सूर्यविज्ञानःआत्मचिन्तन- भाग 12


नवम चिन्तन
                  सूर्यविज्ञान :: जप रहस्य

        मन्त्र जप के सम्बन्ध में पूर्व प्रसंगों में भी काफी कुछ कहा जा चुका है। उसी विषय को यहाँ थोड़ा विस्तार दिया जा रहा है । जप के सम्बन्ध में यहाँ जो बातें की जा रही हैं वो वस्तुतः सूर्यविज्ञान रुपी अखण्ड महायोग को ध्यान में रखते हुए की जा रही है। जप-क्रिया को आन्तरिक निर्माणकार्य की आधारशिला कह सकते हैं। निरन्तर जप के अभ्यास से आन्तरिक शान्ति उदित होती है।
प्रायः लोग कहते हैं कि लम्बे समय से जप कर रहा हूँ, किन्तु मन अन्तर्मुखी नहीं हो पा रहा है। यानी मन की गति में ठोस परिवर्तन नहीं हो पा रहा है। वैसे भी सिद्धान्त है – जपात् सिद्धि का, जपेन सिद्धि का नहीं ।  इसकी विस्तृत चर्चा पूर्व अध्यायों में की जा चुकी है।
किसी वर्णयोजना का निरन्तर चिन्तन ही जप है । जप की एक सर्वोत्कृष्ट श्रेणी है- अजपा- सायास वर्णोच्चारण न करने की स्थिति - वही अजपा है। अजपा एक स्थिति विशेष का नाम है, क्रिया विशेष का नहीं । क्या आप श्वास-प्रश्वास को क्रियाविशेष कहना चाहेंगे? वस्तुतः क्रिया तो हो ही रही है, किन्तु आप उसे कर नहीं रहे हैं, वो स्वयमेव सम्पन्न हो रही है। प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया है वो । प्रकृति को ज्ञात है कि मनुष्य बहुत ही आलसी और लापरवाह है, अतः जीवन के अत्यावश्यक कार्यों को मनुष्य के अधीन छोड़ा ही नहीं गया है सृष्टिकर्ता द्वारा । अत्यावश्यक (अपरिहार्य) कार्यों पर प्रकृति का सम्पूर्ण और सहज नियन्त्रण है । योगशास्त्री कहते हैं कि एक अहोरात्र में (चौबीस घंटे) में इक्कीशहजार छःसौ श्वास-प्रश्वास की गति है। जप के निरन्तर अभ्यास से बाह्याडम्बर स्वरुप माला-मनका छूट जाये, यानी माला के वगैर भी जप की क्रिया जारी हो जाये और उसका सीधा सम्बन्ध श्वास-प्रश्वास से जुड़ जाये तो अजपा की स्थिति बन जाती है। ये बहुत ही विलक्षण स्थिति है। सोते-जागते, खाते-पीते, चलते-घूमते हर स्थिति में मन्त्र का तारतम्य जारी रहता है। इसी को सामान्य शैली में अजपाजप कहते हैं। यानी बिना जप का जप ।
यहाँ हम उससे काफी पूर्व स्थिति की बात कर रहे हैं और जप के क्रम-विकास पर चर्चा कर रहे हैं।
            सामान्य तौर पर जप तीन प्रकार का होता है- वाचिक, उपांशु और मानसिक । स्तोत्रों का पाठ भी एक प्रकार का जप ही है। यही कारण है कि कर्मकाण्ड की पुस्तकों में जप और पाठ का पर्यायवाचीप्रयोग देखकर सामान्य पाठक भ्रमित हो जाते हैं। सीधा सा अर्थ है कि बोलकर यानी पास बैठा अन्य व्यक्ति भी आसानी से स्पष्ट सुन सके- ऐसा मन्त्रोच्चारण वाचिक जप कहलाता है। योगशास्त्री इसे ही वैखरीजप व्यवस्था कहते हैं। यह सर्वाधिक निम्नकोटि का जप है। आन्तरिक क्रियाविशेष (प्रभाव) तो यहाँ भी हो ही रही है, किन्तु विकास गति (प्रभाव) अति न्यून होता है। रेडियो के मीडियम और शार्टवेब की तरह । मीडियम वेब फ्रिक्वेन्शी को बहुत दूर तक नहीं संप्रेशित किया जा सकता , जब कि शॉर्टवेब फ्रिक्वेन्शी को बहुत दूर तक संप्रेशित किया जा सकता है।
उसके बाद  के जप स्वरुप को उपांशु जप कहते हैं । इसके अन्तर्गत वर्णोच्चारण क्रम में होठों का कम्पन और जिह्वा संचालन तो होता है, किन्तु ध्वनि-तरंगें बाहर प्रक्षेपित नहीं होती। परिणामतः पास बैठा व्यक्ति भी शब्द-योजना को जान-समझ नहीं पाता । हां, अन्दाज से कुछ समझ सकता है। पहली विधि की तुलना में ये शतगुना प्रभावी है ।
जप की तीसरी विधि को मानसिक जप कहते हैं । इसमें प्रत्यक्षतः होठों का कम्पन और जिह्वा संचालन भी वर्जित है। इस विधि की महत्ता सर्वाधिक कही गयी है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि ये सर्वश्रेष्ठ विधि है जप करने की । प्रथम स्तर (वाचिक) की तुलना में ये जप अनन्तगुना प्रभावी कहा गया है । चुँकि मानसजप हठात सबको आयत्त नहीं हो सकता, इसी कारण उपांशु जप की व्यवस्था की गयी है । और वैखरी जप का भी प्रारम्भिक मार्ग सुझाया गया है।
अभ्यासी के शारीरिक, मानसिक और क्रियात्मक स्तर के अनुसार जप के क्रम का निर्धारण किया जाना चाहिए । एकाएक यदि मानसिक जप की प्रेरणा दे दी जाये तो बहुत ही कठिन होगा अभ्यासी के लिए । तदनुसार यम-नियम का भी विशेष ध्यान रखना होगा । यही कारण है कि प्रारम्भ में गुरु सीधे किसी स्तोत्रपाठ की राय दे देते हैं । हमारे यहाँ गीता, सप्तशती, चालीसा, इत्यादि विभिन्न स्तोत्रों के पाठ की जो परम्परा है- उसके पीछे ये भी रहस्य निहित है। स्तोत्रपाठ से भी पूर्व की स्थिति है- भजन-कीर्तन । वस्तुतः वो भी जप का ही एक स्वरुप है। नवधाभक्ति का प्रथम सोपान है भजन-कीर्तन ।
यहाँ एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि जपार्थ कथित ये निम्नोत्तर तीन
स्थितियाँ सिर्फ व्यावहारिक दृष्टि से हैं, न कि अध्याम की दृष्टि से। अध्यात्मिक दृष्टि से तीनों जप विधि की विशिष्टता में रत्तीभर भी भेद नहीं समझना चाहिए और न लघुता-गुरुता का ही प्रश्न उठाना चाहिए । क्योंकि अधिकारी भेद की बात है सिर्फ। वस्तुतः अन्तर्तल पर काम तो चल ही रहा है । इसलिये नये अभ्यासी को इस पर विशेष बुद्धि लगाकर निराश होने की जरा भी आवश्यकता नहीं है। उसका कर्त्तव्य सिर्फ इतना ही है कि गुरु निर्दिष्ट मन्त्र का यथावत चिन्तन जारी रखे ।
अब जरा इसके कायिक प्रभाव पर थोड़ी चर्चा कर लें— वैखरी (स्पष्ट उच्चरित वर्णयोजना - शब्द) में वाह्य वायु की विशेष आवश्यकता पड़ती है । इसमें कंठ प्रभृति स्थानों में वायु का आघात होना आवश्यक है। जबकि इसके बाद वाले स्तर यानी उपांशु जप में वायु-प्रयोजन अत्यल्प रह जाता है। और इसके भी वाद वाली प्रक्रिया- मानसिक जप में वायु-प्रयोजन की बात बिलकुल ही नहीं रहती । फिर भी सामान्य अभ्यासी के लिए निर्वातस्थिति (वाह्य वायु रहित अवस्था) में जपक्रिया सम्पन्न करना असम्भव है। गुरुकृपा और सतत अभ्यास द्वारा  यदि वाह्यवायु रहित अवस्था में मानसिक जपक्रिया सम्पन्न की जा सके तो वैसी स्थिति में श्वास की गति विलक्षण हो जाती है। उस विलक्षता का अनुमान नहीं लगाया जा सकता और न शब्दों में किसी को समझाया ही जा सकता है, क्यों कि वो वैखरीवाणी का विषय ही नहीं है।
नये अभ्यासी को प्रथमावस्था में किसी भी प्रकार से जप करने पर उसमें उसे वाह्यवायु का सहयोग अपेक्षित है।
वैखरी जप मातृका (वर्णमाला) द्वारा सम्पन्न होता है और हम जानते हैं कि वर्णमाला वायु की संहति से उत्पन्न होती है। अतः जब मन वर्णात्मक शब्द चिन्तन (मानसिक जप) करता रहता है, तब वाह्य वायु की सहायता अपरिहार्य है। वाह्यवायु की क्रिया होने पर कायगत कण्ठादि उच्चारण यंत्र (स्वरयन्त्रादि) पर अपेक्षित आघात होना भी अवश्यमभावी है। जब जप करते-करते जापक (जपकर्ता)  आपेक्षित उत्कर्ष प्राप्त करता है, तब स्वभावतः कण्ठावरोध हो जाता है । वस्तुतः ये कंठरोध इच्छा या कि चेष्टा जनित नहीं होता ।
 सतत अभ्यास जारी रहने से विन्दुक्षुब्ध प्रवाहशील नाद में परिणत होने लगता है। इसी नाद तथा वाह्यवायु के संघर्षण से आन्तरिक वर्णमाला का प्रकाशन होता है । अतः वर्णमाला आश्रित जप अथवा शब्दावृत्ति से वाह्यवायु का स्पर्श होना स्वाभाविक है । वाह्यवायु वाह्यजगत की तरह ही झंझावातों वाला है। इस वाह्यवायु के कारण ही अन्तर्मुखी यात्रा वाधित होते रहती है । वायुना यत्र नीयन्ते तत्र वर्षन्ति मेघवत...ऐसा कहकर आयुर्वेदशास्त्र में त्रिदोषों में वायु को ही गतिशील और क्रियाशक्तिसम्पन्न माना गया है। वायु की क्रियाशीलता नष्ट हो जाये तो कफ-पित्त दोष अपना प्रभाव दिखाने में अक्षम हो जायेंगे । इस वाह्यवायु से ही अभ्यासी को शनैः-शनैः विच्छेदित होना है। प्राण का याम (नियन्त्रण) का यही रहस्य है। अन्तर्मुखी गति के लिए वाह्यवायु क्षेत्र से आभ्यान्तरीय वायु क्षेत्र में प्रवेश करना ही होगा, दूसरा कोई उपाय नहीं है। कायगत वायुमण्डल का भेदन आवश्यक है यहाँ । वायुमण्डल भेदनोपरान्त आकाश मण्डल में प्रवेश का द्वार खुलेगा ।
हालाकि आकाश मण्डल के भी कई स्तर हैं। स्तर तो वायु के भी कई-कई हैं। पुराणों ने इसे अपने ढंग से कहानियों और आख्यायिकाओं में व्यक्त किया है- गर्भिणीधर्म की मर्यादा से च्युत माता के गर्भ में इन्द्र का प्रवेश और गर्भस्थ वायुदेव के विनाश का बारम्बार प्रयास- सात टुकड़ों में काट कर, पुनः सातों का सात यानी उनचास टुकड़े करना...प्रार्थना करने पर उनसे अपनी मैत्री का वचन लेकर स्वीकार करना इत्यादि ।
आयुर्विज्ञान प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान नाम-भेद से पंच वायु की बात करता है । योगशास्त्र वायु की अपने ढंग से महत्ता बतलाता है। प्रथम दृष्ट्या सभी बातें अलग-अलग प्रतीत होने पर भी तत्त्वतः एक ही ओर ईंगन हैं।
आकाश के सर्वोच्च स्तर का भेदन हो जाने पर विशुद्ध चैतन्य सत्ता में प्रवेशाधिकार मिल जाता है। यानी अभ्यासी इस योग्य हो जाता है । ज्ञातव्य है चिदाकाश ही आकाश का सर्वोच्च स्तर है ।
गुरुप्रदत्त शक्ति के अवलम्ब से सतत उद्यमशील रहने पर अभ्यासी को अन्तर्मुखी प्रवाह स्वतः प्राप्त हो जाता है और आगे की क्रियायें स्वतः-स्वाभाविक सम्पन्न होने लगती हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी बालक को युवा होने के लिए अतिरिक्त कोई प्रयास नहीं करना होता और न युवक को वृद्ध होने के लिए। तद्भांति ही वैखरी से मध्यमा, मध्यमा से पश्यन्ती और पश्यन्ती से परा पर्यन्त गति प्राप्त हो जाती है । यही प्रकृतिगत नियम है।
 पुनः-पुनः वैखरी अवस्था में जप साधना करते रहने से कंठद्वार रुद्ध होता, साथ ही हृद्द्वार उन्मुक्त हो जाता है। यही वस्तुतः चिदाकाश-भेदन की क्रिया है। यह दहराकाश रुप एक अलौकिक आकाश है, जिसकी तुलना प्रत्यक्ष दर्शित नीलगगन से कदापि नहीं की जा सकती । हृदय ही दहर है और यहीं वो गुप्त मार्ग है। इस साधना को ही दहरविद्यानाम से भी जाना जाता है।
वैखरी के सतत अभ्यास से ही वैखरी विलीन हो जाती है और मध्यमा उदित होता है या कहें मध्यमा में प्रवेश हो जाता है।
यहाँ ध्यान देने योग्य एक बात है कि जबतक साधक (अभ्यासी) वैखरी सत्ता में निविष्ठ है तबतक विकल्पभूमि में ही अवस्थित है। ध्यातव्य है कि वैखरी में इन्द्रियों की प्रधानता है । इन्द्रियों के साथ मन की सत्ता भी कार्यशील है । वैखरीभूमि में वाह्य प्रमेय वाह्यता की प्रधानता है। किन्तु इससे आगे जब मध्यमा की सत्ता की शुरुआत होती है, तब इन्द्रियों की सक्रियता विलीन हो जाती है। वैखरी में देहात्मबोध स्पष्ट रुपसे विद्यमान रहता है, फलतः अभ्यासी के अन्दर कर्तृत्वाभिमान भी उपस्थित रहेगा ही। किन्तु आगे मध्यमा प्रवेशोपरान्त पूर्व का ये कर्तृत्वाभिमान क्षीणप्राय हो जाता है । स्पष्ट है कि वैखरीजप करते-करते स्वयमेव मध्यमा-प्रवेश हो जाता है।
यहाँ एक बात और स्पष्ट कर ली जाये कि साधारण जप की मात्रा द्रुत अथवा विलम्बित न होकर मध्यम ही रहना चाहिए । इस प्रकार निरन्तरता  बनी रहने पर ध्यानावस्था की सम्प्राप्ति हो जाती है । किन्तु ध्यान रहे- ये ध्यान की स्थायी स्थिति कदापि नहीं है । ध्यान से जप और जपात् ध्यान का क्रम चलता है थोड़ा । योग की भाषा में कहें तो कहना चाहिए कि जप क्रियायोग का अंग है और ध्यान समाधियोग का अंग । इन दोनों का ही अनुशीलन आवश्यक है।
पुनः आगे की बातों  पर ध्यान दें—ध्यान की अवस्था के साथ
मध्यमा की क्रिया प्रारम्भ होने लगती है। यहाँ वैखरीवाक् निरुद्ध है। वहिर्मुखीन भाव भी निरुद्ध है । देहात्मबोध भी अति क्षीण स्थिति में है और अन्तर्मुखी गति की सूचना मिलने लगी है । इस अवस्था में नाद का प्रसार प्रारम्भ होने लगता है।
 पूर्व अध्यायों में जिन वर्णमातृकाओं की चर्चा की गयी है, जिन अभ्यासों की बात की गयी है, वो वर्णमातृकायें अब स्वरुपाकार होकर, पुनः विलीन होने लगती हैं । लोप, विलोप और अदर्शन के अर्थ पर पहले भी चर्चा की जा चुकी है- विलोप यानी नष्ट कदापि न समझ लें । वस्तुतः यहीं ध्वनि का उद्बोधन होता है। इस अवस्था में ही हृदयद्वार उन्मुक्त होता है । महर्षि पतञ्जलि के सूत्रों में जिस हृदयद्वारसंयम की बात कही गयी है वो यहीं की स्थिति है।
ध्यातव्य है कि वायु की क्रियाशीलता अभी भी विद्यमान है, किन्तु ये वाह्यवायु नहीं है । यह आभ्यान्तरीण वायु है। इसके साम्राज्य और इसकी क्रियाशीलता अपने आप में अद्भुत है। इसे शब्दों में विस्तार देना मेरे वस की बात नहीं है, क्यों कि शब्दातीत है ये । यही वो स्थिति है जब अनादि-अनन्त नाद श्रुत होने लगता है।
ये नाद अति विशाल है । इसी में वर्णात्मिका मातृकाओं का विलयन होता है। ठीक वैसे ही है जैसे सरोवर में पाषाण-प्रक्षेपणोपरान्त विविध तरंगें दृष्टिगोचर होती है, किन्तु जैसे ही हम विलम्ब करते हैं, पुनः पाषाण-प्रक्षेपण- क्रिया बन्द करते हैं, काल का अन्तराल होता है, तरंगें स्वतः विलीन हो जाती हैं और स्थिर जल पूर्ववत दृष्टिगोचर होने लगता है। जागतिक जंजालों में जकड़ा हुआ मन तरंगायित सरोवर के जल की भाँति ही है । और वैखरी को पार करने के बाद मध्यमा की संप्राप्ति ही प्रक्षेपण-कालान्तर-परिणाम है। वर्णमातृक तरंगों के विलीन हो जाने पर ध्यानात्मक शब्द ही स्वप्रभाव के कारण नाद रुप में प्रकाशित होने लगता है। प्रारम्भ में इस नाद में पूर्व उच्चरित वर्णात्मक मन्त्र-प्रक्षेपण जनित तरंगें होती है, किन्तु जैसे-जैसे साधक के कर्तृत्वभिमान का अवसान होता है, वैसे-वैसे नाद स्वयमेव उच्चरित होने लगता है, यानी सायास की बात ही नहीं रह जाती । यद्यपि ये नाद वर्णात्मक नहीं है, तथापि शब्द के रुप में सुना जाता है । वस्तुतः ध्वनि मात्र है ये । वर्ण-संघात नहीं है यहाँ । संस्कारवशात इसमें वर्णात्मक प्रतीति होती है सिर्फ । यहाँ साधक की भूमिका सिर्फ श्रोता की होती है – आभ्यन्तर उच्चारित मन्त्र के ध्वन्यात्मक स्वरुप का बड़े मनोयोग
पूर्वक निरन्तर श्रवण...।
हृदयोत्थित नाद का निरन्तर श्रवण करते-करते, ध्वनि से वर्णात्मक आभास भी उच्छिन्न हो जाता है और तब निराभास नादध्वनि तरंगित होने लगती है। तदन्तर अन्तःकरण-शुद्धि और चिदाकाश-निर्मलता का प्रकाशन होने लगता है ।
सामान्य व्यक्ति आँखें बन्द करने पर जिस अन्धकार का अनुभव करता है, वस्तुतः वो अन्धकार कुछ और नहीं प्रत्युत उसके भीतर का ही अन्धकार लक्षित होता है । वह उसके हृदस्थल का ही अन्धकार होता है। वैखरी से परे मध्यमावाक् के क्रमिक अभ्यास और विकास के द्वारा ये अन्धकार शनैःशनैः समाप्त होने लगता है, जिसके परिणामस्वरुप चिदाकाश दृष्टिगोचर होने लगता है । इस अवस्था के आते-आते अभ्यासी ये अनुभव भी करने लगता है कि पूर्व में सुनायी पड़ने वाला नादात्मक ध्वनि भी अब क्रमशः क्षीण होने लगी है और एक समय ऐसा आता है जब नादात्मक ध्वनि बिलकुल समाप्त हो जाती है । ऐसी अवस्था के उदित होने पर पता चलता है (अनुभव होता है) कि मध्यमा का भी अवसान होने वाला है । इस अवस्था को ही चित्तशुद्धि कहते हैं ।
चित्तशुद्धि के पश्चात् अन्धकार एवं ध्वन्यात्मक शब्द भी निवृत्त हो जाते हैं। वस्तुतः इसे ऐसा कहना चाहिए कि अन्धेरे कमरे में दीपक का प्रज्ज्वलन करते ही अन्धकार तिरोहित हो जाता है । इसे ऐसे समझें कि दीपक का जलना , अन्धेरे का गायब होना और उजाले का उपस्थित होना - ये तीनों अलग-अलग जैसा प्रतीत होने पर भी कालभेद प्रभावित नहीं है। दीपक का जलना और अन्धकार का तिरोहित होना एक साथ घटित हो जाता है । इसमें क्षणांश भी बिलम्ब नहीं होता ।
अध्यात्म की भाषा में इस अवस्था को ही ऊषाकाल कहते हैं। इस काल में मन निरुद्ध होकर चिदाकाशोन्मुख हो जाता है। इस अवस्था को ठीक से समझने के लिए लौकिक ऊषाकाल, सूर्योदयकाल आदि के दृश्यों को ध्यानांकित करें- ऊषाकाल यानि प्रकाशोदय अभी नहीं है, किन्तु इसके वावजूद अन्धकार की निवृत्ति हो चुकी है । ऊषा का आगमन प्रकाशोदय की सूचना है । ज्योतिष की भाषा में अरुणोदय, सूर्योदय आदि कालभेद से इन्हीं स्थितियों को अभिव्यक्त करते हैं।
यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि तत्पूर्व एक शब्द (आभ्यान्तरीय स्वरुप) श्रुतिगोचर हो रहा था, वो विलुप्त हो चुका है और नीरवता छायी हुयी है। ऐसी विलक्षण स्थिति में ही चिदाकाश में एक ज्योतिमण्डल उदित होता है । ज्योतिष की भाषा में कह सकते हैं कि संवत्सर की कुछ विशिष्ट अवधि में सूर्योदय से काफी पूर्व समोज्ज्वलित शुक्र का दर्शन हो जाता है । हालाकि  वाह्य जगत के क्रिया कलापों से अन्तर्जगत के क्रियाकलापों की कोई तुलना ही व्यर्थ है, फिर भी समान्य जन को समझने-समझाने हेतु कुछ ऐसे भी बेतुके उदाहरणों की वैशाखी टेकनी पड़ती है। मूल तथ्य यहाँ इतना ही है कि इस ज्योतिमण्डल पर (में) साधक की दृष्टि निबद्ध हो जाती है । वह उस ज्योति को निरन्तर-निर्बाध रुप से देखने लगता है । या कहें ज्योति दीखने लगती है । यही अवस्था पश्यन्ति की है। 
इस अवस्था में चित्त की एकाग्रता होते ही देहभान लुप्त हो जाता है। स्वाभाविक है कि मन की क्रिया भी स्तम्भित हो जायेगी । ध्यातव्य है इस अवस्था में पहुँचे हुए साधक की निष्ठा जैसी होगी वैसा ही परिणाम लक्षित होगा। यथा—साधक सगुण-साकार निष्ठा वाला है यदि तो वैसी स्थिति में उसे अपने प्रिय इष्टदेव का स्वरुप दर्शन हो जायेगा इसी स्थिति में । स्वरुप दर्शन के आगे सायुज्य, सालोक्य, सामीप्य, साष्टि आदि स्थितियाँ भी बन सकती हैं । वह इष्ट सत्ता या तो स्वयं में विलीन कर लेगी साधक को या साधक में ही स्वयं विलीन हो जायेगी । समुद्र में लोटे का जल मिल गया या लोटे में समुद्र समाहित हो गया।  जब कि दूसरी ओर निर्गुण-निराकार निष्ठा वाला साधक उस ज्योतिमण्डल को क्रमशः निकटवर्ती होते अनुभव करेगा और अन्ततः तादाम्य लाभ करता है । ज्योतिमण्डल में अपने ही स्वरुप का दर्शन करेगा।फिर द्रष्टा और दृश्य का भेद भी विलीन हो जायेगा ।
इस अवस्था में चुँकि मन की सत्ता नहीं रह जाती और मन ही नहीं है फिर इन्द्रिय व्यापार के रहने का तो कोई प्रयोजन ही नहीं रहा । वैश्विकजगत् का भाव भी समाप्त हो जाता है । केवल और केवल चैतन्य स्वरुप की सत्ता ही विद्यमान रहती है ।
इतने पर भी इसे अखण्ड अवस्था नहीं कही जा सकती । वस्तुतः यह खण्डावस्था ही है। आगे इसकी भी पूर्ण परिणति है । खण्ड सत्ता ही अखण्ड सत्तात्मक आत्मप्रकाश करती है। तब की वो अवस्था ही उन्मनी अवस्था कही जाती है—आत्मा का निष्कल साक्षात्कार । यही परावाक् है।
मन्त्र-साधना का यही चरम लक्ष्य है। तन्त्रशास्त्र में इसे ही आत्मा का पूर्ण विकास कहते हैं। हालाकि इस परावस्था का भी परावस्था है। उस विशुद्ध चैतन्य के पूर्ण विकास के बाद ये स्थितिलाभ भी होता है।

अब जप-रहस्य से सम्बन्धित कुछ और बातों पर एक दृष्टि डालें—
सूर्यविज्ञान की सम्यक् साधना का आधार भूमि है—दीक्षा । दीक्षा से ही पशुत्व की समाप्ति होती है। इसके वगैर पशुत्व, पाप और मल का नाश होना सम्भव नहीं । इसके चार भेद (स्तर) हैं। प्रथम है मन्त्र-विचार । द्वितीय स्तर है योगकर्त्तव्य दीक्षा, तृतीय है वीजोद्धार दीक्षा और चतुर्थ है साक्षात्कारात्मक दीक्षा।
दीक्षा के सम्बन्ध में यहाँ एक और बात समझ लेने जैसी है कि सांख्य वा वेदान्त ज्ञान हेतु किसी प्रकार की दीक्षा की आवश्यकता नहीं है, वहाँ शिक्षा से काम चल जाता है, किन्तु परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने हेतु दीक्षा अनिवार्य-शर्त है। परम शिव में नित्य विद्यमान ज्ञान का एक कणांश मात्र शिष्य लब्ध करता है। उस कण मात्र की उपलब्धि से उत्तरोत्तर महाज्ञान की ओर सरता जाता है। मनुष्य, सिद्धपुरुष, देवता या किसी अन्य माध्यम से ये प्रकट होता है। दिव्यगुरु, सिद्धगुरु, मनुष्यगुर—ये क्रमशः पूर्वोत्तर निम्न-निम्न श्रेणी के कहे जा सकते हैं। हालाकि भिन्न-भिन्न गुरु होने पर भी गुरुशक्ति में भेद नहीं है। सामान्य योग्यता वाले लोग मानवीय गुरु से ज्ञान प्राप्त करते हैं। तदुत्तर योग्यता वाले सिद्धगुरु प्राप्त करते हैं। उससे भी उत्तम योग्यता वालों को दिव्यगुरु की प्राप्ति होती है। यहाँ शिष्य के अधिकारी-भेद से ये योग्यता तय होती है।
हालाकि परमेश्वर ही ज्ञान के मूल स्रोत हैं। ऐसे में कोई ये भी कह सकता है—फिर हम सीधे परमेश्वर की आराधना ही क्यों न करें, क्यों गुरु के लिए चिन्तित हों ! ये कथन आंशिक सत्य भी कहा जा सकता है। किन्तु ध्यान रहे—देहात्मबोध पर्यन्त प्रत्यक्ष रुप से ज्ञान लब्ध नहीं हो सकता । और देहाभिमान से मुक्ति बहुत बड़ी चीज है। इसके लिए कठोर साधना की आवश्यकता है।
सामान्य तौर पर तो उपवीती होते समय ही सामान्य (स्थूल) गुरु के द्वारा गायत्री मन्त्र की दीक्षा दे दी जाती है, किन्तु वस्तुतः ये सामान्य
दीक्षा है- जीवन-व्यापार हेतु । इसे साधना-दीक्षा कदापि न समझें।
साधना हेतु दीक्षित होने के लिए पहले साधना की आधार-भूमि दुरुस्त करने की आवश्यकता है और इसमें गायत्री साधना (पुरश्चरण) अति सहयोगी होता है। बाद में ईश्वरीय (महाशक्ति) कृपा से योग्य गुरु की उपलब्धि होती है, जो समय-समय पर मार्ग दर्शन करते हैं। जैसे उच्च गति की रेल गाड़ी दौड़ाने के लिए उच्च स्तर की रेलवेलाइन की जरुरत होती है, उसी भाँति उच्चस्तरीय साधना हेतु शरीर का अन्तर्बल भी अति आवश्यक है। शरीर सुयोग्य हो जाने पर महामाया की कृपा से योग्य गुरु सहज ही मिल जाते हैं- इसमें कोई दो मत नहीं । किन्तु ध्यान रहे- योग्यता की ये परीक्षा परमगुरु द्वारा होती है, न कि अपने मनमुताबिक । बहुत बार अभ्यासी में हताशा-निराशा की स्थिति भी उत्पन्न होती है । उसे ऐसा लगता है कि वह तो बहुत दिनों से साधना कर रहा है, फिर भी कुछ हो नहीं रहा है और कुछ होने-करने के चक्कर में यहाँ-वहाँ भटकना शुरु कर देता है। सच पूछें तो बड़े सौभाग्य से योग्य गुरु का दर्शन वा स्वप्न संकेत प्राप्त होता है।
योग्य दीक्षागुरु की कृपा से पहले तो मन्त्र-विचार होता है। इसमें साधक के तीन जन्मों का विचार किया जाता है। तदनुरुप ही मन्त्रदान होता है।
साधनधारा में कर्म अत्यावश्क है। कृपा के स्थान में कर्म को स्थूल
दृष्टि से अधिक महत्त्व दिया गया है। कर्मेभ्यो नमः- यही उदघोष है यहाँ। श्रीकृष्ण नें गीता में कर्मण्येवाधिकारस्ते...कह कर एक बहुत बड़ा संकेत किया है । तुलसी ने भी कर्मप्रधान विश्वकरि राखा...कह कर कुछ इसी ओर ईशारा किया है।
रहस्यमय साधनालोक में कर्म के तीन अंग कहे गए हैं- क्रिया,जप और सेवा । गुरुपूर्णिमा इस मामले में विलक्षण है। आषाढ़मास की पूर्णिमा महर्षि वेदव्यास की जयन्ती के रुप में भी मनायी जाती है । स्थूलगुरु और सूक्ष्मगुरु दोनों की आराधना का ये प्रधान दिवस है। नित्य सेवा से साधन-पथ के विविध विघ्नों का नाश होता है।
जपकर्म और सेवानुष्ठान जीवन पर्यन्त चलने वाली क्रियायें हैं। ध्यान रहे मृत्यु ही जीवन का अन्त नहीं है। साधनाजगत में इसके बाद की स्थिति भी जीवन ही है। अतः कर्म तथा सेवा का मृत देह के साथ ही अन्त कदापि नहीं होता।
कुमारीसेवा एवं मातृसेवा सेवा का उच्च स्तर है । प्रसंगवश यहाँ एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि योग्य होने पर भी पिता को दीक्षा देने का अधिकार नहीं है, जबकि माता को इस अधिकार से कदापि वंचित नहीं रखा जा सकता । इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि विशेष परिस्थिति में माता द्वारा भी दीक्षा प्राप्त की जा सकती है। इसकी खास विधि है । यहाँ माता की योग्यता का विचार नहीं होता है । उसकी जो भी योग्यता हो, मातृपद अतुल्य है। अतः मंझधार में भटकने से कहीं अच्छा है कि मातृगुरु का शरण ग्रहण करे।
अब जप पर थोड़ा प्रकाश डालें । जप का उद्देश्य है पूर्णत्व प्राप्ति । आध्यात्मिक विकासार्थ जपकर्म सर्वाधिक सार्थक उपाय है। यथाविधि गुरुकाय (दीक्षा से शुद्ध शरीर) में उत्कर्ष होता है। गुरुदेह का मूल खाद्य है जपानुष्ठान। गुरु के आदेश का निर्विचार पालन करना- यानी अपनी बुद्धि का वहाँ प्रयोग न हो। गुरु के प्रति निष्ठा और समर्पण का भाव हो।
जपकर्म में देश, काल और संख्या भी अति महत्त्वपूर्ण कही गयी है। इसे जप का त्र्ययंग कहा जा सकता है। गुरु द्वारा जिस संख्या विशेष का आदेश हो उसका सही पालन होना अत्य़ावश्यक है। निर्दिष्ट संख्या से न्यूनाधिक सर्वथा वर्जित है। जपसाधना के लिए समय और स्थान का भी बड़ी कठोरता से पालन होना चाहिए। साधन स्थल में आधुनिक कृत्रिम विद्युतीय प्रकाश का प्रयोग भी वर्जित है। साधना के विशेष स्तर में तो दीपक की भी वर्जना है, किन्तु प्रारम्भिक स्तर में दीपक की अनिवार्यता है। तन्त्रक्रिया में साक्षीदीप और रक्षादीप नाम से क्रमशः घृत एवं तिलतैल प्रज्ज्वलित दो दीपक की स्थापना करते हैं- सामने और दायें।
कालध्वंस, महानिशाकर्म, कर्मदान आदि साधना की कुछ और भी गूढ़ बातें हैं, जो सर्वथा गुरुगम्य हैं। इसके विषय में कुछ लिखने का प्रयास भी किया जाये तो इससे साधक का उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता । संक्षेप में इतना ही समझें कि हम सभी देश-काल निबद्ध हैं और काल के ध्वंस के लिए काल का ही आश्रय लेना पड़ता है । ये काल अष्टभेदों से क्षणबद्ध है । घड़ी की सूइयों में बांधकर इस सारणी को स्पष्ट कर भी दिया जाये तो भी कोई लाभ नहीं होगा—घड़ी की सूचनाओं वाले समय की जानकारी भले हो जाये, कालबोध नहीं हो पायेगा और असली काम उस कालबोध का ही है। क्षणबोध का ही है। उस क्षण पर आधिपत्य होना ही वस्तुतः क्षणबोध है। क्षण का बोध हुआ कि काल की भित्ति ढह जायेगी । सूर्यविज्ञान टाइम और स्पेश को समाप्त करने की विद्या है और जप-साधना उस महायन्त्र का ईंधन । अस्तु।
      ।।ऊँ श्री आदित्याय नमः।।
 
क्रमशः...

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