कहाँ गया वो गांव ?


   


  
                       कहाँ गया वो गांव ?

       बातें बचपन की हैं, किन्तु बचकानी नहीं। सोनभद्र के तट पर बसा एक गाँव, कोई मनपूरा कहता तो कोई मैनपुरा । दोनों में जो भी सही हो, क्या फर्क पड़ना है ? मन तो पूरा लगता ही है, जो भी आ जाए गांव में।
मीलों तक फैले आम-अमरुद के सघन बगीचे, जिनके बीच से गुजरने में जेठ की दोपहरी में भी डर लगे कमजोर दिल वाले को। तराई में मीलों-मील तक बालुकासेज पर सर्पिणी सी बलखाती तरबूज की बल्लरियाँ, जहाँ पहुँचकर पेटभर खाने के लिए कोई दाम नहीं; हाँ घर लाना हो तो इकन्नी-चवन्नी देनी होगी। पछुआ गरम हवाओं को चुनौती देता बालू का विशाल पहाड़ शायद ही कहीं और हो इस धरती पर । जेठ की दोपहरी में गाँव की आधी आबादी प्रायः वहीं पड़ी रहती वट-पीपल की छांव में।
         मौसम खरीफ़ का हो या रबी का, लहलहाना तो कुदरती तोहफे में मिला है इस प्यारे से गांव को। आहर,पोखर,पैन,गहुआ बारहों मास पानी से भरे हुए। जहाँ मन हो कमर भर गड्ढा करते ही गंगाजी उपस्थित । कच्चे-पक्के कुंओं की सख्या करीब दो सौ । कस्बे से जोड़ने वाली कच्ची सड़कें तीन तरफ से घेराबन्दी किए हुए। गाय-भैसों की संख्या तो कन्हैया वाले गोकुल के बाद शायद इसी गांव में रही होगी। सुसम्पन्न-सुसंस्कृत गोप परिवार करीब चालीस घर और इतने ही भूमिहार। शाकद्वीपीय, गौढ़, कान्यकुब्ज मिलाकर भी करीब इतने ही। इनके आधे मालाकार, चर्मकार और पासवान । सौण्डिक, स्वर्णकार, रवानी और नाई भी पाँच-दस घर। तीन परिवार मांझी, कांदू और एक परिवार कुम्भकार भी।
       ढाईहजार बीघे कृषियोग्य भूमि का रकबा । हजारों बीघे बगीचे, सोनतराई अलग। इन सबसे सुसज्जित-सुव्यवस्थित गांव में धर्म और संस्कृति का पताका सदा लहराते रहता । अमावस्या, पूर्णिमा और एकादशी कब है—ये बच्चे-बच्चे को पता रहता। ठाकुरबाड़ी की आरती-वन्दना के बाद ही ग्रामिणों का भोजन होता। शायद ही कोई अभागा हो, जो नित्य सोनभद्र-स्नान न करता हो। एकादशी के दिन सिर्फ बच्चे-बूढ़ों के लिए ही भोजन पकता । सभी वयस्क तो व्रती रहते । द्वादशी का ‘सीधा’ (अन्नादि) इतनी मात्रा में पंडितजी के घर आ जाता कि अगली द्वादशी तक निश्चिन्त। “मानस” की चौपाइयाँ तो तकियाकलाम की तरह जुबान पर।
दिग्गजों की तरह दिशाओं को बांधने वाले— दो ठाकुरबाड़ी, दो शिवालय और एक ग्रामदेवीमन्दिर के अतिरिक्त एक सतिआड़ा का भी योगदान था गांव के संरक्षण में। गांव के पश्चिम में अंग्रेजीराज को चुनौती देता सन् १८८७ में श्रीसुमंगल पंडित द्वारा स्थापित भव्य संस्कृत पाठशाला, आज भी पाठशाला के नाम से ही इलाके में जाना जाता है । उत्तरी भाग में बना मिट्टी का सुन्दर-सुघड़ देवकीपंडित का दालान भी कम प्रसिद्धि वाला नहीं। वद्रीमिसिरजी के चौराहे के दर्शन बिना तो ग्रामवासियों का जीवन ही अधूरा था। शास्त्रार्थ से लेकर ज्ञानवर्द्धन और मनोरंजन तक की भरपूर व्यवस्था से लबालब। छोटी-बड़ी चौपाल यहाँ हर वक्त लगी रहती। गपवाजों की भी कोई कमी नहीं । और हाँ, मज़ाल है कि गांव में कोई अनजान आदमी, बिना परिचय बताये आ घुसे किसी दिशा से ।
         बाबू ठाकुर सिंह, हरिप्रसाद सिंह, शिवबालक सिंह, वंशरोपन सिंह, राजदेव सिंह, वसुदेव सिंह, मुनेश्वर सिंह, बालेश्वर सिंह, रामेश्वर सिंह आदि गणमान्यों की तूती बोलती थी। मंगल यादव और भिखारी यादव के बिना तो कोई भी पंचायत-गोष्ठी अधूरी थी। छोटे-बड़े ज्यादातर विवाद ग्रामकचहरी में ही सुलझा लिए जाते । पंचपरमेश्वर का निर्णय सिर-आँखों पर।
        हरिदासभगत की सधुअई का डंका सुदूर वृन्दावन तक गूंजता था। वृदावन के महाराजजी संकर्षणदास जी प्रायः इस पावन ग्राम में कुछ समय व्यतीत करने आ जाया करते थे। नन्हें के माई के हाथों की दही में गोकुल की ग्वालिनों वाला मिठास मिलता था उन्हें। सुमंगल पंडितजी और पड़ोसी गांव- बेलसार के हरिहर पंडितजी को तो सुदूर इलाके तक “सुप्रीमकोर्ट” कहा जाता था—मामला ‘ निर्णयसिन्धु-धर्मसिन्धु ’ का हो या कि ‘पिनलकोड ’ का ।
      काल का पहिया घनघनाकर घूम गया । अब वो कुछ नहीं है। बुजुर्गों के लगाये बगीचों को बर्बरता से नष्ट कर दिया गया। तरबूज की बल्लरियाँ सिमट गयी। बालू के पहाड़ को ठीकेदार लील गए । कच्ची सड़कों का पक्कीकरण हो गया। पक्की नालियाँ भी बन गयी- ग्रामीणविकास कोष से। रेड़ी तेल के दीयों की जगह विजली के लट्टू ने ले लिया। पक्की नालियों में टट्टी करने की पूरी आजादी मिल गयी। सोनभद्र का पानी पनविजलीविभाग पी गया । सैकड़ों बीघों वाला चारागाह कहाँ लुप्त हो गया पता नहीं। ऐसे में मवेशियों की संख्या इक्की-दुक्की रह गयी। दहीकादो खेलने की तो बात ही दूर, मंगल टीका लगाने के लिए भी होटलों से दही लाने की जरुरत है। एकादशी, अमावस्या सब सोन में बह गए। मिसिरजी के चौराहे पर आमलेट की दुकान खुल गयी। तीन-चार पाउचडीलर भी पैदा हो गए हैं। पड़ोस में पॉलट्री खुल गया । सरकार आरक्षितों की मसीहा बन चुकी है। मारपीट-हत्या तो आमबात है। नजदीक में प्रखंड और पुलिसस्टेशन भी बन गया है। बड़ाबाबू की चाँदी ही चाँदी है।
      और हाँ, डीजे की कर्कश तरंगे कान फाड़ने को सदा बेताब रहती हैं- बिना पर्व-त्योहार के भी।          मौजमस्ती का नया दौर शुरु हो गया है। बहू-वेटियों को अब बहुत बच कर रहना पड़ता है। पता नहीं कब किस मनचले का मन पसीज जाए।
        आँखिर हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं। और विकास के साथ-साथ ये सारी चीजें तो बिन बुलाये ही आ जाती हैं न !

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