कलियुग के दूत
वैशाख
शुक्ल तृतीया को “अक्षय तृतीया” के नाम से जाना जाता है। पुराण कहते
हैं कि इसी दिन त्रेतायुग का शुभारम्भ हुआ था। त्रेतायुग यानी शतप्रतिशत सत्य वाले
युग में पचीस प्रतिशत की कमी हो जाने वाला युग। यानी अब आगे से पचहत्तर प्रतिशत ही सत्य सक्रिय रह
पायेगा सृष्टि में।
किसी
जमाने में आर्यावर्त कहा जाने वाला, भारतवर्ष के भरत खण्ड का एक हिस्सा, कालक्रम
से और भी कट-टूट-सिमटकर वर्तमान में भारत या हिन्दुस्तान या इण्डिया के नाम से
जाना जा रहा है। अपनी ये कथा उसी भारत के विपदा की है।
प्राणी-पदार्थ का सहज मानवीकरण
करने वाला धर्म-प्राण भारतवासी भारतमाता के नाम से पुकारता है इसे । जननीजन्मभूमिश्च
स्वर्गादपि गरीयसी — ठीक ही तो है न । जन्म लिए हैं जिस धरती पर, उसे माँ का
सम्मान तो मिलना ही चाहिए । फादरलैंड कहने की परम्परा तो हमारी रही ही नहीं
। हमारे यहाँ पिता का पद माता से सदा नीचे माना गया है।
हिमगिरि को भारतमाता के
मुकुट के रुप में कल्पित किया गया। हिन्दमहासागर की लहरें इसके पाँव पखार रही हैं ।
हाथों में चौबीस अरे वाले चक्रयुक्त तिरंगा लहराती भारतमाता, ‘
आ समुद्रा तु वा पूर्वा, वा समुद्रा तु
पश्चिमा...’ पर्यन्त अपने कलेवर का विस्तार
किए प्रसन्नचित्त खड़ी हैं। सिर पर विस्तृत निरभ्र नील नभमण्डल कोटि-कोटि
हवन-कुण्डों के निष्कलुष धूम से आच्छादित है। उत्तुंग अट्टालिकाएँ और मन्दिरों के
कंगूरे व्योममण्डल को छूने की होड़ में हैं। वातावरण वेद-ध्वनि से अहर्निश गुंजायमान
है । घंटे, घड़ियाल, झांझ, मजीरे, करताल की ध्वनियों के साथ-साथ करतल ध्वनियाँ यों
झांक रही हैं, मानों भीड़ में दुबकी कोई छोटी बच्ची अपनी उपस्थिति विदित करा रही हो।
एक ओर गुरुकुलों की भरमार है, तो दूसरी ओर ‘तुलाधार’ तुल्य वणिकों का प्रशस्त साम्राज्य है । लक्ष्मी और सरस्वती में छद्म
प्रतियोगिता चल रही है, अपने पतिदेव को आकर्षित करने की । किन्तु तुला संतुलित है
दोनों ओर से। स्वाभाविक है कि जहाँ सरस्वती हैं, लक्ष्मी को तो घुटने टेकना ही
पड़ता है और इन सबके बीच सस्मित खड़ी भारतमाता अपनी शस्यश्यामला स्वरुप पर ही
मुग्ध है।
किन्तु इधर कुछ दिनों से
उन्हें बहुत चिन्तत देख रहा हूँ। माता हैं, तो चिन्ता स्वाभाविक है। माता को अनेक
चिन्ताएँ रहती ही है। रहनी भी चाहिए। अपने सन्तानों के सम्यक् परिपालन का
आद्योपान्त दायित्व होता है माता पर । यही कारण है कि पिता से भी कई गुना अधिक
गरीयसी है माता।
उसकी चिन्ता दुःख में बदल
रही है और वेदना का संचार हो रहा है, जब संस्कृत-पालित-पोषित सन्तान उदण्ड हो जाती
है। जब अपने ही सन्तानों द्वारा कष्ट दिया जाने लगता है।
सच में आज भारतमाता बहुत ही
दुःखी हैं। किन्तु अपनी व्यथा कहें तो किससे कहें? कौन सुनेगा
उनकी बात? यदि सुन भी ले तो क्या कोई उपाय है निवारण का ? शायद नहीं।
इस विचार से ही वो अपने पालक
शेषशायी विष्णु के पास जाने का मन बनायी हैं।
यात्रा के लिए शुभ मुहूर्त
का विचार करने का विधान है, ताकि यात्रा सुखद और सुपरिणामदायी हो। इसलिए उसने
अक्षयतृतीया जैसे पवित्र दिन का चुनाव किया है। पूरी रात जग कर तैयारी की यात्रा
की । जगत् पालक से मिलकर क्या-क्या बातें करनी हैं। किन-किन बिन्दुओं पर बातें
करनी हैं। किन-किन समस्याओं की चर्चा करनी है।
उन समस्याओं का समाधान भी जानना है, साथ ही ये भी निवेदन करना है कि प्रभु
इसमें आपना योगदान अवश्य दें । कहीं कुछ
जरुरी बात छूट न जाए, इस विचार से वे बार-बार यहाँ-वहाँ दृष्टि दौड़ा रही हैं।
ब्रह्ममुहूर्त की बेला है।
शास्त्र कहते हैं कि ये काल बहुत ही शुभद होता है। अतः तत्काल निकल पड़ती हैं
किंचित पाथेय के साथ।
गन्तव्य की ओर थोड़ा ही आगे
बढ़ी कि पदचापों का आभास मिला कानों को । हठात् ठिठक जाना पड़ा— ‘ अरे ! ये पदचाप ! ’ तभी कानों में क्रूर अट्टहास भी गूँजा ।
गर्दन इधर-उधर घुमा कर कुछ
जानने-समझने का प्रयास कर ही रही थी कि दो बलिष्ठ हाथों ने जकड़ लिया वक्षस्थल को
ही। वक्ष पर सिर्फ कठोर हथेलियों का गुम्फन दीख रहा था। पकड़ने वाला तो पीठ-पीछे
खड़ा अब भी अट्टहास कर रहा था— “मेरी प्यारी भारती !
कहाँ जा रही हो मुँह अन्धेरे में ? अपने
स्वामी के पास,मेरी शिकायत लेकर? हा ऽ हा
ऽ
हा ऽ
हा । ”
डरना स्वाभाविक था । फिर भी
साहस करके, पीछे गर्दन घुमाती हुयी बोली—‘कौन हो तुम
और मेरा रास्ता क्यों रोक रहे हो?’
पूर्ववत अट्टहास के साथ ही
आवाज आयी—‘हम हैं कलियुग के दूत।’ और बोलने वाला पीछे से लपक
कर सामने आ गया । माँ भारती ने देखा—नुकीली मूँछों पर हाथ फेरते, लगभग एक ही
शक्ल-सूरत की कई मानवी आकृतियाँ चारों ओर से घेराबन्दी किए खड़ी हैं । ‘कहाँ जाओगी भाग कर हमसे? देखती नहीं चहुँ दिशाओं में
हम ही हम हैं।’—आवाज बड़ी कर्कश और घिनौनी थी। दुर्गन्धयुक्त
नथुने फड़क रहे थे।
माता भारती का गला रुँध गया
। कुछ कहने की स्थिति में मन-मस्तिष्क न रहा। कान सुनने को विवश थे। आवाज फिर आयी
उधर से— ‘शायद तुम भूल रही हो—कृष्ण को धरती छोड़े सहस्रों वर्ष व्यतीत हो चुके थे।
कुरुकुल भूषण परीक्षित नन्दन जनमेय का शासन कब का समाप्त हो चुका था। मेरे सहयोग
में बुद्ध आ चुके थे। मेरा साम्राज्य लगभग स्थापित हो चुका था, किन्तु इसी बीच आचार्यशंकर
ने आकर सब गड़बड़ कर दिया। पञ्चदेवोपासना
को बल प्रदान किया नये-नये सिद्धान्त रच कर, जिसके कारण सनातनधर्मियों की आपसी
खींच-तान लगभग समाप्त होने लगी। चारों धामों की स्थापना कर दी गयी— चार पहरेदारों
की तरह । तीर्थाटन को सर्वोपरि धर्म मान लिया गया। पाणिनी-पतञ्जलि रोड़े अटकाने लगे
। भास्कराचार्य और वराहमिहिर ने भी कोई कसर न छोड़ा । विक्रमादित्य, शालीवाहन, भोज
आदि ने तो तबाही ही मचा दी । कौटिल्य चुटकियाँ लेते रहे...।’
भारती सुनती जा रही थी। सुनने
को विवश थी उन प्रलापों को— ‘...तुम शायद भूल
चुकी हो — सभी सभासद चिन्तित थे कलिमहाराज की सभा में । किसी को कोई उपाय सूझ न रहा
था। हथेली पर गाल टिकाए कलिदेव विचार मग्न थे कि कैसे साम्राज्य चले सुचारु रुप से
। क्यों कि विष्णु ने तो बड़े चतुराई पूर्वक धोखा दिया है। बड़े पुत्र सतयुग की तो बात ही छोड़ो, वो तो
युवराज है। त्रेता, द्वापर तक को भरपूर
पोषित किया और जब छोटे पुत्र की बारी आयी तो नियम-सिद्धान्त समझाने लगे...।
‘...उस
चिन्तातुर सभासदों के बीच अचानक दैत्यराज मूर खड़ा हुआ और आगे बढ़ कर संकल्प लिया
कि उस पर कलिमहाराज विश्वास करें और अवसर दें। धर्मप्राण भारतवर्ष और सनातन धर्म
के विध्वंस के लिए अकेला ही वो पर्याप्त है। हाँ, यदि महाराज चाहें तो किसी अन्य
सभासद को भी मेरे साथ भेज सकते है... ।
‘...दैत्यराज
मूर के संकल्प की सबने करतल ध्वनि से प्रशंसा की। कलिमहाराज ने आदेश दिया कि वो
तत्काल भारतभूमि पर अवतरित हों अपने इष्ट-मित्र-परिवार के साथ। वहाँ पहुँच कर सबसे
पहला काम ये करना है कि अबतक के राजागण जिन मनुष्यों को सजा-स्वरुप देशनिकाला देते
गए हैं, आसपास के टापुओं पर, उन सबको अपना मित्र और हितैषी बनावें। दूसरा काम ये
किया जाए कि ब्राह्मणों के घर में येन-केन-प्रकारेण प्रवेश किया जाए। फिर उच्च
मंचों का उपयोग करते हुए, आपसी विद्वेष का बीज बोया जाए। मनु, याज्ञवल्क्य, परासर
आदि की स्मृतियों से ही विद्वेष-बीज का अनुसन्धान करें। वेद-पुराण,उपनिषदों में
जहाँ तक सम्भव हो क्षेपक का विष घोलें। वर्ण-व्यवस्था को यथासम्भव छिन्न-भिन्न किया
जाए। क्योंकि जब तक ये सक्रिय रहेगा, कलि साम्राज्य-स्थापन होने नहीं देगा।
ब्राह्मणेतर वर्ण जब तक संत का चोला धारण नहीं करेंगे तब तक कलि-राज्य
पुष्पित-पल्लवित नहीं हो सकेगा...। ’
आश्चर्यचकित भारती सुने जा
रही थी कलिदूत के प्रलापों को — ‘...धीरे-धीरे
म्लेच्छों का विस्तार होने लगा । बड़े-बड़े विश्वविद्यालय-पुस्तकालय ध्वस्त हो गए।
विषाक्त धूम से वातावरण क्लान्त हो उठा। एक गुम्बज वाले मन्दिरों के इर्द-गिर्द
अनेक गुम्बज खड़े होने लगे । पवित्र गंगा-यमुना को प्रदूषित कर दिया गया। नदियों
का कलेवर सिमटने लगा। कुएँ भरे जाने लगे। चमड़े से गुजरने वाले जल का तकनीकि उपयोग
होने लगा। सोने-चाँदी-पीतल के स्थान पर अल्युमिनियम और लोहे आ बैठे। और एक दिन ऐसा
आया कि म्लेच्छों का दूसरा रुप गोरंड ने पूरे भारत पर छल-बल से आधिपत्य जमा लिया ।
गो-कसी शुरु हो गयी। ज्ञानदीप प्रसारक भारत गोमांस का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया। फिर,
अनूकूल समय पाकर भारतभूमि पर अवतरित होकर दैत्यपति मूर ने सनातन सन्त का चोला धारण
किया। गोरंडों से मातृभूमि को मुक्ति दिलाने का यश भी लूटा । उसके मित्रों ने रास्ते
के कांटों को बड़ी चतुराई से दूर की। और हाँ,एक बात कान खोल कर सुन लो भारती
! इसके ही संगी-सथियों ने तेरी दोनों भुजाओं का छेदन किया है।
दो-चार ऐसे विष-बीज बोए ताकि तुम कभी भी शान्त-सुखी न रह सको। लोकतन्त्र के आवरण
में सुदीर्घ राजतन्त्र भी मेरे मित्रों ने ही चलाया। तुम्हें जान कर शायद आश्चर्य
हो भारती ! कि आश्रमों और मठों में भी ज्यादातर मेरे ही लोग
बैठे हुए हैं, चोला बदल कर। गेरुआ, रुद्राक्ष,
चीवर-चिमटा, टीक-टीका ये सब बड़े मोहक आवरण हैं मेरे । ऐसे में तुम ठीक से पहचान
भी नहीं पाओगी अपने असली पुत्रों को। आवरण इतना घनीभूत कर लिया है हमने कि ज्ञान
और अज्ञान में, धर्म और अधर्म में, सत्य और असत्य में भेद करना कठिन हो गया है। तुम्हारी
सभ्यता और संस्कृति को ही हमने बिलकुल बदल डाला है। गोपालक तुम्हारे बेटे
मुर्गी,सूअर और मछलियाँ पाल रहे हैं अब । क्या तुमने कभी सुना है गोशालाओं के लिए राज्यानुदान
मिलते? नहीं न । जो थोड़े से तुम्हारे सपूत बचे हैं, उन्हें
भी धीरे-धीरे यमलोक पहुँचा देने का बीड़ा उठाया है हमने । संविधान के नाम पर अपना
नियम-कानून तो पहले ही घुसेड़ दिया है मेरे मित्रों ने । सड़क से संसद तक सिर्फ
मैं ही मैं हूँ। न्यायालय भी मेरे ही संकेतों पर चलता है। अतः कान खोल कर सुन ले
भारती ! जहाँ हो, जिस अवस्था में हो, वहीं चुप पड़ी रहो और
कालचक्र को घूमने की प्रतीक्षा करो । शायद फिर कभी तुम्हारे बड़े बेटे का शासनकाल
आ जाए । अभी तो मुझे राज्य करने दो...। ’
माताभारती दोनों हाथों से
अपना मुँह ढंक कर धप्प से भूमिष्ठ हो गयी । किन्तु अचानक उसके भीतर की काली प्रकट
हुयी — ‘ अरे नीच कलिदूत ! इसी कुकृत्य के चलते तुम्हारा
राजा कभी पूर्णायु भोग नहीं कर पाता। अभी तो ५१२१ वर्ष
व्यतीत हुए हैं तुम्हारे शासन के और इतनी क्रूरता ! इतनी नीचता !
क्या तुझे ज्ञात है मेरा एक कालजयी बालक परशुराम अभी भी
तपश्चर्यारत है। वर्तमान में वो अपनी तपस्या भंग तो नहीं करेगा, किन्तु मेरे शतसहस्र
सपूतों को उत्प्रेरित अवश्य कर देगा, जिसके सामने तुम्हारे ये संगी-साथी टिड्डीदल
की तरह नष्ट हो जायेंगे…।
‘ जागो
परशुराम ! जागो मेरे लाल !! ’— माता ने जोर से आह्वान किया और एक झटके में ही उन बलिष्ठ भुजाओं से
मुक्त होकर निरभ्र व्योममण्डल में उड़ चली । अस्तु।
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