सूर्यविज्ञानःआत्मचिन्तन भाग 6

                 चतुर्थ चिन्तन 
                    सूर्यविज्ञान :: वर्णमातृका परिचय
                             (द्वितीय अंश) 

यहाँ अभी सभी वर्णों के ऋषि, छन्द, रुद्र, विष्णु एवं शक्ति को  स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ एक सारणी के सहयोग से—
क्रम
वर्ण
ऋषि
छन्द
रुद्र
शक्ति
विष्णु
शक्ति
अर्जुन्यायन
मध्या
श्रीकण्ठ
पूर्णोदरी
केशव
कीर्ति
अर्जुन्यायन
मध्या
अनन्त
विरजा
नारायण
कान्ति
भार्गव
प्रतिष्ठा
सूक्ष्म
शाल्मली
माधव
तुष्टि
भार्गव
प्रतिष्ठा
त्रिमूर्ति
लोलाक्षी
गोविन्द
पुष्टि
अग्निवेश्य
सुप्रतिष्ठा
अमरेश्वर
वर्तुलाक्षी
विष्णु
धृति
अग्निवेश्य
सुप्रतिष्ठा
अर्धीश
दीर्घधोणा
मधुसूदन
क्षान्ति
अग्निवेश्य
सुप्रतिष्ठा
भावभूति
सुदीर्घमुखी
त्रिविक्रम
क्रिया
गौतम
गायत्री
तिथि
गोमुखी
वामन
दया
लृ
गौतम
गायत्री
स्थाणु
दीर्घजिह्वा
श्रीधर
मेघा
१०
गौतम
गायत्री
हर
कुण्डोरी
हृषीकेश
हर्षा
११
गौतम
गायत्री
झिंटीशा
ऊर्ध्वकेशी
पद्मनाभ
श्रद्धा
१२
लौहित्यायन
अनुष्टुप
भौतिक
विकृतमुखी
दामोदर
लज्जा
१३
लौहि-त्यायन
अनुष्टुप
सद्योजात
ज्वालामुखी
वासुदेव
लक्ष्मी
१४
वशिष्ठ
वृहति
अनुग्रहेश्वर
उल्कामुखी
सङ्कर्षण
सरस्वती
१५
अं
वशिष्ठ
वृहति
अक्रूर
श्रीमुखी
प्रद्युम्न
प्रीति
१६
अः
माण्डव्य
दण्डक
महासेन
विद्यामुखी
अनिरुद्ध
रति
१७
मौद्गायन
पङ्क्ति
क्रोधीश
महाकाली
चक्री
जया
१८
अज
त्रिष्टुप
चण्डेश
सरस्वती
गदी
दुर्गा
१९
अज
त्रिष्टुप
पंचान्तक
गौरी
शार्ङ्गी
प्रभा
२०
अज
त्रिष्टुप
शिवोत्तम
त्रैलोक्यविद्या
खड्गी
सत्या
२१
अज
त्रिष्टुप
एकरुद्र
मन्त्रशक्ति
शंखी
चंडा
२२
योग्यायन
जगती
कूर्म
आत्मशक्ति
हली
वाणी
२३
गोपाल्यायन
अतिजगती
एकनेत्र
भूतमाता
मुरली
विलासिनी
२४
नषक
शक्वरी
चतुरानन
लम्बोदरी
शूली
विरजा
२५
अज
शक्वरी
अजेश
द्राविणी
पाशी
विजया
२६
काश्यप
अतिशक्वरी
शर्व
नागरी
अंकुशी
विश्वा
२७
शुनक
अष्टि
सोमेश्वर
वैखरी
मुकुन्द
वित्तदा
२८
सौमनस्य
अत्यष्टि
लांगलि
मञ्जरी
नन्दज
सुतदा
२९
कारण
धृति
दारुक
रुपिणी
नन्दी
स्मृति
३०
माण्ड-व्य
अतिधृ-ति
अर्द्धना-रीश्वर
वारिणी
नर
ऋद्धि
३१
माण्डव्य
अतिधृति
उमाकान्त
कोटरी
नरकजित
समृद्धि
३२
सांकृत्यायन
कृति
आषाढ़ी
पूतना
हरि
शुद्धि
३३
सांकृत्यायन
कृति
दण्डी
भद्रकाली
कृष्ण
भुक्ति
३४
सांकृत्यायन
कृति
अद्रि
योगिनी
सत्य
मुक्ति
३५
सांकृत्यायन
कृति
मीन
शंखिनी
सात्वत
मति
३६
कात्यायन
प्रकृति
मेष
गजिनी
शौरि
क्षमा
३७
कात्यायन
प्रकृति
लोहित
कालरात्रि
शूर
रमा
३८
कात्यायन
प्रकृति
शिखी
कुब्जिनी
जनार्दन
उमा
३९
दाक्षायण
आकृति
छगलण्ड
कपर्दिनी
भूधर
क्लेदिनी
४०
व्याघ्रायण
विकृति
द्विरण्ड
महावज्रा
विश्वमूर्ति
क्लिन्ना
४१
शाण्डिल्य
संकृति
महाकाल
जया
वैकुण्ठ
वसुदा
४२
काण्डल्य
अतिकृत
कपाली
सुमुखेश्वरी
पुरुषोत्तम
वसुधा
४३
काण्डल्य
अतिकृत
भुजंगेश
रेवती
बली
परा
४४
दाण्ड्यायन
उत्कृति
पिनाकी
माधवी
बलानुज
परायणा
४५
जाताय-
दण्डक
खङ्गीश
वारुणी
बाल
सूक्ष्मा
४६
लाट्यायन
दण्डक
वक
वायवी
वृषघ्न
सन्ध्या
४७
जय
दण्डक
श्वेत
रक्षोविदारिणी
वृष
प्रज्ञा
४८
जय
दण्डक
भृगु
सहजा
सिंह
प्रभा
४९
जय
दण्डक
नकुली
लक्ष्मी
वराह
निशा
५०
क्ष
माण्डव्य
दण्डक
संवर्तक
माया
नृसिंह
विद्युता
५१
माण्डव्य
दण्डक
शिव
व्यापिनी
विमल
अमोघा
 इस प्रकार इक्यावन मातृकायें न्यस्त हैं हमारे शरीर में । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इक्यावन शक्तिपीठ हैं हमारे शरीर में, उन्हीं का ध्यान-चिन्तन करना है साधक को ।
ये जो वृहत् सारणी बतलायी गयी, इन्हें सही ढंग से स्मरण रखना तो अति दुरुह है।  अतः इसका सरल उपाय है शारदातिलकतन्त्रम् के कुछेक श्लोकों को हृदयंगम कर लेना । यहाँ थोड़े ही शब्दों में इन्हें व्यक्त किया गया है, जिन्हें सहज ही स्मरण में उतारा जा सकता है । यथाअर्जुन्यायनमध्ये द्वौ भार्गवस्तौ  प्रतिष्ठिका । अग्निवेश्यः सुप्रतिष्ठा त्रिषु चाब्धिषु गौतमः ।। गायत्री च भरद्वाज उष्णिगेकारके परे । लोहित्यायनकोऽनुष्टुप् वशिष्ठो वृहती द्वयोः ।। माण्डव्यो दण्डकश्चापि स्वराणां मुनिछन्दसी । मौद्गायनश्च पङ्क्तिः केऽजस्त्रिष्टुप् द्वितये घङों ।। योग्यायनश्चजगती गोपाल्यायनको मुनिः । छन्दोऽतिजगती चे छेन्नषकः शक्वरी ह्यजः ।। शक्वरी काश्यपश्चातिशक्वरी झञयोष्टठोः । शुनकोऽष्टिः सौमनस्योऽत्य ष्टिडे कारणो धृतिः ।। ढणोर्माण्डव्यातिधृति साङ्कृत्यायनकः कृतिः । त्रिषु कात्यायनस्तु स्यात् प्रकृतिर्नपफेषु बे ।। दाक्षायणाकृति व्याघ्रायणो भे विकृतिर्मता । शाण्डिल्यसङ्कृती मेऽथ काण्डल्याति-कृति यरोः ।। दाण्ड्यायनोत्कृती लेऽथ वे जात्यायनदण्डकौ । लाट्यायनो दण्डकः शे षसहे जयदण्डकौ । माण्डव्यदण्डकौ ळक्षे कादीनामृषिछन्दसी ।।
            इस प्रकार वर्णों के ऋषि और छन्दों का ज्ञान सहज ही किया जा सकता है इन श्लोकों को स्मरण में रखकर ।
            तन्त्रशास्त्र का मत है कि अकारादि सभी वर्ण अमृतमय होने के कारण अति निर्मल हैं । ललाटदेश में आज्ञाचक्र से ऊपर स्थित अर्द्धचन्द्र से जो अमृतविन्दु क्षरित होता है, वहीं नीचे मूलाधारादि कमलदलों में आकर वर्णरुप में परिलक्षित होता है ।
            सनत्कुमारसंहिता में इस विषय में विस्तृत वर्णन मिलता है । जैसा कि पहले भी कहा जा  चुका है, पुनः स्मरण दिलाना चाहूँगा कि पञ्च भूतात्मक, पञ्चप्राणात्मक त्रिदेवादि विभूषित होने के कारण इन मातृकाओं का नील-पीतादि त्रिवर्णीय होना तो स्वतः सिद्ध है, फिर भी किंचित मतान्तर भी है । वस्तुतः ये कोई विशेष शंका वाली बात नहीं है । साधनाक्रम में जिस साधक को यत्किंचित अन्तर प्रतीत हुआ, या कहें, उसने जो जैसा अनुभव किया, लोककल्याणार्थ उसे प्रकट करने का, व्यक्त करने का प्रयास किया । स्थूल रुप से कहा जाय तो कह सकते हैं कि
             अकारादि स्वरों का वर्ण (रंग) धूम्र है । से लेकर पर्यन्त सभी वर्ण सिन्दूरी आभावाले हैं । से लेकर तक वर्णों का रंग गौर है । ब, , , य और र का रंग अरुण है । ल, , , , स - ये पांच, स्वरों की भांति स्वर्णवर्णी ही हैं। और क्ष सौदामिनी (विजली) के समान आभायुक्त हैं ।
इस सम्बन्ध में  सूतसंहिता के वचन हैं–– अकारादिक्षरान्तैर्वर्णैरत्यन्तनिर्मलैः ।
अशेषशब्दैर्या भाति तामानन्दप्रदां नुमः ।।
            वर्णों के वर्ण (रंग) को सनत्कुमारसंहिता के इस वचन से सहज ही स्मरण में रखा जा सकता है—
 अकाराद्याः स्वरा धूम्राः सिन्दूराभास्तु कादयः।
 डादिफान्ता गौरवर्णा अरुणाः पञ्च वादयः ।
 लकाराद्याः काञ्चनाभाः हकारान्त्यौ तडिन्निभौ ।।

            किंचित तन्त्र-ग्रन्थों में स्वरों को स्फटिक सदृश, स्पर्श वर्णों को विद्रुम सदृश, यकारादि नव वर्णों को पीत और क्षकार को अरुण भी कहा गया है । सौभाग्यभास्कर भी विविध वर्ण भेदों को स्वीकारता है । कामधेनुतन्त्रम् में भी कुछ ऐसी ही चर्चा है ।
            कहा जाता है कि ये मातृकावर्ण ही पचास युवतियाँ हैं, जो विश्वब्रह्माण्ड में सर्वव्याप्त हैं । गीतवाद्यादि में निपुण और रत, ये सब के सब सदा किशोरवयसा, शिवप्रियायें हैं । पुष्प-कलिका के गर्भ में जिस भाँति गन्धादि संनिहित होता है, तद्भाँति ही त्रिधा विभक्त शक्तियाँ- इच्छा, ज्ञान और क्रिया, साथ ही पंचतत्त्व, पंचदेव और पंचप्राण सहित आत्म-तत्त्व, विद्या-तत्त्व एवं शिव-तत्त्व आदि निहित हैं । इन मातृका अभिरूपों का विवरण वर्णोद्धारतन्त्रम् में भी विशद रुप से मिलता है, साथ ही वर्णमातृकाओं के लिपिमय संकेत भी उल्लिखित हैं वहाँ । जिज्ञासुओं और साधकों के लिए यह प्रसंग अवश्य सेवनीय है ।
            आगे यहां सभी मातृकाओं का स्वरुप वर्णन किया जा रहा है, ताकि साधकों को ध्यान करने में सुविधा हो
(अ) - श्रृणु तत्त्वमकारस्य अतिगोप्यं वरानने । शरच्चन्द्रप्रतीकाशं पञ्चकोणमयं सदा ।। पञ्चदेवमयं वर्णं शक्तित्रयसमन्वितम् । निर्गुणं त्रिगुणोपेतं स्वयं कैवल्यमूर्तिमान् ।। विन्दुतत्त्वमयं वर्णं स्वयं प्रकृतिरुपिणी ।
(आ)- आकारं परमाश्चर्यं शङ्खज्योतिर्मयं प्रिये । ब्रह्मविष्णुमयं वर्णं तथा रुद्रमयं प्रिये ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं स्वयं परमकुण्डली ।
(इ)- इकारं परमानन्दसुगन्धकुसुमच्छविम् । हरिब्रह्ममयं वर्णं सदा रुद्रयुतं प्रिये ।। सदाशक्तिमयं देवि गुरुब्रह्ममयं तथा । ( ग्रन्थान्तर से- सदाशिवमयं वर्णं परं ब्रह्मसमन्वितम् । हरिब्रह्मात्मकं वर्णं गुणत्रयसमन्वितम् ।। इकारं परमेशानि स्वयं कुण्डली मूर्तिमान् ।।)
(इ)- ईकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डली । ब्रह्मविष्णुमयं वर्णं तथा रुद्रमयं सदा ।। पञ्चदेवमयं वर्णं पीतविद्युल्लताकृतिम् । चतुर्ज्ञानमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा ।।
(उ)- उकारं परमेशानि अधःकुण्डलिनी स्वयम् । पीतचम्पकसंकाशं पञ्चदेवमयं सदा ।। पञ्चप्राण मयं देवि चतुर्वर्गप्रदायकम् ।
(ऊ)- शङ्खकुन्दसमाकारं ऊकारं परमकुण्डली । पञ्चप्राणमयं वर्णं पञ्चदेवमयं सदा ।। धर्मार्थकाममोक्षं च सदासुखप्रदायकम् ।।
(ऋ)- ऋकारं परमेशानि कुण्डली मूर्तिमान् स्वयम् । अत्र ब्रह्मा च विष्णुश्च रुद्रश्चैव वरानने । सदाशिवंयुतं वर्णं सदा ईश्वरसंयुतम् ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं चतुर्ज्ञानमयं तथा ।।  रक्तविद्युतल्लताकारं ऋकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(ॠ)-ॠकारंपरमेशानि स्वयं परमकुण्डलम् । पीतविद्युतल्लताकारं पञ्चदेवमयं सदा । चतुर्ज्ञानमयं वर्णं पञ्चप्राणयुतं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं प्रणमामि सदा प्रिये ।।
(लृ)- लृकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डली परदेवता । अत्र ब्रह्मादयः सर्वे तिष्ठन्ति ससतं प्रिये ।। पञ्चदेवमयं वर्णं चतुर्ज्ञानमयं सदा । पञ्चप्राणयुतं वर्ण तथा गुणत्रयात्मकम् ।। विन्दुत्रयात्मकं वर्णं पीतविद्युल्लता तथा ।
(ए)-  एकारं परमेशानि ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् । रञ्जनीकुसुमप्रख्यं
पञ्चदेवमयं सदा ।। पञ्चप्राणात्मकं वर्ण तथा विन्दुत्रयात्मकम् । चतुर्वर्गप्रदं देवि स्वयं परमकुण्डली ।।
(ऐ)- ऐकारंपरमंदिव्यं महाकुण्डलिनी स्वयम् । कोटिचन्द्रप्रतीकाशं पञ्चप्राणमयं सदा ।। ब्रह्मविष्णुमयं वर्णं विन्दुत्रयसमन्वितम् ।
(ओ)-ओकारं चञ्चलापाङ्गि पञ्चदेवमयं सदा । रक्तविद्युल्लताकारं त्रिगुणात्मानमीश्वरीम् ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं नमामि देवमातरम् । एतद्वर्णं महेशानि स्वयं परमकुण्डली ।।
(औ)- रक्तविद्युल्लताकारं औकारं कुण्डली स्वयम् । अत्र ब्रह्मादयः सर्वे तिष्ठन्ति सततं प्रिये ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं तथा शिवमयं सदा ।।
(अं)- सदा ईश्वरसंयुक्तं चतुर्वर्गप्रदायकम् । अङ्कारं विन्दुसंयुक्तं
पीतविद्युतसमप्रभम् ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं ब्रह्मादिदेवतामयम् ।
(अः)- सर्वज्ञानमयं वर्णं विन्दुत्रयसमन्वितम् । अः कारं परमेशानि
विसर्गसहितं  सदा ।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणमयः सदा । सर्वज्ञानमयोवर्णः आत्मादि तत्त्वसंयुतः।।
(क)- जपायावकसिन्दूरमदृशीं कामिनीं पराम् । चतुर्भुजां त्रिनेत्रां च
बाहुबल्लीविराजिताम् ।। कदम्बकोरकाकारस्तनद्वयविभूषितम् । रत्नकंकणकेयूरैरङ्गदैरुपशोभिताम् । रत्नहारैः पुष्पहारैः शोभितां परमेश्वरीम् । एवं हि कामिनीं व्यात्वा ककारं दशधा जपेत् ।।
(ख)- खकारं परमेशानि कुण्डलीत्रयसंयुतम् । खकारं परमाश्चर्यं शङ्खकुन्दसमप्रभम् ।। कोणत्रययुतं रम्यं विन्दुत्रयसमन्वितम् । गुणत्रययुतं देवि पञ्चदेवमयं सदा ।। त्रिशक्तिसंयुतं वर्णं सर्व शक्त्यात्मकं प्रिये ।
(ग)- गकारं परमेशानि पञ्चदेवात्मकं सदा । निर्गुणं त्रिगुणोपेतं निरीहं निर्मलं सदा ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं गकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(घ)- अरुणादित्यसङ्काशं कुण्डलीं प्रणमाम्यहम् । घकारं चञ्चलापाङ्गि चतुष्कोणात्मकं सदा । पञ्चदेवमयं वर्णं तरुणादित्यसन्निभम् । निर्गुणं त्रिगुणोपेतं सदा त्रिगुणसंयुतम् । सर्वगं सर्वदं शान्तं घकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(ङ)- ङकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डली । सर्वदेवमयं वर्णं त्रिगुणं लोललोचने ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं ङकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(च)-चवर्णं श्रृणु सुश्रोणि चतुर्वर्गप्रदायकम् । कुण्डलीसहितं देवि स्वयं
परमकुण्डली ।। रक्त विद्युतल्लताकारं सदा त्रिगुणसंयुतम् । पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा ।। त्रिशक्ति सहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा ।
(छ)- छकारं परमाश्चर्यं स्वयं परमकुण्डली । सततं कुण्डलीयुक्तं पञ्चदेवमयं सदा ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा । त्रिविन्दुसहितं वर्णं सदा ईश्वरसंयुतम् ।। पीतविद्युल्लताकारं छकारं प्रणमाम्यहम् ।
(ज)- जकारं परमेशानि या स्वयं मध्य कुण्डली । शरच्चन्द्रप्रतीकाशं सदा त्रिगुणसंयुतम्।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणात्मकं सदा । त्रिशक्ति सहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं प्रिये ।।
(झ)- झकारं परमेशानि कुण्डलीमोक्षरुपिणी । रक्तविद्युल्लताकारं सदा त्रिगुणसंयुतम् ।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणात्मकमं सदा । त्रिविन्दुसहितं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा ।।
(ञ)- सदा ईश्वरसंयुक्तं ञकारं श्रृणु पार्वति । रक्तविद्युल्लताकारं स्वयं परमकुण्डली ।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणात्मकमं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा ।।
(ट)- टकारं चञ्चलापाङ्गि स्वयं परमकुण्डली । पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्च प्राणात्मकमं सदा ।। त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा ।।
(ठ)- ठकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डली मोक्षरुपिणी । पीतविद्युल्लताकारं सदा त्रिगुणसंयुतम् ।। पञ्चदेवात्मकं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा । त्रिविन्दुसहितं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा ।।
(ड)- डकारं चञ्चलापाङ्गि सदा त्रिगुणसंयुतम् । पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं तथा ।। त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा । चतुर्ज्ञानमयं वर्णमात्मादितत्त्वसंयुतम् ।।  पीतविद्युल्लताकारं डकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(ढ)- ढकारं परमाराध्यं या स्वयं कुण्डली परा । पञ्चदेवात्मकं वर्णं पञ्चप्राणमयंसदा।। सदात्रिगुणसंयुक्तंआत्मादितत्त्वसंयुतम्। रक्तविद्युल्लताकारं ढकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(ण)- णकारं परमेशानि या स्वयं परमकुण्डली । पीतविद्युल्लताकारं पञ्चदेवमयं सदा ।। पञ्चप्राणमयं देवि सदा त्रिगुणसंयुतम् । आत्मादितत्त्वसंयुक्तं महासौख्यप्रदायकम् ।
(त)- तकारं चञ्चलापाङ्गि स्वयं परमकुण्डली । पञ्चदेवात्मकं वर्णं
पञ्चप्राणमयं तथा ।। त्रिशक्ति सहितं वर्णमात्मादितत्त्वसंयुतम् । त्रिविन्दुसहितं वर्णं पीतविद्युत्समप्रभम् ।।
(थ)- थकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डली मोक्षरुपिणी । त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा ।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणात्मकं प्रिये । तरुणादित्यसङ्काशं थकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(द)- दकारं श्रृणु चार्वङ्गि चतुर्वर्गप्रदायकम् । पञ्चदेवमयं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा ।। सदा ईश्वरसंयुक्तं त्रिविन्दुसहितं सदा । आत्मादितत्त्वसंयुक्तं स्वयं परमकुण्डली ।। रक्तविद्युल्लताकारं दकारं हृदि भावय ।।
(ध)- धकारं परमेशानि कुण्डली मोक्षरुपिणी । आत्मादितत्त्वसंयुक्तं पञ्चदेवमयं सदा ।। पञ्चप्राणमयं देवि त्रिशक्तिसहितं सदा । त्रिविन्दुसहितं वर्णं धकारं हृदि भावय ।। पीतविद्युल्लताकारं चतुर्वर्गप्रदायकम् ।।
(न)- नकारं श्रृणु चार्वङ्गि रक्तविद्युल्लताकृतिम् । पञ्चदेवमयं वर्णं स्वयं
परमकुण्डली ।। पञ्चप्राणात्मकं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा । त्रिशक्तिसहितं
वर्णमात्मादितत्त्वसंयुतम् । चतुर्वर्गप्रदं वर्णं हृदि भावय पार्वति ।। 
(प)- अतः परं प्रवक्ष्यामि पकारं मोक्षमव्ययम् । चतुर्वर्गप्रदं वर्णं शरच्चन्द्रसमप्रभम् ।। पञ्चदेवमयं वर्णं स्वयं परमकुण्डली । पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा ।। त्रिविन्दुसहितं वर्णंमात्मादितत्त्वसंयुतम् । महामोक्षप्रदं वर्णं हृदि भावय पार्वति ।।
(फ)- फकारं श्रृणु चार्वङ्गि रक्तविद्युल्लतोपमम् । चतुर्वर्गमयं वर्णं  पञ्चदेवमयं सदा ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं सदा त्रिगुणसंयुतम् । आत्मादितत्त्वसंयुक्तं त्रिविन्दुसहितं सदा ।।
(ब)- बकारं श्रृणु चार्वङ्गि चतुर्वर्गप्रदायकम् । शरच्चन्द्रप्रतीकाशं पञ्चदेवमयं सदा ।। पञ्चप्राणात्मकं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं निविडाऽमृतनिर्मलम्।।स्वयं कुण्डलिनी साक्षात् सततं प्रणमाम्यहम् ।।
(भ)- भकारं चञ्चलापाङ्गि स्वयं परमकुण्डली । महामोक्षप्रदं वर्णं पञ्चदेवमयं सदा ।। त्रिशक्ति सहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं प्रिये ।
(म)- मकारं श्रृणु चार्वङ्गि स्वयं परमकुण्डली । महामोक्षप्रदं वर्णं पञ्चदेवमयं सदा ।। तरुणादित्यसङ्काशं चतुर्वर्गप्रदायकम् । त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा ।। आत्मादितत्त्वसंयुक्तं हृदिस्थं प्रणमाम्यहम् ।।
(य)- यकारं श्रृणु चार्वङ्गि चतुष्कोमयं सदा । पलालधूमसङ्काशं स्वयं
परमकुण्डली ।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणात्मकं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं तथा ।। प्रणमामि सदा वर्णं मूर्तिमान् मोक्षमव्ययम् ।।
(र)- रकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीद्वयसंयुतम् । रक्तविद्युल्लताकारं पञ्चदेवात्मकं सदा ।। पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा । त्रिशक्तिसहितं देवि आत्मादितत्त्वसंयुतम् ।।
(ल)- लकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीद्वयसंयुतम् । पीतविद्युल्लताकारं सर्वरत्नप्रदायकम् ।।  पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणमं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा ।। आत्मादितत्त्वसंयुक्तं हृदि भावय पार्वति ।।
(व)- वकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीमोक्षमव्ययम् । पलालधूमसंकाशं पञ्चदेवमयं सदा । पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा ।। त्रिविन्दुसहितं वर्णमात्मादितत्त्वसंयुतम् ।।
(श)- शकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीतत्त्वसंयुतम् । पीतविद्युल्लताकारं सर्वरत्नप्रदायकम् ।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा ।। आत्मादितत्त्वसंयुक्तं हृदि भावय पार्वति ।।
(ष)- षकारं श्रृणुचार्वङ्गि अष्टकोणमयं सदा । रक्तचन्द्रप्रतीकाशं स्वयं परमकुण्डली ।। चतुर्वर्गप्रदं वर्णं सुधानिर्मितविग्रहम् । पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा ।। रजःसत्त्वतमोयुक्तं त्रिशक्ति सहितं सदा । त्रिविन्दुसहितं वर्णमात्मादितत्त्वसंयुतम् । सर्वदेवमयं वर्णं हृदि भावय पार्वति ।।
(स)- सकारं श्रृणु चार्वङ्गि शक्तिबीजं परात्परम् । कोटिविद्युल्लताकारं कुण्डलीत्रयसंयुतम् ।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा । रजःसत्त्वतमोयुक्तं त्रिविन्दुसहितं सदा ।। प्रणम्य सततं देवि हृदि भावय पार्वति ।।
(ह)- हकारं श्रृणु चार्वङ्गि चतुर्वर्गप्रदायकम् । कुण्डलीत्रयसंयुक्तं रक्तविद्युल्लतोपमम् ।। रजःसत्त्वतमोवायु पञ्चदेवमयं सदा । पञ्चप्राणमयं वर्णं हृदि भावय पार्वति ।।
(क्ष)- क्षकारं श्रृणु चार्वङ्गि कुण्डलीत्रयसंयुतम् । चतुर्वर्गमयं वर्णं पञ्चदेवमयं सदा ।। पञ्चप्राणात्मकं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा। त्रिविन्दुसहितं वर्णांत्मादितत्त्वसंयुतम् । रक्तचन्द्रप्रतीकाशं हृदि भावय पार्वति ।।

            वर्णों के विषय में काफी कुछ जानकारी यहाँ देने का प्रयास किया गया, किन्तु ऐसा नहीं कि वस इतनी ही बातें हैं वर्णों के विषय में । वर्ण का ये गूढ़ विषय महाशक्ति अनन्ताकी तरह ही अनन्त हैं; अनन्त की  निःसृति भी अनन्त ही होगी न !  किन्तु सांसारिक जीव की अपनी सीमा है- क्यों कि वह कालवद्ध है । वह अनन्त नहीं हो सकता कदापि । 
            आगे यहाँ कुछ थोड़ी और बातें कह कर वर्णमातृका-उद्बोधन के विषय को समाप्त करना चाहूँगा । अगले चिन्तन में कुछ और व्यावहारिक बातों के लिए मार्ग प्रशस्त होगा ।
            सौन्दर्यलहरी में अकारादि वर्णमातृकाओं का महिमामण्डल स्पष्ट किया गया है । यथा- अकार ८० लाख, आकार १६० लाख, इकार ९० लाख, ईकार १८० लाख, उकार १ करोड़, ऊकार २ करोड़, ऋकार ५० लाख, १५० लाख, लृ और ॡ क्रमश एक-एक करोड़ ; ,, औ डेढ़ करोड़; विन्दु और विसर्ग अकार से दुगना यानी १६०लाख, तथा सभी व्यञ्जन शक्तियाँ अकारमंडल से आधी यानी ४०-४० लाख योजन विस्तार वाली कही गयी हैं । मातृकाओं के वाहन और आयुध भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । शारदातिलक, कामधेनुतन्त्रम् जैसे ग्रन्थ भी इसमें आधी-अधूरी पहेली बुझा कर छोड़ दिये हैं । ध्यान के क्रम में इस जानकारी के अभाव में थोडी कठिनाई हो सकती है ।
            आगे एक और सारणी के माध्यम से वर्णों के सम्बन्ध में कुछ जानकारियाँ देने का प्रयास करता हूँ। यहाँ वर्णों का स्वरुप, गुण, मूर्ति एवं तत्त्व को और भी स्पष्ट किया जा रहा है, ताकि साधकों (अभ्यासियों) को किसी तरह की कठिनाई न हो ।

क्रम
वर्ण
वर्णों का स्वरुपादि
१.
शरच्चन्द्रसदृश,निर्गुण,त्रिगुण,कैवल्यमूर्ति,बिन्दुतत्त्वमय, प्रकृतिस्वरुप, त्रिशक्तियुक्त,पंचकोण-पंचप्राण-पंचदेवमय
२.
शंखज्योतिर्मय, ब्रह्मादित्रिदेवमय, परमकुण्डली, पंचप्राणमय
३.
कुसुमछवि,सदाशक्तिमय,त्रिदेवमय,सदाशिवमय,गुरुब्रह्ममय, मूर्तिमान कुण्डली, त्रिगुण

४.
पीतविद्युत् सदृश,परमकुण्डलीयुक्त,चतुर्ज्ञान,त्रिदेव,
पंचदेव-पंचप्राणमय
५.
पीतचम्पकतुल्य,अधःकुण्डलिनी,चतुर्वर्ग,पंचदेव-पंचप्राणमय
६.
शंख-कुन्दसदृश,पंचदेव-पंचप्राणमय,परमकुण्डली, पुरुषार्थचतुष्टय तथा सुखप्रद
७.
मूर्तिमान्कुण्डली,त्रिदेव-सदाशिवयुक्त, पंचवर्णात्मक, चतुर्ज्ञानमय, रक्तविद्युतसदृश
८.
परमकुण्डली,पीतविद्युत्,त्रिशक्ति,चतुर्ज्ञान, पंचदेव-पंचप्राणमय
९.
लृ
पीतविद्युत् सदृश, कुण्डलीपरदेवता, त्रिदेववास, त्रिगुण,विन्दुत्रयात्मक, चतुर्ज्ञान,पंचदेव-पंचप्राणमय
१०.
पीतविद्युत्सदृश,कुण्डलीपरदेवता,त्रिदेववास,त्रिगुण,विन्दुत्रयात्मक, चतुर्ज्ञान, पंचदेव-पंचप्राणमय
११.
रञ्जनीकुसुमसदृश,त्रिदेव-पंचदेव-पंचप्राणमय, विन्दुत्रयात्मक,चतुर्वर्गप्रदायिनी, परमकुण्डली
१२.
कोटिचन्द्रसदृश,महाकुण्डलिनी,त्रिदेव-पंचदेव-पंचप्राणमय, विन्दुत्रयात्मक, सदाशिवयुक्त
१३.
रक्तविद्युत सदृश, पंचदेवमय, त्रिगुणात्मा, ईश्वर, देवमाता,परमकुण्डली, पंचप्राणमय
१४.
रक्तविद्युत सदृश,कुण्डली, त्रिदेव-पंचप्राणमय,
सदाशिव-ईश्वरसंयुक्त,चतुर्वर्गप्रदा
१५.
अं
पीतविद्युत सदृश,पंचप्राणमय,ब्रह्मादिदेवयुक्त,
सर्वज्ञानमय,बिन्दुत्रयसमन्वित
१६.
अः
रक्तविद्युतकान्तियुक्त,पंचदेव-पंचप्राणमय, विन्दुत्रयात्मक,बिन्दुत्रयात्मक,शक्तित्रयात्मक, सर्वज्ञानमय, आत्मादितत्त्व युक्त
१७.
जपा-सिन्दूर सदृश कान्तिवाली, चतुर्भुजा, त्रिनेत्रा, बाहुलताशोभित, कदम्ब-कलिका तुल्य स्तनोंवाली, रत्न विभूषित, कंकण-केयूर, अंगदभूषित, परमेश्वरी, कामिनी
१८.
कुण्डलीत्रययुक्त,शंख-कुन्दकान्ति, त्रिकोण, बिन्दुत्रय, गुणत्रय, शक्तित्रय, पंचदेवमी
१९.
अरुणादित्यसदृश,निर्गुण,त्रिगुणोपेत,निरीह,निर्मल,कुण्डलीरुप, पंचदेव-पंच प्राणमय
२०.
तरुणादित्य सदृश,सर्वगति,सर्वप्रदायिनी,
शान्त, चतुष्कोणात्मक, पंचदेवमय
२१.
परमकुण्डली,त्रिगुणात्मिका,सर्वदेवमय,पंचप्राणमय
२२.
रक्तविद्युत्सदृश,चतुर्वर्गप्रदायिनी,परमकुण्डलीयुक्त,
त्रिशक्ति, त्रिबिन्दु,पंचदेव-पंचप्राणमय
२३.
पीतविद्युत् सदृश,ईश्वरयुक्त,परमकुण्डलीयुक्त
कुम्डलीसंयुक्त, त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,
 विन्दुत्रयात्मक
२४.
शरदचन्द्र सदृश,मध्यकुण्डली-रुप,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,विन्दुत्रयात्मक
२५.
रक्तविद्युत् सदृश,कुण्डली तथा मोक्षरुप, त्रिबिन्दु, त्रिगुण, ईश्वरसंयुक्त,त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,
२६.
रक्तविद्युत् सदृश,परमकुण्डली,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय, विन्दुत्रयात्मक

२७.
परमकुण्डलीरुप,त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय, विन्दुत्रयात्मक
२८.
पीतविद्युल्लता-तुल्य, कुण्डली तथा मोक्षरुप, त्रिबिन्दु, त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय
२९.
पीतविद्युल्लता-तुल्य,आत्मादितत्वयुक्त, चतुर्ज्ञानमय, त्रिबिन्दु, त्रिगुण, त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय
३०.
रक्तविद्युल्लता-तुल्य, पराकुण्डली, आत्मादितत्वयुक्त, त्रिगुण, पंचदेव-पंचप्राणमय
३१.
पीतविद्युल्लता-तुल्य,परमकुण्डली,
आत्मादितत्व-संवलित,महासौख्य,पंचदेव-पंचप्राणमय
३२.
पीतविद्युत-कान्ति,पंचदेव-पंचप्राणमय,त्रिबिन्दु, त्रिशक्ति, आत्मादितत्त्वयुक्त
३३.
तरुणादित्य कान्तियुक्त, कुण्डली तथा मोक्षरुप, त्रिबिन्दु, त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय
३४.
रक्तविद्युल्लताकार,कुण्डली तथा मोक्षरुप,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,आत्मादितत्त्वयुक्त, परमकुण्डलीयुकत्,चतुर्वर्ग प्रदाता
३५.
पीतविद्युत सदृश, कुण्डली तथा मोक्षरुप,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,आत्मादितत्त्वयुक्त,
परमकुण्डलीयुक्त्, चतुर्वर्ग प्रदाता
३६.
रक्तविद्युत सदृश, कुण्डली तथा मोक्षरुप,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,आत्मादितत्त्वयुक्त,
परमकुण्डलीयुक्त्,चतुर्वर्ग प्रदाता
३७.
शरच्चन्द्र–कान्तियुक्त, अव्यय मोक्षरुप,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय,आत्मादितत्त्वयुक्त,
परमकुण्डलीयुक्त्,चतुर्वर्ग प्रदाता
३८.
रक्तविद्युत सदृश, त्रिगुण,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्ति-पंचदेव-पंचप्राणमय, आत्मादितत्त्वयुक्त,चतुर्वर्ग प्रदाता
३९.
शरच्चन्द्रतुल्य,चतुर्वर्गप्रदाता,पंचदेव,पंचप्राण, त्रिबिन्दु,त्रिशक्तियुक्त, निविड़ अमृत तुल्य निर्मल, कुण्डलिनी स्परुप
४०.
महामोक्षप्रद,परमकुण्डली रुप, पंचदेव,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्तियुक्त,
४१.
तरुणादित्यतुल्य,आत्मादितत्त्वयुक्त,पंचदेव,पंचप्राण,त्रिबिन्दु, त्रिशक्तियुक्त, महामोक्षप्रद,परमकुण्डली रुप,चतुर्वर्गप्रदाता
४२.
धान के पुआल के धुंए के समान कान्ति वाली,
अव्यय मोक्षदायी, त्रिबिन्दु, त्रिशक्तियुक्त, परमकुण्डली रुप, पञ्चप्राण-पञ्चदेवमय,चतुष्कोणमय
४३.
रक्तविद्युतकान्तियुक्त,पञ्चदेव,पञ्चप्राणमय,त्रिबिन्दु,
त्रिशक्तियुक्त,कुण्डलीद्वययुक्त, आत्मादितत्त्वयुक्त
४४.
पीतविद्युतसदृश,पञ्चदेव,पञ्चप्राणमय,त्रिबिन्दु,त्रिशक्तियुक्त, कुण्डलीद्वययुक्त, आत्मादितत्त्वयुक्त,सम्पूर्ण रत्नादि प्रदाता
४५.
पुआल के समान कान्तिवाली,कुण्डली तथा अव्यय मोक्षदायी, पञ्चदेव, पञ्चप्राणमय, त्रिबिन्दु, त्रिशक्तियुक्त, कुण्डलीद्वययुक्त,  आत्मादितत्त्वयुक्त
४६.
पीतविद्युतसदृश,पञ्चदेव, पञ्चप्राणमय, त्रिबिन्दु, त्रिशक्तियुक्त, कुण्डलीतत्त्वयुक्त, आत्मादितत्त्वयुक्त
४७.
रक्तचन्द्रसदृश,परमकुण्डलीरुप,चतुर्वर्गप्रद,सुधानिर्मितविग्रह, सत्त्वादि त्रिगुण युक्त, पञ्चदेव, पञ्चप्राणमय, त्रिबिन्दु, त्रिशक्तियुक्त, आत्मादितत्त्वयुक्त
४८.
कोटिविद्युतकान्तिमय,कुण्डलीत्रययुक्त,पञ्चदेव,पञ्चप्राणमय, त्रिबिन्दु, त्रिशक्तियुक्त, आत्मादितत्त्वयुक्त, परात्पर शक्ति-बीजयुक्त
४९.
रक्तविद्युत सदृश कान्ति वाली,चतुर्वर्ग प्रदाता, कुण्डलीत्रय युक्त, त्रिगुण, त्रिशक्ति, पञ्चप्राणमय, पञ्चदेवमय,त्रिबिन्दुयुक्त
५०.
क्ष
रक्तचन्द्रसदृश,त्रिशक्ति,त्रिबिन्दु,सहित,आत्मादितत्त्वयुक्त,चतुर्वर्गमय, कुण्डली-त्रययुक्त, पञ्चदेव, पञ्चप्राणमय
५१.
XXXX
            हालाकि जानकारियाँ अधिकाधिक प्राप्त हो जायें पुस्तकों के माध्यम से, फिर भी ऐसा नहीं है कि गुरु की महत्ता और आवश्यकता पूरी हो जा रही है। विशेषकर व्यावहारिक बातें तो व्यावहारिक ही होती हैं न । नदी में कूदकर ही तैरना सीखा जा सकता है। मैदान में बैठ कर सिर्फ उसके विषय में बातें हो सकती हैं और बातें करने भर से नदी पार करना सम्भव नहीं। निर्भीक होकर, समर्पित भाव से परम लक्ष्य का अनुसन्धान करना होगा, तभी कुछ बात बनेगी, अन्यथा ज्ञान की पिटारी यूं ही बन्द ही पड़ी रह जायेगी । परमात्मा ने जिस सम्पदा का पाथेय देकर भेजा है हम सबको, यूं ही पड़ा रह जायेगा और आँखें बन्द किये हम अन्धेरा-अन्धेरा चिल्लाते रह जायेंगे ।
एक और बात जान लेने योग्य है कि व्यक्ति की तरह वर्णों की भी राशि और ग्रह होते हैं । ग्रह और राशियाँ स्पष्ट होने जाने पर स्वाभाविक है कि उनका सम्बन्ध नक्षत्रों से भी होगा ही । अतः साधकों की सुविधा के लिए यहाँ कुछ सारणियां इसकी स्पष्टी हेतु प्रस्तुत हैं-

राशि
वर्ण
मेष
अ,आ.इ.ई
वृष
उ,उ,ऋ
मिथुन
ॠ,लृ,ॡ
कर्क
ए,ऐ
सिंह
ओ,औ
कन्या
अं,अः,शवर्ग,ळ
राशि
वर्ण
तुला
कवर्ग
वृश्चिक
चवर्ग
धनु
टवर्ग
मकर
तवर्ग
कुम्भ
पवर्ग
मीन
य,र,ल,व,क्ष
वर्ग
ग्रह
स्वरवर्ग
सूर्य
कवर्ग
मंगल
चवर्ग
शुक्र
टवर्ग
बुध
तवर्ग
बृहस्पति
पवर्ग
शनैश्चर
यवर्ग
चन्द्रमा







उक्त तालिकायें प्रपञ्चसारतन्त्रम् के निम्न उद्धरण के आधार पर बनायी गयी हैं   तदा स्वरेशः सूर्योऽयं कवर्गेशस्तु लोहितः । चवर्गप्रभवः काव्यष्टवर्गाद् बुधसम्भवः ।। तवर्गोत्थः सुरगुरुः पवर्गोत्थः शनैश्चरः । यवर्गजोऽयं शीतांशुरिति सप्तगुणा त्वियम् ।। यथा स्वरेभ्यो नान्ये स्युर्वर्णाःषड्वर्गभेदिता । तथा सवित्रनुस्यूतं ग्रहष्टकं न संशयः ।।
तथा च-
आद्यैर्मेषाह्वयो राशिरीकारान्तैः प्रजायते । ऋकारान्तैरुकाराद्यैर्वृषो युग्मं ततस्त्रिभिः ।। एदैतोः कर्कटो राशिरोदौतोः सिंहसम्भवः । अमः शवर्गलेभ्यश्च सञ्जाता कन्यका मता ।। षड्भ्यः कचटतेभ्यश्च पयाभ्यां च प्रजजिरे । बणिगाद्याश्च मीनान्ता राशयः शक्तिजृम्भणात् ।। चतुर्भिर्मादिभिः सार्द्ध स्यात् क्षकारस्तु मीनगः ।। 
तथा च-
एभ्यः एव तु राशिभ्यो नक्षत्राणां च सम्भवः । स चाप्यक्षरभेदेन सप्तविंशतिधा भवेत् ।। आभ्यामश्वयुगेर्जाता भरणी कृत्तिका पुनः । लिपित्रयाद्रोहिणी च तत्पुरस्ताच्चतुष्टगात् ।। एदैतोमृगशीर्षाद्रे तदन्त्याभ्यां पुनर्वसुः । अमसोः केवलो योगो रेवत्यर्थं पृथङ्मतः ।। कतस्तिष्यस्तथाश्लेषा खगयोर्घङ्योर्मघा । चतः पूर्वाथ छजयोरुत्तरा झञयोस्तथा ।। हस्तश्चित्रा च टठयोः स्वाती डादक्षरादभूत् । विशाखा तु ढणोद्भूता तथदेभ्योऽनुराधिका ।। ज्येष्ठा धकारान्मूलाख्या नपफेभ्यो वतस्तथा । पूर्वाषाढा भतोन्या च सञ्जाता श्रवणा मतः । श्रविष्ठाख्या च यरवोस्ततः शतभिषा लतः । वशयोः प्रोष्ठपत्संज्ञा षसहेभ्यः परा स्मृतः।। -  इन श्लोकों के आधार पर वर्णाधारित नक्षत्र-सारणी निम्नांकित रुप से बन रही है-

२७ नक्षत्र
अकारादि वर्ण
अश्विनी
अ,आ
भरणी
कृत्तिका
ई,उ,ऊ
रोहिणी
ऋ,ॠ,लृ,ॡ
मृगशिरा
आर्द्रा
पुनर्वसु
,
पुष्य
आश्लेषा
ख,ग
मघा
घ,ङ
पूर्वा
उत्तरा
छ,ज
हस्ता
,
चित्रा
ट,ठ
स्वाती
विशाखा
ढ,ण
अनुराधा
त,थ,द
ज्येष्ठा
मूल
न,प,फ
पूर्वाषाढ
उत्तराषाढ
श्रवण
धनिष्ठा
य,र
शतभिष
प्रोष्ठपदा(पू.भा.)
व,श
उत्तरभाद्रपद
ष,स,ह,क्ष
रेवती
अं,अः,ळ
 उक्त सभी वर्णों को पुनः पञ्चमहाभूतों के अधीन बतलाया गया है। इसका आधार भी उक्त प्रपञ्चसारतन्त्रम् ही है। यथा-
पञ्महाभूत
अकादिवर्ण
शत्रुभूत
मित्रभूत
वायु
अ,आ,ए,क,च,ट,त,प,य,ष
जल
अग्नि
अग्नि
इ,ई,ऐ,ख,छ,ठ,थ,फ,र,क्ष
जल
वायु
पृथ्वी
उ,ऊ,ओ,ग,ज,ड,द,ब,ल,ळ
अग्नि
जल
जल
ऋ, ॠ,औ,घ,झ,ढ,ध,भ,व,स
अग्नि
पृथ्वी
आकाश
लृ,ॡ,क्ष,ङ,ञ,ण,न,म,श,ह
  0
 0
 
ध्यातव्य है कि समस्त वर्ण विसर्गात्मक ही हैं, अतः सारणी में अलग से विसर्ग को शामिल नहीं किया गया है, तथा हम देख रहे हैं कि क्षक्रमशः अग्नि और आकाश दोनों भूतों में उपस्थित है। इन पाञ्चभौतिक वर्णों का प्रयोग स्तम्भन, परिवर्षण आदि कार्यों में किया जाता है। मन्त्र-साधना में साधक के हिताहित का विचार करने के लिए इन वर्गीकरणों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए । जिस प्रकार भूतों में परस्पर मित्र-शत्रु भाव होता है, उसी भाँति साधक के नामाक्षर से भी भूतादि सम्बन्ध विचार आवश्यक है, अन्यथा लाभ के बदले हानि ही होगी । परस्पर विरोधी तत्त्वों का मेल कैसे सम्भव हैसोचने वाली बात है।
            जैसे— जल तत्त्व साधक को अग्नितत्त्व वाले मन्त्र कैसे लाभ दे पायेंगे ! इसी भाँति अन्य तत्त्वों का भी विचार करना चाहिए । उक्त तत्त्व सारणी में स्पष्ट है कि आकाश वस्तुतः निर्लिप्त है, उसे किसी से शत्रुता या मैत्री नहीं है, यानी सभी तत्त्वों के साथ उसका समान व्यवहार है । पञ्चीकरण-सिद्धान्त से भी स्पष्ट है कि आकाश में सभी तत्त्वों का प्रतिनिधित्व है । इसे इस प्रकार समझा जा सकता है-
तत्त्व
मित्र
शत्रु
पृथ्वीतत्त्व
जलतत्त्व
अग्नितत्त्व
जलतत्त्व
पृथ्वीतत्त्व
वायुतत्त्व
अग्नितत्त्व
वायुतत्त्व
जलतत्त्व
वायुतत्त्व
अग्नितत्त्व
जलतत्त्व







पृथ्वीतत्त्व और जलतत्त्व परस्पर मित्र हैं, तथा पृथ्वीतत्त्व और अग्नितत्त्व परस्पर शत्रु हैं। अग्नितत्त्व और वायुतत्त्व परस्पर मित्र हैं,तथा जलतत्त्व और अग्नितत्त्व परस्पर शत्रु हैं। जलतत्त्व और वायुतत्त्व परस्पर शत्रु हैं।ध्यातव्य है कि आकाश तत्त्व इस मित्रामित्र बन्धन से सर्वदा मुक्त है । इसे उक्त सारणी से भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है ।
            आगे, शारदातिलक , द्वितीयपटल के श्लोकों को उद्धृत करके उपयोगिता और सावधानी के विषय में कुछ चर्चा कर लेना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। इसके व्याख्याकार कहते हैं कि मन्त्रसाधकों के लिए वर्णों का पञ्चभूतात्मक वर्गीकरण अति आवश्यक है। जिस प्रकार भूतों में परस्पर मित्र-शत्रुभाव है, उसी प्रकार मन्त्रवर्णों और साधक के नाम-वर्ण (पुकारनाम, न कि राशिनाम) के वर्णों के बीच मित्रामित्र सम्बन्ध-विचार अवश्य किया जाना चाहिए। ताकि किसी प्रकार अनिष्टकर प्रभाव न पड़े साधक पर । इसे समझने के लिए ऊपर दिये गये सारणियों पर ध्यान देना चाहिए । मूल श्र्लोक इस प्रकार हैं-   मन्त्रसाधकयोराद्यो वर्णः स्यात् पार्थिवो यदि । तत्कुलं तस्य तत्प्रोक्तमेव-मन्येषु लक्षयेत् । पार्थिवं वारुणं मित्रमाग्नेये मारुतं तथा ।। ऐन्द्रवारुणयोः शत्रुर्मारुतः परिकीर्तितः । आग्नेये वारुणं शत्रुर्वारुणे तैजसं तथा ।। सर्वेषामेव तत्त्वानां सामान्यं व्योमसम्भवम् । परस्परविरुद्धानां वर्णानां यत्र सङ्गतिः । समन्त्रः साधकं हन्ति किं वा नास्य प्रसीदति ।।
उक्त सारणी और नियमों के अतिरिक्त, आगे एक और सारणी प्रस्तुत है, जिसमें पांचों मूलतत्त्वों को नौ वर्गों में रखा गया है। इस विचार से बनी सारिणी में एक खास बात ये लक्षित होती है कि पृथ्वीतत्व के हिस्से में दूसरे और नवें वर्ग में स्थान रिक्त है, तथा नौवें वर्ग में जलतत्त्व का स्थान भी रिक्त है । वर्णों का विशेष विचार करने हेतु इन बातों पर भी ध्यान देना चाहिए । सारणी के आधार-श्र्लोक निम्नांकित हैं––
अथ भूतलिपिं वक्ष्ये सुगोप्यामतिदुर्लभम् । यां प्राप्य शम्भोर्मुनयः सर्वान् कामान् प्रपेदिरे।। पञ्चह्रस्वा सन्धिवर्णा व्योमेराग्निजलं धरा । अन्त्यमाद्यं द्वितीयं च चतुर्थं मध्यमं क्रमात् ।। पञ्चवर्गाक्षराणि स्युर्वान्तं श्वेतेन्दुभिः सह । एषा भूतलिपिः प्रोक्ता द्विच- त्वारिंशदक्षरैः ।। आयम्बराणामं वर्गाणां पञ्चमाः शार्णसंयुताः । वर्गाद्या इति विज्ञेया नव वर्गाः स्मृता अमी।।  (शारदातिलक सप्तमपटल)    
 
वर्ग
       पञ्चमहाभूत
क्रम
आ.
वा.
अ.
ज.
पृ.
.
लृ
.
0
.
.
.
.
.
८.
.
0
0














इन सभी वर्गों का स्वामित्व भी स्पष्ट किया गया है, आगे के श्लोकों में— व्योमेराग्निजलक्षोणी वर्गवर्णान् पृथग्विदुः ।
      द्वितीयवर्गे भूर्नस्यात् नवमे न जलं धरा ।।
      विरिञ्चिविष्णुरुद्राश्वि- प्रजापतिदिगीश्वराः।
      क्रियादिशक्तिसहिताः क्रमात्स्युः वर्गदेवताः ।।
      ऋषिः स्याद्दक्षिणामूर्तिः गायत्रं छन्द ईरितम् ।
      देवता कथिता सद्भिः साक्षाद्वर्णेश्वरी परा ।। 
अर्थात् इन सभी वर्णों के देवता,ऋषि और छन्द भी स्पष्ट हैं। क्रिया ज्ञान और इच्छा आदि इन वर्णों की शक्तियाँ कही गयी हैं। विरिञ्चि, विष्णु, रुद्र, अश्विनी, प्रजापति तथा चारो दिगीश्वर इनके स्वामी कहे गये हैं। इन सारी बातों से स्पष्ट है कि ये वर्ण (अक्षर) अपने पद को सार्थक करते हैं। ये केवल सांकेतिक ध्वनियाँ नहीं है, प्रत्युत परम चैतन्य महाशक्तियाँ हैं । ये सारा जगत प्रपञ्चवाच्यात्मक विश्व, इन्हीं वाचक वर्णों के अधीन हैऐसा कहना जरा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी । सृष्टि के आदि क्षण से शब्द और अर्थ अविनाभूत हैं । सूक्ष्म को आत्मसात कर लेने पर समस्त स्थूल का भी अधिग्रहण हो जाता है- इसमें जरा भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए । ये समस्त मातृका-वर्ण ही विविध मन्त्रों और विद्याओं के जनक हैं, अतः इनकी महत्ता और उपादेयता को स्वीकारने में जरा भी किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।
            परात्रिंशिका का वक्तव्य है- अमूला तत्क्रमाज्ज्ञेया क्षान्ता सृष्टिरुदाहृता । सर्वेषामेव मन्त्राणां विद्यानां च यशस्थिनि ।। इयं योनिः समाख्याता सर्वतन्त्रेषु सर्वदा ।। अस्तु ।।

            उपायात्मक मन्त्रों के रुप में परमेश्वर ही स्फुरित होते हैं । वस्तुतः सामान्यतया उच्चारण किये जाने वाले मन्त्र, मन्त्र नहीं हैं । मन्त्रों की जीवभूत अव्यय शक्ति ही वास्तव में मन्त्र-पद-वाच्य है। शिवसूत्रविमर्शिनी में कहा गया है- उच्चार्यमाणा ये मन्त्रा न मन्त्रांश्चापि तद्विदुः...मन्त्राणां जीवभूता तु या स्मृता शक्तिरव्यया । तया हीना वरारोहे निष्फला शरदभ्रवत्।। - यानी शरदकालिक मेघ की भांति वे निष्फल हैं । वर्णात्मक और वदनात्मक तक ही भावना बनाये रखना- सर्वदा मूढता ही कही जायेगी । यथा- वर्णात्मको न मन्त्रो दशभुजदेहो न पञ्चवदनौऽपि । संकल्पपूर्वकोटौ नादोल्लासो भवेन्मत्रः।। 
            सच पूछा जाय तो विश्व-विकल्प की पूर्वकोटि में उल्लसित नाद ही मन्त्र है । महार्थमञ्जरी में संकेत है कि मननत्राणधर्माणो मन्त्राःअर्थात्  मनन और त्राण- ये ही धर्म हैं मन्त्र के । परस्फुरणा का परामर्श ही वस्तुतः मनन है, परशक्ति के महान वैभव की अनुभूति ही मनन है । तथा अपूर्णता अथवा संकोचमय भेदात्मक संसार के प्रशमन को त्राण कहा गया है । इसे और भी स्पष्ट किया जाय तो कहा जा सकता है कि शक्ति के वैभव या विकास-दशा में मनन युक्त तथा संकोच वा सांसारिक अवस्था में त्राणमयी अनुभूति ही मन्त्र है । यथा— मननमयी निज विभवे निजसङ्कोचमये त्राणमयी । कवलितविश्वविकल्पा अनुभूतिः कापि मन्त्रशब्दार्थः ।।  या कह सकते हैं कि परावागात्मक अनुभूति ही मन्त्र है । यह अनुभूति निरन्तर विधिवत मनन (अनुसन्धि) से उत्पन्न होती है, यही कारण है कि संसार को क्षीण करने वाला- त्राणकारक बन पाता है । इस सम्बन्ध में सौभाग्यभास्कर एवं नेत्रतन्त्रम् के वचन हैं-
        पूर्णाहन्तानु सन्ध्यात्मा स्फूर्जन् मननधर्मतः । संसारक्षयकृत्त्राणाधर्मतो मन्त्र उच्यते ।। तथा च मोचयन्ति च संसाराद्योजयन्ति परे शिवे । मनन त्राणधर्मित्वात्तेन मन्त्र इति स्मृताः ।।

            शिवसूत्रविमर्शिनी में तो चित्त को ही मन्त्र कहा गया है । सूत्र है- चित्तंमन्त्रः ।। अब इस चित्तको समझने के लिए ' प्रत्यभिज्ञाहृदय के संकेत को समझना होगा— चितिरेव चेतनपदादवरुढा चेत्थसङ्कोचिनी चित्तम् –  स्वातन्त्र्यात्मक स्वरुप की संकोचदशा ही चित्त है और विकास अवस्था ही चिति कही गयी है । इस प्रकार निरन्तर सम्यक् चिन्तन से साधक का चित्त ही मन्त्र हो जाता है । अर्थात् केवल वर्ण संघट्टना ही मन्त्र नहीं है । प्रत्युत चिति’- ‘ शब्द की चरमावस्था है, यानी इसके आगे अब शब्द का सामर्थ कहां ! शब्दब्रह्मस्वरुपेयं शब्दातीतं तु जप्यते...। शब्द ब्रह्मरुप अपर ब्रह्म का अतिक्रमण करने पर शब्दातीत परब्रह्म की पदवी प्राप्त की जा सकती है । तदाक्रम्य बलं मन्त्राः सर्वज्ञबलशालिनः । प्रवर्तन्तेऽधिकाराय करणानीव देहिनाम् ।। तत्रैव सम्प्रलीयन्ते शान्तरुपा निरञ्जनाः । सहाराधकचित्तेन तेन ते शिवधर्मिणः।। 

            स्पन्दकारिका का कथन है कि मन्त्र चित्तशक्ति का आधार लेकर सर्वज्ञत्व आदि बल से समन्वित होकर अनुग्रहरुप स्वाधिकार में प्रवृत होते हैं । उनका कोई आकार विशेष नहीं होता । वे प्राणियों के इन्द्रियों के समान हैं । जब आराधक का चित्त आराध्य में लीन हो जाता तब वे शिवात्मक माया कालुष्य से रहित मन्त्र भी वहीं चित्तशक्ति में समाविष्ट हो जाते हैं । शिव, शक्ति और आत्मा- ये तीन ही श्रेष्ठ तत्त्व हैं । पूर्णकाम शिव अपनी स्वातन्त्र्यात्मक शक्ति द्वारा चराचर जगत की रचना करते हैं, इस प्रकार शक्ति ही सबका उपादान कारक सिद्ध है ।
मन्त्र की परिभाषा पर विचार करें तो कह सकते हैं किमननं विश्वविज्ञानं त्राणं संसारबन्धनात् । यतः करोति संसिद्धिं मन्त्र इत्युच्यते ततः ।। (पिंगलामत), मनन-त्राणाच्चैव मद्रुपस्यावबोधनात् , मन्त्र इत्युच्यते सम्यग् मदधिष्ठानतः प्रिये ।। (रुद्रयामल), पूर्णाहन्तानुसंध्यात्मस्फूर्जन् मननधर्मतः । संसारक्षयकृत् त्राणधर्मतो मन्त्र उच्यते ।। (ललितासहस्रनाम भाष्य- भास्करराय-वचन) अर्थात् जो मनन-धर्म से पूर्ण अहन्ता के साथ अनुसन्धान करके आत्मा में स्फुरण उत्पन्न करता है, तथा संसार का क्षय करने वाले त्राणगुणों से युक्त हो, वही मन्त्र है । या ऐसा भी कह सकते हैं- मन्त्रोदेवाधिष्ठितोऽसावक्षररचनाविशेषः   -  देवता से अधिष्ठित यह एक अक्षर-रचना विशेष है ।
            शास्त्र कहते हैं कि सर्वप्रथम बीजमन्त्रों की उत्पत्ति हुयी । वह भी एक खास वजह और विशेष अवस्था में । ईश्वरेच्छा से समष्टि के प्रथम स्पन्दन से ऊँकार की उत्पत्ति हुयी । तदुपरान्त प्रकृति की व्यष्टि स्पन्दन से क्रमशः पृथ्विव्यादि पंचतत्त्व सहित मन, बुद्धि और अहंकार- ये आठ बीजों की उत्पत्ति हुयी । अ+उ+म् = ऊँ , अ+ए+म्= ऐँ-गुरुबीज, ह+र+ई+म् =ह्रीँ-शक्तिबीज , श+र+ई+म्= श्रीँ- रमाबीज , क+ल+ई+म् =क्लीँ - कामबीज, क+र+ई+म = क्रीँ- योगबीज , ट+र+ई+म् = ट्रीँ तेजोबीज, स+त+र+ई+म् = स्त्रीँ- शान्तिबीज, ह+ल+र+ई+म् = ह्ल्रीँ- रक्षाबीज। - शब्दब्रह्म की ये ही आठ प्रकृतियाँ हैं ।

इस सम्बन्ध में कहा गया है-
बीजमन्त्रास्त्रयः पूर्वं ततोऽष्टौ परिकीर्तिताः ।
गुरुबीजं शक्तिबीजं रमाबीजं ततो भवेत् ।।
कामबीजं योगबीजं तेजोबीजमथापरम् ।
शान्तिबीजं च रक्षा च प्रोक्ता चैषां प्रधानता ।।

            परम शिव ने भगवती उमा के प्रति कहा है कि मेरे प्रणव में अ,, म अवस्थित है और तुम्हारे प्रणव में  उ, म और अ- इस प्रकार उमापद की उपादेयता सिद्ध होती है ।  ये उमा ही ओंकार-सार-शक्ति रुपा हैं । प्राणिमात्र की बुद्धि जब सुप्त हो जाती है, या कहें अबुद्धदशा की स्थिति में हृत्कमल के अन्तर्गत दहराकाशरुपी शिव के सिर में अकारादिमात्रादित्रय शून्य (अमात्र) प्रणवनादभागी शब्दब्रह्मात्मक (अन-आहतनाद) रुप में  जो इन्दुकला वर्तमान रहती है, वही उमा है–  अर्द्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः त्वमेव संध्या सावित्री त्वमं देविजननि परा...(रात्रिसूक्त) आदि सम्बोधनों से महर्षि मार्कण्डेय ने इसी उमा का निदर्शन किया है । तुरीय तत्वात्मक ये हेमवती उमा ही अति तूर्यतत्व का दिङ्गनिर्देश करती हैं । अकार, उकार, मकार, विन्दु, नाद- इन कलाओं का स्वच्छन्दतन्त्रम् में एक प्रणव नाम से भी उल्लेख किया गया है । ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर, सदाशिवादि क्रमशः इनके देवता कहे गये हैं । उक्त पांचो को क्रमशः ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म के नाम से भी जाना जाता है ।
नेत्रतन्त्रम् में बड़ा ही गूढ़ संकेत है- प्रणवः प्राणिनां प्राणो जीवनं सम्प्रतिष्ठितम्....। ये प्रणव ही प्राणिमात्र का प्राण है। अकार, उकार, मकार, विन्दु, अर्द्धचन्द्र, रोधिनी, नाद, नादान्त, शक्ति, व्यापिनी, समना और उन्मना–  इन बारह कलाओं से ओंकार, पृथ्वी से शिव पर्यन्त समस्त तत्त्वों और भुवनों को आकर्षित करता है-  अकारश्च उकारश्च मकारो विन्दुरेव च । अर्द्धचन्द्रो निरोधी च नादो नादान्त एव च ।। कौण्डिलो व्यपिनी शक्तिः समनैकादशी स्मृता । उन्मना  च ततोऽतीता तदतीतं निरामयम् ।। (स्वच्छन्दतन्त्र) इसमें समना पर्यन्त भवपाशजाल से मुक्ति नहीं है। वस्तुतः वह तो उन्मना की अवस्था हैसमनान्तं वरारोहे पाशजालमनन्तकम् ।

यहां एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि ओंकारगत अणुतर ध्वनियाँ उपर्युक्त विन्द्वादि ही हैं । इस सम्बन्ध में भास्कराय जी कहते हैं- विन्द्वादि नव कलाएँ सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम कालोच्चरित ध्वनिविशेष वा वर्णविशेष  ही हैं, जो ककारादि सदृश स्पष्ट उच्चरित न होने पर भी, जिस भाँति अनुस्वारादि को वर्ण माना गया है, इन्हें भी मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।
अब यहाँ एक और बात पर ध्यानाकर्षित करना चाहता हूँ । साधकों को प्रणव पर तो केन्द्रित होना ही है, इसके वगैर काम कैसे चलेगा !
            वर्णोद्धारतन्त्रोक्त मातृका-ध्यान, जिसके अन्तर्गत सभी
वर्णमातृकाओं के ध्यान के लिए एक-एक स्वतन्त्र श्लोक दिये गये हैं, जिसके विषय में पिछले प्रसंग में ही चर्चा हो चुकी है, किन्तु वहाँ एक मूल बात कहनी शेष रह गयी थी।
            उक्त श्लोकों में से प्रणवाक्षर के तीन वर्णमातृकाओं के ध्यान को विशेष रुप से चिह्नित किया गया है, जो इस प्रकार हैं-               
(अ) केतकीपुष्पगर्भाभां द्विभुजां हंसलोचनाम् ।
     शुक्लपट्टाम्बरधरां पद्ममाल्यविभूषिताम् ।।
     चतुर्वर्गप्रदां नित्यं नित्यानन्दमयीं पराम् ।
     वराभयकरां देवीं नागपाशसमन्विताम् ।        
     एवं ध्यात्वा अकारं तु तन्मन्त्रं दशधा जपेत् ।।
(उ) पीतवर्णां त्रिनयनां पीताम्बरधरां पराम् ।
     द्विभुजां जटिलां भीमां सर्व सिद्धि प्रदायिनीम् ।
     एवं ध्यात्वा सुरश्रेष्ठां तन्मन्त्रं दशधा जपेत् ।।
(म) कृष्णा दशभुजां भीमां, पीतलोहितलोचनाम् ।
     कृष्णाम्बरधरां नित्यां धर्मकामार्थमोक्षदाम् ।
     एवं ध्यात्वा मकारं तु तन्मन्त्रं दशधा जपेत् ।।
अब तक के प्रसंग में सूर्यरश्मियों (वर्णों) वर्णमातृकाओं के विषय में काफी-कुछ स्पष्ट करने का प्रयास किया गया । आशा है मनोविनोदी सामान्य पाठकों ही नहीं, बल्कि सूर्य विज्ञान के  साधकों के लिए भी ये काफी उपयोगी और भ्रम-निवारक सिद्ध होगा ।  अस्तु ।
                                  ।। ऊँ भास्कराय नमः।।
                              



क्रमशः...
                              

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