सूर्यविज्ञानःआत्मचिन्तन भाग 9


              सप्तम चिन्तन
                 सूर्यविज्ञान::आदित्यहृदय का सुपथ

आदित्यहृदयस्तोत्र काफी चर्चित स्तोत्र है । कई लोग बड़ी श्रद्धा और निष्ठा से इसका पाठ करते हैं। किन्तु विडम्बना ये है कि ज्यादातर सांसारिक कामनाओं की सम्पूर्ति हेतु ही उपयोगी होकर रह जाता ये महान स्तोत्र । लोगों का ध्यान और ज्ञान इतने तक ही सिमटा रह जाता है कि आरोग्य हेतु सूर्य की आराधना करनी चाहिए- आरोग्यं भास्करादिच्छेत् ।। (मत्स्यपुराण) उसमें भी सिर्फ चर्मरोग और कुष्ठव्याधि के निवारण हेतु सूर्याराधन की याद आती है— श्रीकृष्णपुत्र साम्ब इसके अद्वितीय उदाहरण हैं । जम्बूद्वीप में शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को आमन्त्रित करने और वासित करने का श्रेय उन्हीं का है । सूर्यतन्त्र के अद्भुत ज्ञाता और प्रयोगकर्ता शाकद्वीपीय ब्राह्मण भी आज विसार चुके हैं सूर्यविद्या को और उन्हें सिर्फ इतना ही याद रह गया है कि वे कुष्ठ निवारण के लिए बुलाये गए थे और सबसे बड़ी विडम्बना तो ये है कि उन्हें ये भी कहते सुना जाता है कि आयुर्वेद के ज्ञाता होने के कारण ही उन्हें ये श्रेय और सम्मान मिला था । जब कि सच्चाई ये है कि सूर्यतन्त्र के अद्वितीय ज्ञाता, साधक और प्रयोगकर्ता होने के कारण उन्हें ये सम्मान मिला था और श्रीकृष्ण से पांव पखरवाने का सौभाग्य मिला था । आयुर्वेद तो विराट सूर्यतन्त्र का एक छोटा सा टुकड़ा भर है ।
काल की महिमा देखिये, समय का खेल देखिये— विगत साढ़े पांच हजार वर्षों में ही ये विज्ञान लुप्त प्रायः है । पूरी पृथ्वी पर आज इसके ज्ञाता अंगुलियों पर गिनने भर रह गए हैं, वो भी अति गुप्त स्थिति में ।
यहाँ इस प्रसंग में हम बात कर रहे हैं सिर्फ आदित्यहृदय की, न कि समग्र सूर्यतन्त्र की । सूर्यतन्त्र की साधना में उतरने के लिए आदित्यहृदय स्तोत्र प्रारम्भिक पथ अवश्य सिद्ध हो सकता है । ध्यातव्य है कि सूर्य का हृदय है ये । हृदय यानी शरीर का सर्वाधिक मार्मिक और महत्त्वपूर्ण अंग । इसका दूसरा पक्ष भी  है—भक्तिमार्गी के लिए और षट्चक्र-साधकों के लिए भी । तृतीय और चतुर्थचक्र की साधना में अति सहायक स्तोत्र कह सकते हैं इसे । विशेषकर उनके लिए जो सूर्य के रास्ते साधना और समाधान की ओर बढ़ना चाहते हैं ।
पुराणों में कई प्रकार के आदित्यहृदयस्तोत्र मिलते हैं। अनेक ऋषियों ने अपने-अपने ढंग से इस पावन और सहज कल्याणकारी स्तोत्र का
गायन किया है, किन्तु समाज में दो प्रकार के आदित्यहृदयस्तोत्र विशेष चर्चित हैं । एक है महर्षि वाल्मीकि प्रणीत अति लधु स्तोत्र, मात्र ३१ श्लोकों वाला और दूसरा है श्रीकृष्णद्वैपायन महर्षि वेदव्यासकृत भविष्योत्तर पुराणान्तर्गत श्रीकृष्णार्जुन संवाद में १७० श्लोकों वाला वृहद् रुप ।  हालाकि साधक को इनकी लघुता और गुरुता के संशय और पचरे में पड़ने की आवश्यकता नहीं है । बल्कि साधने की जरुरत है- दोनों में जो सध जाये । आगे इस प्रसंग में इनकी उपादेयता और प्रयोग पर भी कुछ विचार करेंगे । 

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम सूर्यवंशी हैं । उनका अवतार लंकेश रावण के संहार के लिए हुआ था । रावण, जन्म से ब्राह्मण होते हुए भी विचारों और कर्मों से क्रूर और दुष्ट प्रतीत होता है । वनवास क्रम में पंचवटी से सीता का उसने अपहरण किया, जिसे छुड़ाने के लिए राम को वानरों की सहायता से समुद्र में सेतु बनाकर लंका जाकर रावण से युद्ध करना पड़ा । राम-रावण का ये युद्ध बड़ा ही भीषण था । अप्रत्याशित बात ये थी कि इसमें वानर और ऋच्छ कुल का महत् योगदान रहा ।
 युद्धभूमि में कुछ पल के लिए श्रीराम भी चिन्तित हो उठे । कहते हैं कि रावण के नाभिस्थल में अमृतकुण्ड था, जिसके कारण वह बलशाली और अजेय बन गया था । महर्षि वालमीकी प्रणीत आदित्यहृदयस्तोत्र का प्रारम्भ इसी प्रसंग से होता है—ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् । रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम् । । दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् । उपगम्याब्रवीद्राममगस्त्यो भगवांस्तदा ।। - युद्धभूमि में रावण को देख कर युद्धाक्लांत मायापुरुष श्रीराम क्षणभर के लिए व्याकुल हो जाते हैं। उसी समय महर्षि अगस्त्य का आगमन होता है और सूर्यवंशी को सूर्यसाधना का संकेत देते हैं । रामराम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम् । येन सर्वानरीन्वत्स समरे विजयिष्यसे ।।  आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम् । जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ।। सर्वमङ्गलमागल्यं  सर्वपापप्रणाशनम् । चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ।।....

 सूर्यसाधना (आराधना) के बिना विजय सम्भव नहीं, युद्ध हो या भवसागर । आमतौर पर हम विभिन्न कथाओं में उलझे रह जाते हैं, उससे बाहर निकल ही नहीं पाते । कथा-रस से बाहर निकलकर, साधना के रहस्यों पर विचार करने पर बहुत सी बातें स्पष्ट होती हैं। रामचरितमानस की कथा सात कांडों में विभक्त है । वस्तुतः ये सप्तचक्रों की साधना-प्रक्रिया का संकेत और निर्देश है । मानस के अन्तर्गत कई गुफाओं (गुहाओं) का वर्णन है । वे गुफायें स्थूल जगत में पहाड़ की गुफायें तो हैं ही , अन्तः नाडियों का जाल भी है, जिनसे हमें बाहर निकलना है योगविधि से भेदन करके । रावण के नाभि में अमृत का होना स्पष्ट करता है कि रावण सूर्यकेन्द्र पर विजय प्राप्त कर चुका है ।
रावण अहंकार का प्रतीक है । हर मनुष्य के भीतर रावण है और हर मनुष्य के भीतर राम भी हैं। राम को चैतन्य करके, रावण का नाभिमण्डल भेदन करना है और अहं का नाश करके स्वयं को विलीन कर देना है- बूंद को सागर में मिला देना है, क्यों कि दोनों तत्वतः एक ही है । आत्मा और परमात्मा में जरा भी भेद नहीं है । भेद भासित होने का कारण अहं-बोध ही है। इस भेद को समाप्त होते ही मुक्ति-मार्ग प्रशस्त हो जाता है।

इस कार्य में आदित्यहृदयस्तोत्र निरापद सुपथ हो सकता है। सूर्य के मेष राशि में प्रवेश के साथ, अथवा सिंहराशि में रहने पर पंचांगशुद्धि विचार करके इसका अभ्यास प्रारम्भ किया जा सकता है। ध्यातव्य है कि मेष सूर्य की उच्च राशि है और सिंह उनका निज भवन । इसीलिए इन दोनों की प्राथमिकता  है। हालाकि माध, कार्तिक, चैत्र, वैशाख आदि चान्द्र मासों में भी अथवा अन्यान्य शुभ मुहूर्तों में भी साधना का श्रीगणेश हो सकता है।

सूर्ययन्त्र की विधिवत स्थापन-पूजन, अर्घ्यदान आदि के पश्चात् स्तोत्र का सतत पाठ किया जाना चाहिए । पौराणिक आदित्यहृदयस्तोत्र में दो प्रकार के यन्त्रों की चर्चा है । इन दोनों का प्रयोग अलग-अलग उद्देश्यों के लिए किया गया है। दोनों का यन्त्रोद्धार भी स्पष्ट है वहाँ । विनियोग, न्यास, दिग्बन्ध, ध्यान, मन्त्र, मुद्रा एवं पूजा विधि भी दी हुयी है। जिसे मूल पुस्तक से आसानी से समझा जा सकता है। प्रयोगानुसार विविध मन्त्रों की भी चर्चा है । किन्तु ध्यान रहे शत्रुदमन मन्त्र का प्रयोग निज कल्याण चाहने वाले साधकों को कदापि नहीं करना चाहिए। आत्मोत्थान हेतु ही साधना करें, न कि लोककामना के लिए । पुस्तक में कुछ बातें जो स्पष्ट नहीं है, यहाँ उन पर थोड़ा प्रकाश डाल देना उचित लग रहा है।

बड़े आकार (बित्तेभर) का रक्तभोजपत्र (स्वेत नहीं) उपलब्ध करें।
उसे तांबे की  थाली में रखकर, अनार की सात अंगुल की लेखनी से विधिवत यन्त्र लेखन करें । यन्त्र-लेखन हेतु शुद्ध मलयगिरिचन्दन, रक्तचन्दन, कपूर, अगर, तगर, वंशलोचन, केशर और दारुहल्दी का लेप तैयार कर लें । कहीं-कहीं गोरोचन और कस्तूरी का प्रयोग भी कहा गया है, किन्तु ये दोनों जांगम पदार्थ हैं, जिनका मिलना दुर्लभ सा है आजकल । असली के नाम पर ठगी का बाजार गर्म है । अतः इनके वगैर दूसरी रीति से अष्टगन्ध तैयार कर लेना है – जो आठ पदार्थ निर्दिष्ट हैं । शुभ मुहूर्त में सन्ध्यावन्दनादि से निवृत्त होकर, यन्त्रलेखन-कार्य करना चाहिए । यन्त्रलेखन कार्य सम्पन्न हो जाने पर विधिवत पंचोपचार/ षोडशोपचार पूजन करके, तब स्तोत्र पाठ करना चाहिए। दीर्घकालिक अनुष्ठान में नित्य नये यन्त्र की स्थापना करने की आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत पूर्व स्थापित यन्त्र का ही पूजन नित्यप्रति करना चाहिए ।
ध्यातव्य है सूर्य-आराधन में सीधे रक्त परिधान लोग ग्रहण कर लेते हैं- ये उचित नहीं है। गैरिक (कासाय) परिधान तो गृहस्थों के लिए ग्राह्य है ही नहीं । अतः पीताम्बर धारण करना ही श्रेयस्कर है।
सूर्य के अनेक नामों में बारह नामों का विशेष महत्त्व है । इन बारह नामों की सूची भी दो तरह की है । एक है—आदित्यः प्रथमं नाम द्वितीयं च दिवाकरः । तृतीयं भास्करः प्रोक्तं चतुर्थं तु प्रभाकरः ।।  पञ्चमं तु सहस्रांशु षष्ठं चैव त्रिलोचनः । सप्तमं हरिदश्वश्च अष्टमं च विभावसुः ।। नवमं दिनकृत प्रोक्तं दशमं द्वादशात्मकः । एकादशं त्रयीमूर्तिर्द्वादशं सूर्य एव च ।। (आ.हृ. १६० से १६२) और दूसरा है बारह महीनों के अनुसार बारह नाम ,क्योंकि द्वादश मास के द्वादश सूर्य कहे गए हैंअरुणो माघ मासे तु सूर्यो वै फाल्गुने तथा । चैत्रमासे तु वेदाङ्गो भानुर्वैशाखतापनः ।। ज्येष्ठमासे तपेदिन्द्र आषाढ़े तपते रविः । गभस्तिः श्रावणे मासे यमो भाद्रपदे तथा ।। इषे सुवर्णरेताश्च कार्तिके च दिवाकरः । मार्गशीर्षे तपेन्मित्रः पौषे विष्णुः सनातनः ।। पुरुषस्त्वधिकेमासे मासाधिक्ये तु कल्पयेत् । इत्येते द्वादशादित्याः काश्यपेयाः प्रकीर्तिताः।। (आ.हृ. ५४ से ५७) इन बारह नामों के नियमित उच्चारण से बहुत तरह की लौकिक कामनाओं की पूर्ति होती है। अर्थप्रधान युग में आदित्याराधन संतुलित अर्थव्यवस्था में भी समुचित योगकारी सिद्ध हो सकता है - ये शतानुभूत है।
ज्ञातव्य है कि साल के अलग-अलग महीनों में सूर्य का स्वरुप भी
बदलते रहता है । उनके गण और सहयोगी तथा अनुगामी भी बदलते रहते हैं। प्रसंगवश एक बात और स्पष्ट कर दूं कि पुराणों में विशद रुप से कई जगहों पर आया है कि सूर्यमण्डल में केवल सूर्य, अकेले नहीं हैं, प्रत्युत सभी देवी-देवता, ऋषि आदि भी उपस्थित हैं। ज्ञातव्य है कि साल के बारहों महीनों के सूर्य एक ही नहीं बल्कि बारह होते हैं। तदनुसार साथ में परिभ्रमण करते ऋष्यादि भी बदलते रहते हैं। इसे राशि-क्रम में रखने पर चैत्र मास के लिए मीन राशि होगी, वैशाख के लिए मेष राशि इत्यादि । वस्तुतः यही सूर्यमास है।
इसे आगे की सारणी में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है, जो श्रीमद्भागवत स्कन्ध १२ अ.११ श्लो.३३ से ४४ के आधार पर बनाया गया हैः
                  आदित्य-व्यूह-विवरण (चैत्रादि मासों में स-गण सूर्य)
क्र.
मास
सूर्य
अप्सरा
राक्षस
सर्प
यक्ष
ऋषि
गन्धर्व
१.
चैत्र
धाता
कृतस्थली
हेति
वासुकि
रथकृत्
पुलस्त्य
तुम्बुरु
२.
वैशाख
अर्यमा
पुंजिकस्थला
प्रहेति
कच्छनीर
अथौजा
पुलह
नारद
३.
ज्येष्ठ
मित्र
मेनका
पौरुषेय
तक्षक
रथस्वन
अत्रि
हाहा
४.
आषाढ़
वरुण
रम्भा
चित्रस्वन
शुक्रनाग
सहजन्य
वशिष्ठ
हूहू
५.
श्रावण
इन्द्र
प्रम्लोचा
वर्य
एलापत्र
स्रोता
अङ्गिरा
विश्वावसु
६.
भाद्र
विवस्वान्
अनुम्लोचा
व्याघ्र
शंखपाल
आसारण
भृगु
उग्रसेन
७.
आश्विन
त्वष्टा
तिलोत्तमा
ब्रह्मापेत
कम्बल
शतजित्
जमदग्नि
धृतराष्ट्र
८.
कार्तिक
विष्णु
रम्भा
मखापेत
अश्वतर
सत्यजित्
विश्वामित्र
सूर्यवर्चा
९.
अगहन
अंशु
उर्वशी
विद्युच्छत्रु
महाशंख
तार्क्ष्य
कश्यप
ऋतसेन
१०.
पौष
भग
पूर्वचत्ति
स्फूर्ज
कर्कोटक
ऊर्ण
आयु
अरिष्टनेमि
११.
माघ
पूषा
घृताची
वात
धनञ्जय
सुरुचि
गौतम
सुषेण
१२
फाल्गुन
पर्जन्य
सेनजित
वर्चा
ऐरावत
क्रतु
भारद्वाज
विश्व

हालाकि ज्योतिष में सूर्यमन्त्रजप की न्यूनतम संख्या सात हजार ही कही गयी है, जिससे लोग अर्थ लगा लेते हैं कि सात उनकी प्रिय संख्या है, किन्तु उसका उद्देश्य दूसरा है । सूर्य के लिए द्वादश संख्या का विशेष महत्त्व है । बारह पाठ का एक मण्डल माना गया है । इसीलिए एक बैठक में बारह पाठ की महत्ता कही जाती है ।  नित्य प्रति बारह की संख्या में लगातार बारह दिनों तक पाठ करने पर एक महामण्डल पूर्ण होता है । और इस प्रकार बारह मण्डल की बारह आवृत्ति वृहद्मण्डल बनता है। इस भाँति अधिकाधिक संख्या का अनुष्ठान भी लिया जा सकता है ।
सूर्य के लिए लवण सर्वथा त्याज्य वस्तु है। इसलिए सूर्य की आराधना में नमक की बिलकुल वर्जना है। आमला और अदरख का भी परहेज होना चाहिए । तैलाभ्यंग और तैल सेवन तो सामान्य व्रतों में भी वर्जित होता ही है। अनुष्ठान क्रम में परान्न सेवन से भी बचना चाहिए । गुड़,घी,मधु,गेहूं आदि सूर्य को विशेष प्रिय हैं । चावल भी ग्राह्य है । सामान्य अवस्था में भी रविवार को आमला और अदरख का सेवन नहीं करना चाहिए । उड़द और उड़द से बने अन्य खाद्यसामग्री (पापड़,बड़ा,ढोसा, इडली आदि)से भी परहेज रखना चाहिए । ये नियम सिर्फ साधकों के लिए ही नहीं, प्रत्युत सामान्य जन को भी रविवार या रवि की आराधना में पालनीय है । रविवार को इन सूर्य-विरोधी सामग्रियों के सेवन से कई तरह की परेशानियाँ उत्पन्न होती हैं—धन,यश,आरोग्य का सद्यः नाश होता है।
सूर्यविज्ञान की मूल साधना के अतिरिक्त सन्तानप्राप्ति, दरिद्रता निवारण आदि अन्य लोक कल्याणकारी कार्यों में भी इस स्तोत्र का प्रयोग किया जाता है। सन्तानप्राप्ति और दरिद्रता निवारण चुंकि एकल कार्य नहीं है, अतः इसमें पति-पत्नी का साथ होना अत्यावश्यक है ।
विभिन्न जटिल चर्मव्याधियों के लिए तो सूर्य ही एकमात्र सहयोगी हो सकते हैं । कुष्ठनिवारण आदि लोककल्याणकारी कार्यों में किंचित विधान-भेद है। वैसे प्रयोग के लिए स्थान का भी विशेष ध्यान रखना है, ताकि समुचित लाभ मिले । व्याधि-ग्रस्त व्यक्ति को नाभि तक जल में खड़े रहकर या लाचारी में बैठकर स्तोत्रपाठ सुनने का विधान है। ऐसे में नदी या सरोवर ही उपयुक्त हो सकता है। ध्यातव्य है कि मानव शरीर में सूर्यकेन्द्र नाभिस्थल में ही है । इसके आसपास ही यकृक, पित्ताशय, आंतें, वृक्कादि सभी अवयव हैं, जो कुष्ठव्याधि हेतु जिम्मेवार हैं । सप्तधातुओं के क्षरण के कारण ही कुष्ठव्याधि होती है। अतः सूखी जमीन पर बैठकर स्तोत्रपाठ सुनने से विशेष लाभ नहीं हो सकता, जलमग्न होना अति आवश्यक है। पाठकर्ता ब्राह्मण तट पर सूखी जगह पर बैठ कर पाठ करेंगे । अस्तु । 
                     
                                  ।। ऊँ श्री रवये नमः ।।
क्रमशः....... 

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