षष्टम चिन्तन
सूर्यविज्ञान:: सन्मार्ग का अनुसन्धान
भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात् ।।
(पा.यो.सू.वि.पा.२६) " सूर्ये संयमं कृत्वा समस्तं भुवनप्रस्तारं
प्रत्यक्षाकुर्वीत" की संक्षिप्त
चर्चा पूर्व अध्यायों में की जा चुकी है। अब यहाँ इसी विषय पर थोड़े विस्तार से
बातें करेंगे ।
यहाँ मुख्य दो बातें हैं-
भुवनज्ञान और सूर्यसंयम । पहले भुवन के विषय में ही थोड़ी बातें जान लें । विविध
पुराणों में भुवनों के विषय में काफी कुछ कहा गया है। श्रीमद्भागवत में
भुवनकोशवर्णन नामक विस्तृत प्रसंग है। विशेष जिज्ञासुओं को मूल ग्रन्थों का अवलोकन
करना चाहिए ।
हम पृथ्वी पर जहाँ हैं ये भूःलोक कहा जाता है । इससे ऊपर क्रमशः भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्यलोक हैं । सात्त्विकता और
सूक्ष्मता के विचार से ये क्रमशः उत्तरोत्तर गरिमामय हैं । इन सप्तलोकों को ही
वेदों में सप्त व्याहृतियों के रुप में कहा गया है। मन्त्र-साधना में उक्त
सप्तव्याहृतियों का संयोग मन्त्रशक्ति में काफी तीव्रता और प्रखरता प्रदान करता
है। जिस भाँति उत्तरोत्तर क्रमशः ऊपर-ऊपर ये सात लोग कहे गए, उसी भाँति भूःलोक से नीचे भी क्रमशः तलातल, अतल, वितल, सुतल, रसातल, महातल और पाताल नामक लोक भी हैं । ये क्रमशः उत्तरोत्तर तम प्रधान हैं।
जिस स्वर्ग और नरक की हम बातें करते हैं वे क्रमशः ऊपर के छः और नीचे के सात के
अन्तर्गत ही आते हैं, यानी भूः(पृथिवी) और इससे ऊपर
भुवः(अन्तरिक्ष- ग्रह, नक्षत्रादि) के बाद स्वः से सत्य
पर्यन्त पाँच द्यौःलोक के अन्तर्गत आते हैं । ये ही पाँच प्रकार के स्वर्ग हैं ।
तथा भूःलोक से नीचे अवीचि आदि सात अधोलोक जो स्थूलभूतों की स्थूलता और तमस् के
तारतम्य से क्रमानुसार पृथिवी की तली में माने गये हैं, नरक
कहलाते हैं । नरकों की संख्या अनेक है। ऊपर-नीचे कुल मिलाकर चौदह लोकों का समावेश
है भुवन में । वर्तमान समय में पृथ्वी का क्षेत्रफल १९६५००००० वर्गमील एवं घनफल
२५९८८००००००० घनमील है । उत्तरोत्तर लोक उत्तरोत्तर द्विगुणित परिमाण वाले हैं ।
यानी क्रमशः दुगने होते गए हैं। इस प्रकार अपने इस एक ब्रह्माण्ड का गणित सामान्य
मस्तिष्क में समाने से परे हैं। और श्रीकृष्ण ने विराट पुरुष के रोम-रोम में
ब्रह्माण्डों के होने की बात कही है । श्रीकृष्ण के वचन कोई गपबाजी नहीं हैं । इस
प्रकार भुवनज्ञानं की सीमा का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है । हो सकता है आने वाला सांयन्स इसे पूर्णतया स्वीकार
ले ।
अब जरा संयम को समझें, क्योंकि सूर्य में संयम की
बात की जा रही है उक्त सूत्र में । अतः ‘ संयम ’ को सुस्पष्ट
कर लेना आवश्यक है । मूलतः ये संयम है
क्या चीज ?
संक्षेप में इतना जान
लें कि संयम मानवीय चेतना का सबसे बड़ा जोड़ है — तीन
का जोड़ है - धारणा, ध्यान और समाधि का जोड़ ।
साधारणतया मन निरंतर एक विषय
से दूसरे विषय तक उछल-कूद करता रहता है। एक पल को भी किसी विषय के साथ एक नहीं हो
पाता । मन निरंतर इधर से उधर कूदता रहता है, छलांग मारता
रहता है । मन हमेशा चलता ही रहता है। कह सकते हैं कि मन एक प्रवाह है । अगर इस
क्षण कोई चीज मन का केन्द्र-बिंदु है, तो दूसरे ही क्षण कोई
और चीज होती है, उसके अगले क्षण फिर कोई और ही चीज उसका केन्द्रबिंदु
बन जाता है । वस्तुतः यह साधारण मन की अवस्था है ।
मन की इस अति चञ्चलावस्था से
अलग होने का पहला चरण है—धारणा । धारणा का
अर्थ होता है—एकाग्रता । किसी एक विम्ब (लक्ष्य) पर मन को
थिर करने की कोशिश । मानों उछृंखल बन्दर को किसी खूंटे से बांधने का प्रयास । धारणा द्वारा चित्त के मूढ़ और क्षिप्त रुप तमस्
और रजस् को हटाकर उसको सात्त्विक रुप से वृत्तिमात्र से किसी एक विषय में ठहराकर
दिव्य बनाना होता है । अपनी समग्र चेतना को एक ही विषय पर केन्द्रित कर देना,
उस विषय को ओझल न होने देना, फिर-फिर (बारम्बार)
अपनी चेतना को उसी विषय पर केन्द्रित कर लेना, ताकि मन की उन
अमूर्च्छित आदतों को, जो निरन्तर प्रवहमान हैं, उन्हें
गिराया जा सके । क्योंकि अगर मन के निरन्तर परिवर्तित होने की आदत गिर जाए, मन की चञ्चलता
मिट जाए, तो व्यक्ति अखण्ड हो जाता है । उसमें एक तरह की स्थिरता आ जाती है। जब मन में
बहुत से विषय लगातार चलते रहते हैं, बहुत से विषय गतिमान
रहते हैं, तो व्यक्ति खंड-खंड हो जाता है, विभक्त
हो जाता है,
टूट जाता है ।
इसे थोड़ा समझने की कोशिश
करें । हम विभक्त रहते हैं, क्योंकि हमारा मन स्थिर
नहीं रहता है । कई टुकड़ों में बंटा हुआ रहता है सदा । जैसे आज हम किसी एक स्त्री
से प्रेम करते है, कल किसी दूसरी स्त्री से, फिर तीसरे दिन किसी और स्त्री से । तो यह जो मन की स्थिति है, यह हमारे भीतर विभाजन निर्मित कर देगी । फिर हम चाहकर भी एक नहीं रह पाते हैं। हम बहुत से रूपों में विभक्त हो जाते हैं ।
देखने में हम एक होकर भी समूह बन जाते हैं । भीड़ बन जाते हैं ।
इस मन का भटकना, मन का घूमना कैसे बंद हो जाए – ये विधि, ये उद्योग, ये प्रयास ही धारणा
है । संयम की ओर बढ़ने के पूर्व, धारणा पहला चरण है ।
प्रायः लोग धारणा को ही
ध्यान समझ लेते हैं । हम जो प्रयास वाह्यतल पर कर रहे होते हैं वह धारणा ही है ।
ध्यान की अवस्था तो बहुत बाद में आती है । और वो आती है, लायी नहीं जाती ।
जैसे एक खेत से दूसरे खेत में जलप्रवाह को ले जाने के लिए किसान बीच की मेढ़ को
काट देता है, उसी तरह हम व्यवधान को समाप्त करते हैं अपने उद्योग से । उछृंखल
बन्दर को बांधते हैं एक खूंटा गाड़ कर । ध्यान लगाना कोई सिखा नहीं सकता । ये
सीखने की चीज नहीं है। प्रारम्भ की सारी युक्तियाँ सिर्फ धारण के लिए ही हैं ।
और इसका दूसरा चरण है ध्यान । धारणा में,
एकाग्रता में हम अपने मन को एक केंद्र में ले आते हैं, एक विषय पर केंद्रित कर लेते हैं । धारणा में जिस विषय पर मन केन्द्रित होता
है, वह विषय महत्वपूर्ण होता है । जिस विषय पर मन को केन्द्रित
करना है, उस विषय को बार-बार अपनी चेतना में उतारना होता है
। उसमें विषय की धारा खोनी नहीं चाहिए । ध्यान रहे- धारणा में विषय महत्वपूर्ण
होता है ।
किन्तु संयम के दूसरे चरण— ध्यान
में विषय महत्वपूर्ण नहीं रह जाता, विषय बिलकुल गौण हो
जाता है । ध्यान में चेतना का प्रवाह महत्वपूर्ण हो जाता है । चेतना जो विषय पर उढेली
जा रही है । फिर चाहे उसमें कोई भी विषय हो, लेकिन चेतना को
उस पर सतत रूप से प्रवाहित
होना चाहिए,
उसमें जरा भी अन्तराल नहीं आना चाहिए ।
इसे हम एक उदाहरण से समझने
का प्रयास करें— अगर एक पात्र से दूसरे पात्र में पानी डालें,
तो उसमें थोड़े-थोड़े अन्तराल आते हैं । हालाकि वो इतना अल्प होता है
कि उढेलने वाले या कि देखने वाले को भी ठीक से पता नहीं चलता । किन्तु अगर एक
पात्र से दूसरे पात्र में तेल डालें, तो इसमें बिलकुल अन्तराल
नहीं आता । ऋषियों ने तैलधारावत का उदाहरण इसीलिये दिया है- तेल देखो...तेल
की धार देखो...। क्योंकि तेल में एक सातत्य होता है, एक
प्रवाह होता है, जबकि पानी में सातत्य का किंचित अभाव होता
है । ध्यान का अर्थ है— चेतना का एकाग्रता के विषय पर सतत रूप से गिरना । स्वाभाविक
रुप से चेतना हमेशा कम्पायमान रहती है, टिमटिमाते दीए की लौ
की भाँति, उसमें कोई खास प्रकाश नहीं होता । और कई बार तो
ऐसा भी होता है कि चेतना अपनी पूरी प्रगाढ़ता के साथ होती है, लेकिन फिर लुप्त हो जाती है और इस तरह से चेतना की लौ कम्पायमान रहती है ।
लेकिन ध्यान में चेतना की धारा निरन्तर प्रवहमान बनी रहे, इस
पर ध्यान रखना होता है ।
जब चेतना की धारा निरन्तर
प्रवाहमान रहती है, जब चेतना निस्कम्प हो जाता है, तब
व्यक्ति अत्यधिक शक्तिशाली हो जाता है । उस समय पहली बार अनुभव होता है कि जीवन
क्या है । हम क्या हैं । सच कहें तो इस अवस्था में व्यक्ति सामान्य व्यक्ति न
रहकर, ऊर्जा का स्रोत बन जाता है । व्यक्ति व्यष्टि से समष्टि की ओर छलांग लगा
लेता है ।
अब बात करते हैं संयम के
तीसरे और अन्तिम चरण की, जो परम
और अन्तिम है — वह है समाधि । धारणा में विषय महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि
उसमें बहुत से विषयों में से किसी एक विषय को चुनना होता है । ध्यान में चेतना
महत्वपूर्ण होती है, उसमें चेतना को एक निरन्तर प्रवाह बना
देना होता है । जब कि समाधि में द्रष्टा
महत्वपूर्ण होता है, लेकिन ध्यान रहे- अन्त में इस द्रष्टा को भी गिरा देना होता है ।
इसे यूं समझें—पहले हमारे
अन्दर विचारों की भीड़ थी । मेरा मन विखण्डित था । टुकड़े-टुकड़े में बंटा हुआ था
। उक्त प्रयासों से संयमित करके सबको विलग किया गया । अन्त में जब मन एक रह गया,
विचार एक रह गया तब, उस एक को भी गिरा दिया गया । एक को गिराना आसान है, अनेक की तुलना में । इसीलिए
अभ्यास-विधि ये है कि पहले अनेक को एक करने का प्रयास करते हैं ।
समाधि की स्थिति में केवल
चैतन्य शुद्ध आकाश की तरह शेष बचा रह जाता है। इस प्रकार धारणा,ध्यान और समाधि—इन
तीनों के सम्मिलन को ही संयम कहते हैं । और भी स्पष्ट रुप से कहें तो कहना चाहिए
कि संयम मानवीय चेतना का सबसे बड़ा जोड़ है
।
सूर्यसंयम द्वारा साधक को
समस्त स्थूल लोकों का सामान्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इस सूत्र के
व्याख्याकारों का मत है कि सूर्यसंयम प्रत्यक्षतः सूर्य में करने का कोई प्रयोजन
नहीं है । सीधे सूर्यमण्डल में ध्यान लगाने का कोई तुक भी नहीं है ।
शास्त्रों में स्पष्ट है कि यस्मिन
पिण्डे तस्मिन् ब्रह्माण्डे / यत्
पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे यानी जो ब्रह्माण्ड में हम बाहर
देख रहे, वो सब कुछ हमारे भीतर भी विद्यमान है। वाह्य ब्रह्माण्ड की ही लघु
प्रतिकृति है हमारा मानव शरीर । जो सूर्य बाहर गोचर हो रहा है, वो हमारे भीतर भी
है। भुवनज्ञानं सूर्येसंयमात् सूत्र में पतञ्जलि का उद्देश्य है उस आन्तरिक सूर्य
से ही परिचय कराना, ताकि समस्त अन्तःभूगोल का ज्ञान हो सके । मूलतः उसी अन्तः
सूर्य में ही संयम करना है, न कि बाहरी सूर्यबिम्ब में ।
संयम कार्य तो सूर्यकेन्द्र
में करना चाहिए । किन्तु ध्यातव्य है कि सूर्यकेन्द्र से सप्तमवलय (अन्तिम) ऊपर
हृद्प्रदेश में जो नाड़ी गुच्छ है, वहाँ सूर्यद्वार की अवधारणा है योगियों की ।
यत्किंचित व्याख्याकारों के
मत से मध्यनाड़ी (सुषुम्णा) में संयम की बात कही गयी है। और पूर्व प्रसंगों में
स्पष्ट किया जा चुका है कि मेरुदण्ड के बिलकुल निचले हिस्से में, जो घुण्डीदार भाग
है वही सन्धिस्थल है। कामकेन्द्र का संचालन भी वहीं से होता है । काम-ऊर्जा को
संयमित करके, ऊर्ध्व गतिमान करने की आवश्यकता है । प्राणऊर्जा के प्रहार से सुप्त
शक्ति को चैतन्य करके,मध्यनाड़ी में प्रवेश का मार्ग प्रशस्त करना ही मूल ध्येय है
। स्पष्ट है कि कुण्डलिनीशक्ति के जाग्रत
हो जाने पर सुषुम्णानाड़ी में जब समस्त स्थूल प्राण का प्रवेश हो जाता है, तभी इस प्रकार के अनुभव होते हैं साधक को । ध्यातव्य है कि साधक की
यात्रा तो "मूल" से प्रारम्भ होनी है और उत्तरोत्तर विकासोन्मुख होते
हुए वहाँ तक पहुँचना है, बीच की बाधाओं से निपटते हुए ।
कुछ विद्वान सूर्यनाड़ी (पिंगला)
(दक्षिण नाड़ी) को ही सूर्यद्वार मानने की बात भी करते हैं, किन्तु ये तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता । क्रियात्मक साधना तो योग्य गुरु
के निर्देशन-संरक्षण में ही होना चाहिए । घटित अनुभूतियों पर सद्गुरु ही प्रकाश
डाल सकते हैं । अन्यथा भटकाव और विचलन का अवसर पर्याप्त है । अतः साधकों को किताबी
जानकारी से परहेज करते हुए व्यावहारिक ज्ञान हेतु योग्य गुरु की तलाश तो करनी ही
होगी । किन्तु इस बीच में पूर्व में कहे गए निरापद अभ्यासों को सतत जारी रखना
चाहिए । अस्तु ।
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