एकादश
चिन्तन
सूर्यविज्ञानः
वैदिक-पौराणिक वाङ्मय
वैदिक,
औपनिषदिक, पौराणिक समस्त वाङ्गमय सूर्य-महिमा
से ओतप्रोत है। क्यों न हो , सृष्टि से सूर्य को यदि अलग कर
दिया जाये, सूर्य न हों सृष्टि में तो सृष्टि की कल्पना भी
नहीं की जा सकती- इसे आधुनिक विज्ञान भी सहर्ष स्वीकारता है। हमारी संस्कृति तो
सूर्य-आराधन-आधारित है ही । पंच देवोपासन में भी मूलतः सूर्य का ही विविध स्वरुप
है । सूर्य को जगत का आत्मा कहा गया है। सूर्य न हों तो पल भर के लिए भी
स्थावर-जङ्गम जगत् अपना अस्तित्व नहीं टिका सकता ।
वस्तुतः प्राणस्वरुप होने से
उन्हें सबकी आत्मा कहा गया है—सूर्य आत्मा
जगतस्तस्थुषश्च । (ऋ.१।११५।१
एवं यजु. माध्य.७।४२)
ब्रह्म का प्रथम आविष्कार
आदित्य या सूर्य ही है, जिससे पूरा सौरमण्डल बना । आदित्यो
ह वै प्राणो रविरेव चन्द्रमाः । यत् सर्वे प्रकाशयति तेन सर्वान् प्राणान् रश्मिषु
सन्निधत्ते । (प्रश्नोपनिषद् १।५-६)
परमेश्वर ने पूर्व कल्पों की
भांति ही सूर्य और चन्द्रमा का निर्माण किया— सूर्याश्चन्द्रमसौ
धाता यथापूर्वमकल्पयत् । (ऋ.
१०।११०।३) यहाँ सूर्य प्राण और चन्द्रमा रयि है। ध्यातव्य
है कि स्त्रीशक्ति को रयि कहते हैं । प्राण स्वयंप्रकाशी है और रयि परप्रकाशी ।
सूर्यविज्ञान पर पर्याप्त
सामग्री (सिद्धान्त) ऋग्वेद में उपलब्ध है।
यहाँ सूर्य को चौदह सूक्त समर्पित हैं । इन सूक्तों में प्रायः सूर्य शब्द
से भौतिक सौरमण्डल का बोध कराया गया है। ऋषि कहते हैं कि आकाश में सूर्य का
ज्वलन्त प्रकाश मानों अमूर्त अग्निदेव का मुख है— अग्नेरनीकं
वृहतः सपर्यं दिवि शुक्रं यजन्तं सूर्यस्य ।। (ऋ.१०।७।३)
प्रत्यक्ष देव होने के कारण
उनकी पूजा के लिए किसी प्रकार की मूर्ति की आवश्यकता नहीं है । सूर्य के प्रकाश से
हम कभी दूर न रहें- ऐसी कामना की गयी है— न
सूर्यस्य सदृशो ययोथा । (ऋ.
२।३३।१)
चराचर विश्व के संचालक,
जीवन और गति के महान प्रेरक, पृथ्वी को अपने
गर्भ से उत्पन्न करने वाले, सभी गतिमानों में प्रमुख;
घटी, पल, अहोरात्र,
मास, ऋतु, सम्वत्सर आदि
काल के प्रवर्तक प्रत्यक्ष देवता सूर्यदेव ही हैं — सरति गच्छति वा सुवति
प्रेरयति वा तत्तद् व्यापारेषु कृत्स्नं जगदिति सूर्यः। यद्वा सुष्ठु ईर्यते
प्रकाशप्रवर्षणादि व्यापारेषु प्रेर्षते इति सूर्यः ।
वेदों में विराट पुरुष की आँखों से सूर्य की उत्पत्ति कही गयी है।
सूर्य का विज्ञान वेदों में
अनेक बार आया है। वेद सूर्य को ही समस्त चराचर का उत्पादक कहता है—
नूनं जनाः सूर्येण प्रसूतः । इसे ही
प्राणः प्रजानाम् भी कहा गया है।
वेदों में सूर्य ‘इन्द्र’ शब्द से भी अभिहित है। इन्द्राय गिरो
अनिशितसर्गाअपःप्रेरणं सगरस्य बुध्नात् ।। स्पष्टतः इन्द्र शब्द सूर्य का बोधक
है। इन्द्र शब्द अन्तरिक्ष के देवता विद्युत के लिए भी प्रयुक्त होता है और
द्युलोक के देवता सूर्य के लिये भी । इन्द्र शब्द का दोनों अर्थों में प्रयोग सायण
भाष्य में भी प्राप्त होता है । वस्तुतः इन्द्र चौदह भेदों से श्रुतियों में
वर्णित हैं । उनका संग्रह ब्रह्मविज्ञान के इन पदों में उद्धृत है— इन्द्रा हि वाक्प्राणधियो बलं गतिर्विद्युत्प्रकाशेश्वरतापराक्रमाः ।
शुक्लादिवर्णा रविचन्द्रपुरुषावुत्साह आत्मेति मताश्र्चतुर्दश ।। यथा—वाक्, प्राण, मन , बल, गति, विद्युत् , प्रकाश, ऐश्वर्य,
पराक्रम, रुप, सूर्य,
चन्द्रमा, उत्साह और आत्मा इन चौदह अर्थों में
इन्द्र शब्द प्रयुक्त हुआ है । वेदों में दो और विशेषण भी इन्द्र के लिए मिलते
हैं- सहस्रवान् और मरुत्वान् । ये सहस्रवान् इन्द्र प्रत्यक्षतः सूर्य ही हैं ।
पुनः यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि यहाँ भी किंचित सूक्ष्म विभाग हुआ है-
सूर्यमण्डल को द्युलोक कहा जाता है और उसमें प्रतिष्ठित प्राणशक्तिदेवता को इन्द्र
। श्रुतियों में स्पष्ट उल्लेख है कि जैसे पृथ्वी के गर्भ में अग्नि है, वैसे ही द्युलोक (सूर्यमण्डल) के गर्भ में इन्द्र हैं— यथाग्निगर्भा पृथिवी तथा द्यौरिन्द्रेण अस्तु गर्भिणी । इस मन्त्र में इन्द्र पद का अर्थ सूर्य ही है। ये महान स्तुति सूर्य के
लिए ही प्रयुक्त है।
ऋषि कहते हैं कि इन्द्र
अन्तरिक्ष के मध्य में जल को प्रेरित करता है और अपनी शक्तियों से पृथ्वीलोक और
द्युलोक को रोके हुए हैं, जैसे कि अक्ष रथ के
चक्रों को रोके रखता है ।
विचारणीय विन्दु है कि
आकर्षण सिद्धान्त का इससे उत्तम स्पष्टीकरण और क्या हो सकता है । फिर भी यदि सिर्फ
इन्द्र शब्द यहाँ आने से ये शंका हो कि यहाँ इन्द्र सूर्य के लिए प्रयुक्त हुआ है
या कि वायु के लिए तो इस अगले सूक्त में वो भी स्पष्ट हो जायेगा—
स सूर्यः पर्युरु वरांस्येन्द्रो ववृत्यद्रथ्येव चक्रा ।
अतिष्ठन्तमपश्यं न सर्गं कृष्णा तमांसित्विष्या जधान ।। (ऋ.१०।८९।२)
इसका अर्थ करते हुए माधवाचार्यजी कहते हैं कि वह सूर्यरुप इन्द्र बहुत से तेजों को
इस प्रकार घुमाता है, जिस प्रकार सारथि रथ के चक्रों
को घुमाता है और वह अपने प्रकाश से कृष्णवर्णके अन्धकार पर इस प्रकार आघात करता है,
जैसे तेज चलने वाले घोड़े पर चाबुक का आघात किया जाता है। उक्त
मन्त्र में ‘ वरांसि ’ का अर्थ
नक्षत्रमण्डल भी किया गया है। इस प्रकार सुसंगत अर्थ स्पष्ट हो जाता है । सूर्य
रुप इन्द्र समस्त महान् मण्डलों को रथचक्र की भाँति घुमाता है—इस प्रकार आकर्षण का विज्ञान सुस्पष्ट हो रहा है ।
सूर्य सबके मध्य में हैं और सबके आकर्षण का
केन्द्र हैं,
इसे आगे के मन्त्रों में देखा जा सकता है— वैश्वानर
नाभिरसि क्षितिनाम् । विश्वस्य नाभिं चरते घ्रुवस्य । (ऋ.१०।५।३)
दिवो धर्त्ता भुवनस्य प्रजापतिः । (ऋ.४।५३।२)
यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्युः । (ऋ.१।१६४।२)
यहीं पुनः कहा जा रहा है—तिस्रो
मातृस्त्रीन् पितृन् विभ्रदेक ऊर्ध्वस्तस्थौ नेममवन्लापयन्ति । मन्त्रयन्ते दिवो
अमुष्य पृष्ठे विश्वविदं वाचमविश्वमिन्वाम् । (ऋ.१।१६४।१०)
आगे ऋग्वेद २।२७।८ में कहा
गया है—तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीपु द्यन् त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् ।
ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ।।
आदित्य तीन भूमि और तीन द्युलोक को धारण करते हैं । इन आदित्यों के अन्तर्ज्ञान
में तीन प्रकार के कर्म हैं । अर्यमा, बरुण, मित्र नामक आदित्य देवताओं ! ऋत से तुम्हारा सुन्दर अतिविशिष्ट महत्त्व
है।
इस प्रकार कई मन्त्रों में
सूर्य को तीन भूमि और तीन द्युलोक धारण करने वाला कहा गया है। वस्तुतः पृथ्वी और
सूर्य के मध्य में विराजमान चन्द्रमा, बुध और शुक्र को ही
तीन भूमियों के रुप में व्यक्त किया गया है। दूसरी ओर सूर्य से ऊपर मंगल, वृहस्पति और शनि को द्युलोक के अन्तर्गत कहा गया है। इस प्रकार सभी ग्रहों
का धारणाकर्षण सूर्य के द्वारा सिद्ध हो रहा है।
सूर्यविज्ञान को सही ढंग से
समझ लेने पर सृष्टि में कुछ भी अज्ञात नहीं रह सकता । तिस्रो भूमि से
सप्तव्याहृतियों का ही बोध होता है । इन सात का गणित भी बड़ा ही रोचक है। मूलतः
तीन के तीन यानी नौ होते हैं, उनमें दो समाहित हो
जाते हैं, इन्हीं में । शेष सात की महत्ता विशेष रुप से
दर्शित होती है। सप्त व्याहृतियों से बाहर कुछ भी नहीं है। (सप्तव्याहृतियों की
चर्चा पिछले अध्यायों में की जा चुकी है)
भूमि के भ्रमण का भी संकेत
विविध मन्त्रों में प्राप्त होता है । भूमि अपनी धुरी पर क्यों घूमती है,
इसे भी विलक्षण रुप से स्पष्ट किया गया है—यज्ञ
इन्द्रमवर्द्धयत् यद् भूमिं व्यवर्तयत् । चक्राण ओपशं दिवि । (ऋ.म.८
। १४५) यज्ञ इन्द्र का वर्द्धन करता है। इन्द्र
द्युलोक में ओपश- अर्थात् श्रृंग बनाता हुआ पृथ्वी को विवर्तित करता है,
यानी घुमाता है। सूर्य किरणें जिस समय किसी मूर्त पदार्थ पर पड़ती
हैं, आघात करके लौटती हैं, तब उसका
गमनमार्ग आगमनमार्ग से कुछ अन्तर पर होता है। उसे ही वैज्ञानिक भाषा में श्रृंग
(ओपश) कहते हैं। इस प्रकार पृथ्वी के
घूर्णन में सूर्यकिरणों का ही हाथ सिद्ध होता है ।
सूर्य,
सूर्यरथ, सूर्यरथ में जुते अश्वों के बारे में
ऋषि कहते हैं— सप्त
युञ्जन्ति रथमेकचक्रमेको अश्वो वहति
सप्तनामा । त्रिनाभि चक्रमजरमनर्व यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्थुः।
(ऋ.१।१६४।२)
सूर्य के एक पहिये वाले रथ में सात घोड़े जुते हुए हैं। इस रथचक्र की तीन नाभियाँ
हैं । यह चक्र शिथिल नहीं होता, प्रत्युत अत्यन्त
दृढ़ है और कभी जीर्ण भी नहीं होता । इसी के आधार पर सारे लोक स्थिर हैं।
निरुक्तकार यास्क कहते हैं
कि देवताओं के रथ,
अश्व, आयुधादि उन देवताओं से किंचित मात्र भी
भिन्न नहीं हैं । परमऐश्वर्यशाली होने के कारण उनका स्वरुप ही रथ, अश्व,आयुधादि रुपों में वर्णित-लक्षित होता है। इसे
दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि आवश्यकतानुसार अपने स्वरुप से ही रथ, अश्व, आयुधादि का सृजन कर लेते हैं । विविध पौराणिक
कथा-प्रसंगों में भी हम पाते हैं कि विभिन्न देवता आवश्यकतानुसार रथादि का आवाहन (प्रदर्शन)
सहज ही कर लेते हैं। स्पष्ट है कि देवताओं के आयुध (दिव्यास्त्र) को आजकल के
अस्त्र-शस्त्रों की तरह कहीं ढोकर ले जाने की आवश्यकता नहीं होती । महाभारत, रामायण आदि काल के युद्धों में योद्धा के तर्कश में सामान्य तीर ही
दिखलाई पड़ते हैं । घटोत्कचपुत्र बरबरीक की तर्कश में मात्र दो ही तीर थे- एक से
संधान और दूसरे से भेदन (नाश) का कार्य सम्पन्न करता था । प्रसंगवश यहाँ रथ शब्द
की व्यत्पत्ति पर थोड़ा विचार कर लें- वस्तुतः ये स्थिर शब्द का विपरीत है। स्थिर
शब्द ही वर्णविपर्यय होकर रथ शब्द के रुप में आ गया है। यहाँ रथ और रथी में यदि
भेद की ही अपेक्षा हो तो सौर-जगन्मण्डल – सूर्यकिरण-क्रान्त
ब्रह्माण्ड सूर्य का रथ माना जा सकता है ।
पुराणों में सूर्य की गति के प्रदेश-कान्तिवृत्त
को सूर्यरथ कहा गया है— साशीतिण्डलशतं काष्ठयोरन्तरं द्वयोः ।
आरोहणावरोहाभ्यां भानोरब्देन या गतिः ।
सरथोऽधिष्ठितोदेवैरादित्यैर्ऋषिभिस्तथा।।(वि.पु.
२।१०।१-२)
संवत्सर ही इस रथ का चक्र है
। वस्तुतः काल ही समस्त जगत् को घुमा रहा है। काल के कारण ही जगत् जगत् है ।
गत्यमान है। एक परिणाम से दूसरे परिणाम में जाना ही जगत् का जगतपन है। इस संसार
में एक संवत्सर में तीन बार जगत् की स्थिति बिलकुल पलट जाती है- शीत,
उष्ण, बर्षा । पांच-छः ऋतुओं को ही चक्र के ‘अरे’ के रुप में कहा गया है।
इसी भांति कुछ और भी
द्रष्टव्य है—
त्रिनाभिमति
पञ्चारे षण्नेमिन्यक्षयात्मके ।
संवत्सरमये
कृत्स्नं कालचक्रं प्रतिष्ठितम् ।। (वि.पु. २।८।४)
भूत, वर्तमान,
भविष्य भेद से इस कालचक्र की तीन नाभियों की बात कही गयी है ।
किंचित व्याख्याता भूमि, अन्तरिक्ष और दिव नाम से तीन लोकों
को ही तीन नाभियाँ मानते हैं, इसमें भी सिद्धान्त का कोई
विशेष खण्डन नहीं हो रहा है । इस अद्भुत चक्र के लिए एक खास विशेषण भी है- अनर्वम्
– निरुक्तकार कहते हैं-
‘अप्रत्युतमन्यस्मिन् ’ यह
सूर्यमण्डल किसी अन्य आधार पर आधारित नहीं है- टिका नहीं है। प्रत्युत इसीके आधार
पर समस्त लोक टिके हुए हैं। सूर्यमण्डल के आकर्षण से सभी लोक बन्धे हुए हैं और
सूर्य स्वयमेव अवस्थित है।
कुछ व्याख्याकार वायु को
सूर्य का अश्व मानते हैं अर्थात् वायुण्डल के आधार पर सूर्य का परिभ्रमण होता
है। वह वायु मूलतः एक ही है,
किन्तु स्थान-भेद से उसी की आवह-प्रवहादि सात संज्ञायें हो गयी हैं।
अतएव कहा गया है कि ‘एक ही सात नाम का या सात स्थानों में
गमन करनेवाला अश्व वहन करता है ’। किन्तु निरुक्तकार के
मतानुसार अशन अर्थात् सब स्थानों में व्याप्त होने के कारण सूर्य ही अश्व है,
किन्तु सूर्यमण्डल हमसे बहुत दूर है । उसे हमारे पास सूर्य किरणें
ही पहुँचाती हैं । इस प्रकार सूर्य अश्व है तो किरणें बल्गा (लगाम) हैं। जहाँ
किरणें ले जाती हैं, वहीं सूर्य को भी जाना पड़ता है ।
ध्यातव्य है कि लगाम, रास, किरण सबके
लिए संस्कृत में ‘रश्मि’ शब्द का
प्रयोग होता है । इस प्रकार सूर्य को वहन करनेवाली किरणें ही सूर्याश्व हुयी। एक
बात और ध्यान देने की है कि कई भावों से मन्त्रों का विचार होता है- कहीं सूर्य
अश्व है तो रश्मि बल्गा, कहीं सूर्य अश्वारोही है तो किरणें
अश्व । ये किरणें भी वस्तुतः एक जाति की हैं- एक ही हैं, किन्तु
इन्हें सात भी कहा गया है। सात कहने के भी अनेक कारण हैं । किरणों का सात रुप है-
इस कारण भी सात कहना तर्क-संगत है। संसार में वसन्तादि छः ऋतुएं होती हैं और एक
अतिरिक्त ऋतु भी है- साधारण । इन सात का कारण भी सात किरणें ही हैं। सूर्यकिरणों
के तारतम्य से ही सबकुछ परिवर्तन होता है। इस लिए सात प्रकार का परिवर्तन
करानेवाली सूर्यकिरणों की अवस्थायें भी सात हैं। सूर्यकिरणें सात स्थानों पर नत
होती हैं । प्रकारान्तर से सप्तनाम पद सूर्य के लिए विशेषण है । सात ऋषि सूर्य की
स्तुति करते रहते हैं निरन्तर । इस सात का अद्भुत संयोग है सूर्यविज्ञान में।
साम्बपुराण को सूर्यतन्त्र कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं, क्यों
कि सूर्यसाधना प्रचुर मात्रा में यहाँ उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त मार्कण्डेय पुराण,
ब्रह्मपुराण, लिंगपुराण,अग्निपुराण,श्रीमद्भागवत पुराणादि विविध पुराणों में भी
सूर्यसाधना के रहस्य और विधियों पर काफी प्रकाश डाला गया है।
वेद-वर्णित सूर्यविज्ञान के
गहन अध्ययन से अनेक अवान्तर विज्ञान का भी ज्ञान सहज ही हो जाता है। वेदों में
विज्ञान-प्रकट करने की शैली बड़ी विचित्र है । इसमें दुरुहता भी है और रोचकता भी ।
हालाकि सामान्य पाठकों के लिए अतिदुरुह ही कह सकते हैं इसे । यही कारण है कि वेदों
को ठीक से नहीं समझ पाने के कारण अज्ञानी उसे हेयदृष्टि से देखते हैं। पुराणों में
भी लगभग यही बात है । जिसे हम कथा समझते हैं, वहाँ भी गहन
सिद्धान्त छिपा होता है, साधना का रहस्य छिपा होता है ।
एक रोचक उदाहरण लेते हैं—
पृच्छामि त्वा परमन्तं पृथिव्याः पच्छामि यत्र भुवनस्य नाभिः ।
इयं वेदिः परो अन्तः पृथिव्याः । अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः । (ऋ.१।१६४।
३४। एवं यजु.२३।६१)
यजमान और उध्वर्यु के बीच आपसी संवाद चल रहा है । दोनों यज्ञमण्डप में
विराजमान हैं ।
प्रथम दृष्ट्या बिलकुल
प्रलाप या कहें मजाक जैसा लग रहा है ये प्रसंग — यजमान कहता
है— मैं तुमसे पृथ्वी का सबसे अन्तका भाग पूछता हूँ और ये भी बताओ कि भुवन की नाभि
कहाँ है । उध्वर्यु शीघ्र ही उत्तर देता है- ये यज्ञवेदी ही पृथ्वी का अन्तिम भाग
है और ये यज्ञस्थल ही भुवन की नाभि है।
अब जरा गहराई से विचारें तो
स्पष्ट हो जायेगा कि भूगोल की स्थिति स्पष्ट कर दी गयी । गोल का आदि-अन्त नियत
नहीं होता, जहाँ से नापना शुरु करें, वहीं आसपास ही दोनों छोर
मिल जायेंगे। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि प्रत्येक स्थान पर आदि है, प्रत्येक स्थान पर अन्त भी है।
वैदिक यज्ञों में वेदियों और
कुण्डों का निर्माण भी विशुद्ध वैज्ञानिक हुआ करता है- बिलकुल ब्रह्माण्डीय बनावट को
ध्यान में रखकर । पूर्व में आहवनीय कुण्ड होता है, पश्चिम में
गार्हपत्य कुण्ड और दोनों के बीच में वेदी बनती है। आहवनीय कुण्ड सूर्य के स्थान
में है और गार्हपत्य कुण्ड पृथ्वी के स्थान में और वेदी अन्तरिक्ष में । ये वेदी
ही पृथ्वी का अन्त है कहने का अभिप्राय स्पष्ट है- जहाँ पृथ्वी का अन्त है,
वहीं अन्तरिक्ष का प्रारम्भ । इस प्रसंग में वहाँ और भी कई तरह की स्पष्टी
हुयी है। अग्नि, विद्युत, वायु,
पृथ्वी, अन्तरिक्ष आदि की एक दूसरे पर
निर्भरता या कहें पारस्परिक सहयोग भी लक्षित है ।
आधुनिक विज्ञान जलविद्युत का
आविष्कारक स्वयं को मानता है, जबकि ऋग्वेद में इन
सिद्धान्तों की स्पष्ट चर्चा है। जिज्ञासुओं को मूल ग्रन्थों और अधिकारिक भाष्यों
का अवलोकन अवश्य करना चाहिए । प्रसंगवश यहाँ कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं—
अभि
प्रवन्त समनेव योषाः कल्याण्यः स्मयमानासो अग्निम् ।
कृतस्य धाराः समिधो नसन्त तःजुषाणो
हर्यति जातवेदाः ।। (ऋ.४।५८। ८)
यो
अनिध्मो दीदयदप्स्वन्तर्यो विप्रास ईलते अध्वरेषु । अपां नयान्मधुमतीरपो दा
याभिरिन्द्रो वावृधे वीर्याय ।। (ऋ.१०।३०)
विद्युत को शक्तिविशेष
(एनर्जी) (अनमेटेरियल) होने की स्पष्ट घोषणा है यहाँ । वेदों में इसे सूर्यभ्राता
भी कहा गया है। भ्राता का कई अर्थों में प्रयोग है- भरण करने वाला भी,
हरण करने वाला भी, सहयोग करने वाला भी,
सहयोग लेने वाला भी ।
अब जरा रुप पर विचार करें—
हम जिन वस्तुओं को देखते हैं, जिस रुप में देखते
हैं, वह मूलतः सूर्यकिरणों का ही प्रभाव है। वस्तुओं में निज
रुप का अभाव है । रुप तो सूर्यकिरणों में है। वस्तुओं में किंचित शक्तिभेद है,
जिसके कारण कोई वस्तु सूर्यकिरणों के किसी रुप को प्रकट कर देती है
(उगल देती है) और शेष रुपों को निगल जाती है । तात्पर्य यह कि रुपों का आधार रुपों
को बनाने वाली सूर्यकिरणें ही हैं, जो वस्तुओं की भिन्नता
भाषित कराती हैं। वेद वर्णित रुपविज्ञान पर एक दृष्टि डालें—
शुक्रं
ते अन्यद् यजतं ते अन्यद् विपुरुषे अहनी द्यौरिवासि विश्वा हि माया अवसि स्वधावो
भद्रा ते पूषन्निह रातिरस्तु ।। (ऋ.६।५८।१)
इस मन्त्र में पूषादेवता की
स्थिति है कि रुप तुम्हारे हैं, तुम्हीं इन
दोनों (शुक्ल-कृष्ण) के द्वारा
भिन्न-भिन्न प्रकार की सब मयाओं को बनाते हो या रक्षा करते हो। भाष्यकार श्री
माधवाचार्य ने शुक्र शुक्ल रुप और यजत कृष्ण रुप—यही अर्थ
किया है । स्पष्ट है कि रुप मुख्यतः दो ही है—शुक्ल और कृष्ण
। उन्हीं के सम्मिश्रण से सन्धि स्थान- रक्त रुप और फिर परस्पर मेल से नाना रुपों
का निर्माण होता है। यों तो यहाँ पूषा देवता को रुप का कारण माना गया है, और ‘ इन्द्रो रुपणि कनिकदतरत् ’ से तैत्तिरीयादि संहिताओं में इन्द्र को सब रुपादि बनाने वाला कहा गया है।
तात्पर्य यह कि सूर्य-किरण-संसक्त देवता ही रुपों के उत्पादक हैं। ये स्पष्ट
विज्ञान हमें यहाँ इन मन्त्रों में मिल जाता है। वैदिक सूर्यविज्ञान की इन बातों
के परिपेक्ष्य में आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं को परिशीलन करना चाहिए और उभय
सिद्धान्तों के समन्वय का प्रयास करना चाहिए ।
सूर्यतत्ववेत्ताओं का मानना
है कि ये किरणजाल से मंडित एवं प्रकाशमय तपते हुए सूर्य विश्व क समस्त रुपों के
केन्द्र है। सभी रुप (रंग और आकृतियाँ) सूर्य से उत्पन्न और प्रकाशित होते हैं। ये
सविता ही सबके उत्पत्ति स्थान हैं। ये ही सबके जीवन-ज्योति के मूल स्रोत हैं। ये
सर्वज्ञ और सर्वाधार हैं। ये वैश्वानर (अग्नि) और प्राण-शक्ति के रुप में सर्वत्र
व्याप्त हैं और सबको धारण किए हुए हैं। समस्त जगत् के प्राण रुप सूर्य अद्वितीय
हैं । इनके समान विश्व में कोई भी जीवनी शक्ति नहीं है। ये सहस्ररश्मि सूर्य हमारे
शतशः व्यवहारों को सिद् करते हुए उदित होते हैं । यथा—
विश्वरुपं
हरिणं जातवेदसं परायणं ज्योतिरेकं तपन्तम् । सहस्ररश्मिः शतधा वर्तमानः प्राणः
प्रजानामुदयत्येष सूर्यः ।।
(प्रश्नोपनिषद् १।८)
सच पूछें तो इन वैदिक विषयों
के गहन मनन-चिन्तन-परीक्षण की आवश्यकता है । शनैःशनैः सूर्यविज्ञान आधुनिक
वैज्ञानिकों की समझ में भी तत्भांति ही स्पष्ट होता जा रहा है । क्या ही अच्छा
होता इन दोनों विज्ञानों को तुलनात्मक और विश्लेषणात्मक ढंग से बिलकुल तटस्थ होकर
परखा जाता,
तो आने वाले समय में मानवता का विशेष कल्याण अवश्य होता । अस्तु ।
।।ऊँ सूर्याय नमः।।
क्रमशः...
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