सूर्यविज्ञानःआत्मचिन्तन भाग 1


notionpress.com पर मेरी प्रकाशित पुस्तकों की सूची में सूर्यविज्ञान आत्मचिन्तन भी शामिल हो चुका है। इच्छुक बन्धु इसे वहीं से ऑडर कर मंगवा सकते हैं। फिलहाल यहां धारावाहिक रुप में इसे प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस लिंक पर आप देख सकते हैं--https://notionpress.com/read/surya-vigyan-aatmachintan



                           मगकुलाब्ज
             सूर्यतन्त्र प्रेमियों को सस्नेह समर्पित
सूर्याष्टकम्

साम्ब उवाच— 
आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर ।
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तुते ।।१।।
सप्ताऽश्वरथमारुढं प्रचण्डं कश्यपात्मजम्
श्वेतपद्मधरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ।।२।।
लोहितं रथमारुढं सर्वलोकपितामहम् ।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ।।३।।
त्रैगुण्यं च महाशूरं ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वरम्
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ।।४।।
बृंहितं तेजपुञ्जं च वायुराकाशमेव च ।
प्रभुस्त्वं सर्वलोकानां तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ।।५।।
बन्धूक-पुष्प-संङ्काशं हार-कुण्डल-भूषितम्।
एकचक्रधरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ।।६।।
तं सूर्यं जगत्कर्तारं महातेजः प्रदीपनम् ।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ।।७।।
तं सूर्यं जगतां नाथं ज्ञान-विज्ञान-मोक्षदम् ।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ।।८।।
सूर्याष्टकं पठेन्नित्यं ग्रहपीडाप्रणाशनम् ।
अपुत्रो लभते पुत्रं दरिद्रो धनवान् भवेत् ।।९।।
आमिषं मधुपानं च यः करोति रवेर्दिने ।
सप्तजन्म भवेद्रोगी जन्म-जन्म दरिद्रता ।।१०।।
स्त्री-तैल-मधु-मांसानि यस्त्यजेत्तुरवेर्दिने ।
न व्याधि-शोक-दारिद्र्यंम् सूर्यलोकं सगच्छति ।।११।।

                                          ॐ श्री भुवनभास्कराय नमः
                                          पुरोवाक्
            सूर्यविज्ञान, सूर्यतन्त्र, सावित्रीविद्यादि विषयक अनेक प्राचीन एवं नव्य ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किन्तु विशिष्ट विद्वतापूर्ण होने के कारण सामान्य जिज्ञासुओं के लिए पर्याप्त-दुरुह  हैं ।  इस विषयक अध्ययन, मनन, चिन्तन और अभ्यास सुदीर्घकाल  से  चल रहा है और ये योजना भी बहुत पहले ही बन चुकी थी कि इस विषय पर कुछ ऐसा संकलन व्यवस्थित किया जाये, जो सामान्य जिज्ञासुओं के लिए विशेष उपयोगी हो सके । किन्तु तभी ये विचार आया कि इतने महान और रहस्यमय विज्ञान के विषय में बतलाऊँ तो किसे, कहूँ तो किससे !
            सूर्य का विशिष्ट उपासक-साधक कहा-माना-जाने वाला मगसमाज, जिसे श्रीकृष्ण की कृपा से और वैनतेय गरुड़ के सहयोग से अब से कोई साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व आर्यावर्त की पावन भूमि पर लाकर प्रतिष्ठित किया गया था, दिव्यलोक शाकद्वीप से; किन्तु विडम्बना ये है कि गतकलि के मात्र ५१२० वर्ष की अल्पावधि में ही सूर्यांश कहा जाने वाला दिव्यजन्मा शाकद्वीपीय व्राह्मण बिलकुल संस्कारहीन होकर स्वयं दिग्भ्रमित हो गया । अपना सही परिचय और पहचान खो बैठा । अपनी असीम शक्ति गवां बैठा और महान कर्तव्य से च्युत हो गया । सूर्यांशों पर मूढ़ता की घनेरी वदली छा चुकी है । वह बिलकुल निःस्तेज प्रायः हो चुका है – महर्षि गौतम शापित भूलोक के अन्यान्य द्विजों की तरह ।  अतः सूर्यविज्ञान पर कुछ कहने-लिखने से पहले आवश्यक लगा कि उस दिग्भ्रमित बन्धुवर्ग को ही पहले उद्बोधित किया जाय । यही सोच कर   "सूर्यविज्ञान:अद्भुत सृष्टिविज्ञान " के संकलन  की योजना को स्थगित कर, मगदीपिका की तैयारी में लग गया ।
            भगवान भुवनभास्कर की कृपा प्रसाद से तीन वर्षों के कठिन श्रम से मगदीपिका का सम्पादन-कार्य सम्पन्न हुआ और " पुण्यार्कमगदीपिका " के रुप में श्री सुमंगलम् प्रकाशन, मैनपुरा, अरवल से प्रकाशित होकर आप प्रियजनों के अवलोकनार्थ सुलभ भी हो गया । किन्तु विडम्बना ये है कि इस शोधपुस्तिका  के प्रति भी मगबन्धुओं की अभिरुचि और औत्सुक्य के विपरीत, उदासीनता ही
दीख पड़ी ।
            अस्तु । अवसर पाकर पुनः सूर्यविज्ञान पर प्रकाश डालने का कार्य पुनः प्रारम्भ कर रहा हूँ । 
सच पूछें तो मैं कोई विद्वान नहीं हूँ। सिद्ध होने का तो प्रश्न ही नहीं । साधक भी नहीं हूँ । वस, विद्याव्यसनी, प्रयोगवादी और अभ्यासी भर हूँ । सामान्य शैली में कहें तो ' रगड़ी ' कह सकते  हैं । घोर कलिकाल और अर्थप्रधान युग में जहाँ आध्यात्मिक गुरुदीक्षा भी बहुराष्ट्रीय व्यापार की श्रेणी में आ गया है । विविध चोलाधारी गुरुओं और आश्रमों की बाढ़ आ गयी है ।  ऐसे में स्थूल सद्गुरु पाऊँ तो कहां से ? अतः " कृष्णंवन्देजगदगुरु " की स्वीकृति पूर्वक, राधामाधव श्रीविग्रह के पतितपावन चरणों में नतमस्तक होकर, कुछ-कुछ करते रहता हूँ ठीक वैसे ही जैसे किसी अभिभावक के समक्ष नादान बालक तरह-तरह की क्रीड़ायें करता है।  तरह-तरह के सैद्धान्तिक-व्यावहारिक प्रयोग स्वयमेव करते रहता हूँ और ईश्वर कृपा तथा पूर्वजों के आशीर्वाद से इस बीच कुछ स्वाद, जो मिल जाता है कभी , उसी का रसास्वादन आप सबको कराने को आतुर हो जाता हूँ, जैसे बच्चियाँ खेल-खेल में तरह-तरह की खाद्य-सामग्री बनाती हैं और उसे माता-पिता-भाई-बहन-सहेलियों को चखाने की चेष्टा करती हैं - ये सुनने के लिए कि बहुत बढ़िया है ।
            मेरी ये कृति कैसी बन पायी और आपके लिए कितना उपयोगी हो पायी हैये तो आप सुधी पाठक ही बता सकते हैं । हां, मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूँ कि इसमें मेरा कुछ नहीं है । ऋषि-महर्षि एवं पूर्व के विद्वतजन जो कुछ मार्गदर्शन करा गए हैं, उसी का संकलन भर है ये पुस्तिका । मोती चुनने भर का काम मैंने किया है सिर्फ । ठीक से उन मोतियों की माला भी गूथने नहीं आया है मुझे । संकलन में जो भी त्रुटियाँ दिखें, उसके लिए निश्चित रुप से मैं उत्तरदायी हूँ । क्यों कि भाव, भाषा और शैली तो मेरी ही है न , वो तो ऋषियों का नहीं है ।  अतः अशुद्धियाँ या कि त्रुटियाँ तो मेरे प्रमाद और मेरी अज्ञानता के कारण ही होंगी न। तदर्थ विनम्र क्षमाप्रार्थी हूँ । पुस्तिका आपके लिए यत्किंचित उपयोगी और मार्गदर्शिका बन पायी यदि तो मैं अपना श्रम सार्थक समझूं ।
            अस्तु ! ये स्पष्ट कर दूं कि तत्सम्बन्धी सामान्य शंका-समाधान तो आप मुझसे करने का अधिकार रखते ही हैं, किन्तु गुरु या निर्देशक बनाने का आग्रह कदापि न करें, क्यों कि मैं इस योग्य बिलकुल नहीं हूँ । अस्तु ।
श्रीराधाष्टमी, विक्रमाब्द २०७६   


निवेदक- कमलेश पुण्यार्क, 
मैनपुरा, चन्दा, 
वाया-कलेर, 
जि.अरवल, बिहार,  मो.८९८६२८६१६३                              
                                                                                                                                        
                                 
  
                 चिन्तनानुक्रमणिका
   
   चिन्तनक्रम   — चिन्त्यविषय          —         पृष्ठांक
१. प्रथम चिन्तन -   सूर्यविज्ञान : मगों का मूल तन्त्र       ----   ९.
२. द्वितीय चिन्तन-  सूर्यविज्ञान : सृजन और चमत्कार    ---- १३.
३.तृतीय चिन्तन -   सूर्यविज्ञान : उद्बोधन और प्रक्रिया    ----२०. 
४.चतुर्थ चिन्तन -   सूर्यविज्ञान : वर्णमातृका परिचय      ----३७.
५.पञ्चम चिन्तन -   सूर्यविज्ञान : वर्णानुसंधान              ----७७.
६.षष्टम चिन्तन -   सूर्यविज्ञान : सन्मार्ग-अनुसन्धान      ----८९.
७.सप्तम चिन्तन -   सूर्यविज्ञान :  आदित्यहृदय का सुपथ ----९५.
८.अष्टम चिन्तन-    सूर्यविज्ञान :  गायत्री बीज-प्रस्फुटन ----१०२.
 .नवम चिन्तन –  सूर्यविज्ञान : जप रहस्य          ----     १२१.
१०.दशम चिन्तन - सूर्यविज्ञान : भूतशुद्धि प्रक्रिया   ---      १३२.
११.एकादश चिन्तन- सूर्यविज्ञान : वैदिक-पौराणिक वाङ्मय-१३८.  
१२.द्वादश चिन्तन-   सूर्यविज्ञान : उपसंहार             ---    १४७                                
        परिशिष्ठ – चाक्षुषोपनिषद् एवं सूर्याष्टोत्तरशतनामावलि
                        क्रमशः जारी... 

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