सूर्यविज्ञानःआत्मचिन्तन भाग 15 (अन्तिम भाग)


                          द्वादश चिन्तन

                सूर्यविज्ञानःउपसंहार
पूर्वजों और गुरुजनों के आशीष स्वरुप सूर्यविज्ञान के सम्बन्ध में जो कुछ भी जानकारी, ज्ञान और अनुभव लब्ध हुआ उसे यथासम्भव यथावत आप पाठक बन्धुओं के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया । हां,इतना तो सही है कि जानकारी को यथावत साझा किया जा सकता है, किन्तु अनुभव को चाह कर भी यथावत कैसे प्रस्तुत किया जाये ! बहुत बार ऐसा भी होता है कि कोई इस क्षेत्र में यथावत प्रस्तुति की धृष्टता करे भी तो अन्धों की नगरी में हठात प्रविष्ठ हस्ती के विषय में जो टिप्पणियाँ प्रकाश में आयी थी, कुछ वैसी ही बात ज्ञान (अनुभव) के विषय में भी घटित होने लगती है। इस दृष्टान्त से किसी को अन्धा कहना और स्वयं को ज्ञानी सिद्ध करना मेरा अभीष्ट बिलकुल नहीं है। अभीष्ट है शब्दातीत को शब्दसीमाबद्ध न कर पाने की विवशता की। अतः इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।
पुनः आपसे निवदन करुँगा कि कितना हूँ विशाल, विशद और स्पष्ट सैद्धान्तिक वर्णन क्यों न हो, व्यवहारिक ज्ञान तो बिलकुल भिन्न है इससे। वो भी सूर्यविज्ञान जैसी गूढ़ विषय का ज्ञान तो और भी दुरुह है। इसे किसी भी ग्रन्थावलोकन से कदापि प्राप्त नहीं किया जा सकता । ऐसे में कोई ये भी कह सकता है कि फिर इस पुस्तक का क्या औचित्य ?
मेरी समझ से इस संग्रह का प्रथम औचित्य इतना ही है कि जिज्ञासु की पिपासा बढ़ेगी । आपकी प्यास को बढ़ाने में यत्किंचित सहयोगी हुआ यदि तो मैं अपने प्रयास में सफल हो जाउँगा । क्यों कि किसी ज्ञान-विज्ञान की खोज और उपलब्धि के लिए अदम्य-असह्य पिपासा ही पहली शर्त होती है। और इसी अदम्य तृष्णा की भारी कमी है हम मनुष्यों में । हमारे होठ कुछ और बोलते रहते हैं और मन कुछ और करना चाहता है । बातें तो खूब बनाते हैं, तैयारी तो खूब करते हैं, किन्तु सतत कार्य सम्पादन हेतु समय नहीं निकल पाता । स्वयं को विविध सांसारिक जंजालों से मुक्त नहीं कर पाते । गौरतलब है कि समय तो अपने समय से चलता ही रहता है, हम उसे पकड़ नहीं पाते, रोक नहीं पाते। और सृष्टि के कालराज्य में समय को पकड़ पाना असम्भव है- ऐसा ही अनुभवियों ने कहा है। और हाँ, सिर्फ जानकारी मात्र से ही सफलता मिल जाती— यदि ऐसा होता तो फिर योगेश्वर श्रीकृष्ण को क्यों कहना पड़ता—
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चितद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।। (७-३) 
संकलन का द्वितीय औचित्य ये है कि इसके अध्ययन-मनन और यथासम्भव निरन्तर निष्ठित अभ्यास से मार्ग प्रशस्त होता जायेगा । और एक दिन ऐसा भी अवश्य आ जायेगा कि सदगुरु द्वार खटखटाने स्वयं आ जायें। अस्तु ।

नारदपूर्णिमा, विक्रमाब्द-२०७६
                         ।। जयभास्कर ।।
                                             समाप्त

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