अष्टम चिन्तन (प्रथम भाग)
सूर्यविज्ञान
:: गायत्री बीज का प्रस्फुटन
अब तक के प्रसंगों में
सूर्यविज्ञान पर काफी कुछ प्रकाश डाला गया, किन्तु एक आधारभूत चर्चा अभी शेष है।
भारतीय परम्परा में एक शब्द प्रचलित है- द्विज- यानी दो बार जन्म लेने वाला । ये
दो बार का क्या मतलब?
निश्चित है कि हर प्राणी
मातृगर्भ से जन्म लेकर संसार में आता है। किन्तु मनुष्यों के लिए संस्कारगत जन्म
की बात भी कही जाती है। समय पर उपवीती बनाकर, मन्त्र-दीक्षा देकर मनुष्य को इस
योग्य बनाया जाता है कि वह अपने सत्कर्म और साधना से संसारसागर के पार जा सके ।
मनुष्य जन्म पाने का मूल उद्देश्य भी यही है । यज्ञोपवीत और गायत्री दीक्षा से ही
द्विजत्व की प्राप्ति होती है । यही दूसरा जन्म है मनुष्य का ।
इस दूसरे जन्म में आने के
पश्चात् पहला कार्य होता है—संध्या-गायत्री और सूर्योपासना। वेदाध्ययन का अधिकार
यज्ञोपवीत-संस्कार के पश्चात् ही मिलता है। ध्यातव्य है कि वेदमाता गायत्री हैं।
इसीलिए गायत्री की ही दीक्षा दी जाती है पहले । शास्त्र निर्दिष्ट समय (पाँच से आठ वर्ष के बीच)
पर उपवीति होकर नित्य (यथासम्भव त्रिकाल, प्रातः-सायं, या सिर्फ प्रातः अनिवार्यतः) संध्योपासन
कर्म करना चाहिए ।
संध्या का अनिवार्य –
अपरिहार्य अंग है— गायत्री मन्त्र-जप । इसे
अष्टोत्तरशत से लेकर अष्टोत्तरसहस्र तक यथासम्भव साधना चाहिए । चुंकि
गायत्रीमन्त्र में चौबीस वर्ण हैं, इस कारण—वर्णलक्षजपेत् सिद्धि...
सिद्धान्तानुसार,चौबीस लाख जप से गायत्रीमन्त्र का पुरश्चरण होता है। सम्भव हो तो
इसे आनुष्ठानिक रुप से सम्पन्न किया जा सकता है, ताकि विशेष तेजोदीप्त हुआ जा सके।
लागातार चौबीस वर्षों तक(अबाधित क्रम से) नित्य सहस्र मन्त्रजप से भी काफी हद तक
मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
संध्या की कई प्रचलित
शास्त्रीय विधियाँ हैं- संक्षिप्त, विस्तृत, अतिविस्तृत इत्यादि। सुविधानुसार किसी एक का पालन किया जा सकता है। इसकी
पुस्तकें बाजार में सुलभ हैं। संध्या-गायत्री के पश्चात् नित्य वा कम से कम
साप्ताहिक (प्रत्येक रविवार) एवं सूर्य के विशेष पर्व- सूर्यषष्ठीव्रत, सूर्यसप्तमी व्रत आदि अवसरों पर अलोन भोजन व्रत रखते हुए, आदित्यहृदय स्तोत्र का एक वा द्वादश आवृत्ति पाठ अवश्य करे। आदित्यहृदयस्तोत्र
भी लधु और वृहत् दो प्रकार का है। दोनों का अपना-अपना महत्त्व है। किसी को कमतर
नहीं आंका जा सकता। एक है भविष्योत्तरपुराण का अंश और दूसरा है वाल्मीकि प्रणीत ।
जिसकी विशेष चर्चा गत अध्याय में की जा चुकी है ।
सच पूछें तो संध्या-गायत्री
का रहस्यमय सूत्र पकड़ा कर ऋषियों ने आत्म-कल्याण का अति सरल-सुगम मार्ग प्रशस्त
कर दिया है । किशोरावस्था में ही कुलगुरु द्वारा अध्यात्मविद्या का बीज रहस्यमय
ढंग से रोपित कर दिया जाता है हमारे भीतर, जो समय पर
स्वतः प्रस्फुटित, पल्लवित, पुष्पित और
अन्त में फलित हुए बिना रह ही नहीं सकता । किन्तु अज्ञान में हम इस हीरे को कंकड़
समझ कर भुला दिये हैं । कुछ बन्धु जो इसे कर भी रहे हैं, तो
सिर्फ खानापूर्ति रुप में, न कि रहस्य को जान-समझ कर ।
प्रसंगवश यहाँ इसके रहस्यों
पर किंचित प्रकाश डालने का प्रयास करते हैं। संध्या-विधि की कुछ मुख्य कड़ियों पर
ध्यान दें—
तिलक, शिखाबन्धन, आसन
शुद्धि-बन्धन, प्राणायाम, अघमर्षण,
सूर्यार्घ्य, उपस्थान, न्यास,
जपपूर्वमुद्रा, गायत्रीजप, जपोत्तरमुद्रा, गायत्रीस्तोत्र, गायत्रीहृदय, गायत्रीकवचादि । साधना जगत में पदार्पण
करके, सम्यक् गतिशील होने के लिए उक्त कड़ियाँ प्रशस्त
पायदानों की भूमिका में होती हैं । शनैःशनैः आगे बढ़ते हुए, परम
लक्ष्य को सहज ही लब्ध किया जा सकता है।
ध्यातव्य और ज्ञातव्य है कि
संसार की जो कोई भी साधना विधि हो—वैदिक हो या
तान्त्रिक या उभय, किसी भी पंथ, किसी
भी सम्प्रदाय का क्यों न हो, गहराई में झांकेंगे तो एक ही
बात मिलेगी, क्यों कि परमात्मा एक ही है।
ढूढ़ने-पहुँचने-पाने के रास्ते भले ही अनेक हों । ध्यानयोगी हो या कर्मयोगी,
भक्तियोगी हो या अष्टांगयोगी - गहरे में बहुत अन्तर नहीं है।
विभिन्न पथ-यात्रियों की अन्तःक्रिया (प्रभाव) लगभग समान
होती है।
संध्या-गायत्री नित्यक्रिया
के क्रम में वस्तुतः हम जाने-अनजाने सूर्यतन्त्र की साधना ही कर रहे होते हैं ।
इसका सीधा प्रभाव कुण्डलिनी महाशक्ति पर पड़ता है। शिखा-सूत्र, तिलक ये सभी किसी न किसी भीतरी नक्शे का स्मरण दिलाते हैं। भले ही इन्हें
हम सिर्फ धार्मिक चिह्न (साइनवोर्ड) की तरह उपयोग करते आ रहे हैं। विभिन्न तरह का
तिलक लगा कर हम यही प्रदर्शित करना चाहते हैं कि हम अमुख सम्प्रदाय के, अमुक परम्परा के हैं । जबकि इनका वास्तविक रहस्य कुछ और ही है। मूलतः
अध्यात्म को इन साइनवोर्डों से कोई वास्ता नहीं है। साधना-पथ पर आगे बढ़ा हुआ साधक
इन सारे बाहरी आडम्बरों और दिखावे से विलग हो जाता है। उसे न तिलक की अनिवार्यता
प्रतीत होती है, न विभिन्न मालाओं की ही ।
सच पूछा जाय तो जिसने तिलक
का रहस्य जान लिया, उसे तिलक की आवश्यकता ही क्या ! अन्तस्थ
माला को चैतन्य कर लिया (ज्ञान प्राप्त कर लिया), उसे बाहरी
माला की आवश्यकता ही क्या ! पंचप्राणों को जिसने यामित कर लिया उसके लिए तो जीवन
और मृत्यु एक खेल भर है ।
अब क्रमशः संध्या की एक-एक
मुख्य क्रियाओं पर थोड़ा प्रकाश डालते हैं। संध्यार्थ आसन ग्रहण करने के पश्चात्
सर्वप्रथम शिखा-बन्धन करते हैं। इसके मन्त्रों पर ध्यान दें—चित्तरुपिणी महामाये...ये हमारी चेतना ग्रन्थि
को उद्दीपित करने की विधि है। फिर भ्रूमध्य में तिलक लगाते हैं। साम्प्रदायिक भेद
से, मध्य नासिका से लेकर ललाट के उर्ध्वभाग पर्यन्त तिलक का
स्वरुप कुछ भी हो सकता है। तिलक वस्तुतः अन्तर्द्वार का संकेत है। स्मरण है।
उद्दीपन है। क्रियाकाल की अन्तःवाह्य सुरक्षा हेतु आचमन, विनियोग, आसन शुद्धि और बन्धन आदि करते हैं। उन ऋषियों के प्रति आभार व्यक्त करते
हैं- उनके नाम, गोत्रादि सहित, जिन्होंने
ये पथ प्रशस्त किये हमारे लिए। फिर नाम-गोत्र, दिक्, कालादि में स्वयं को संतुलित-व्यवस्थित करने का प्रयास करते हैं- संकल्प
पूर्वक। या कहें स्वयं को कालबोध कराते हैं संकल्प-वाक्यों से। प्राणायम क्रिया
द्वारा जीवन का मूलाधार - प्राणादि पंचप्राणों को
संतुलित-नियन्त्रित करते हैं।
वस्तुतः साधना रुपी संयन्त्र
का ईंधन है—प्राणायाम । इस क्रिया के समय क्रमशः ब्रह्मा-विष्णु-महेश का तीन विशिष्ट
स्थानों पर ध्यान करते हैं। ध्यातव्य है कि इसका श्रीगणेश वहीं से होता है,
जहाँ कायगत सूर्य की स्थिति है। इस स्थान को ही योगियों ने संसार
कहा है। सतत प्राणायाम की क्रिया सम्पन्न करते-करते साध्य छः चक्रों में तीन की
सम्यक् शुद्धि हो जाती है, यानी लगभग आधा काम तो अनजाने में
ही, हँसी-खेल में ही सम्पन्न हो जाता है ।
यहीं पर सूर्य को अर्घ्य
अपर्पित करते हैं। उपस्थान से स्वयं को उत्थानित करते हैं, तो विविध न्यासों से चेतना को न्यस्त ।
वेदमाता (ज्ञान की कुँजी, या कहें ज्ञान का प्रमुख स्रोत) गायत्री के विशिष्ट वर्णों द्वारा
निरन्तर प्रहार— मूल को चैतन्यकर, परम
चैतन्य से जोड़ने का अद्भुत कार्य करता है। जप के पूर्व और पर की विभिन्न मुद्राएं
अत्याधुनिक इलोक्ट्रोनिक संयन्त्र के सर्किट डायग्राम से कम हैं क्या !
इस ‘सर्किट डायग्राम’ को जिसने ठीक से समझ लिया वो तो
अभियन्त्रणा-निष्णात् हो ही जायेगा । अग्नि, जल और आकाश का
प्रतिनिधित्व करती मध्यमा, अनामिका और अंगुष्ठ के सहारे
सरकता रुद्राक्ष-मनका कब तीन तत्त्वों को समाहृत कर देता है,
पता भी नहीं चलता । (ध्यातव्य है कि माला फेरते समय
वायुतत्त्व (तर्जनी) से सदा बचने का प्रयास करना है) फिर
तो साधने को रह जाता है सिर्फ जल और पृथ्वी । सतत प्रणव-प्रहार से पृथ्वी तो पहले
ही द्रवित (मुलायम अर्थ में) हुयी रहती है, जहाँ किसी
बीज का अंकुरण सहज ही सम्भव हो जाता है।
सच पूछें तो संध्या-गायत्री
अप्रकम्पित आधार शिला है, जिस पर सूर्यतन्त्र
का साधना-प्रासाद खड़ा होता है। इसकी महत्ता और गरिमा को प्रकाशित करते हुए ऋषि
कहते हैं—
विप्रो वृक्षो मूलकान्यत्र संध्या
वेदाः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् ।
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं छिन्ने
मूले नैव वृक्षो न शाखा ।।
संध्या येन न विज्ञाता संध्या
येनानुपासिता ।
जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वा
चाभिजायते ।।(दे.भा.पु.११-१६-६,७)
तथाच-
संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः
सर्वकर्मसु ।
यदन्यत्
कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत् ।।(दक्षस्मृति २-२७)
तथाच-
संध्यामुपासते
ये तु सततं संशितव्रताः ।
विधूतपापास्ते
यान्ति ब्रह्मलोकं सनातनम् ।।(अत्रि)
तथाच-
यावन्तोऽस्यां
पृथिव्यां हि विकर्मस्थास्तु वै द्विजाः ।
तेषां
वै पावनार्थाय संध्या सृष्टा स्वयम्भुवा ।।
निशायां
वा दिवा वापि यदज्ञानकृतं भवेत् ।
त्रैकाल्यसंध्याकरणात्
तत्सर्वं विप्रणश्यति ।।(याज्ञ्यवल्क्य)
तथाच-
न
तिष्ठति तु यः पूर्वा नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्।
स
शूद्रवद्वहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणाः ।। (मनुस्मृति-२-१०३)
तथाच-
संध्यालोपस्य
चाकर्ता स्नानशीलश्च यः सदा ।
तं
दोषा नोपसर्पन्ति गरुत्मन्तमिवोरगाः ।। (कात्यायन)
उक्त श्लोकों का सार ये है कि जो द्विज
संध्योपासन नहीं करता वो आजीवन बिलकुल शूद्रवत है और मृत्यु के पश्चात् कुत्ते की
योनि प्राप्त करता है। वह किसी धर्मकार्य का अधिकारी नहीं है । उसके द्वारा किये
गये समस्त धर्मकार्य असफल होते हैं।
और इसी क्रम में आगे
संध्या-प्रशस्ति में कहते हैं कि संध्योपासन करने वाले के सभी पापकर्म नष्ट हो
जाते हैं और उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। पृथ्वी पर निषिद्ध कर्म करने वाले
बहुत से द्विज है, जिनके पापों का मोचन करने हेतु सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने
संध्योपासन का निर्माण किया है। रात में किये गए पापों का प्रातः संध्या से और
सायं संध्या से दिन में किये गए पापों का शमन हो जाता है । त्रिकाल
(प्रातः,मध्याह्न,सायं) संध्या से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । जो द्विज
कभी संध्या को लोप नहीं करता उसके पास दोष-पाप उसी प्रकार नहीं आते जैसे गरुड़ के
सानिध्य में सर्प। ब्राह्मण रुपी वृक्ष का मूल संध्या है । चारो वेद इसकी शाखाएँ
हैं । धर्म-कर्म पत्ते हैं । अतः मूल की रक्षा यत्न से करनी चाहिए, क्यों कि मूल के छिन्न (नष्ट) होने से वृक्ष और शाखा सब कुछ नष्ट हो
जायेगा ।
महर्षि पुलस्त्य ने जननाशौच
और मरणाशौच में भी अबाधित रुप
से संध्योपासन की अनुशंसा की है।
यथा—
संध्यामिष्टं
च होमं च यावज्जीवं समाजरेत् ।
न
त्यजेत् सूतके वापि त्यजन् गच्छत्यधोगतिम् ।।
किन्तु ध्यान रहे अशौच में
संध्या की प्रक्रिया थोड़ी भिन्न हो जाती है – सूतके मानसीं संध्यां कुर्याद् वै
सुप्रयत्नतः । (स्मृतिसमुच्चय)
शास्त्रकारों ने अशौच में
मानसिक सन्ध्या का विधान किया है । अशौच जनित संध्या में सूर्योपस्थान की क्रिया
नहीं की जानी चाहिए— उपस्थानं न चैव
हि । (आचारभूषण
एवं भारद्वाज)
स्पष्ट है कि सूर्यार्घ्य तक
की क्रिया ही सम्पन्न होती है— अर्घ्यान्ता मानसी संध्या । (निर्णयसिन्धु)
किन्तु हां, गायत्री मन्त्र जप
की सीमित संख्या (मात्र १०बार) अनिवार्य है— गायत्रीं दशधा चपत्वा संध्यायाः
फलमाप्नुयात् । पवित्री (पैंती) वाली कुशा तथा जल का प्रयोग भी नहीं करना
चाहिए—कुशवारिविवर्जिता । (निर्णयसिन्धु )
महर्षि गौतम, भारद्वाजादि का
निर्णय बिलकुल स्पष्ट है, जिसकी चर्चा आचारभूषण नामक ग्रन्थ में भी है—
सूतके मृतके कुर्यात्
प्राणायाममन्त्रकम् ।
तथा मार्जनमन्त्रांस्तु मनसोच्चार्य
मार्जयेत् ।।
गायत्रीं सम्यगुच्चार्य सूर्यायार्घ्य
निवेदेत् ।
मार्जनं तु न वा कार्यमुपस्थानं न
चैव हि ।।
सूतके तु सावित्र्याञ्जलिं
प्रक्षिप्य प्रदक्षिम् ।
कृत्वा सूर्य तथा ध्यायन्
नमस्कुर्यात् पुनःपुनः ।।
अपन्नश्चाशुचिः काले तिष्ठन्नपि जपेत्
दशः ।
आपद्यध्वन्यशक्तश्च संध्यां कुर्वीत
मानसीम् ।।
अर्थात्
बिना मन्त्र पढ़े ही प्राणायाम की क्रिया सम्पन्न करे । मार्जन मन्त्रों का मानसिक
उच्चारण करे । गायत्री का सम्यक् उच्चारण करते हुए सूर्य को अर्घ्य प्रदान करे ।
आपात काल (रुग्णादि) में तथा यात्रादि में या अशक्त स्थिति में भी मानसी संध्या की जानी
चाहिए।
प्रसंगवश एक और रहस्य स्पष्ट
कर दूं कि विशेष साधकों के लिए एक तुरीयासंध्या का भी विधान है, जो अर्द्धरात्रि
में सम्पन्न की जाती है । उसके उपस्थान और ध्यान इन तीनों से भिन्न हैं । और
महत्त्व की दृष्टि से वो सर्वाधिक श्रेष्ठ है। अस्तु।
ऊपर संध्या के अन्तःक्रमों
की चर्चा-क्रम में मुद्रा की भी चर्चा की
गयी है। मुद्रा की सामान्य परिभाषा
है- मुदं करोति इति मुद्रा - वो
भंगिमायें, जो हमारे इष्टदेव को प्रसन्न
करने में सहायक हो । इससे ये भी स्पष्ट होता है कि अलग-अलग देवताओं के लिए अलग-अलग
मुद्रायें होना निश्चित है ।
यहाँ हम चर्चा कर रहे हैं सिर्फ गायत्री की
मुद्राओं की । ये मुद्रायें द्विधा विभक्त हैं—जप पूर्व की चौबीस मुद्रायें और जप
पश्चात् की आठ मुद्रायें । ये मुद्रायें बड़ी ही महत्त्वपूर्ण हैं और रहस्यमय भी ।
ये कुछ-कुछ बिजली के वटन की तरह काम करते हैं। जैसे उपकरण कहीं और होता है और उसे
संचालित करने हेतु वटन कहीं और । यदि आप
विद्युत वटन के महत्व को समझते हैं, तो मुद्राओं के महत्व और सावधानी को भी समझना
सरल हो जायेगा । ऐसा नहीं होगा कि आप भीषण सर्दी में पंखे-कूलर का वटन चला देंगे
और गर्मियों में हीटर-गीजर का । कुछ ऐसी ही सावधानी मुद्राओं के प्रयोग के विषय
में भी बरतनी पड़ती हैं । इसलिए साधना के प्रारम्भ में तो इनका सिर्फ सैद्धान्तिक
ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । किंचित अभ्यास के बाद, योग्य गुरु के निर्देशन में ही
मुद्राओं का अभ्यास होना चाहिए ।
संध्या कैसे करें- इस विषय
पर तो पुस्तकें आसानी से बाजार में उपलब्ध हो जाती हैं, किन्तु मुद्रा के विषय में
सही जानकारी देने वाली अधिकारिक पुस्तकों का किंचित अभाव है । अतः यहाँ प्रसंगवश
उन मूल श्लोकों को भी उद्धृत कर देना उचित प्रतीत हो रहा है ।
जपपूर्व की चौबीस मुद्रायें—
सुमुखं
सम्पुटं चैव विततं विस्तृतं तथा । द्विमुखं त्रिमुखं चैव चतुष्पञ्च- मुखं तथा ।।
षण्मुखाऽधोमुखं चैव व्यापकाञ्जलिकं तथा । शकटं यमपाशं च ग्रथितं चोन्मुखोन्मुखम्
।। प्रलम्बं मुष्टिकं चैव मत्स्यः कूर्मो वराहकम् । सिंहाक्रान्तं महाक्रान्तं
मुद्गरं पल्लवं तथा ।। एता मुद्राश्चतुर्विंशज्जपादौ परिकीर्तिताः ।। (दे.भा.पु.
११-१७ -९९ से १०१, तथा याज्ञवल्क्यस्मृति)
अब इन मुद्राओं के प्रदर्शित करने
की विधि का निर्देश करते हैं (ध्यातव्य है
कि आगे दी गयी संख्यायें श्लोक संख्या
नहीं,प्रत्युत मुद्रासंख्या है)—
आकुञ्चितांगुलिकरौ
संयुतौ सुमुखं भवेत् । १।
कोषाकारं
सम्पुटं स्याद् , विततं विस्तृतं भवेत् । २ एवं ३ ।
विस्तीर्णो
विततौ हस्तावन्योऽन्यागुलिसंयुतौ । ४ ।
कनिष्ठानामिकायुक्तौ
हस्तौ द्वौ द्विमुखं भवेत् । ५ ।
तदेव
मध्यमायुक्तं त्रिमुखं परिकीर्तितम् ।६ ।
तदेव
तर्जनीयुक्तं चतुर्मुखमुदीरितम् । ७ ।
तदेव
स्यात् पञ्चमुखं मिलितांगुष्ठकं यदि ।८ ।
तदेव
षण्मुखं प्रोक्तं यद्यश्लिष्टकनिष्टिकम् ।९।
आकुञ्चिताग्रौ
संयुक्तौ न्युब्जौ हस्तावदोमुखम् ।१० ।
उत्तानौ
तादृशावेव व्यापकाञ्जलिकं करौ ।११।
अंगुष्टद्वयसंयुक्तं
मुष्टिद्वयमधोमुखम् ।
सम्प्रसार्य
च तर्जन्यौ शकटं मुनिसत्तमाः ।१२।
मुष्टिंकृत्वा
करौ योज्यौ तर्जन्यौ सम्प्रसार्य च ।
आकुञ्चिताग्रौ
संयोज्य यमपाशं विदुर्बुधाः ।१३।
अन्योन्यायतसंश्लिष्टदशांगुलिकरावुभौ
।
अन्योन्यमभिवध्नीयात्
ग्रन्थितं परिकीर्तितम् ।१४ ।
कृत्वाकरौ
सम्पुटकौ पूर्वं वामकरं सुधीः ।
अधोमुखेन
दक्षेण योजयेत् चोन्मुखोन्मुखम् ।१५।
अधःकोषाकृतिकरौ
प्रलम्बं कोविदो विदुः ।१६।
युतं
मुष्टिद्वयं चैव सम्यङ् मुष्टिकमीरितम् ।१७ ।
दक्षपाणि
पृष्ठदेशे वामपाणितलं न्यसेत् ।
अंगुष्ठौ
चालयेत् सम्यङ् मुद्रेयं मत्स्यरुपिणी ।१८ ।
वामहस्ते
च तर्जन्यां दक्षिणस्य कनिष्ठिका ।
तथा
दक्षिणतर्जन्यां वामांगुष्ठं नियोजयेत् ।।
उन्नतं
दक्षिणांगुष्ठं वामस्य मध्यमादिकाः ।
अंगुलीर्योजयेत्
पृष्ठे दक्षिणस्य करस्य च ।।
वामस्य
पितृतीर्थेन मध्मानामिके तथा ।
अधोमुखे
च ते कुर्याद्दक्षिणस्य करस्य च।।
कूर्मपृष्ठसमं
कुर्याद्दक्षपाणिं च सर्वतः ।
कूर्ममुद्रेयमाख्याता
देवताध्यानकर्मणि ।।१९ ।।
तर्जनीं
दक्षहस्तस्य वामागुष्ठे निवेश्य च ।
हस्तेन
हस्तं वध्नीयात् कोलमुद्रा समीरिता ।२०।
प्रसारितांगुलिकरौ
समीपं कर्णयोर्नयेत् ।
सिंहाक्रान्तं
समुदितं गायत्रीजपतत्परः ।२१।
दर्शयेच्छ्रोत्रयोर्मध्ये
हस्तावंगुलिपञ्चकौ ।
महाक्रान्ता
भवेन्मुद्रा गायत्रीहृदयं गता ।२२।
मुष्टिं
कृत्वा करं दक्षं वामे करतले न्यसेत् ।
उच्छ्रितञ्च
करं कृत्वा मुद्गरं समुदाहृतम्।२३।
दक्षिणेन
करेणैव चलितांगुलिना करः ।
वदनाभिमुखं
चैव पल्लवं मुनिभिःस्मृतम् ।२४।
यथा—
१.
सुमुखम् - दोनों
हाथों की सभी अँगुलियों को मोड़कर परस्पर मिलायें ।
२.
सम्पुटम् - दोनों
हाथों को फुलाकर (अन्तः वर्तुलाकार) परस्पर मिलायें।
३.
विततम् -दोनों
हाथों की हथेलियाँ परस्पर सामने करें।
४.
विस्तृतम् - दोनों हाथों की अँगुलियाँ
खोलकर, दोनों हाथों को थोड़ा अलग कर प्रदर्शित करें।
५.
द्विमुखम् -
दोनों हाथों की कनिष्ठिका से कनिष्ठिका तथा अनामिका से अनामिका को मिलावें ।
६.
त्रिमुखम् -
पुनः दोनों मध्यमाओं को मिलावें, यानी पंचम में ही थोड़ा और परिवर्द्धन करें।
७.
चतुर्मुखम् -
पुनः षष्ठम में परिवर्द्धन करते हुए दोनों तर्जनियों को भी मिला दें।
८.
पञ्चमुखम् -
पुनः सप्तम में परिवर्द्धन करते हुए दोनों अंगूठे को भी मिला दें।
९.
षण्मुखम् - पूर्व
की भाँति हाथ को वैसे ही रखते हुए, सिर्फ कनिष्ठिका को खोलें ।
१०.अधोमुखम्-
उलटे हाथों की अँगुलियों को मोड़े तथा मिलाकर, नीचे की ओर करें।
११.व्यापकाञ्जलिकम्
-
पूर्ववत मिले हुए हाथों को शरीर की ओर घमाकर सीधा करें।
१२.शकटम्
-
दोनों हाथों को उलटा कर अँगूठा मिलाकर दोनों तर्जनियों को सीधा रखते हुए मुट्ठी
बांधें।
१३.यमपाशम्
- तर्जनी
से तर्जनी बाँधकर दोनों मुट्ठियाँ बांधें।
१४.ग्रथितम्
-
दोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर गूंथे ।
१५.उन्मुखोन्मुखम्
– हाथों
की पांचों अँगुलियों को मिलाकर प्रथम बायें पर दाहिना, फिर दाहिने पर बायाँ हाथ
रखें ।
१६.प्रलम्बम्-
सभी
अँगुलियों को थोड़ा मोड़ते हुए दोनों हाथों को उलटाकर नीचे की ओर करें।
१७.मुष्टिकम्-
दोनों अँगूठे ऊपर रखते हुए दोनों मुट्ठियाँ बाँधकर मिलायें।
१८.मत्स्यः-
दाहिने हाथ की पीठ पर बायाँ हाथ उलटा रखकर दोनों अँगूठे हिलायें ।
१९.कूर्मः-सीधे
बायें हाथ की मध्यमा, अनामिका तथा कनिष्ठिका को मोड़कर उलटे दाहिने हाथ की मध्यमा अनामिका को उन तीनों
अँगुलियों के नीचे रखकर तर्जनी पर दाहिनी कनिष्ठिका और बायें अँगूठे पर दाहिनी
तर्जनी रखें।
२०.वराहकम्-
दाहिनी तर्जनी को बायें अँगूठे से मिलाकर, दोनों हाथों की अँगुलियों को परस्पर
बाँधें ।
२१.सिंहाक्रान्तम्-
दोनों हाथों को कानों के समीप करें ।
२२.महाक्रान्तम्-
दोनों हाथों की अँगुलियों को कानों के समीप करें।
२३.मुद्गरम्-
मुट्ठी बाँधकर दाहिनी कुहनी बायीं हथेली पर रखें ।
२४.पल्लवम्-
दाहिने हाथ की अँगुलियों को मुख के सम्मुख हिलायें ।
जप पश्चात् की आठ मुद्रायें—
सुरभिर्ज्ञानवैराग्ये
योनिः शंखोऽथ पङ्कजम् ।
लिङ्गं
निर्वाणमुद्रा च जपान्तेऽष्टौ प्रदर्शयेत् ।।
अब जप पश्चात् की आठ
मुद्राओं के प्रदर्शित करने की विधि का निर्देश करते हैं—अन्योन्याभिमुखी श्लिष्ठा कनिष्ठानामिका पुनः । तथैव तर्जनीमध्या
धेनुमुद्रा समीरिता ।। १।। तर्जन्यंगुष्ठकौ सक्तावग्रतो हृदि विन्यसेत् । वामहस्ताम्बुजं
वामे जानुमूर्द्धनि विन्यसेत् । ज्ञानमुद्रा भवेदेषा रामचन्द्रस्य प्रेयसी ।।२ ।।
तर्जन्यंगुष्ठकौ सक्तौ जान्वन्ते च विनिर्दिशेत् । वैराग्या ह्यस्ति मुद्रा च
मुक्तिसाधनकारिका ।।३।। मिथः कनिष्ठिके वद्ध्वा तर्जनीभ्यामनामिके ।
अनामिकोर्द्धसंश्लिष्टे दीर्घमध्यमयोरथ । अंगुष्ठाग्रद्वये न्यस्य योनिमुद्रेयमीरिता
।।४ ।। वामांगुष्ठन्तु संगृह्य दक्षिणेन तु मुष्टिना । कृत्वोत्तानां तत्तो
मुष्टिंमगुष्ठन्तु प्रसारयेत् । वामांगुल्यस्तथा श्लिष्टाः संयुक्ताः स्युः प्रसारिताः
। दक्षिणांगुष्ठसंस्पृष्टा मुद्रैषा शंखमुद्रिका ।।५।। हस्तौ तु सम्मुखौ कृत्वा संहृतप्रोन्नतांगुली ।
तलान्तमिलितांगुष्ठौ कृत्यैषा पद्ममुद्रिका ।।६।। उच्छ्रितं दक्षिणांगुष्ठं
वामांगुष्ठेन बन्धयेत् । वामांगुलीर्दक्षिणाभिरंगुलिभिश्च बन्घयेत् ।
लिङ्गमुद्रेयमाख्याता शिवसान्निध्यकारिणी ।।७।। अधोमुखं वामकरं तदूर्ध्वं
दक्षिणन्तथा । उत्तानं स्थापयित्वा च संयुक्तांगुलिकौ तदा । हस्तौ तु मुष्टिकौ
कृत्वा श्रोत्रपार्श्वे च कारयेत् । तर्जन्यौ दर्शयेदूर्ध्वमेषा निर्वाणसंस्मृता
।।८ ।।
यथा—
१.
सुरभिः - दोनों
हाथों की अँगुलियाँ परस्पर गूंथकर बायें हाथ की तर्जनी से दाहिने हाथकी मध्यमा, मध्यमा
से तर्जनी, अनामिका से कनिष्ठिका और कनिष्ठिका से अनामिका मिलावें ।
२.
ज्ञानम्- दाहिने
हाथ की तर्जनी से अँगूठा मिलाकर हृदय में तथा इसी प्रकार बायीं तर्जनी को बायें
अँगूठे से मिलाकर बायाँ हाथ बायें घुटने पर सीधा रखें ।
३.
वैराग्यम्-
दाहिनी तर्जनी से दायां अँगूठा और बायीं तर्जनी से बायां अंगूठा क्रमशः मिलाकर,
दोनों हाथों को घुटनों पर रखें ।
४.
योनिः- दोनों
मध्यमाओं के नीचे से बायीं तर्जनियों के ऊपर दाहिनी अनामिका और दाहिनी तर्जनी पर
बायीं अनामिका रख कर दोनों तर्जनियों से बांधकर दोनों मध्यमाओं को ऊपर रखें ।
५.
शंखः-
बायें अँगूठे को दाहिनी मुट्ठी में बाँधकर दाहिने अँगूठे से बायीं अंगुलियों को
मिलावे ।
६.
पङ्कजम्-
दोनों हाथों के अँगूठे तथा अँगुलियों को मिलाकर ऊपर की ओर करें ।
७.
लिङ्गम्-
दाहिने अँगूठे को सीधा रखते हुए दोनों हाथों की अँगुलियों को परस्पर गूँथकर बायां
अँगूठा दाहिने अँगूठे की जड़ के ऊपर रखें ।
८.
निर्वाणम्-
उलटे हुए बायें हाथ पर दाहिना हाथ सीधा रखकर अँगुलियों को परस्पर गूँथ कर, दोनों
हाथ अपनी ओर से घुमाकर, दोनों तर्जनियों को सीधा कान के समीप करें ।
(नोट- 1. बड़े अध्यायों को विभाजित क्रम में पोस्ट किया जा रहा है।
2. मुद्राओं की परिभाषा तो दे दिया,किन्तु चित्र नहीं दे पा रहा हूँ। गीताप्रेस की पुस्तक- नित्यकर्मपूजाप्रकाश में इन मुद्राओं का चित्र देख सकते हैं।)
क्रमशः...
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