चतुर्थ
चिन्तन
सूर्यविज्ञान :: वर्णमातृका परिचय
(प्रथम अंश)
पुनः मुख्य प्रसंग पर आते
हैं। पू्र्व अध्याय में जो शुद्ध सत्व की बात कही गयी है,
वही वास्तव में आगमशास्त्र का ' विन्दुतत्व '
है । यह चन्द्रविन्दु है । इसे ही कुण्डलिनी भी कह सकते हैं। यही
चिदाकाश है। यही शब्द मातृका है ।
यहाँ इन विविध नामों से जरा भी भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है। हो सकता
है कि अबतक आप इन नामों (शब्दों) से अलग-अलग स्थानों और विम्बों से अवगत हों,
किन्तु सूर्यविज्ञान का रहस्य इनका उद्बोधन कराता है - ये सभी एक ही
सिक्के के अलग-अलग पहलुओं की तरह भले है, भिन्न नहीं हैं
कदापि ।
इस विन्दुतत्व के विक्षोभ से
ही नाद और वर्ण उत्पन्न होते हैं। अकारादि जो वर्णमाला है,
जिसे आमलोग मात्र भाव और भाषा की अभिव्यक्ति (लिखने-बोलने) का साधन
(माध्यम) भर समझते हैं, वो किसी अन्य भाषाओं या लिपियों से
सर्वदा-सर्वथा भिन्न है। उनसे अकारादि वर्णमाला की कोई तुलना ही व्यर्थ है।
अंग्रेजी का A अल्फावेट
है सिर्फ,
उसका जीवन्त कोई स्वरुप नहीं, जब कि देवनागरी
का अ 'अक्षर' है- अविनाशी है, क्योंकि जीवन्त स्वरुप है उसका ।
मुझे नाम तो स्मरण नहीं है,
किन्तु जानकारी सत्य और प्रमाणिक है- किसी वैज्ञानिक ने विश्व की
बहुत सी लिपियों पर एक रोचक प्रयोग किया । काँच की नालियाँ बनाया ठीक उन-उन
लिपियों के आकार की । और उसमें विशेष प्रकार से वायु प्रवाहित किया । रोचक तथ्य ये
है कि अन्य किसी भी लिपियों से कोई खास प्रतिक्रिया नहीं मिली, जब कि देवनागरी लिपि से उसी ध्वनि का निःसरण हुआ जो लिपि थी, जैसे अ आकृति वाली नलिका से अ की ही ध्वनि प्रकट हुयी । वर्तमान समय में
नासा के वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकारने लगे हैं कि संस्कृत भाषा के लिए जो
देवनागरी लिपि का प्रयोग होता है, वही एकमात्र अन्तरिक्ष में
कार्यशील है संदेशवहन करने में । ये घोषणा
अपने आप में हमारी भारतीय संस्कृति और भाषा (संस्कृत) की श्रेष्ठता के प्रमाणपत्र
पर विश्व-वैज्ञानिकों का मुहर है ।
ध्यातव्य है कि इन वर्णों को हम अक्षर कहते हैं- अक्षर यानी जिसका क्षरण न
होता हो । नाश न होता हो। जो शाश्वत हो, सनातन हो, अविनाशी हो। अकारादि वर्णमाला इस शुद्ध सत्त्वरुप चन्द्रविन्दु से ही,
शुद्ध वर्ण से क्षरित (निसृत) होती है। अकारादि वास्तव में अक्षर
(अल्फावेट) हैं ही नहीं, बल्कि ये सब वर्ण या कि रश्मियाँ
हैं। विभिन्न योगग्रन्थों में कायस्थ चक्रों की विशद विवेचना मिलती है । उन चक्रों
में विविध वर्णों की किसी विशिष्ट अनुक्रम से अवस्थिति बतलायी गयी है। कहते हैं कि
सर्वोत्तम स्थान यानी एक हजार पंखुड़ियों वाले कमल पर सभी वर्ण क्रमिक रुप से
स्थापित हैं- ये योगशास्त्र के सामान्य जानकार भी अच्छी तरह जानते हैं । इसी स्थान
पर स्वेतचन्द्र विम्ब के पिघलने से क्षरित होती है अकारादि वर्णमाला । मूलाधार की
प्रसुप्त अग्नि-क्रिया के उद्बोधन (उत्थान,जागरण) से
तत्स्थानीय ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन होता है । ऊपर पहुँच कर वही अग्निशिखा चन्द्रविन्दु
का स्पर्श करती है, जिसके प्रभाव से चन्द्रविन्दु के पिघलने
(गलने) रुपान्तरित होने से ही अकारादि वर्णमातृकाओं का क्षरण होता है । इसी से
रश्मियाँ विकीर्ण होती हैं ।
परन्तु ध्यान रहे, किसी स्थूल पदार्थ (मोमबत्ती आदि)
के पिघलने जैसी ये घटना नहीं है। मोमबत्ती तो पिघल कर अपना अस्तित्व खो देती है।
नाश हो जाता है मोमबत्ती का । प्रज्ज्वलन के कुछ काल बाद ही मोमबत्ती का विलय सुनिश्चित
है । किन्तु यहाँ चन्द्रविन्दु के निरन्तर क्षरण और वर्णमातृकाओं के निःसरण (निःसृति)
के पश्चात् भी मूल के साथ अक्षुण्ण स्थिति बनी रहती है। इस अक्षुण्णता की
विशिष्टता के कारण ही इन्हें अक्षर सम्बोधित करते हैं । सभी वर्ण के मूल में जो 'अ'कार रहता है, वही उस मूल
वर्ण का प्रतीक है— अकारः सर्ववर्णाग्र्यः प्रकाशः परमः
शिव... यही परमशिवतत्त्व है ।
जो इन सभी वर्णों के उद्भव और विस्तार क्रम का सम्यक् ज्ञान रखते हैं,
जो इन वर्णों के अन्यान्य सम्बन्धों को समझते हैं, जो सम्बन्ध स्थापित करने और सम्बन्धों का विस्थापन क्रिया भी जानते हैं,
उन्हें ही सच पूछें तो मन्त्रोद्धार करने का अधिकार है । ऐसा नहीं
कि जिसे जो मन आया वर्णों का क्रम रख दिया और नये मन्त्र का निर्माण कर लिया- जैसा
कि आजकल के तथाकथित मान्त्रिक वा तान्त्रिक खिलवाड़ या कि मूर्खतापूर्ण कार्य कर
रहे हैं। मन्त्रोद्धार-प्रक्रिया-विज्ञान
का कुछ अता-पता नहीं है और मनमाने ढंग से कुछ का कुछ मन्त्र-सृजन कर बैठते हैं ।
ऐसे व्यक्ति स्वयं के विनाश के साथ-साथ परमात्मा की सृष्टि में भी खलल डालने का
घोर अपराध कर रहे हैं- इस बात की गांठ बांध लेनी चाहिए।
प्रसंगवश, आगे इन वर्णमात्रिकाओं के विषय में कुछ और
बातें जो जानने-समझने योग्य हैं और जिनकी चर्चा लिख-बोलकर की जा सकती है, उनकी विशेष चर्चा आवश्यक प्रतीत हो रही है। जो कथन-लेखन से परे है,
उसके विषय में तो चाह कर भी कहना सम्भव नहीं । यहाँ जो कुछ भी कहा
जा रहा है, उन सब की चर्चा तन्त्र-ग्रन्थों
में विशद रुप से मिलती हैं ।
प्रशंगवश यहाँ ये कहना भी अनुचित नहीं कि सही ढंग से इन अद्भुत
वर्ण-मात्रिकाओं का ज्ञान ही नहीं कराया जाता । पूर्वकाल में कम से कम "
लधुसिद्धान्तकौमुदी " पढ़ाई जाती थी। ' पाणिनी शिक्षा '
का ज्ञान कराया जाता था । पतञ्जलि के महाभाष्य का मन्थन भी होता था
। फिर भी बहुत कसर रह जाता था । परन्तु अब तो अपनी संस्कृति से बिलकुल विपरीत,
पाश्यात्य विशेषज्ञों की शिक्षानीति का अनुशरण कर हम गौरवान्वित हो रहे हैं। और
ऐसे में सही ढंग से अक्षरों से परिचय भी नहीं कराया जा रहा है । फिर सम्यक् ज्ञान
का प्रश्न ही कहाँ उठता है !
मात्रिकाओं के रहस्य को
समझने के लिए बहुत कुछ जानने-समझने की आवश्यकता है । भाषा और व्याकरण की दृष्टि से
सामान्य स्वर-व्यंजनों की जानकारी और उच्चारण भर से प्रायः काम चल जाता है दुनिया
का । भाषा और लिपि का सामान्य जन के लिए एकमात्र उपयोग सही ढंग से
भावाभिव्यक्ति है । बोल लिए,
लिख लिए, पढ़ लिए- काम समाप्त ।
किन्तु साधक को इसके रहस्य
में डूबना होता है। अतः तन्निहित गूढ़ बातों का ज्ञान अति आवश्यक है।
पूजा-पाठ,
कर्मकाण्ड आदि में आपने मात्रिका पूजन अवश्य सुना होगा। किया भी
होगा । क्या कभी जानने का प्रयत्न किये कि ये सप्त मात्रिकायें, षोडशमात्रिकायें, चतुःषष्ठी मात्रिकायें क्या हैं ?
शायद नहीं ।
सामान्य तौर पर हम ककहरा भर
जान लेते हैं । आजकल तो अंग्रेजियत के दौर में विधिवत ककहरा भी नहीं सिखलाया जाता
। अधिक से अधिक इतने तक ही आम आदमी की पहुँच रहती है कि देवनागरी के सभी अक्षरों
की जानकारी हो गयी और पढ़ने-लिखने-बोलने का काम चल गया। विशेष के लिए तो विशेष ही
होता है । अतः यहाँ स्पष्ट कर दूं कि विविध तन्त्र-ग्रन्थों में इनकी विशद चर्चा
है ।
ललितासहस्रनाम के १६७ वें
श्लोक में ‘मात्रिकावर्णरुपिणी
‘
कह कर इसकी गरिमा सिद्ध की गयी है । सामान्य रूप से वर्णों को अलग-अलग तथा
वर्णमाला को एकत्र रूप से मातृका के नाम से जाना जाता है । ये चार प्रकार से
प्रयुक्त होती हैं- १) केवल, २) विन्दुयुक्त,
३) विसर्गयुक्त, ४) उभयरुप । महाभाष्य में
केवलमातृका को साक्षात् ब्रह्मराशि कहा गया है—
सोऽयं
वाक्समाम्नायो वर्णसमाम्नायः पुष्पितः फलितश्चन्द्रतारकवत्प्रतिमण्डितो वेदितव्यो
ब्रह्मराशिः ।।
तो, स्वच्छन्दतन्त्रम्
में ‘ न विद्या मातृकापरा’ कह
कर प्रतिष्ठित किया गया है। यह जान लें कि सम्पूर्ण वर्णमाला रूप मातृका की
उत्पत्ति प्रणव से हुयी है। यही कारण है कि ओंकार का एक नाम मातृकासूः
भी है । तथा इस पर भी ध्यान दें कि सामान्य तौर पर लोग अक्षमाला का अर्थ रूद्राक्ष
की माला समझ लेते हैं, किन्तु इसका तान्त्रिक अर्थ कुछ और ही
है । महायोगी शिव जिस अक्षमाला का (पर नहीं) निरन्तर जप करते रहते हैं वह है- अकार
से क्षकार पर्यन्त विन्दुयुक्त मातृका, न कि कुछ और। जैसा कि
कहा गया है- कथयामि वरारोहे यन्मया जप्यते सदा । अकारादिक्षकारान्ता मातृका
वर्णरूपिणी । चतुर्दशस्वरोपेता बिन्दुत्रय विभूषिता ...।।
ध्यातव्य है कि वैष्णव व्याकरण (हरिनामामृत) में जीवगोस्वामी ने जिस वर्णमाला
की चर्चा की है और पाणिनी-प्रणीत माहेश्वर वर्णमाला में किंचित मातृका-क्रम-भेद है
।
वर्णमाला को स्थूलमातृका भी
कहते हैं । यही वैखरी वाक् है - विशेषेण न खरः कठिनस्तस्येयं वैखरी सैव रूपं
यस्याः ...वै निश्चयेन खं कर्णविवरं राति गच्छतीति व्युत्पत्तिः ...विखरे शरीरे
भवत्वात् वैखरीपदाभिधेया...प्राणेन विखराख्येन प्रेरिता पुनरिति योगशास्त्र
वचनाद्विखरवायुनुन्नेति वा... ।
उक्त वचनों से तन्त्रालोकविवेक, सौभाग्यभास्कर आदि
ग्रन्थों में इसे स्पष्ट किया गया है । कथन का अभिप्राय ये है कि कठिन या घनीभूत
है, निश्चित रूप से कर्णविवर यानी ‘ख’
में पैठती है, विखर नामक प्राण से प्रेरित
होती है- इन कारणों/लक्षणों से इसका वैखरित्व सिद्ध होता है । वर्णों से बने
शब्दों का जो प्रत्यक्ष उच्चारण करते हैं, जिसके माध्यम से
संवाद करते हैं–– वक्ता के मुखविवर से स्रोता के कर्णविवर तक
की वर्ण-यात्रा जो होती है, वह वाणी वस्तुतः वैखरी वाणी कही
जाती है । इसके बाद की उत्तरोत्तर स्थितियाँ क्रमशः मध्यमा, पश्यन्ती
और परा कही जाती है । परा और पश्यन्ती को सूक्ष्मतर या कि सुसूक्ष्म मातृका कहते
हैं ।
वस्तुतः
ये भगवती मातृका ही समस्त वाच्यवाचकात्मक चराचर जगत के अभेद का भोगानन्द प्रदान कराने
वाली शब्दराशि की मूल विमर्शिनी हैं । अरणिकाष्ठ में जिस भांति अग्नि छिपी होती है,
वा उसके मन्थन से प्रकट होती है, तद्भांति ही
सभी मन्त्र इसी से उत्पन्न होते हैं । बुद्धि से संयुक्त होकर, उसके सम्पर्क में आकर यही मध्यमा वाणी का रूप ग्रहण करती है ।
ध्यातव्य है कि सूर्यविज्ञान के पूर्व प्रसंगों में हमने सावित्रीविद्या
से भी सम्बोधित किया है इसे । अतः यहाँ अचानक सूर्य की शक्ति विषयक प्रसंग पर आने
से पाठकों को भ्रमित नहीं होना चाहिए । हम सूर्यविज्ञान की बात कहें या कि
सावित्रीविद्या की, तत्त्वतः कोई भेद नहीं है इन दोनों में ।
यह मातृका ही परमदेवी है, परम शक्तिस्परूपा है । घोष, राव, स्वन, शब्द, स्फोट, ध्वनि, झंकार, ध्वंकृति आदि
अष्टविध शब्दों में व्याप्त होने के कारण इसे ही अक्रमामातृका भी कहते हैं ।
सूतसंहिता यज्ञवैभव खंड में कहा गया है- मन्त्राणां मातृभूता च, मातृका परमेश्वरी । बुद्धिस्था मध्यमा भूत्वा विभक्ता बहुधा भवेत् ।। सा
पुनः क्रमभेदेन महामन्त्रात्मना तथा ।। मन्त्रात्मना च वेदादिशब्दाकारेण च स्वतः ।
सत्येतरेण शब्देनाप्याविर्भवति सुव्रताः ।। मातृका परमादेवी स्वपदाकारभेदिता ।
वैखरीरुपतामेति करणैर्विशदा स्वयम् ।।
इस संहिता के टीकाकार
श्रीमाधवाचार्यजी तो यहाँ तक कहते हैं कि मातृका का पररूप परा और पश्यन्ति से भी
परे है- बिन्दुनादात्मक है – परापश्यन्त्याद्यवस्थातः
प्राक् बिन्दुनादाद्यात्मकं यन्मातृकायाः सूक्ष्मं रूपम् ।
इसका विशद वर्णन करने में वाणी सर्वथा अक्षम है । साधकगण ध्यानावस्था में
ही इसकी सही अनुभूति कर सकते हैं, जिसका आंशिक रुप ही
शब्दरुप में प्रकट हो सकता है, या कहें किया जा सकता है ।
वर्णमातृका का सम्यक् रहस्य ज्ञान करना और फिर उनका तान्त्रिक-प्रयोग करना सुदीर्घ
साधना का प्रतिफल है । वाणी और अभिव्यक्ति में इसे समाहित कदापि नहीं किया जा सकता
। कोरे पुस्तकीय ज्ञान से इसमें कदापि पहुँच नहीं हो सकती । विशुद्ध साधना का विषय
है ये ।
उक्त प्रसंग में किंचित मतान्तर और स्थिति भेद से सप्त, अष्ट और नव वर्गों की चर्चा भी मिलती है । किन्तु इन सब पर चर्चा करने से
पूर्व सभी वर्णों की बात करता हूँ । सबसे पहले कम से कम इनकी सही संख्या और स्थिति
तो जान-समझ लेना चाहिए—
१. अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ॠ,लृ,ॡ,ए,ऐ,ओ,औ,अं,अः- ये १६ स्वरवर्ण हैं, चौदह
नहीं, जैसा कि आमलोग कहते हैं।
२.क,ख,ग,घ,ङ
३.च,छ,ज,झ,ञ
४.ट,ठ,ड,ढ,ण
५.त,थ,द,ध,न.
६.प,फ,ब,भ,म.
७.य,र,ल,व.
८.श,स,ष,ह,क्ष - ये चौंतीश व्यंजन
कहे गये हैं । व्यंजन अर्थात् मिले हुए ।
इस प्रकार कुल पचास वर्ण कहे
गये हैं । यहाँ प्रसंगवश एक और बात जान लें कि मात्रिकाचक्रविवेक और भास्करराय के
मत से ‘ळ’ इस विशिष्ट वर्ण की भी गणना की
गयी है––
श्लिष्टं पुरः स्फुरितसद्वय कोटिळक्षरुपं परस्परगतं च समं च कूटम् ।।
ये स्वर और व्यंजन तन्त्रशास्त्रों में पुनः दो नामों से जाने जाते हैं ।
स्वरों को बीज और व्यंजनों को योनि जानें । योनि और बीज से ही सारा जगत प्रपंच
रचा-बसा है ।
वामकेश्वरीमतम् में कहा गया
है ––
यदक्षरैकमात्रेऽपि
संसिद्धे स्पर्द्धते नरः । रवितार्क्षेन्दुकन्दर्पशङ्करानलविष्णुभिः ।।
यदक्षरशशिज्योत्स्नामण्डितं भुवन
त्रयम् ।
वन्दे
सर्वेश्वरीं देवीं महाश्रीसिद्धमातृकाम् ।। यदक्षरमहासूत्रप्रोतमेततज्जग- त्त्रयम्
।
ब्रह्माण्डादिकटाहान्तं
जगदद्यापि दृश्यते ।।
अर्थात् उक्त वर्णों में
किसी एक की भी सिद्धि हो जाये तो मनुष्य सूर्य, चन्द्रमा,
इन्द्र, कंदर्प, अग्नि,
यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश से भी स्पर्द्धा करने लगता है । कथन का अभिप्राय ये है कि इतना महान
हो जाता है साधक । सर्वेश्वरी महासिद्धिमातृका देवी के एक अक्षररुप चन्द्रमा की
ज्योत्सना से ये त्रिभुवन प्रकाशित हो रहा है । समस्त ब्रह्माण्ड उस सिद्धमातृका
के वर्णमय महासूत्र में अनुस्यूत हैं— इसमें यत्किंचित भी
अतिशयोक्ति न समझें ।
ये ‘अ’ वर्ग ही भैरव है - स्वतः प्रकाशित, ‘शब्दन’ स्वभावशील,
भेदरुप उपताप तथा विश्व का आक्षेप
करने के कारण भैरव स्वर वाच्य है । इसे ही मूल बीज जानें । इस प्रकार भैरव को ही स्वरों
का अधिष्ठाता कहा गया है और उधर ‘क’ आदि योनिवर्ण हैं, उन्हें ही भैरवी जानें । दूसरे
शब्दों में इसे ही महेश्वर और उमा कह सकते हैं । उमा शरीरार्द्ध हैं। इस प्रकार हम
पाते हैं कि शक्तिवर्गों के अधिष्ठातृदेवता भैरव और अधिष्ठातृदेवी उमा (भैरवी) हैं
।
स्वच्छन्दतन्त्रम् में कहा गया है- अवर्गे तु महालक्ष्मीः कवर्गे
कमलोद्भवा, चवर्गे तु महेशानी टवर्गे तु कुमारिका ।
नारायणी तवर्गे तु वाराही तु पवर्गिका ।। ऐन्द्री चैव यवर्गस्था चामुण्डा तु
शवर्गिका । एताः सप्तमहामातृः सप्तलोक व्यवस्थिताः ।।
यानी अवर्ग की महालक्ष्मी, कवर्ग की ब्राह्मी, चवर्ग की माहेश्वरी, टवर्ग की कौमारी, तवर्ग की वैष्णवी, पवर्ग की वाराही, यवर्ग की ऐन्द्री और शवर्ग की अधिष्ठातृ चामुण्डा हैं । अब यहाँ इस बात का संशय हो सकता है कि अ वर्ग की अधिष्ठातृ
महालक्ष्मी का अधिष्ठाता भैरव से क्या वास्ता ?
एक ओर महालक्ष्मी हैं,तो उधर भैरव कैसे,विष्णु होना चाहिये न ?
ज्ञानदीप्तिमयी उमा ही वस्तुतः महालक्ष्मी हैं । वे उमापति भैरव-देह से
बिलकुल अभिन्न हैं । अतः महेश्वर ही सप्तमातृकाओं से परिवारित परालक्ष्मी के साथ
विद्यमान रहते हैं । ये गिनायी गयी सात विभिन्न शक्तियाँ कोई और नहीं उमा ही हैं,
बल्कि आठों कहें । उमा और लक्ष्मी में अभेद जानें ।
वहीं, स्वच्छन्दतन्त्रम् के ही दशवें पटल में कहा
गया है - उमैव सप्तधा भूत्वा नामरुपविपर्ययैः । एवं स भगवान् देवो मातृभिः
परिवारितः । आस्ते परमया लक्ष्म्या तत्रस्थो द्योतयञ्जगत् ।। यहाँ विस्तार से
इन सभी मातृकाओं का स्वरुप वर्णन भी किया गया है । कभी अवसर मिले तो इन गूढ
ग्रन्थों का अवलोकन अवश्य करना चाहिए जिज्ञासुओं को और साधकों को भी ।
आद्यशंकराचार्य ने अपने गूढ़ग्रन्थ सौन्दर्यलहरी में मातृकाओं के
रहस्य को विशद रुप से उद्घाटित किया है। यह ग्रन्थ भी तन्त्र-प्रेमियों के लिए
अवश्य सेवनीय है । वामकेश्वरतन्त्रम् में उक्त शक्तियों के अतिरिक्त- वशिनी,
कामेश्वरी, मोदिनी, विमला,
अरुणा, जयिनी, सर्वेश्वरी,
कौलिनी आदि आठ देवों की पुनः चर्चा की गयी है, जिनकी साधना भेदाभासात्मक तथा अभेदाभासात्मक फलदायी है । यानी पर और अपर
दोनों सिद्ध होते हैं इन देवों की साधना से । इन प्रत्येक वर्ग की शक्तियाँ पुनः
त्रिधा विभक्त हैं- घोर, घोरतर और अघोर । कामक्रोधादि का
विस्तार करती हुयी ये भोगापवर्गात्मक मिश्रित कर्मों में व्यक्ति को आसक्त करती
हैं, तो इनका लक्षण ‘घोर’ होता है । विषयासक्त चित्त वालों को नीच से भी नीच दशा में डालने का कारण
बनती है, तब इन्हें ‘घोरतर’ कहते हैं और ये शक्तियाँ ही ‘ज्ञात’ होने पर जब साधक को शिवत्व प्रदान करती हैं तब ‘अघोर’
रुप में जानी जाती हैं । पर, परापर और अपर भी
ये ही तीन हैं । उक्त शक्तियों को ही योगिनीहृदय में योगिनी नाम से सम्बोधित किया
गया है, इसमें किसी तरह का संशय नहीं ।
सामान्य रुप से जिन वर्णमातृकाओं का चलन-क्रम है, उन्हें
मातृका, सिद्धा अथवा ‘पूर्वमालिनी’
के नाम से जाना जाता है । इससे भी विलक्षण है ‘उत्तरमालिनी’ का क्रम, जिसकी
अधिष्ठात्री मालिनीशक्ति है । मातृका को अभिन्न योनि और मालिनी को भिन्न योनि कहते
हैं । कथन का अभिप्राय यह है कि योनि अर्थात् व्यञ्जन यानि ‘कादि’
जहाँ बीज यानि स्वरों से परस्पर मिल गये हों, वही
भिन्नयोनि मालिनीशक्ति है ।
यथा—
मातृकाशब्दराशिसंघट्टात् शक्तिमदैक्यात्मलक्षणात्
लवणारनालवत्परस्परमेलनात्भिन्ना बीजैर्भेदिता योनयो व्यञ्जनानि यस्याः सा तथाविधा
सती । (तन्त्रालोकविमर्श)
तथा च- शब्दराशिः स एवोक्तो मातृका
सा च कीर्तिता । क्षोभ्यक्षोभकतावेशान्मालिनीं तां प्रचक्ष्महे ।। (उक्त २३२)
वस्तुतः भैरवात्मक शब्द-राशि को मातृका और मालिनी इन दो
रुपों में स्मरण करते हैं । मातृका
ही क्षोभ्य और क्षोभकतावेश से मालिनी बन जाती है । क्षोभ्य योनियों का
क्षोभक-बीजों से परस्पर सङ्घट्टात्मक आवेश
ही मूल कारण है,
जैसा कि अभी कहे गये श्लोक से स्पष्ट है ।
वहीं तन्त्रालोक के अगले (२३३वें)
श्लोक में कहा गया है- बीजयोनिसमापत्तिर्विसर्गोदय सुन्दरा । मालिनी हि
पराशक्तिनिर्णीता विश्वरुपिणी ।। यानि
यही शक्ति सम्पूर्ण विश्व को अपने रुप में धारण करती है,
अथवा कहें कि समग्र को अपने में अन्तर्भूत कर लेती है । यही कारण है
कि मालिनी कहलाती है । यथा- मलते विश्वं स्वरुपे धत्ते,
मालयति अन्तःकरोति कृत्स्नमिति च मालिनीति व्यपदिश्यते ।
इसकी वर्णयोजना सच में विलक्षण है । इसका प्रारम्भ ‘न’
से और समापन ‘फ’ से होता है । इसे भी क्रमवार देखें- न, ऋ,
ॠ, लृ, ॡ, थ, च, ध, ई, ण, उ, ऊ, ब, क, ख, ग, घ, ङ, इ, अ, व, भ, य, ड, ढ, ठ, झ, ञ, ज, र, ट, प, छ, ल, आ, स, अः, ह, ष, क्ष, म, श, अं, त, ए, ऐ, ओ, औ, द एवं फ ।
यहाँ एक और बात जान लेने योग्य है कि भगवती मालिनी मुख्यरुप से शाक्तरुप
धारिणी हैं । बीज और योनि के संघट्ट जनित यह शक्ति सम्पूर्ण कामनाओं की प्रदातृ
हैं। रुद्र और शक्तियों की माला से युक्त होने के कारण ही मालिनी नाम सार्थक होता
है ।
इस विषय की गहन जानकारी करने
के लिए जिज्ञासुओं को मालिनीविजयोत्तरतन्त्रम् का अवलोकन-मनन करना चाहिए ।
प्रपञ्चसारतन्त्रम् के अनुसार समस्त वर्ण अग्निसोमात्मक हैं। वर्णों में
व्याप्त आकारांश ही आग्नेय अथवा पुरुषात्मक है, तदीत्तर अंश
सौम्य वा प्रकृत्यात्मक है। इसे ही वर्णों के प्रमुख दो भेद कहे गये हैं- स्वर और
व्यञ्जन । व्यंजन यानि कादि योनियाँ स्वरों से प्रकाशित हो पाती हैं । शब्द द्वारा
चित्तवृत्ति को अनुभावित करने के कारण, या कहो कि ‘स्व ’अर्थात् आत्मरुप का बोध कराने के कारण, या कहें कादि योनियों को विकसित करने के कारण ही इन्हें स्वर कहा गया है ।
पुनः इनका स्पर्श और व्यापक- दो भेद करते हैं । पुनः व्यापक भी दो भागों
में बंट जाता है- अन्तस्थ और ऊष्म ।
पुनः सभी वर्णों के तीन प्रकार भी कहे गये हैं - सोलह स्वर को सौम्य,पच्चीस स्पर्श वर्णों को सौर और दस व्यापक वर्णों को आग्नेय कहते हैं ।
पुनः स्वरों में भी ह्रस्व और दीर्घ दो भेद करते हैं, तथा
इनका उप प्रकार भी है- अ,इ,उ,ए और विन्दु को पुरुषस्वर, तथा आ,ई,ऊ,ऐ,औ
और विसर्ग को स्त्रीस्वरवर्ण एवं शेष- ऋ,ॠ,लृ,ॡ- इन चार को नपुंसक स्वरवर्ण कहते हैं । ये
समस्त ह्रस्व स्वर शिवमय हैं और दीर्घस्वर शक्तिमयी कही गयी हैं ।
यहाँ एक और बात का ध्यान
रखना चाहिए कि ऋ,
लृ को शिव में और ॠ, ॡ को शक्ति वर्ग में
अन्तर्भावित किया गया है । प्रपञ्चसारतन्त्रम् में इस पर व्यापक रुप से प्रकाश
डाला गया है ।
मन्त्रशास्त्रों में विलोममातृका, वहिर्मातृका, अन्तर्मातृका आदि की चर्चा मिलती है। प्रचलित मातृका का बिन्दु सहित उलटा
रूप ही विलोममातृका है । लिपीमयी देवी के रूप को ही वहिर्मातृका कहते हैं, या कह सकते हैं कि वाग्देवता के
अंग वर्णमय हैं, इसलिए उन्हें वर्णतनु भी कहते हैं। ये वर्णमयी मातृकादेवी ही बहिर्मातृका के नाम
से जानी जाती है। विभिन्न अंगविन्यास इन वर्णों का ही प्रसार मात्र है।
अकादिवर्णों द्वारा ही देवी के अंगों का निर्माण होता है। साधकगण इन्हीं निगूढ़
शक्तियों को निज अंगों में न्यासित करते हैं साधना-क्रम में।
शरीर में बहुत से स्थान हैं, जिनका उपयोग, या कहें जिन पर प्रयोग करते हैं साधक गण । उन्हीं मूलाधार, स्वाधिष्ठानादि चक्रों में साधक जब इन्हीं मातृकावर्णों का विधिवत न्यास
करते हैं, तब इसका ही नाम अन्तर्मातृका न्यास होता है । यह
कहाँ, कैसे, कब किया जाय बहुत ही गूढ़
और गुरू-सानिध्य वाली बातें हैं । यानी कि यह सब बिलकुल ही व्यावहारिक साधना-जगत
की बातें हैं ।
प्रसंगवश आगे क्रमशः वर्णों एवं अंगों की एक सारणी प्रस्तुत है, जिससे क्रियात्मक प्रयोग में सुविधा होगी—
क्र.
|
वर्ण
|
अंग
|
१.
|
अ
|
शिर
|
२.
|
आ
|
मुख
|
३.
|
इ
|
दक्षिण नेत्र
|
४.
|
ई
|
वाम नेत्र
|
५.
|
उ
|
दक्षिण कर्ण
|
६.
|
ऊ
|
वामकर्ण
|
७.
|
ऋ
|
दक्षिणनासा
|
८.
|
ॠ
|
वामनासा
|
९.
|
लृ
|
दक्षिणकपोल
|
१०.
|
ॡ
|
वामकपोल
|
११.
|
ए
|
अधर
|
१२.
|
ऐ
|
ओष्ठ
|
१३.
|
ओ
|
अधोदन्त
|
१४.
|
औ
|
उर्ध्वदन्त
|
१५.
|
अं
|
जिह्वा
|
१६.
|
अः
|
ग्रीवा
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१७.
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क
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दक्षिणवाहु मूल
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१८.
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ख
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दक्षिणकर्पूर (केहुनी)
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१९.
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ग
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दक्षिण मणिबन्ध
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२०.
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घ
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दक्षिणअंगुली मूल
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२१.
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ङ
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दक्षिण अंगुल्यग्र
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२२.
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च
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वामवाहुमूल
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२३.
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छ
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वामकर्पूर
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२४.
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ज
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वाममणिबन्ध
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२५.
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झ
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वामअंगुली मूल
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२६.
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ञ
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वामअंगुल्यग्र
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२७.
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ट
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दक्षिणऊरु मूल
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२८.
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ठ
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दक्षिणजानु
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२९.
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ड
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दक्षिणगुल्फ
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३०.
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ढ
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दक्षिणपादांगुलि मूल
|
३१.
|
ण
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दक्षिणपाद अंगुल्यग्र
|
३२.
|
त
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वामऊरुमूल
|
३३.
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थ
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वामजानु
|
३४.
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द
|
वामगुल्फ
|
३५.
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ध
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वामपादागुलि मूल
|
३६.
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न
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वामपाद अगुल्यग्र
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३७.
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प
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दक्षिणकुक्षि
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३८.
|
फ
|
वामकुक्षि
|
३९.
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ब
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पृष्ठ
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४०.
|
भ
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नाभि
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४१.
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म
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उदर
|
४२.
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य
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हृदय
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४३.
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र
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दक्षिणस्कन्ध
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४४.
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ल
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वाम स्कन्ध
|
४५.
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व
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तालु
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४६.
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श
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हृदय से दक्षिण हस्त पर्यन्त
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४७.
|
ष
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हृदय से वाम हस्त पर्यन्त
|
४८.
|
स
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हृदय से दक्षिण पाद पर्यन्त
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४९.
|
ह
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हृदय से वाम पाद पर्यन्त
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५०.
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क्ष
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ब्रह्मरन्ध्र
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५१.
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ळ
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xxx
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ध्यातव्य है कि अन्तिम ५१वें
वर्ण ळ को न्यासक्रम में समाहित नहीं किया गया है । इसकी वहाँ आवश्यकता भी नहीं है
। साधना के क्रम में साधक को इन सभी वर्णों को
परम चैतन्य और दिव्य भाव से स्वीकारते हुए अपने विविध अंगों में न्यस्त
करना चाहिए,
जैसा कि सामान्य न्यास-प्रक्रिया में भी कहा जाता है । ये ठीक वैसा
ही है, जैसे कि यदि हमें दुर्गा की उपासना करनी है, तो सर्वप्रथम उनकी एक प्रतिमा वा चित्र की व्यवस्था करनी होगी । उसे सामने
रखकर, यथोपलब्धोपचार पूजन करेंगे ।
तन्त्र वा योग साधना में साधक भी
कुछ ऐसा ही करता है, किन्तु काफी गहरे अर्थ में । जैसा कि
ऊपर कहा गया कि सभी वर्ण परम चैतन्य और स्वरुपवान हैं। उनके इन्हीं स्वरुपों को
बाहर के वजाय भीतर स्थापित करना है और सच पूछें तो स्थापित क्या करना है, स्थापित तो है ही, क्यों कि ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति
ही तो हमारा यह पिण्डात्मक शरीर है—
यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे । वे हैं कहाँ, किस
अवस्था में यही तो समझना, जानना, देखना,
अनुभव करना है- साधक को और इसके लिए सर्वप्रथम उनकी सही जानकारी
चाहिए, जिसे यथासम्भव यहाँ स्पष्ट करने का प्रयास किया जा
रहा है।
अब यहाँ एक बात पर ध्यान दें— वर्ण हैं तो उनके ऋषि होंगे ही, छन्द भी होगा, स्वरुप भी होगा । देवता होंगे,
तो उनके साथ उनकी शक्ति भी होगी ही ।
प्रसंगवश यहाँ एक और बात को
समझ लेने की है कि संहारक और पालक भेद से देवता की स्थिति,
जिसे हम रुद्र और विष्णु नाम से यहाँ कह रहे हैं– सीधे शब्दों में यूं कहें कि अमुक वर्ण के अमुक रुद्र हैं और अमुक विष्णु
भी हैं । ये दोनों तो देवता ही हैं ।
ध्यान ये रखना है कि रुद्र के साथ कौन सी शक्ति है और विष्णु के साथ कौन
सी शक्ति कार्यरत है । वैसे इन सब बातों में, बहुत पचरे में
उलझने की आवश्यकता नहीं है साधक को । मान लेते हैं कि सांसारिक रुप से पति-पत्नी
जो हैं वो किसी कार्य विशेष के लिए निकले । ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं,
सहयोगी हैं, एक शक्ति और दूसरा है शक्ति का
आधार । दोनों मिलकर, एक दूसरे के सहयोगी बन कर कभी घर का काम
करते हैं, कभी बाजार का भी, कभी नौकर
की भूमिका में होते हैं, कभी मालिक की भूमिका में । एक ही
व्यक्ति पिता भी होता है, पुत्र भी, सेवक
भी, मालिक भी, ब्राह्मण भी, क्षत्रिय भी, वैश्य और शूद्र भी...इन बातों की गहराई
को समझें, बूझें, विचारें ।
सृष्टि का सारा रहस्य परत-दरपरत खुलता जायेगा । महामाया अपनी आँचल पसारे
बैठी हैं, उनकी भंगिमाओं का ही तो सारा खेल है यह
स्थावर-जांगम, दृश्यादृश्य जगत-प्रपंच ।
आगे एक सारणी के सहयोग से कुछ और बातों का संकेत किया जा रहा है । यहाँ
ध्यान देने योग्य है कि किसी एक ही ऋषि के अधीन एकाधिक वर्ण भी हैं। और ऋषि यदि एक
है,तो छन्द भी एक ही होना स्वाभाविक है । किन्तु अपवाद
स्वरुप ज और झ के छन्द तो वही है, पर ऋषि अलग हैं । इस
प्रकार अजऋषि के जिम्मे ख,ग,घ,ङ और झ वर्ण हो गये । इसी भाँति माण्डव्य के जिम्मे अः के अलावे ढ,ण,क्ष,और ळ भी है । आगे व से
क्ष पर्यन्त छन्द साम्य है - सभी वर्णों का छन्द दण्डक ही है, जबकि ऋषि बदलते गये हैं । एक और जगह भ्रान्ति होती है प्रायः- य और र के
ऋषि में तो संशय नहीं है, पर छन्द या कहो छन्दोच्चारण में
किंचित भेद है । वृत्तरत्नाकर में अतिकृति छन्द कहा गया है, किन्तु
पिंगल, ऋकप्रातिशाख्य यहाँ तक कि भरतनाट्यम् में भी अभिकृति
छन्द की चर्चा है ।
जहाँ तक व्यावहारिक और साधना-क्षेत्र की बात है, वहाँ
छन्द-भेद से कोई अन्तर नहीं होने वाला है । हां, छन्दों का
सम्यक् ज्ञान करने के लिए पिंगलसूत्र को भी टटोला जा सकता है । और भरतनाट्यम् को
भी देखा जा सकता है। परन्तु फिर एक बार ये
भी कहना चाहूँगा कि साधक को अधिक जानकारियों के बोझ से भी बचना चाहिए । क्यों कि
प्रायः ये बोझिल कर देती हैं ।
नदी के किनारे खड़े होकर नावों की गिनती और किराये का मोल-तोल करने में ही
समय चूक जाता है । यात्रा प्रारम्भ ही नहीं हो पाती । अतः उचित है कि सद्गुरु के
आश्रय में प्रणिपात पूर्वक साधना प्रारम्भ की जाये ।
अस्तु ।
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