समरथ के नहीं दोष


समरथ के नहीं दोष

      गोसाईंबाबा और कुछ किए चाहे नहीं, कुछ बुरबकहन के सहका-बहका जरुर दिए एक चौपाई लिखकर। —एकदम से तैस में बोलते हुए वटेसरकाका कमरे में घुसे और टुटही खटिया पर शान से बैठ गए । उनके नथुने अब भी फड़क रहे थे। ज़ाहिर था कि अभी भी क्रोध में हैं। मगर क्रोध का कारण क्या है, ये जानने की हिम्मत मैं जुटा नहीं पा रहा था।
 हालाँकि मुझे उनसे डर नहीं है, किन्तु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अति सम्मान, सीमा लाँघ कर, डर के देहली में ढ़केल देता है। मैं हद से ज्यादा सम्मान करता हूँ वटेसरकाका का। एकदम से अंग्रेजी दवाई की तरह उसका साइडएफेक्ट ये है कि जरुरत की बातों को भी खुल कर साझा नहीं कर पाता उनसे। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ।
मेरा ध्यान उनकी जेब से झाँकते मनमोहक लिफाफे पर गया, जिसने मेरी हिम्मत बढ़ायी और बात बदलने वाले अन्दाज में पूछा— ये लिफाफा कहाँ से आया है काकाजी?
किन्तु परिणाम अनुमान के ठीक विपरीत बैठा—एक्जिटपोल की तरह। जेब से लिफाफे को ऐसे खींचकर बाहर निकाले, मानों किसी नटखट बच्चे का कान पकड़ कर खींच रहे हों झापड़ रसीद करने को।
ये लिफाफा नहीं है रे उल्लू के पट्ठे ! देखते नहीं निमन्त्रण-पत्र है। —कहते हुए, लिफाफे को मेरी ओर फेंक दिए। लिफाफा किसी VVV  VIP के कल्चरल-प्रोग्राम का था। क्रोध का वजह डिकोड करते हुए काका ने आगे कहा— जानते हो ऐसा गोल्डन लिफाफा दसलाख लोगों को भेजा गया है। तुम जानते ही हो कि निमन्त्रण-पत्र की क्वॉयलिटी से भेजने वाले की पर्सेनायलिटी झाँकती है।
मैंने आँखें फाड़कर पूछा—दसलाख लोगों को निमन्त्रण-पत्र ! और उन दसलाख में आप भी एक...?
काका झल्लाये—   अच्छा है कि मैं उन दसलाखों में नहीं हूँ; किन्तु हाँ, सवासौकरोड़ों में एक जरुर हूँ मैं ।  ”
तब, ये लिफाफा आपको मिला कहाँ से,जबकि भेजने वाले ने भेजा नहीं आपको?
काका फिर झुंझुआये—  इसे भेजा गया था मेरे पड़ोस वाले नेताजी के नाम, जो अभी हाल में ही रंगबदलू गिरगिट की तरह अपनी पार्टी बदल लिए हैं, और ऐसा इसलिए किए कि उनकी पार्टी ने मनमाफ़िक इलाके से टिकट नहीं दिलवाया ,नतीजन उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। उसी ताजी वाली हार की खीस निकाला उन्होंने इस मुए लिफाफे को कूड़ेदान में फेंक कर।
अच्छा, तो अब समझा । ये लिफाफा आप किसी कूड़ेदान से उठाकर लिए चले आ रहे हैं। मगर इस लिफाफे से गोसाईंजी की चौपाई का क्या सम्बन्ध?
यही समझने-समझाने तो तुम्हारे पास आया हूँ। गोसाईजी की चौपाई ने दुष्टों को और मनबढ़ु बना दिया है। बेशरम और बेहया हो गए हैं। कहते हैं हमारा कौन क्या विगाड़ लेगा। मगर इन गदहों को कौन समझाये कि वैक्टीरिया-वायरस कोतवाली का दारोगा नहीं है,जो उनकी फोनकॉल से निष्क्रिय हो जाए और न सचिवालय का किरानी ही है, जो परमोशन के खातिर मिठाई का डिब्बा अपनी बीबी के हाथों भिजवाए। रोग-बीमारियाँ न जाति देखती हैं और न पार्टी, न पद देखती हैं और न रुतबा। गोला-बारुद से यदि डर होता इसे तो विकसित देशों में तबाही मचाने भला क्यों जाती ? किन्तु इन सारे नियम-सिद्धान्तों को ये वी.आई.पी.कल्चरिस्ट समझें तब न। दरअसल नियम-कायदे सब बने होते हैं आमलोगों के लिए। इसीलिए इसका पालन भी वही करते हैं सिर्फ। यदि गोसाईजी का कहना गलत है, तो फिर तुम्हीं बतलाओ न कि सिर्फ ५०-६० आदमियों को शूट करने दस वीडियोकैमरा गया था ? मोबाइल और हैंडीकैम की तो गिनती ही नहीं कर रहा हूँ। ४२ भरी-भरी गाड़ियों में कितने लोगों का गणित बैठता है - औसतन तीन भी मानों तो ? वैरा-वटलर, ठेले-खोमचे,लोकल-शोकल का तो हिसाब ही छोड़ो अभी। नाम और फोटो न प्रकाशित करने की शर्त पर एक ऐसे ही कार्डधारी ने जानकारी दी कि पाँच सौ लोग तो मेन पंडाल में थे। हालाँकि ये बात उन्होंने इस खीस में कही, क्यों कि जीतने के बाद भी उन्हें सरकार में जगह न मिली थी।
जरा दम लेकर काका ने कहा — खैर, असली बात तो मैं भूल ही गया, जिस बात के लिए मश़विरा करने तुम्हारे पास आया था।
क्या?
यही कि तुम्हें लेकर कोतवाली चलना चाहता हूँ। एक F.I.R.दर्ज करानी है इनके खिलाफ और एक जनहित याचिका भी दायर करने का विचार है हाईकोर्ट में । इन दोनों जगह तुम्हें गवाह रखने का विचार है ।
काका की अन्तिम बात सुन मैं बगलें झाँकने लगा। लगता है आज बुरी तरह फँस गया। काका के चंगुल से जान बचाना बड़ा मुश्किल है। अपने तो ठूंठ-बांड़ ठहरे, हम बीबी-बच्चों वाले को बलि का बकरा बनाना चाह रहे हैं। जिस समरथ को कानून की परवाह नहीं , क्यों कि वो खुद कानून-निर्माता है, उस कानूनची को भला कोर्ट-कचहरी की क्या परवाह हो सकती है? वैसे भी कोर्ट के दरवाजे और वासरुम के दरवाजे में ज्यादा फ़र्क वो कभी समझा भी नहीं।
किन्तु अभी मेरी समस्या ये है कि मैं किस कोतवाली में जाऊँ काका के खिलाफ मुकदमा दर्ज़ कराने के लिए कि ये मुझे राष्ट्रभक्ति सिखा रहे हैं ? और किसे गवाह बनाऊँ इस मुकदमे में?
हालाँकि सुनने में आया है कि राष्ट्रभक्ति और जनसेवा की नयी परिभाषा विचाराधीन है, जो जल्दी ही लागू भी हो जायेगी। फिलहाल वन्देमातरम् कह कर ही सन्तोष करता हूँ।
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