सूर्यविज्ञानःआत्मचिन्तन भाग11

अष्टम चिन्तन(द्वितीय भाग)
गायत्री-साधना सम्बन्धी कुछ और भी अत्यावश्यक बातें हैं, जिनका ज्ञान नये अभ्यासियों और साधकों के लिए विशेष कल्याणकारी है । विभिन्न शास्त्रों में इस सम्बन्ध में मार्गदर्शन मिलते हैं । उन्हीं मार्गदर्शिकाओं से किंचित मुक्ताचयन का प्रयास यहाँ किया गया है । सर्वप्रथम महागायत्री के स्वरुप के सम्यक् ध्यान पर पाठकों का ध्यान दिलाना चाहता हूँ, तत्पश्चात् गायत्री मन्त्र के सभी अवयवों (वर्णों) पर प्रकाश डालने का प्रयास करुंगा ।
पञ्चमुखी महागायत्री का ध्यान-
मुक्ता-विद्रुम-हेमनील-धवलच्छायैर्मुखैस्त्रीक्षणैर्युक्तामिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम्। गायत्रीं वरदाभयाङ्कुशकशाः शुभ्रं कपालं गुणं शङ्खं चक्रमथाऽरविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे।। (देवीभागवत,संस्कार प्रकरण)
(भावार्थ- समस्त अभीष्टदात्री देवी गायत्री का मैं ध्यान करता हूँ,जिनके पांच मुख हैं । एक मुख मोती के सदृश श्वेत है, दूसरा मुख मूंगा के सदृश लाल है, तीसरा मुख सुवर्ण की तरह पीलाभ है, चौथा मुख नीलम की तरह नीला है और पांचवां मुख स्वच्छ छाया की भांति है। प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र है, जिनके मस्तक पर रत्न जड़ित मुकुट है, जिसमें चन्द्रमा की कला विराजमान है, जिनके समस्त अवयव चौबीसों अक्षर (तत्सवितु...) से निर्मित हैं । ये देवी दश भुजाओं वाली है, जिनमें क्रमश ऊपर के दाहिने-बांये हाथ अरविन्द धारित है। उसके नीचे वाले हाथों में चक्र और शङ्ख है। उसके नीचे रज्जु और कपाल है। उसके नीचे क्रमशः पाश और अंकुश है  और सबसे नीचे के हाथ क्रमशः अभयमुद्रा और वरद मुद्रा में हैं।
विदित है कि गायत्री मन्त्र में चौबीस अक्षर हैं । इन सभी अक्षरों के अलग-अलग ऋषि, देवता, छन्द, वर्ण (रंग), शक्ति और स्वरुप हैं। श्रीमद्देवी भागवत महापुराण के द्वादशस्कन्ध में इनका विस्तार से वर्णन है। गायत्रीतन्त्रम् में इससे भी अधिक विस्तृत वर्णन है। प्रसंगगवश यहाँ तत्सम्बन्धी संक्षिप्त चर्चा की जारी है।
     तत्व क्रम- (ध्यातव्य है कि इसमें साख्य के तत्त्वों के अनुसार गणना है)
   

१. पृथिवी
    २. जल
    ३. अग्नि
    ४. वायु
    ५. आकाश
    ६. गन्ध
    ७. रस
    ८. रुप
    ९. स्पर्श
    १०. शब्द
    ११. उपस्थ
    १२. गुदा
    १३. पाद
    १४. हस्त
    १५. वाणी
    १६. प्राण(घ्राण)
    १७. जिह्वा
    १८. नेत्र
    १९. त्वचा
    २०. कर्ण
    २१. प्राणवायु
    २२. अपानवायु
    २३. व्यानवायु
    २४. समानवायु

       (ध्यातव्य है कि उदानवायु इसमें नहीं है, या कहें समान में समस्त है)
      
                               —वर्ण(रंग) क्रम—
    १. पीला(चम्पा-अलसी पुष्प सदृश)
    २. सुर्ख(मूंगे की तरह)
    ३. विल्लौरी(स्वच्छ)
    ४. गुलाबी(कमल पुष्प सदृश)
    ५. उदयकालिक सूर्य सदृश)
    ६. श्वेत(शंख सदृश)
    ७. श्वेत(कुन्द पुष्प सदृश)
    ८. मूंगा और कमलदल सदृश मिश्रवर्ण
    ९. लाल(पद्मराग मणि सदृश)
    १०. नीला(इन्द्रनील मणि सदृश)
    ११. मोती सदृश
    १२. केसर सदृश
    १३. काला-नीला(अंजन तुल्य)
    १४. लाल(माणिक्य तुल्य)
    १५. वैदूर्य मणि(लहसुनिया सदृश श्याम)
    १६. माक्षिक(शहद और क्षौद्रधातु सदृश)
    १७. हरिद्रावर्णी
    १८. कुन्दपुष्प सदृश, दुग्धधवल
    १९. सूर्यकान्ति तुल्य
    २०. शुकपक्षी की पूंछ की तरह
    २१. शतदलकमल सदृश
    २२. केतकी पुष्प सदृश
    २३. मल्लिका पुष्प(मोतिया)
    २४. कनेर पुष्प सदृश
                             —शक्ति क्रम—
   

१. वामदेवी
    २. प्रिया
    ३. सत्या
    ४. विश्वा
    ५. भद्रविलासिनी
    ६. प्रभावती
    ७. जया
    ८. शान्ता
    ९. कान्ता
    १०. दुर्गा
    ११. सरस्वती
    १२. विद्रुमा
    १३. विशालेशा
    १४. व्यापिनी
    १५. विमला
    १६. तमोपहारिणी
    १७. सूक्ष्मा
    १८. विश्वयोनि
    १९. जया
    २०. वशा
    २१. पद्मालया
    २२. पराशोभा
    २३. भद्रा
    २४. त्रिपदा

                             —देवता क्रम—

    १. अग्नि
    २. प्रजापति
    ३. सोम
    ४. ईशान
    ५. सविता
    ६. आदित्य
    ७. बृहस्पति
    ८. मैत्रावरुण
    ९. भग
    १०. अर्यमा
    ११. गणेश
    १२. त्वष्ट्रा
    १३. पूषा
    १४. इन्द्राणी
    १५. वायु
    १६. वामदेव
    १७. मैत्रावरुणि
    १८. विश्वेदेवा
    १९. मातृका
    २०. विष्णु
    २१. वसु
    २२. रुद्र
    २३. कुबेर
    २४. अश्विनीकुमार


                                 —छन्द क्रम—

    १. गायत्री
    २. उष्णिक
    ३. अनुष्टुप्
    ४. वृहती
    ५. पंक्ति
    ६. त्रिष्टुप्
    ७. जगती
    ८. अतिजगती
    ९. शकरी
    १०. अतिशकरी
    ११. धृति
    १२. अतिधृति
    १३. विराट्
    १४. प्रस्तारपंक्ति
    १५. कृति
    १६. प्रकृति
    १७. आकृति
    १८. विकृति
    १९. सङ्कृति
    २०. अक्षरपंक्ति
    २१. भूः
    २२. भुवः
    २३. स्वः
    २४. ज्योतिष्मती

       (नोट- ऊपर के छन्दक्रम में भूः,भुवः,स्वः - इन तीन व्याहृतियों का नाम भी आया है। इससे भ्रमित नहीं होना चाहिए। छन्द सूची में भी ये समाहित हैं। यथा- भूर्भुवःस्वरितिच्छन्दस्तथा ज्योतिष्मती स्मृतम् । इत्येतानि च छन्दांसि कीर्तितानि महामुने।। ( दे.भा. १२। १ । १९ )
                              —ऋषि क्रम—
   

१.  वामदेव
    २. अत्रि
    ३. वसिष्ठ
    ४. शुक्राचार्य
    ५. कण्व
    ६. पराशर
    ७. विश्वामित्र
    ८. कपिल
    ९. शौनक
    १०. याज्ञवल्क्य
    ११. भरद्वाज
    १२. जमदग्नि
    १३. गौतम
    १४. मुद्गल
    १५. वेदव्यास
    १६. लोमश
    १७. अगस्त्य
    १८. कौशिक
    १९. वत्स
    २०. पुलस्त्य
    २१. माण्डूक
    २२. दुर्वासा
    २३. नारद
    २४. कश्यप


अब तक के इस प्रसंग में सूर्यविज्ञान-साधना की आधारशिला विषयक काफी कुछ स्पष्ट करने का प्रयास किया गया । इसी से सम्बन्धित एक अन्तिम और अति गूढ़ बात  की चर्चा किये वगैर ये प्रसंग अधूरा प्रतीत हो रहा है ।  और वो विषय है अन्तःमालिका जप का विधान ।
            सामान्यतया लोग अलग-अलग देवताओं एवं अलग-अलग मन्त्रों के लिए प्रशस्त, अनुशंसित (निर्धारित) मालाओं का प्रयोग करते हैं । जैसे- लक्ष्मी के लिए कमलगट्टा का माला, सरस्वती के लिए स्फटिक माला, दुर्गा के लिए रक्तचन्दन की माला इत्यादि।  या फिर मालाओं की तात्विकता का विचार छोड़ कर सीधे रुद्राक्ष की माला का प्रयोग भी किया जाता है- ऐसा शास्त्रों का आदेश है । वाह्य स्थूल माला से कर माला अधिक महत्त्वपूर्ण है और करमाला से भी श्रेष्ठ है अन्तःमाला । करमाला के विषय में संध्योपासन की पुस्तकों में सचित्र वर्णन उपलब्ध है । गीताप्रेस के नित्यकर्मपूजाप्रकाश में सचित्र मुद्राओं को भी स्पष्ट किया है । जिज्ञासुओं को इसका अवलोकन अवश्य करना चाहिए । उपरोक्त श्लोक भी वहाँ यथावत हैं।
 अक्षमाला शब्द से साधक और सामान्य विद्वद्जन भी सीधे रुद्राक्षमाला का ही अर्थ ले लेते हैं, किन्तु अन्तः साधनाजगत का रहस्य-ज्ञाता ये भली भाँति जानता है कि अक्षमाला रुद्राक्षमाला न होकर, अक्षर माला है, यानी वर्णमातृकाओं वाली अन्तर्मालिका की बात कही जा रही है । पूर्व अध्यायों में वर्णमातृकाओं के बारे में काफी कुछ स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है । ध्यातव्य है कि वर्ण यानि रश्मियों का ही खेल है समस्त सृष्टि और सूर्यविज्ञान-साधक उन्हीं रश्मियों (वर्णो) को संयमित करने का उद्योग करता है। रश्मियों (वर्णो) का परिचय और फिर उनका समायोजन और नियन्त्रण करने की कला सीखने हेतु ही ये सारी बातें करनी पड़ी यहाँ । साधक को चाहिए कि प्रारम्भ में तो रुद्राक्ष की माला पर ही जप किया करें, किन्तु धीरे-धीरे बाह्य स्थूल माला का सर्वथा परित्याग करके, अन्तः अक्षमालिका का रहस्य समझें और उसी का अभ्यास करें । प्रारम्भ में ये बहुत ही कठिन और उबाऊ कार्य प्रतीत होगा । किन्तु इसके रसास्वादन से एक बार यदि परिचय मिल गया, तो फिर भूलने वाली या कि छोड़ने वाली बात नहीं होगी । इस माला पर जप का आनन्द ही कुछ और है—बिलकुल गूंगे के गुड़ की भांति ।
प्रसंगवश यहाँ उसी की थोड़ी चर्चा करते हैं—
पिछले प्रंसगों को आप ठीक से देख-समझ चुके होंगे तो इस बात से अवगत भी अवश्य हो गए होंगे कि हमारे शरीर में कुछखास शक्तिकेन्द्र हैं, जिन्हें स्वसाधना और प्रयास से चैतन्य करने की आवश्यकता है । बहुत गहराई में जाने से पूर्व सिर्फ अपने मेरुदण्ड की धारणा का अभ्यास करें । शान्तचित्त होकर, नाड़ीशोधन क्रिया द्वारा भीतर की प्रदूषित वायु को बाहर निकाल कर, बाहर से अधिकाधिक स्वच्छ वायु का संचार करें शरीर में । तत्श्चात आसनासीन (पद्मासन या अर्द्धपद्मासनासीन) होकर रीढ़ की हड्डी को बिलकुल सीधा रखते हुए बैठें । इस बीच आँखें बन्द कर, अपनी चेतना को नाक पर स्थिर करें और दोनों नथुनों से निकलने वाले और प्रवेश करने वाले वायुप्रवाह के अवलोकन का प्रयास करें ।  ध्यान रहे- निरीक्षण नहीं है।  ये नियन्त्रण भी नहीं है, सिर्फ और सिर्फ अवलोकन है । बिलकुल साक्षीभाव से श्वांस का आना-जाना देखना । यानी स्वाभाविक रुप से श्वांस की गति किस नासिका से हो रही है- इसका अनुभव करना है सिर्फ । अपनी बुद्धि और ज्ञान का जरा भी उपयोग नहीं करना है वहाँ ।
प्रारम्भ में बहुत कठिनाई होगी । मन विचलित होगा । किन्तु इसकी चिन्ता न करें । अभ्यास का ये कार्य किसी समय किसी स्थिति में भी किया जा सकता है, यानी विशिष्ट साधना के अतिरिक्त प्रातः, दोपहर, सायं, रात्रि कभी भी शान्तचित्त बैठकर ये अभ्यास कर सकते हैं। चौकी या कुर्सी पर बैठ कर भी अभ्यास जारी रखा जा सकता है। सुदीर्घ अभ्यास के बाद ऐसी आदत बन जायेगी कि चलते-फिरते भी आप अपने श्वांस का अवलोकन कर सकेंगे ।
            उक्त अभ्यास की दृढ़ता के बाद अब सीधे साधना के आसन पर बैठ कर यही क्रिया करें थोड़ी देर । इसके बाद अपनी चेतना को ललाट के मध्य भाग में, जहाँ तिलक या बिन्दी लगाते हैं, चेतना को स्थिर करें और भावना करें कि अक्षमालिका की पुष्पिका (रुद्राक्षमाला में जो ऊपर फुदना लगा होता है, जिसमें सुमेरु मनका पिरोया रहता है) यहीं ललाट के मध्य में ही है ये पुष्पिका । पुष्पिका का भान हो जाने पर धीरे-धीरे मेरुदण्ड के सहारे नीचे उतरें, और ये भावना करें कि मेरुदण्ड एक प्रकाशित नलिका (फ्लोरोसेन्ट ट्यूब) की तरह सिर से संलग्न होते हुए नीचे गुदामार्ग तक गमन कर रहा है।
थोड़े दिनों में ये अभ्यास सुदृढ़ हो जाने पर, अब इसके बायें-दायें से गुजरते हुए एक माला की भावना करें। मानों मेरुदण्ड को बीच में समाहित किये हुए कोई माला ऊपर से नीचे की ओर घेरे हुए है, जिसकी पुष्पिका ललाट के मध्य में है । ये ठीक वैसा ही लगेगा मानों कोई व्यक्ति एक माला लेकर आपके ललाट से टिका दिया है । 
अब इस माला में ग्रथित सभी मनकों को भावित करने का प्रयास करें। सुदीर्घ प्रयास से पूरी माला आपको स्पष्ट लक्षित होने लगेगी । पूरी माला जब दिखने (अनुभव होने) लगे, तब धीरे-धीरे एक-एक मनकों पर चेतना को सरकाना शुरु करें । ये कार्य दाहिने या बांये किसी दिशा में कर सकते हैं। यानी मेरुदण्ड के दाहिने भाग से चेतना को गुजारते हुए नीचे गुदामार्ग तक जायें और फिर वहीं से मुड़कर शनैः शनैः ऊपर उठते हुए पुनः बायीं ओर आ जायें पुष्पिका के समीप ।
मनकों के स्पष्ट हो जाने पर अब आप इस पर मन्त्रजप का अभ्यास कर सकते हैं। सर्वोत्तम होगा श्री दुर्गासप्तशती निर्दिष्ट तीसरे बीजमन्त्र का जप । या अपनी श्रद्धानुसार किसी और अनुकूल बीज का चयन भी किया जा सकता है। सीधे ऊँकार का जप भी किया जा सकता है।
ये अभ्यास सुदृढ़ हो जाने के बाद गुरुदीक्षित गायत्री मन्त्र का अभ्यास प्रारम्भ करना चाहिए । प्रारम्भ में गायत्री मन्त्र की बात इसलिए नहीं कर रहें, क्योंकि लम्बा मन्त्र चेतना को अधिक विचलित करेगा । जैसे छोटे बच्चे को एक-एक अक्षर तोड़-तोड़कर पढ़ने का अभ्यास करना होता है, उसी भांति प्रारम्भ में लघुबीज को ही लिया जाना चाहिए ।
ध्यातव्य है कि यहाँ गायत्रीमन्त्र का अभ्यास बाद में करने की बात कह रहा हूँ, इससे भ्रमित न हों। गायत्रीमन्त्र की दीक्षा से तो उपवीती हुए ही हैं। उसका सामान्य अभ्यास (जप) तो रुद्राक्ष की माला पर या करमाला पर नित्य चल ही रहा है- संध्याक्रम में। उसे त्यागने या बाद में प्रारम्भ करने की बात यहाँ बिलकुल नहीं कर रहा हूँ। नयी बात कर रहा हूँ वर्णमालिका (अन्तःमात्रिका) (अन्तःमालिका) पर अभ्यास करने की और उसे प्रारम्भ करने से पूर्व किसी प्रिय लघु मन्त्र का चयन करना श्रेयस्कर होगा। अस्तु।
ज्ञातव्य है कि ये अन्तःमालिका स्लूल माला से करोड़ोंगुना अधिक लाभदायक है। इसके सतत अभ्यास से आगे वर्णमातृकाओं को उन्हीं मनकों में अनुभव करने का प्रयास करना होगा । वर्णमातृकाओं का विस्तृत परिचय पिछले अध्यायों में दिया जा चुका है। पहले उनके स्थूल स्वरुप को ही भावना में उतारें- जैसा कि बाहर कागज पर वर्णों को लिखते हैं । अकारादि वर्णो का भी मानसिक उच्चारण किया जा सकता है। इस अभ्यास के बाद में सूक्ष्म स्वरुपों में उतरना होगा ।
सुदीर्घ अभ्यास के पश्चात् वे सभी मातृकायें चैतन्य हो जायेंगी और तब एक-एक वर्ण (अकारादि) बिलकुल प्रकाशित और प्रस्फुटित पुष्प की भाँति अनुभव होने लगेंगे । साधक चाहे तो वर्णों के और भी विस्तार में जा सकता है। क्योंकि इन वर्णों में ही तो सारी सृष्टि समाहित है।
  इस अभ्यास के बीच बहुत तरह के सांसारिक विघ्नों का सामना भी करना पड़ेगा, मन भी उचाट होने लगेगा, और ऐसा लगेगा कि इससे क्या होने को है । किन्तु श्रद्धा और लगन तथा सततता में जरा भी कमी न आने दें। वर्णमातृकाओं को चैतन्य करने के लिए तन्त्रशास्त्रों में और भी अनेक विधियां दी गयी हैं। योग्य गुरु के निर्देशन-संरक्षण में किसी विधि का पालन किया जा सकता है। अस्तु।

                                ।। ऊँ भास्कराय नमः।।

क्रमशः....

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