सूर्यविज्ञानःआत्मचिन्तन भाग 7

                            पञ्चम चिन्तन   
                                  सूर्यविज्ञानःः वर्णानुसंधान

            महर्षि पतञ्जलि ने अपने बहुचर्चित पुस्तक योगसूत्रके प्रारम्भ में ही कहा है- योगश्चितवृत्तिनिरोधः ।। (पा.यो.सू.स.पा.२) यानी चित्तवृत्तियों के निरोध को ही योग कहते हैं । चित्त की वृत्तियाँ निरुद्ध हुयी कि योग हो गया- आत्मा और परमात्मा के बीच की झीनी दीवार- विभेदक रेखा- समाप्त हो गयी ।
         यह अवस्था विशेष है, इसमें असम्प्रज्ञात के साथ-साथ सम्प्रज्ञात समाधि को भी ग्रहण किया गया है । यानी जिस किसी विधि से हम यात्रा (साधना) प्रारम्भ करें, चित्त की उच्छृंखल वृत्तियों का निरुद्ध हुए बिना काम होने को नहीं है । जिस किसी भी रास्ते से जाओ, जाना तो वहीं है । इस सम्बन्ध में कृष्ण ने गीता में बहुत कुछ साफ कर दिया है, फिर भी, फिर भी लगा ही रहता है । अतः साधक को यम-नियमादि का सम्यक् अभ्यास करते रहना चाहिए, यानि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, स्वाध्याय, तप, और ईश्वरप्रणिधान के मार्ग पर सतत अग्रसर होना चाहिए । इस सम्बन्ध में विशद व्याख्या पा.यो.सू.साधनपाद ३॰ एवं ३२ द्वष्टव्य है । यथा    अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ।  
                                     एवं      
                   शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ।
            उक्त अभ्यासों की सम्यक् सिद्धि हेतु सात्त्विक आहार-विहार में संलग्न रहने की आवश्यकता होगी, साथ ही  शरीर को स्वस्थ और सामर्थ्य-वान रखने हेतु विहित आसनों के अभ्यास के साथ-साथ आधारभूत प्राणायाम के यत्किंचित अभ्यास भी करना चाहिए, सभी प्रारम्भिक अभ्यासियों को ।
सर्वप्रथम अन्तः नाडियों के सम्यक् शोधन हेतु नाडीशोधन प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। गुरुनिर्देशन में रहते हुए, सुविधानुसार प्रातः-सायं एक चक्र से प्रारम्भ करके चौवन चक्र तक का दीर्घ अभ्यास जरुरी है । ताकि समस्त नाडियों का सम्यक् शोधन हो जाय । इस क्रिया में तीन से छः माह लग सकते हैं ।
            आसन के सम्बन्ध में श्रीकृष्णवचन बिलकुल स्पष्ट है
            शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
            नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।। (गीता ६-११)
            सीधी सी बात है- सुशान्त, पवित्र स्थान में आसन लगाना श्रेयस्कर है। सुरुचिकर एकान्त स्थान में पवित्र आसन पर स्थिरचित्त बैठने का अभ्यास करना चाहिए । जंगल, पहाड़, कन्दरा आदि होना अत्यावश्यक नहीं है । गृहस्थ अभ्यासी के लिए घर का कोई शान्त और पवित्र स्थान भी हो सकता है। वर्तमान समय में मन्दिरों की स्थिति पिकनिक-स्पॉट सी हो गयी है । वहाँ शान्ति कम, अवांछित कोलाहल अधिक है। अतः मेरे विचार से अपने घर से उत्तम कोई अन्य स्थान क्या हो सकता है !
यह कह कर मैं मन्दिरों की महत्ता को कमतर नहीं आंक रहा हूँ । अपनी श्रद्धानुसार मन्दिर-दर्शन अवश्य करें।  वहाँ की ऊर्जाओं में अवगाहन करें।  दिव्य ऊर्जा को आत्मसात करने का प्रयत्न करें, किन्तु दीर्घकालिक ध्यान-साधनादि के लिए निजी आवास ही सर्वोत्तम है ।
           कृष्ण कहते हैं कि आसन की ऊँचाई अधिक नहीं होनी चाहिए, यानी ऊँची चौकी वगैरह से कहीं अच्छा है- सीधे भूमि पर ही आसन विछावें । चौकी रखनी ही हो तो वित्तेभर (आठ-नौ अंगुल) से अधिक की ऊँचाई वाली चौकी न हो । नात्युच्छ्रितं कहने का तात्पर्य है कि सीधे जमीन पर न बैठें । जमीन पर बैठकर ध्यानादि करने से शरीर की ऊर्जा का क्षरण होता है, साथ ही अन्य परेशानियाँ भी हो सकती हैं। सफेद कम्बल का आसन सर्वोत्तम है । काले रंग का प्रयोग कदापि न करें । सफेद कम्बल को हल्दी में रंग कर भी प्रयोग किया जा सकता है । रासायनिक पीले रंग का प्रयोग न करें रंगने के लिए । सुविधा के लिए कम्बल पर सूती वस्त्र भी डाल सकते हैं - चैल यानी सूती वस्त्र ।
ऊपर के श्लोक में ' अजिन ' शब्द आया है । अजिन कहते हैं मृगचर्म, व्याघ्रचर्म आदि को । वर्तमान समय में कानूनी रुप से इस पर रोक है। अतः इसके झमेले में न पड़ें। शास्त्रादेश भी है कि चर्मासनों का प्रयोग सबके लिए नहीं है, वो विशिष्ठ अवस्था में ही प्रयोग करने योग्य है। हां, कम्बल के नीचे कुशासन उपलब्ध हो तो बिछाया जाना चाहिए। यानी कुश, कम्बल और सूती वस्त्र- ये क्रमिक रुप से तीन परत हुए आसन के। ऐसे आसन पर लम्बे समय तक सुखपूर्वक बैठा जा सकता है । हां, और एक बात - आसन के सम्बन्ध में बड़ी सख्ती से पालन होना चाहिए - अपना आसन कभी किसी प्रिय से प्रिय व्यक्ति को भी प्रयोग न करने दें ।  इससे आपका और उस प्रयोगकर्ता का भी नुकसान हो सकता है।
   आसन की परिभाषा तो सुस्पष्ट है- स्थिरसुखमासनम्।। (पा.यो.सू.सा.पा.४६) किसी भी साधना हेतु दीर्घकाल तक शान्तचित्त स्थिर रुप से बैठने की आवश्यकता होती है । जिस मुद्रा में सुखपूर्वक लम्बे समय तक बैठा जा सके, वस इतने ही से मतलब है, किन्तु कतिपय आसनों पर योगियों ने विशेष जोर दिया है । यथा- पश्चिमोत्तासन, शलभासन, पद्मासन, सिद्धासन (स्त्रियों के लिए सिद्धयोनि आसन), वज्रासन, सुप्तवज्रासन, आनन्दमदिरासन, शवासन आदि ।        
इसके अतिरिक्त बारह आसनों का एक समूह है- सूर्यनमस्कार । स्वामी ओमानन्द जी ने इसे सूर्यभेदी प्रणायाम कहा है ।  इसकी अधिकारिक पुस्तकें आसानी से बाजार में उपलब्ध हैं । स्वामी सत्यानन्द जी प्रणीत सूर्यनमस्कार नामक पुस्तक द्रष्टव्य है । ये अभ्यास समन्त्र और अमन्त्र दोनों प्रकार से किया जाता है । इसके नियमित अभ्यास से शरीर स्वस्थ रहता है । इन आसनों के साथ रहस्यमय ढंग से विशिष्ट प्राणायाम स्वतः होते रहता है । अतः इसे अवश्य करना चाहिए । सूर्यविज्ञान के साधकों के लिए ये बहुत ही महत्त्वपूर्ण है ।
            प्रातः-सायं यानी नियत समय के अतिरिक्त, अन्य समयों में भी वायें-दायें नथुनों से आते-जाते श्वांस का निरीक्षण होते रहे तो और भी अच्छा है। इस क्रिया को स्थिर आसन पर बैठ कर भी किया जाना चाहिए । स्नान, स्वच्छ वस्त्रादि धारण, पूर्ण शुचिता आदि अपनी जगह पर काफी महत्त्वपूर्ण हैं, किन्तु ऐसा न हो कि ये सिर्फ वाह्याडम्बर बन कर रह जायें । व्यावहारिक रुप से होता ये है कि हम बाहरी तल पर तैयारी तो खूब करते हैं, पर भीतरी तल पर कुछ होता नहीं, या कहें ठोस कार्य कुछ हो ही नहीं पाता और तैयारियों में ही जीवन चुक जाता है । अतः मुख्य रुप से अन्तः शुचिता का ध्यान रखना जरुरी है ।
रात सोते समय भी चित्त लेटकर इस क्रिया को की जा सकती है । भोजन और क्रिया के बीच दो घड़ी (४८ मिनट) का अन्तराल अवश्य होना चाहिए । इस प्रकार निरन्तर करते रहने से थोड़े ही दिनों में चंचल चित्त की उच्छृंखलता कम हो जाती है । मन्त्रों का जप, स्तोत्रों का पाठ आदि भी इसी उद्देश्य की ओर ले जाने वाले मार्ग हैं ।
            संक्षेप में ये कह सकते हैं कि बहुत झमेले में पड़े बिना, सीधे इस व्यावहारिक क्रिया का अभ्यास किया जा सकता है ।
            नाड़ीशोधन का अभ्यास सिद्ध हो जाने के पश्चात् पञ्चतत्त्वों के बीजमन्त्रों का सतत अभ्यास किया जाना चाहिए । यानि विविध केन्द्रों पर चित्त को एकाग्र करते हुए, मानसिक रुप से उन बीजों का जप करे । यह अभ्यास नियमित रुप से थोड़े लम्बे समय तक करने की आवश्यकता है, ताकि नाड़ियों के शुद्ध हो जाने के बाद कायिक पञ्चतत्त्व भी शुद्ध हो जायें ।

  अभ्यासियों की सुविधा के लिए नाड़ियों के सम्बन्ध में  यथासम्भव किंचित गहन चर्चा अपेक्षित है। अतः जहाँ तक कथ्य है, शब्दसीमा में समाने योग्य हैं, वहाँ तक यत्किंचित प्रकाश-प्रक्षेपण का प्रयास करता हूँ ।

            सूर्य को वायु का अधिष्ठाता कहा गया है। प्राणादि वायु का संतुलन-नियंत्रण ही साधना का  मूलाधार है। हमारे शरीर में वायु का संचार नाडियों के माध्यम से ही होता है । ऐसे में स्वाभाविक है कि नाड़ियों का सीधा सम्बन्ध है सूर्य से । याज्ञवल्क्यसंहिता में कहा गया है—
            पुरत्रयं च चक्रस्य सोमसूर्यानलात्मकम् ।
          त्रिखण्डंमातृकाचक्रं सोमसूर्यानलात्मकम् ।।
अतः सूर्यविज्ञान के अध्येताओं के लिए विशेषरुप से साध्य है। योगशास्त्रों में स्पष्ट वर्णन है इनके सम्बन्ध में । कहते हैं कि मानवकाय में अनेक सूक्ष्मशिरायें हैं, कुछ-कुछ इस भाँति जैसा कि पत्तों में पतली-पतली शिरायें हुआ करती हैं। हालाकि आधुनिक चिकित्साविज्ञान भी अवगत है बहुत सी शिराओं से जिसे मुख्यतया दो भागों में विभाजित किया गया है संवेदीशिरायें और रक्तवाहीशिरायें। किन्तु तन्त्र और योगशास्त्र की शिरायें इन स्थूल शिराओं से एकदम भिन्न हैं । इन शिराओं (नाडियों) की संख्या बहत्तर हजार बतायी जाती हैं—द्वासप्ततिसहस्राणि नाडीद्वाराणि पञ्जरे। (हठयोग ५-८) ये नाडियाँ लिंग के ऊपर और नाभि के नीचे स्थित कन्द विशेष से निकलकर सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हैं। इन बहत्तर हजार नाडियों में बहत्तर मुख्य हैं। यथा— ऊर्ध्वं मेढ्रादधो नाभेः कन्दोऽस्ति खगाण्डवत् । तत्र नाड्यः समुत्पन्नाः सहस्राणि द्विसप्तति ।। तेषु नाडीसहस्रेषु द्विसप्तति रुदाहृता ।(योगचूड़ामणि१४-१५)
तथाच—
नाभिस्थानगतस्कन्धोर्ध्वमङ्कुरादेव निर्गताः ।
द्विसप्ततिसहस्राणि देहमध्ये व्यवस्थिता ।। (शिवस्वरोदय ३२)
इनमें भी दस अतिप्रधान नाडियाँ हैं — प्रधाना दशनाड्यस्तु दश वायुप्रवाहकाः ।। (सिद्धस्वरोदय-३४)
इनके नाम क्रमशः—इडा,पिंगला,सुषुम्णा, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, पूषा, यशश्विनी,अलम्बुषा,कुहू और शङ्खिनी है। इनमें भी प्रथम तीन सर्वोपरि है, जो प्राणमार्ग में स्थित हैं —
इडायां स्थितश्चन्द्रः पिंगलायां च भास्करः ।
सुषुम्णा शम्भुरुपेण शम्भुर्हंसः स्वरुपतः ।। (शिवस्वरोदय-५०)   
इडापिङ्गलासौषुम्णाः प्राणमार्गे च संस्थिताः ।
सततं प्राणवाहिन्यः सोमसूर्यग्निदेवताः ।। (योगचूड़ामणि२१)
 ध्यातव्य है कि मेरुदण्ड के वामभाग(वाम नासारन्ध्र) में इडा और दक्षिण भाग(दक्षिण नासारन्ध्र) में पिंगला और इन दोनों के मध्य सुषुम्णा का संचार है। इसके अतिरिक्त बायीं आँख में गान्धारी, दाहिनी आँख में हस्तिजिह्वा, दक्षिण कर्ण में पूषा, वाम कर्ण में यशश्विनी, मुख में अलम्बुषा, लिंग में कुहू, गुदा में शंखिनी नाडी स्थित है। इस प्रकार हम पाते हैं कि खुले हुए नवद्वारों (नवद्वारे पुरे देही) पर नौ नाडियों का प्रभाव है। एक और यानी दसवां द्वार जो सदा बन्द (अवरुद्ध) रहता है, उसपर प्रधानतिप्रधान-सुषुम्णा का प्रभाव है। विदित हो कि इडा नाडी को चन्द्रनाडी, पिंगला को सूर्यनाडी और सुषुम्णा को शम्भुनाडी के नाम से भी योगशास्त्रों में कहा गया है। शुक्लपक्ष में प्रथम तीन दिनों तक चन्द्रनाडी चलती है,तत्पश्चात् सूर्य नाडी में प्राणसंचार होता है। तदन्तर क्रम बदल जाता है। इसी भाँति कृष्णपक्ष में ठीक इसके विपरीत क्रिया होती है।
इन नाड़ीचक्रों को जबतक ठीक से समझा और साधा न जाए तब तक योग-साधना या कि तन्त्रसाधना या कहें सूर्यविज्ञान का रहस्य उद्घाटित नहीं हो सकता । शास्त्र घोषित है कि चित्तशक्ति (आधारशक्ति) कुण्डलिनी शक्ति ही है। इसके बोध के बिना सब व्यर्थ है । सुषुम्णानाडी ही प्राणशक्ति के लिए राजपथ है । इसी मार्ग से जागृत कुण्डलिनीशक्ति ऊपर उठकर अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान करती है। इसे गरुकृपा और स्वकर्म से जागृत (चैतन्य) करने की जरुरत है। सामान्य स्थिति में हर मनुष्य के भीतर ये शक्ति सुसुप्तावस्था में पड़ी रहती है ।
हठयोगप्रदीपिका-३-२ में कहा गया है—
सुप्ता गुरुप्रसादेन यदा जागर्ति कुण्डली ।
            तदा सर्वाणि पद्मानि भिद्यन्ते ग्रन्थयोऽपि च।।
अनुभवी साधकों का कहना है कि जिस तरह दण्ड-ताड़न से सर्प अपना कुण्डलाकार त्यागकर सरकने लग जाता है, उसी भाँति जालन्धरबन्ध नामक यौगिक क्रिया से वायु को सुषुम्णा मार्ग में धारण करने पर कुण्डलिनीशक्ति सीधी अपनी कुण्डली भेद कर ऊपर कपाल की ओर उठने लगती है। योगशब्दावली में इसे मरणावस्था भी कहते हैं। महाकुण्डलिनी- शक्ति के संपीडन हेतु योगशास्त्रों में महामुद्रा का भी प्रावधान है। इसकी साधना से अविद्यादि पञ्चक्लेशों का नाश होता है। गुरु गोरक्षनाथजी कहते हैं कि नाभिदेश में अग्निरुप सूर्य स्थित हैं और तालुमूल में अमृतरुप चन्द्रमा स्थित हैं। जब चन्द्रमा नीचे की ओर मुख करके अमृत बरसाते हैं, तब सूर्य उसको ग्रस लेते हैं। इसीलिए हठयोग क्रियाओं में ऐसी मुद्रा का प्रावधान है, जिसके अभ्यास और प्रभाव से अमृत व्यर्थ शोषित न हो जाये। हठयोग प्रदीपिका नामक ग्रन्थ में विपरीतकरणी मुद्रा की चर्चा है, जो विशेष प्रयोज्य है। साधनपथ के विशेष जिज्ञासुओं को घेरण्डसंहिता का भी अवलोकन करना चाहिए।
'हठ’ शब्द से लोक प्रचलित जिद्द का अर्थ कोई न लेले । वस्तुतः इसका गूढ़ अर्थ है— हकारेण तु सूर्यःस्यात् ठकारेणेन्दुरुच्यते । सूर्यचन्द्रमसोरैक्यं हठ इत्यभिधीयते ।।
अर्थात् हकार सूर्य का द्योतक है और ठकार चन्द्रमा का। इन दोनों के संयमन (नियंत्रण) से ही कोई भी साधना का मार्ग प्रशस्त होता है। नाडीशोधन की बिलकुल सामान्य और प्रारम्भिक क्रियायें सो सुझायी जाती हैं, वहाँ इन्हीं दोनों की शुद्धि की बात की जाती है। ध्यातव्य है कि विभिन्न प्रकार के कुम्भक पर नियन्त्रण करने में नाड़ीशोधन-क्रिया का काफी महत्त्व है। पाठकों की सुविधा के लिए आगे एक-दो सारणियों द्वारा कुछ और भी स्पष्ट किया जा रहा है, जो साधकों के लिए विशेष उपयोगी हो सकती हैं
क्र.
स्थान
तत्त्व
बीज
.
मूलाधार
पृथ्वी
लं
.
स्वाधिष्ठान
जल
वं
.
मणिपूर
अग्नि
रं
.
अनाहत
वायु
यं
.
विशुद्धि
आकाश
हं







क्रम
तत्त्व
रंग
चिह्न
स्वाद
गति
परिमाण
स्वभाव
कार्य
पृथ्वी
पीत
चौकोर
मधुर
सामने
१२अंगुल
गुरु
स्थिर
जल
स्वेत
अर्द्ध चन्द्रा
कार
काषाय
नीचे
१६अंगुल
शीत
चर
अग्नि
रक्त
त्रिकोण
चर्पर
ऊपर
अंगुल
उष्ण
क्रूर
वायु
धूम्र
षट्कोण
अम्लीय
तिर्यक
अंगुल
चञ्चल
क्लिष्ट
आकाश
मिश्र
विन्द्वा कार
कटु
मिश्र
नासान्तर
मिश्र
योग साधना
अब आगे पूर्ववर्णित स्थानों की विस्तृत चर्चा का प्रयास करता हूँ—
            पूर्व कथित सुषुम्णानाड़ी के अन्तर्गत ब्रह्मनाडी की अवस्थिति है, जिसके अन्तर्गत नीचे से ऊपर की ओर कुछ विशिष्ठ नाडीगुच्छ हैं, जिन्हें चक्र कहते हैं। इन चक्रों में ही सूर्यविज्ञान का आधार और रहस्य निहित है। सभी वर्णमात्रिकायें यहीं अलग-अलग चक्रों पर विराज रही हैं, जिनका अनुसन्धान सूर्यविज्ञान-साधक का अभीष्ट है । आगे इन्हीं चक्रों और तत्तत स्थित वर्णमातृकाओं की चर्चा की जा रही है—
 मेरुदण्ड के निचले अन्तिम छोर पर, यानी गुदामार्ग से करीब दो अंगुल ऊपर और उपस्थ मूल से करीब दो अंगुल नीचे के स्थान में जो नाड़ीगुच्छ है, उसे मूलाधारचक्र या मूलाधारपद्म कहते हैं । यहाँ ये स्पष्ट करना समीचीन होगा कि चक्र और पद्म में किंचित भेद है । सामान्य तौर पर, सुप्तावस्था में इन्हें चक्र कहना ही उचित है, जबकि जागरण की स्थिति में जब सम्यक् प्रस्फुटन हो जाता है, कमलपुष्प की सारी की सारी पंखुड़ियाँ खुल जाती हैं, तब इन्हें पद्म कहना चाहिए । 
इस प्रथम नाड़ीगुच्छ की आकृति रक्तिम प्रकाश से उज्ज्वलित चार पंखुड़ियों वाले कमल के सदृश है । इन पंखुडियों पर क्रमशः वं, शं, षं, सं ये चार वर्ण हैं । पृथ्वीतत्व का ये स्थान है, जिसका आधार चौकोर सुवर्णमय आभा वाला है । तत्त्व बीज तो उक्त तालिका में स्पष्ट है ही- इसका बीज लं है, जिसकी गति ऐरावत हस्ति सदृश है । यही इसका वाहन भी है, जिस पर इन्द्र विरामान हैं । पृथ्वी की तन्मात्रा गंध है, यानी गंध ही इसका गुण कहा जायेगा । निम्नगामी आपान वायु का क्षेत्र है ये । इसका सीधा सम्बन्ध गंध तन्मात्रा की घ्राणेन्द्रिय (नासिका) से है । कर्मेन्द्रिय में गुदा इसके हिस्से है । भू इसका लोक है । इसके अधिपति चतुर्भुज ब्रह्मा अपनी डाकिनीशक्ति के साथ यहाँ वास करते हैं । इसके यन्त्र का आकार चतुष्कोण है, जो स्वर्ण आभा युक्त है । इस स्थान पर दीर्धकाल तक ध्यान केन्द्रित करने से आरोग्य, आनन्द, वाक्सिद्धि, प्रबन्ध-क्षमता-विकास आदि लब्ध होते हैं । जैसा कि इसका नाम है मूलाधार- सच में मूल है यह । यह नहीं तो और कुछ कैसे !  इस चक्र के नीचे त्रिकोण यन्त्र जैसा एक सूक्ष्म योनिमण्डल है, जिसके मध्य के कोण से सुषुम्णा यानी सरस्वति नाडी, दक्षिण कोण से पिंगला यानी सूर्यनाड़ी, यानी यमुना नाडी, तथा वाम कोण से इडा यानी चन्द्रनाड़ी, यानी गंगा नाडी प्रवर्तित होती है । ध्यातव्य है इसे ही कायगत मुक्त त्रिवेणी कहते हैं । तन्त्र ग्रन्थों में कहा गया है कि इसी योनिमंडल के मध्य में तेजोमय रक्तवर्णी क्लीँ बीज रुप कन्दर्प नामक स्थिर वायु विद्यमान है, जिसके मध्य में यानी ऊपर कथित ब्रह्मनाडी के मुख को अवरुद्ध किये स्वयंभू लिङ्ग अवस्थित है, जिसका साढ़े तीन फेरा मारे (लपेटे) सर्पाकृति दिव्य कुण्डलिनी महाशक्ति अपने पुच्छ भाग को मुख में दबाये हुए निःश्चलावस्था में पड़ी हुयी हैं ।
            एक मूल बात और स्पष्ट कर दूं कि ये जो सभी स्थानिक वर्णन विविध ग्रन्थों में मिलते है, मात्र संकेत सूचक है । इन्हें ही असली मत समझ लें और स्थूल शरीर में ढूढ़ने की नादानी भी न करें । हां, ध्यान क्रियादि में इन वर्णनों से सहयोग अवश्य मिलता है, इस कारण कह दिया गया। असली स्वरुप की खोज तो साधक को स्वयं ही करना है । प्रत्येक साधक की अनुभूतियाँ भी बिलकुल समान हों, कोई जरुरी नहीं । वो तो उसके स्वयं के संस्कार और पूर्व जन्मों में की गयी (साधी गयी) क्रियाओं पर निर्भर है । 
आगे अब इसी भांति नीचे से ऊपर की ओर मिलने वाले अन्य पद्मों की चर्चा करता हूँ । नीचे से दूसरे नम्बर पर है स्वाधिष्ठान चक्र (पद्म), जो निचले चक्र से कोई दो अंगुल ऊपर, थोड़ा टेढ़ा होकर, लगभग पेड़ू के पास स्थित है । सिन्दूरी आभा वाले छः पंखुड़ियों पर क्रमशः प्रादक्षिण क्रम से बं, भं, मं, यं, रं, लं वर्ण अंकित हैं । इस चक्र का तत्त्व जल है, तन्मात्रा रस है, अतः स्वाभाविक है कि बीज वं होगा । मगरमच्छ की भाँति इसकी निम्न (अधो) और तीव्र गति है । शरीर में सर्वव्यापी व्यानवायु का मुख्य अधिष्ठान है यह । रस तन्मात्रा के कारण रसना इसकी ज्ञानेन्द्रिय है और जलतत्व सम्बन्धी मूत्रादि त्याग-शक्ति-उपस्थ इसका स्थान माना जाता है । भुवः इसका लोक है । मकरवाहन पर वरुण विराजमान हैं । साथ ही विष्णु अपनी शक्ति राकिनी के साथ हैं । अर्द्धचन्द्राकार स्वेत यन्त्र है, जिस पर ध्यान सिद्ध होने से जिह्वा पर साक्षात् सरस्वती का वास हो जाता है, साथ ही सृष्टि-पालन-संहार की शक्ति प्राप्त होती है । यानी कुछ भी अ-वंच नहीं रह जाता ।
नीचे से तीसरा, यानी नाभिमंडल के मूल में मणिपूर नामक तीसरा पद्म है, जिसकी आकृति नीले रंग के प्रकाश से आलोकित दस पंखुड़ियों वाले कमल पुष्प सदृश है । षड्चक्र-साधना में इसका विशेष महत्त्व है । यही सूर्यकेन्द्र है । मणि और पुर दो शब्दों से इसका नामकरण हुआ है—मणिपुरचक्र । दस दलों पर क्रमशः प्रादक्षिण क्रम से डं, ढं, णं, तं, थं, दं, धं, नं, पं, फं, - ये वर्ण विराजते हैं । यानी इन वर्णों की ध्वनियाँ तरंगित होते रहती है । इस पद्म पर रक्तवर्णी अधोत्रिकोणयन्त्र है, जिसके मध्यमें अग्नितत्त्व का बीज रँ स्थित है, जिसका वाहन मेष यानी भेड़ है । यहीं अग्निदेव विराजते हैं । समानवायु का यह स्थान है । रुप तन्मात्रा है इसकी, यानि कि चक्षु ज्ञानेन्द्रिय हुआ और पाद (पैर) कर्मेन्द्रिय । स्वः इसका लोक है । कायव्यूह के सम्यक् ज्ञान हेतु इस चक्र का ध्यान किया जाता है । सच कहें तो यहीं सारा संसार है । लोक जयार्थ इसकी साधना आवश्यक है, किन्तु ऐसा नहीं कि वस लौकिक चमत्कारों में उलझ कर रह जाये । क्यों कि साधक को इससे बहुत-बहुत आगे बढ़ना है ।
नीचे से चौथे चक्र को अनाहत कहते हैं- अन+आहत यानी बिना किसी वाह्य आघात के स्वतः ध्वनित होना । भक्तिरसामृत का परमस्रोत, परमधाम  है यह स्थान । इसका क्षेत्र हृदयप्रदेश है । सिन्दूरी रंग से प्रकाशित द्वादशदलीय पद्म पर क्रमशः कं, खं, गं, घं, ङं, चं, छं, जं, झं, ञं, टं, ठं- द्वादशवर्ण विराजते हैं । किंचित ऋषिमत से इसका वर्णनील कहा गया है । वायुतत्त्व होने के कारण धूम्रवर्णी की भी बात कही जाती है । षट्कोणाकृति यंत्र के मध्य में वायुबीज यँ रचित है,जिसका वाहन हिरण है । हिरण चौकन्ना (सतर्क) रहने के अर्थ में समझें, न कि भयभीत और तीव्रगामी जन्तु के रुप में । प्राणवायु का मुख्य केन्द्र है यह चक्र । त्वचा ज्ञानेन्द्रिय है इसका और हाथ इसका कर्मेन्द्रिय, तथा लोक महर्लोक है। दिव्य ऊँकार की ध्वनि सदा गूंजती है यहाँ । शब्दं ब्रह्मेति तं प्राह साक्षाद्देवः सदाशिवः । अनाहतेषु चक्रेषु स शब्दः परीकीर्त्यते ।।  शब्दब्रह्म का अनाहत गुंजन होते रहता है । यही साक्षात् सदाशिव हैं । ईशानरुद्र अपनी त्रिनेत्रचतुर्भुजी काकिनी शक्ति के साथ यहाँ विराजते रहते हैं ।
अब अगले यानी नीचे से पांचवें विशुद्धिचक्र की बात करते हैं । यही वह स्थान है, जहाँ शिव का हलाहल ठहर गया और नीलकंठ नाम विभूषित हो गये। दरअसल अशुद्धि रह ही कहाँ जायेगी विशुद्धि पर आकर ! कण्ठस्थान इसका क्षेत्र है । चूंकि इसका सम्बन्ध विशुद्धिकरण से है, इस कारण एक अति चमत्कारिक केन्द्र है यह । योगीगण कहते हैं कि सदा अमृत क्षरण होते रहता है यहाँ । विष को भी अमृत में बदल देने की क्षमता है इस स्थान की । धूम्रवर्णी प्रकाश से उज्ज्वल सोलह पंखुड़ियों वाले कमल पर क्रमशः  सभी स्वरवर्ण अं, आं,इं, ईं, उं. ऊं, ऋं, ॠं, लृं, ॡं, एं, ऐं, ओं, , अं, अः विराज रहे हैं । आकाश इसका तत्त्व है और बीज हं, जिसका वाहन हस्ति है । हाथी जिस भाँति झूम-झूम कर चलता है, उसी भाँति इसकी गति है । शब्द इसका गुण यानी तन्मात्रा है । उदानवायु का मुख्य स्थान कहा गया है इसे । श्रवणशक्ति (श्रोत्र) ज्ञानेन्द्रिय है और वाक् कर्मेन्द्रिय । जनःलोक है । पञ्चमुख सदाशिव अपनी चतुर्भुजा शक्ति शाकिनी के साथ सर्वदा विराजते हैं यहाँ । पूर्णचन्द्र सदृश गोलाकार आकाशमंडल इसका यन्त्र है । इसपर साधना करने से कवित्वशक्ति के साथ-साथ महाज्ञानी, रोग-शोक हीन, दीर्घजीवन लब्ध होता है ।     
            छठे यानी आज्ञाचक्र का स्थान भृकुटिमध्य में बताया गया है । यहाँ फिर स्मरण दिला दूं कि जो भी स्थान कहे जा रहे हैं सभी चक्रों के हू ब हू इसे वहीं न समझ लें । ये उनके स्थूल स्थान के निर्देशन मात्र हैं । एकाग्रता को बनाने में सहयोग हेतु ही इनका प्रयोग करना चाहिए । सही स्थान पर तो स्वतः ही पहुँच जायेगा साधक, जो वहीं कहीं आसपास हैं । आज्ञाचक्र पर दो दलों वाला ये कमल है, जिसपर हं और क्षं विराजित हैं । तपःलोक है इसका । लिंगाकार यन्त्र है । गंगा, यमुना, सरस्वती का यहीं मिलन होता है, इस कारण इसे युक्तत्रिवेणी भी कहते हैं । यथा- इडा भागीरथी गंगा पिङ्गला यमुना नदी । तयोर्मध्यगता नाडी सुषुम्णाख्या सरस्वती ।। त्रिवेणीसंगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते । तत्र स्नानं प्रकुर्वीत सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। (ज्ञानसंकलिनी तन्त्र)
इसका ही एक नाम शिवनेत्र भी है या कहें तीसरा नेत्र । आधुनिक विज्ञान इस पर काफी काम कर रहा है । कई आधुनिक प्रयोग भी इस पर किये गये हैं । यह एक अति प्रधान प्रवेशद्वार है ।
और इससे भी ऊपर जो महाचक्र है, जिसे सहस्रार के नाम से जाना जाता है, उसके बारे में विशेष क्या कहना । साधनमार्ग का अति गोपन क्षेत्र है वो । वस इतना ही समझें कि पचास की संख्या में कहे गये सभी वर्णों की बीस आवृत्ति हुयी है- हजार दलों वाले महापद्म पर, जिसे साधना ही महासाधना है । वही सत्यलोक है । अमरत्व, मुक्ति, निर्वाण सब कुछ वहीं पहुँचने पर है । सारी तैयारी उसी की साधना की है । हां, कुछ और भी छोटे-मोटे नाड़ी-गुच्छ हैं, जिनका समय पर साधनाक्रम में स्वतः ही परिचय मिल जाया करता है ।

            इस प्रकार इस प्रसंग में अभ्यासियों के लिए काफी कुछ स्पष्ट करने का प्रयास किया । आशा है इससे सूर्य-साधना में पर्याप्त सहयोग मिलेगा । किन्तु मुख्य बात ये है कि सिद्धान्तों में ज्यादा न उलझकर, व्यावहारिक रुप से नियमित समर्पण या कहें निष्काम भाव से अभ्यास करना चाहिए । साधना कोई व्यापार नहीं है, जहाँ रोज हानि-लाभ का हिसाब लगाया जाये और ऐसा भी नहीं है कि अभ्यास प्रारम्भ किये और लाभ दिखने लगे । पूरा जनम बीत जाये इस क्रिया को साधने में तो भी कोई आश्चर्य नहीं और न निराशा ही होनी चाहिए । इस साहस को बनाये रखने हेतु ही तो श्रीकृष्ण ने आश्वस्त किया है-
            शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते । 
            तथा च-
            अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
                                      
                                        ।। जय भास्कर ।।
क्रमशः.... 

Comments