्रत्यक्ष सृजन हो जायेगा।
और इस प्रकार जो एक कमल का सृजन कर लेगा, वो अनेक का भी कर
लेगा सहजता से, क्यों कि सृष्टि 'मात्रा'
में बन्धित नहीं है । अपार है । अनन्त है । असीम है ।
प्रसंगवश एक बात और स्पष्ट कर दूं कि सर्व पदार्थो की अव्यक्त सत्ता सदा
उपस्थित है। सृष्टि (सृजन) क्रम में सिर्फ अव्यक्त व्यक्त में परिवर्तित होता है
और प्रलय काल में पुनः अव्यक्तावस्था को प्राप्त हो जाता है। जिसकी अव्यक्त सत्ता
नहीं है,उसको कदापि व्यक्त नहीं किया जा सकता।
उक्त प्रक्रियाओं से पदार्थ
के सृजन के पश्चात् उसकी अक्षुण्णता का भी प्रबन्ध करना होता है । सूर्यविज्ञानी यही करता है । प्रकृति के कार्य
को देख कर उस पर अधिकार करने की चेष्टा करता है। जिस वस्तु को जिस मात्रा में चाहे
तो सृजित कर सकता है। साधक को अपनी आन्तरिक ऊर्जा का विकास और प्रस्फुटन करके,
ये सब करना होता है।
पुनः यहाँ ये स्पष्ट कर दूं
कि त्रिधाविभज्य सृष्टि में ये ब्राह्मी सृष्टि हुयी। इसे वैज्ञानिक सृष्टि भी कह
सकते हैं (आधुनिक भौतिकी-रसायन वाला नहीं) । ऐश्वरिक और परा दो और सृष्टियाँ हैं,
जो क्रमशः ऊपर-ऊपर (श्रेष्ठ-श्रेष्ठ) हैं ।
अबतक के प्रसंगों में सृष्टि को
वर्ण (रश्मि) साधना का खेल कहा गया । ज्ञातव्य है कि सामान्यजन जिसे वर्ण कहते हैं,
वह सूर्यविज्ञान-विद् की दृष्टि में सही वर्ण बिलकुल नहीं है,
प्रत्युत वर्णों की छटामात्र है। शुद्ध तत्त्व का आश्रय लिए बिना
वास्तविक वर्ण का परिचय पाना कठिन ही नहीं, असम्भव है।
काकतालीय न्याय व्यवस्था से भी रास्ता नहीं निकल पाता यानी तर्क और अनुमान भी यहाँ
कदापि कारगर नहीं होते । चुँकि एक ही वर्ण से सृष्टि नहीं होती, बल्कि एकाधिक शुद्ध वर्णों के संयोग से होती है, इसलिए
सारे तर्क निरस्त हो जाते हैं।
प्राचीन काल में हमारे यहाँ वैदिक
साधकों की तरह तान्त्रिक साधक भी इस रहस्य के
सम्यक् ज्ञाता हुआ करते थे । इसलिए विद्वानों ने भारतीय संस्कृति को
वैदिक-तान्त्रिक समिश्रण की गंगा-जमुनी छटा के रुप में विश्लेषित किया है। हमारी संस्कृति न तो विशुद्ध वैदिक है और न
विशुद्ध तान्त्रिक, प्रत्युत अद्भुत मिश्रण है। यही कारण है
कि बहुत मामले में ये सुनिश्चित करना कठिन हो जाता है कि हमारी कौन सी परम्परा
वैदिक और कौन सी परम्परा तान्त्रिक है। श्रीमद्भागवत में इस मिश्र संस्कृति का
विशद विवरण मिलता है । किसी को हेय और किसी को श्रेष्ठ कहने-मानने का भ्रम हो
जिन्हें उन्हें श्रीमद्भागवत के दशमस्कन्ध का गहन मनन-चिन्तन अवश्य करना चाहिए ।
श्रीकृष्ण से बड़ा तो कोई तान्त्रिक हो ही नहीं सकता और सूर्यविज्ञान का ज्ञाता भी
। इसीलिए श्रीकृष्ण को योगेश्वर कहा गया है। श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय के
प्रारम्भ में श्री कृष्ण कहते हैं—
इमं विवश्वते योगं
प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह
मनुरिक्ष्वाकवेऽव्रवीत् ।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो
विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतपः
।।
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः
पुरातनः ।
भक्तोऽसि में सखा चेति रहस्यं
ह्येतदुत्तमम् ।।
इस सूर्यविज्ञान से महान कोई और योग नहीं है, जो
कालान्तर में कालगर्त में समाहित हो गया । योग्य काल और योग्य पात्र को पाकर
अर्जुन को ये ज्ञान दिया गया कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में । गीता अध्याय ग्यारह
श्लोकसंख्या ५ से ८ तक के प्रसंगावलोकन से स्पष्ट होता है कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन
की विविध शंकाओं का सिर्फ सैद्धान्तिक समाधान ही नहीं किया, प्रत्युत
प्रमाणस्वरुप अपेक्षित दर्शन हेतु तात्कालिक दिव्यचक्षु भी प्रदान किया, ताकि वह स्वयं देख-परख सके इच्छित घटनाओं, पात्रों
और बिम्बों को ।
आमतौर पर " दिव्यचक्षु "
से " आज्ञाचक्र " के प्रस्फुटन और क्रिया पर ध्यान चला जाता है,
किन्तु यहाँ सीधे " सूर्यकेन्द्र " पर प्रहार था
श्रीकृष्ण का। ये दिव्य चक्षु कुछ और नहीं
प्रत्युत सूर्यविज्ञान की अद्भुत कला ही थी, जिसका प्रस्फुटन कृष्ण ने सुअवसर पाकर
कर दिया । श्रीकृष्ण कहते हैं—
पश्य मे पार्थ रुपाणि शतशोऽथ
सहस्रशः ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि
च।।....
न तु मां शक्यसे
द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्
।।
विविध वर्णों और आकृतियों का तुम
दर्शन (अनुभव) करो....। श्रीकृष्ण ने यहाँ अपनी शक्ति का किंचित संयोजन किया
अर्जुन के लिए,
वो भी मात्र थोड़े समय के लिए । ये शक्ति कुछ और नहीं बल्कि
सूर्यशक्ति ही थी, सौरविद्या ही थी ।
गुरुकृपा साधक सुदीर्घ अभ्यास से
स्थायी शक्ति और ज्ञान प्राप्त करता है, जो कि तबतक
कार्ययोग्य रहता है, जबतक वो उसका दुरुपयोग न करे । यहाँ तक
कि शरीर के नष्ट होने के बाद भी, पुनर्जन्म में भी पतञ्जलि
के " जातिस्मरसिद्धान्त " के अनुसार कार्यशील रहता है , जिसका समय पर जातक को स्वतः स्फुरण हो जाता है और पुनः किसी बाहरी सहयोग
की अपेक्षा नहीं रहती ।
इस सम्बन्ध में भी गीता की पुष्टि मिलती है—
तत्र तं बुद्धिसंयोगं
लभते पौर्वदेहिकम् ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।।
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि
सः ।
(गीता
अध्याय ६ श्लोक ४३ एवं ४४ का पूर्वार्द्ध)।
हालाकि यहाँ साधना के मध्य में ही साधक की मृत्यु के सम्बन्ध में अर्जुन
की शंका का समाधान किया गया है, फिर भी जातिस्मर सिद्धान्त
की पुष्टि तो हो ही रही है इससे भी । सच पूछें तो साधना-प्रक्रिया के सम्बन्ध में
गीता के निर्देश को हृदयंगम करना अपने आप में परिपूर्ण माना जा सकता है। परिचय से
लेकर प्रक्रिया तक की सारी बातें बहुत ही सरल ढंग से स्पष्ट की गयी है वहाँ,
भले ही लोग विहंगमदृष्टिपात करते हुए पाठ मात्र कर लेते हैं ।
साधकों को इस बहुमूल्य ग्रन्थ का बारम्बार अवलोकन, मनन,
चिन्तन करना चाहिेए ।
हमारे पूर्ववर्ती महानुभाव मन्त्रज्ञ, मन्त्रेश्वर
और मन्त्रमहेश्वर के पद पर विभूषित हुआ करते थे, जो ज्ञान के
क्रमिक विकास और अभ्यास का प्रतीक है। उन महानुभावों को षडत्त्वशुद्धि का रहस्य
ज्ञात था । उन्हें ज्ञात था कि वर्ण और कला नित्य संयुक्त हैं । वर्ण से मन्त्र और
मन्त्र से पदका विकास जिस तरह वाचक भूमि पर होता है, उसी तरह
वाच्य भूमि पर कला से तत्त्व और तत्त्व से भुवन तथा कार्यपदार्थ की उत्पत्ति होती
है । वाक् और अर्थ के नित्यसंयुक्त होने के कारण जिन्होंने वर्ण को अधिकृत किया है,
उन्होंने कला को भी अधिकृत कर लिया है। यही कारण है कि स्थूल,
सूक्ष्म और कारण जगत् में उनकी गति अबाधित होती है ।
ध्यातव्य है कि समस्त जगत्
देवताओं द्वारा संचालित है । देवशक्ति ही सबके मूल में है । एक बात और दृढ़ता पूर्वक
समझ लेनी चाहिए कि देवता कुछ और नहीं, प्रत्युत मन्त्रों
का ही अभिव्यक्त स्वरुप हैं। देवता और मन्त्र में तत्वतः रत्ती भर भी भेद नहीं है।
साधक जिन वाचिक मन्त्रों की साधना करता है, उसी प्रयत्न
विशेष से देवस्वरुप आविर्भूत होता है। बिना मन्त्र के देवता नहीं हो सकते, ठीक उसी भांति जैसे बिना बीज के वृक्ष की उत्पत्ति नहीं हो सकती । जिसे हम
देवता का प्रकट होना या दर्शन देना कहते हैं वस्तुतः वो मन्त्र रुपी बीज से देवता
रुपी वृक्ष का प्रकट होना ही सिद्ध है। जपात् सिद्धि जपात् सिद्धि जपात् सिद्धि
वरानने...इन्हीं बातों का संकेत है। ‘जपेन्
‘ सिद्धि कदापि नहीं, जपते-जपते सिद्धि स्वतः
लब्ध हो जाती है, हठात् , मानो पेड़ से टूट कर कोई पीला
पत्ता भूमिष्ठ हो जाता है- जपात्- यही तो इशारा है, जो आम
लोग प्रायः समझ नहीं पाते ।
सद्गुरु प्रदत्त सूक्ष्म
ध्वनियों (वाचिक स्थूल पद (शब्द) नहीं, मन्त्र की ध्वनि) को
आत्मसात करते हुए, उन्हीं की आवृति साधक को करना होता है और
वही ध्वनि एक दिन स्वरुपाकार हो जाती है ।
दैवाधीनं
जगत् सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवताः ।
ते मन्त्राः ब्राह्मणाधीनास्तस्माद्
ब्रह्मणदेवता ।।
जो वर्णतत्वविद पुरुष वर्णसंयोजन के द्वारा मन्त्र का गठन कर सकता है,वही मन्त्रेश्वर है। ऐसा पुरुष देवताओं का भी निश्चित रुप से नियामक है।
आधुनिक विज्ञान (सांयन्स) ने
ऊर्जा के विभिन्न स्वरुपों का परिवर्तन और परिवर्द्धन सीख-जान लिया है—
अपनी शैली में । ध्वनि को प्रकाश और प्रकाश को ध्वनि में बदलने का
सफल प्रयोग कर चुका है और इससे आमजन को भी विविध उपकरणों के रुप में सुलभ करा चुका
है । इन तथ्यों पर विचार करके, पूर्व सिद्धान्तों को
समझना-मानना और भी सरल हो गया है। जिन
सिद्धान्तों को आज से पचास वर्ष पहले हम किसी को समझा नहीं सकते थे, जो कि आधुनिक विज्ञान के कौशल से, वो अब बहुत ही
आसान हो गया है। अस्तु ।
क्रमशः....
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