सूर्यविज्ञानःआत्मचिन्तन- भाग 13


                          दशम चिन्तन
       सूर्यविज्ञान ::भूतशुद्धि प्रक्रिया

श्रीमद्देवीभागवत पुराण के एकादशस्कन्ध (संस्कार-प्रकरण) के आठवें अध्याय  में श्रीनारायण-नारद संवाद क्रम में भूतशुद्धि की विशद चर्चा की गयी है ।
ध्यातव्य है कि संस्कार-प्रकरण में ये सारी बातें कही गयी हैं। किसी विधि का किसी विशेष स्थान में वर्णन किंचित विशिष्ट बातों की ओर ईंगन हुआ करता है, जिस पर प्रायः पाठकों का ध्यान नहीं जा पाता । खास कर पुराणों के वर्णन में तो ज्यादातर लोग कथारस क्रम में ही उलझे रह जाते हैं, और रत्तीभर भी क्रम भंग होने पर ऊहापोह में पड़ जाते हैं । उसी के मीन-मेष चिन्तन को वाद-जल्प और वितण्डा की स्थिति तक खींच ले जाते हैं और ऐसे में होता ये है कि ऋषियों का गूढात्मक कल्याणभाव (उद्देश्य) हमारे हाथों में आकर भी दूर छिटक जाता है।
साधनाक्रम की एक बहुत ही विशिष्ट प्रणाली है भूतशुद्धि, जिसपर बहुत कम लोगों का ही ध्यान जा पाया है। हालाकि कर्मकाण्ड के कई पुस्तकों में इस क्रिया की चर्चा है, किन्तु वहाँ सिर्फ चर्चा भर है, विधि बतलायी नहीं गयी है।  युवावस्था में प्रसंग और जिज्ञासावश कई विद्वानों से इसे जानने-समझने का प्रयास किया, क्यों कि मेरी समझ में भी यही बात थी कि शिखाबन्धन , तिलकधारण, आचमन, आसनशुद्धि, आसन बन्धन जैसी ये भी कोई सामान्य क्रिया होगी । किन्तु कहीं से समुचित और सन्तोषप्रद उत्तर न मिला ।
कहते हैं न कि कोई सदजिज्ञासा,सदउत्कंठा चेतन से अचेतन की ओर अग्रसर होकर संचित हो जाता है और फिर परमचेतन की सीमा का सुगन्ध भी कालान्तर में प्राप्त करने लगता है। सद्गुरु की प्राप्ति भी उसी सदतृष्णा का प्रमाणपत्र है।
मुझे भी एक ऐसे ही सन्त दर्शन का सौभाग्य मिला, जो विशुद्ध गृहस्थ जीवन में रहते हुए इस क्रिया को सुदीर्घ काल से साधते आ रहे थे।
मिट्टी यदि हो, बीज मिल जाये सौभाग्य से तो सीधे-टेढ़े बपन से भी अंकुरण हो ही जाता है प्रायः । उन महापुरुष के सानिध्य में इस विशिष्ट विधि को हृदयंगम करने का सुअवसर मिला, जिसे आज यहाँ प्रसंगवश सूर्य विज्ञान के पाठकों के लिए संकलित कर रहा हूँ।
  ध्यातव्य है कि सामान्यतया हम अज्ञानी जन जाने-अनजाने, देखा-देखी,कुछ न कुछ पूजा-पाठ,जप-अनुष्ठान,ध्यान-चिन्तनादि करने लग जाते हैं। धार्मिक प्रवृति को लोग सामान्य सुलभ धर्म विषयक विविध पुस्तकों का सामान्य अध्ययन करके भी कुछ ना कुछ क्रियायें करने लग जाते हैं। किन्तु विशिष्ट गुरु-प्रदत्त दीक्षा या कम से कम शिक्षा का भी सौभाग्य नहीं मिला रहता, वैसी स्थिति में बहुत सी क्रियायें व्यर्थ चली जाती हैं। हालाकि शुद्ध भाव से की गयी सामान्य क्रिया भी निष्फल नहीं जाती , किन्तु फिर भी लक्ष्य तक पहुँचने में अकारण विलम्ब तो होता ही है। इसे कुछ-कुछ यूं समझा जा सकता है कि वियावान जंगल में भटकते पुरुष के लिए निकटस्थ गन्तव्य भी दुरुह हो जाता है, किन्तु सौभाग्य से कोई मार्गदर्शक मिल जाए अचानक, तो उसके दिशा-निर्देश से गन्तव्य सरल सिद्ध हो जाता है।
इसी भाँति साधन-पथ में बिलकुल बुनियादी शिक्षा हैभूतशुद्धि क्रिया । इसके वगैर अनजाने में ही बहुत से विकास कार्य बाधित होते रहते हैं। अतः इसकी महत्ता और क्रियाविधि को ठीक से हृदयंगम करके अभ्यासी को आगे का कार्य करना चाहिए । ऐसा नहीं कि ये विधि सिर्फ सूर्यविज्ञान के साधकों के लिए है।
श्रीनारायण अपने भक्तप्रवर नारदजी को इसकी महत्ता समझाते हुए पूरी विधि बहुत ही गहराई से समझाये हैं । तन्त्र-योग की साधना में प्रवेश करने हेतु भूतशुद्धि-क्रिया बहुत ही उपयोगी है । हालाकि योगमार्ग में तत्त्वशोधन की और भी कई विधियाँ कही गयी हैसमयानुसार अलग-अलग प्रसंगों में, अलग-अलग ऋषियों द्वारा ; किन्तु भूतशुद्धि की इस विधि को विशिष्ट कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रसंगवश पहले हम यहाँ मूलशास्त्रीय वचनों को उद्धृत करते हैं, तत्पश्चात् उसे सरल शब्दों में अभ्यासियों के कल्याणार्थ यथासम्भव स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे । किन्तु ध्यान रहे - इसका ये अर्थ कदापि नहीं कि ऐसी गूढ़ क्रिया में वगैर योग्य गुरु के, सिर्फ पुस्तकावलोकन करके कोई प्रवृत हो जाये।
   संस्कार प्रकरणांग स्वरुप - भूतशुद्धि प्रकरण
श्रीनारायण उवाच
भूतशुद्धिप्रकारं च कथयामि महामुने !
मूलाधारात् समुत्थाय कुण्डलींपरदेवताम् ।। १ ।।    सुषुम्नामार्गमाश्रित्य ब्रह्मरन्ध्रगतां स्मरेत् ।
जीवं ब्रह्मणि संयोज्य हंसमन्त्रेण साधकः ।। २ ।।
पादादिजानुपर्यन्तं चतुष्कोणं स-वज्रकम्।
लं बीजाढ्यं स्वर्णवर्णं स्मरेदवनिमण्डलम् ।।३ ।।
जान्वाद्या नाभि चन्द्रार्धनिभं पद्मद्वयाङ्कितम्।
वं-बीजयुक्तं श्र्वेताभमस्भसो मण्डलं स्मरेत् ।। ४ ।।
नाभेर्हृदयपर्यन्तं त्रिकोणं स्वस्तिकान्वितम् ।
रं बीजेन युतं रक्तं स्मरेत् पावकमण्डलम् ।।५ ।।
हृदो भ्रूमध्यपर्यन्तं वृतं षड्बिन्दुलाञ्छितम् ।
यं-बीजयुक्तं धूम्राभं नभस्वन्मण्डलं स्मरेत् ।।६।।
आ-ब्रह्मरन्ध्रं भ्रूमध्यात् वृतं स्वच्छं मनोहरम् ।
हं-बीज युक्तमाकाशमण्डलं च विचिन्तयेत् ।।७।।
एवं भूतानि सञ्चिन्त्य प्रत्येकं संविलापयेत् ।
भुवं जले जलं बह्नौ वह्निं वायौ नभस्यमुम् ।।८।।
विलाप्य खमहङ्कारे महत्तत्त्वेऽप्यहंकृतिम् ।
महान्तं प्रकृतौ मायामात्मानि प्रविलापयेत् ।।९।।
शुद्धसंविन्मयौ भूत्वा चिन्तयेत् पापपूरुषम् ।
वामकुक्षिस्थितं कृष्णमङ्गुष्ठपरिमाणकम् ।।१०।।
ब्रह्महत्याशिरोयुक्तं कनकस्तेयबाहुकम् ।
मदिरापानहृदयं गुरुतल्पकटीयुतम् ।।११।। तत्संसर्गिपदद्वन्द्वमुपपातकमस्तकम् ।
खड्गचर्मधरं कृष्णमधोवक्त्रं सुदुःसहम् ।।१२।।
वायुबीजं स्मरन् वायुं सम्पूर्येनं विशोपयेत् ।
स्वशरीरयुतं मन्त्रो वह्निबीजेन निर्दहेत् ।।१३।।
कुम्भके परिजप्तेन ततः पापनरोद्भवम् ।
बहिर्भस्म समुत्सार्य वायुबीजेन रेचरेत् ।।१४।।
सुधाबीजेन देहोत्थं भस्म संप्लावयेत् सुधीः।
भूबीजेन घनीकृत्य भस्म तत्कनकाण्डवत् ।।१५ ।।
विशुद्धमुकुराकारं जपन् बीजं विहायसः।
मूर्धादि-पादपर्यन्तान्यङ्गानि रचयेत् सुधीः ।।१६।।
आकाशादीनि भूतानि पुनरुत्पादयेच्चितः ।
सोऽहं-मन्त्रेण चाऽऽत्मानमानयेद्धृदयाम्बुजे ।।१७।।
कुण्डली जीवमादाय परसङ्गात् सुधामयम् ।
संस्थाप्य हृदयाम्भोजे मूलाधारगतां स्मरेत् ।।१८।। रक्ताम्भोधिस्थपोतोल्लसदरुणसरोजाधिरुढ़ाकराब्जैः
शूलं कोदण्डभिक्षूद्भवमथ गुणमप्यङ्कुशं पञ्चबाणान् । विभ्राणाऽसृक्कपालं त्रिनयनलसिता पीनवक्षोरुहाढ्या देवी बालार्कवर्णा भवतु सुखकरी प्राणशक्तिः परा नः ।। १९ ।।
 एवं ध्यात्वा प्राणशक्तिं परमात्मस्वरुपिणीम् ।
विभूतिधारणं कार्यं सर्वाधिकृतिसिद्धये ।।२०।।
विभूतेर्विस्तरं वक्ष्ये धारणे च महाफलम् । 
श्रुतिस्मृतिप्रमाणोक्तं भस्मधारणमुत्तमम् ।।२१।।
                                         (देवीभागवत—११। ८ )
श्रीनारायण कहते हैं कि हे नारद ! सामान्य क्रिया में भी आसनादि शुद्धि-वन्धनोपरान्त, निज पराम्परानुसार चन्दन-भस्मादि धारण करने के पश्चात् क्षितित्यादि पञ्चभूतों की शुद्धि अवश्य करे। तदर्थ परदेवता (देवीकुण्डलिनी) को कुम्भक-क्रिया द्वारा ऊपर उठाने की भावना करे। ऊपर अन्तिम लक्ष्य तक उसे ले जाने की भावना करे। हंस मन्त्र से जीवात्मा को परमब्रह्म में मिलाने की भावना करे। पुनः चेतना को नीचे उतार कर, पैर से लेकर घुटने तक चतुष्कोण यन्त्र की वज्र सहित भावना करे । ध्यातव्य है कि इस यन्त्र के चारों कोनों पर तिरसठ रेखाएँ हैं। इसे स्वर्णवर्णी अवनीमण्डल समझते हुए, तन्मध्य पृथ्वीबीज लं की कल्पना करे। तदग्रे घुटने से नाभि पर्यन्त अर्द्धचन्द्राकार यन्त्र की भावना करे, जिसके दोनों कोनों पर दो कमल विराज रहे हों। यही श्वेतवर्ण जलमण्डल है, जिसका बीजाक्षर वं है। तदग्रे नाभि से लेकर हृदय पर्यन्त त्रिकोणयन्त्र की भावना करे, जिसके तीनों कोनों पर स्वस्तिक का पवित्र चिह्न बना हुआ हो। यही अग्निमण्डल है, जिसका वर्ण रक्त है और बीज रं है। तदग्रे हृदय से लेकर भ्रूमध्य पर्यन्त वृत्ताकार भावना करे, जो छः विन्दुओं से युक्त हो। इसका वर्ण धुएं की भाँति है। इसके मध्य में वायुबीज - यं की स्पष्ट भावना करे। यही वायुमण्डल है। तदग्रे भ्रूमध्य से ऊपर ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त वृहत्वृत्त की भावना करे, जिसका वर्ण विशुद्ध स्वच्छ और सुन्दर है । इसके बीचोबीच आकाशबीज - हं की भावना
करे । यही आकाशमण्डल है।
इस प्रकार पञ्चमहाभूतों को तत्ततवर्ण और आकृति सहित एकाग्रचित्त (दत्तचित्त) होकर यथोचित काल तक ध्यान करते हुए कारणरुप में लय करने (होने) की भावना करनी चाहिए। यानी संहार क्रम में (नीचे से ऊपर की ओर) क्रमशः पृथ्वी > जल > अग्नि > वायु > आकाश के क्रम से लय करने की भावना करे।
अब आकाश को भी तत्कारणरुप अहंकार में विलय करने की भावना करे। पुनः अहंकार को महतत्त्व में विलीन होने (करने) की भावना करे। पुनः महतत्त्व को अपने कारणरुप प्रकृति में लय करने की भावना करे। प्रकृति को अपने कारणरुप आत्मा में लय करने की भावना करे। फिर अपने को शुद्धसंवित् (ज्ञान) स्वरुप समझे - ऐसी भावना करे।
अब अपने शरीर के भीतर अदृश्य रुप से छिपे बैठे पापपुरुष का ध्यान करे। वह पुरुष बाम कुक्षि में छिपा बैठा है। उसका रंग अत्यन्त काला है और आकार अंगुष्ठ प्रमाणतुल्य है। इस पापपुरुष का शिर प्रथम महापातक (ब्रह्महत्या) है । इसकी भुजा - द्वितीय महापातक (सुवर्ण-स्तेय) है। इसका हृदय (तृतीय महापातक) मदिरापान है। इसका कटिप्रदेश चतुर्थ महापातक- गुरुपत्नीगमन है। इसके दोनों पैर महापातकियों के संग में उठने-बैठने, सम्भाषण करने वाले लोग हैं। इसके पैर की सभी अंगुलियाँ अन्यान्य उपपातक हैं। यह विचित्र और अति बलशाली पाप पुरुष अपने आयुध के रुप में ढाल-तलवारधारी है। इसका स्वभाव बड़ा ही दुष्ट  और भयप्रद है। शरीर में इसकी अवस्थिति अधोमुख है ।
उक्त भावना सहित वाम नासा से पूरक करते हुए वायुबीज- यं का स्मरण करना चाहिए। पुनः यथासम्भव कुम्भक करे । कुम्भक क्रम में उक्त पापपुरुष का शोषणकरे (सुखावे)। तदुपरान्त अग्निबीज- रं का स्मरण करते हुए, पापपुरुष को दग्ध करे । तदुपरि पापपुरुष के भस्मावशेष को पुनः वायुबीज (यं) के मानसिक उच्चारण सहित दक्षिण नासिका से रेचन कर दे- बाहर निकाल दे। तदन्तर पापपुरुष के भस्म को चन्द्रमा के अमृतबीज- वं के उच्चारण से उत्पन्न हुए अमृत से आप्लावित करे। यानी ऐसी भावना करे कि अमृत बून्दों से आप्लावित होकर भस्म पिण्डाकार हो गया है। तदुपरान्त पृथ्वीबीज (लं) के उच्चारण सहित उस द्रवीभूत भस्म के घनीभूत स्वरुप को इस प्रकार भावित करे कि वह सुवर्णाण्ड में परिवर्तित हो गया है। तदुपरान्त विहायस बीज मन्त्र (हं) का उच्चारण करते हुए उस सुवर्णाण्ड को निर्मल दर्पण तुल्य भावना करे ।
अब साधक को चाहिए कि उक्त अण्ड में समस्त मानवांगों की भावना करे। पुनः जिस क्रम में ब्रह्म में पञ्चमहाभूतों को लय किया जाता है, उसी क्रम से क्रमशः आकाश > वायु > अग्नि > जल > पृथ्वी को चित्तोत्पन्न करके यथापूर्व स्थान में स्थापित कर दे।
अब सोऽहम् मन्त्र से जीवात्मा को परमात्मा से पृथक करके, जीवात्मा को हृदय-पुण्डरीक में स्थापित करे। जीवात्मा को परमात्मा से पृथक करने की विधि ये है कि कल्पना करे कि कुण्डलिनी महाशक्ति परमात्मा के सम्पर्क से अमृतमय हुए जीवात्मा को पृथक करके हृदपुण्डरीक में स्थापित करने के पश्चात् पुनः अपने मूलस्थान यानी मूलाधार में लौट गयी है।
अब प्राणप्रतिष्ठार्थ प्राणशक्ति का ध्यान करे, जिसकी विधि इस प्रकार हैएक रक्ताम्भोधि (लालसागर) है जिसमें एक जलयान है । जलयान में एक सुन्दर प्रस्फुटित लालकमल है, जिसपर प्राणशक्ति प्रतिष्ठित है। शक्ति के करकमलों में त्रिशूल, ईक्षुदण्ड निर्मित कोदण्ड, गुण (पाश), अंकुश, प़ञ्चबाण और असृक् (रक्तपूरित कपाल) है। इस त्रिनयना देवी के स्तन अति पुष्ट हैं। उनके शरीर का वर्ण नवोदित सूर्य की भाँति है। उस महाशक्ति से प्रार्थना करें कि हे प्राणशक्ति ! आप हमपर प्रसन्न होकर, सुख प्रदान करें।
इसप्रकार हम पाते हैं कि इस भूतशुद्धि क्रिया के अन्तर्गत बहुत ही गूढ़ कल्याणभाव छिपा हुआ है। अभ्यासी को चाहिए कि इसका अभ्यास निरन्तर करता रहे- कुछ लम्बे समय तक । जैसा कि क्रिया-विधि में ही स्पष्ट है—जाने-अनजाने, इहजन्म-पूर्वजन्मार्जित (शेष कर्म) जो पापपुरुष के रुप में संचित है हमारे संस्कारों में और ऊर्ध्वगति में सहायक के विपरीत वाधक सिद्ध हो रहा है,उनका शोधन-मार्जन-शमन क्रमशः होता जायेगा और एक दिन ऐसा आयेगा कि हमारा शरीर आत्मसाक्षात्कार के योग्य विशुद्ध बन जायेगा । अस्तु ।
                   ।। ऊँ दिवाकराय नमः।।
क्रमशः...

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