सप्तशतीरहस्य भाग 10

                      श्रीदुर्गासप्तशतीःःएक अध्ययन - दसवाँ भाग

                                        ।। ऊँ कामेश्वर्यै नमः ।।        
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                       सप्तशती : साधना कब-कैसे
सप्तशती के विषय में अबतक के प्रसंगों में काफी कुछ कहा जा चुका है। स्पष्ट है कि साधना के विभिन्न मार्गों में सप्तशती-साधना का एक विशिष्ट स्थान है। कलिकाल में मनुष्य के सामने विघ्नों का विस्तृत महाजाल है। इनसे उबरते हुए कोई साधना करना बहुत ही कठिन कार्य है। आयु भी अपेक्षाकृत काफी कम है। वाल्यकाल और वृद्धावस्था के रुप में आदि-अन्त के दो मुख्य हिस्से अनचाहे ही हाथ से छिटक जाते हैं । बीच के दो हिस्से संसारिक जंजालों से प्रायः ग्रस्त-त्रस्त रहते हैं । ऐसे में प्रबल इच्छा रहते हुए भी विशेष साधना हो नहीं पाती। सामग्री से लेकर परिवेश तक सबकुछ विषाक्त हो चुका है। सद्गुरु की उपलब्धि अति दुर्लभ है। अतः इन विकट परिस्थितियों में एकमात्र जगदम्बा के शरण में सशरीर समर्पित हो जाना ही सर्वप्रमुख साधना है। आर्तभाव से माँ की पुकार ही सही मार्गदर्शिका बन सकती है। हम एक कदम माँ की ओर बढ़ने की साहस करते हैं, तो माँ इतनी करुणामयी हैं कि सौ कदम हमारी ओर अग्रसर हो जाती हैं। आँखिर माँ है—सर्वेश्वरी हैं। जगज्जननी हैं ।
किसी भी साधना की शुरुआत तो नियम-संयम से ही होनी चाहिए। साधनपथ के प्रथम चार सोपान —यम, नियम, आसन और प्राणायाम तो यथासम्भव नियमित रुप से साधना ही होगा। इससे ही साधना की भूमि प्रशस्त होगी। अष्टांगयोग-साधनपथ में इन्हें बहिरंग साधना कही गयी है। इसके बाद का पाँचवा-प्रत्याहार चौखट तुल्य है और इसके बाद के ध्यानादि तीन अन्तरंगसाधना । बहिरंग की स्वच्छ-निर्मल साधना-भूमि में ही सुपुष्ट संकल्प-बीज बोना होता है। निष्ठा और लगन के खाद-पानी से निरन्तर पोषित करते रहना होगा। श्रद्धा और विश्वास के बाड़ भी लगाने ही होंगे, अन्यथा सांसारिक जीव उसे कभी भी नष्ट करने को तत्पर रहेंगे। सांसारिक विविध द्वन्द्वों से द्वन्द्व छेड़ने के वजाय उनके प्रति तटस्थ भाव (साक्षीभाव) का अभ्यास करना होगा। और सबसे बड़ी बात है कि निराशा और जल्दबाजी को कभी पास फटकने नहीं देना होगा। साधना कोई व्यापार नहीं है, जिसमें नफा-नुकसान का हिसाब लगाया जाए। हाँ, व्यवसायात्मिका बुद्धि की बात श्रीकृष्ण अवश्य करते हैं और ध्यान देने की बात है कि गीता में व्यवसायात्मिकाबुद्धि—निश्चयात्मिकाबुद्धि के लिए प्रयुक्त हुआ है। क्यों कि निश्चयात्मिका बुद्धि बहुशाखा वाली नहीं होती। इस कारण ऐसी बुद्धि रखने वाले की सद्गति शीघ्र होती है। जैसे ही हम ये निश्चय करके आगे बढ़ते हैं कि माँ की शरणागति चाहिए हमें, तैसे ही हमारी गति होने लगती है, विकास होने लगता है उस दिशा में। माँ का सहयोग मिलने लगता है। अतः जरुरत है मातृभक्ति हेतु दृढ़ निश्चय की और तदर्थ नियमित प्रयास की।

गीता में गोविन्द ने बहुत दृढ़ सम्बल दिया है— प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।  शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।-४१।।

हालाँकि जीवन बहुत छोटा है, किन्तु निराश नहीं होना चाहिए । साधन-मार्ग ऐसा मार्ग है, जहाँ प्रत्यर्पण नहीं है। इस विषय में श्रीकृष्ण दावे के साथ कहते हैं—नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।-४०।। इसी बात को और स्पष्ट करने के लिए अगले श्लोक में निश्चयात्मिका बुद्धि की बात भी करते हैं—
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्चबुद्योव्यवसायिनाम्।। (-४१)
श्रीकृष्ण का  एक और सम्बलसूत्र सदा स्मरण रखना चाहिए—      अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।९-२२।।
जैसे ही हम संसार के झमेलों से स्वयं को समेट कर एकमात्र माँ की ओर कदम बढ़ाते हैं, माँ हमारी सारी जिम्मेवारियाँ अपने ऊपर ले लेती है। योगक्षेम वहन करने का यही आशय है यहाँ श्रीकृष्ण का।

अतः निर्द्वन्द्व होकर, संशय-रहित होकर, लगन पूर्वक लग जाना है, जगदम्बा की सेवा में। ऐसा नहीं है कि श्रीकृष्ण अलग कह रहे हैं और जगदम्बा कुछ अलग कहेंगी। जरुरत है एकनिष्टता की, अनन्यता की – न अन्य अनन्य । हमें चाहिए कि नित नये स्थानों पर कूआँ खोदने में समय और श्रम जाया न करें। ममतामयी माँ का स्नेह-सलिल सर्व सुलभ है। ऊसर और मरुस्थल यहाँ है ही नहीं।

आगे बढ़ने पर दृढ़ निश्चयी के सामने भी कई प्रश्न आयेंगे। सुयोग्य मार्गदर्शक के अभाव में भटकाव होना भी स्वाभाविक है। अतः यहाँ कुछ खास बातों पर, कुछ विशिष्ट साधना-क्रमों पर ध्यान दिलाना आवश्यक प्रतीत हो रहा है।

सर्वाधिक आवश्यक है साधना के योग्य शरीर और मन का निर्माण । विभिन्न ग्रन्थों में वर्णित यम-नियमादि का यथासम्भव ध्यान (अभ्यास) आजीवन रखना होगा। सीढ़ी के एक डंडे पर पांव धर कर, अगले डंडे पर दूसरा पांव रख देते हैं, किन्तु इसका ये अर्थ नहीं कि पहले वाले डंडे का अब कोई महत्व ही नहीं रह गया। उसका महत्व और औचित्य तो तब तक है, जब तक हम उपरी मंजिल (लक्ष्य) पर पहुँच न जाएं।

 सुविधानुसार, समयानुसार, आवश्यकतानुसार यत्किंचित  आसनों (सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन, सूर्यनमस्कार के द्वादश समूह) और प्राणायाम की सरल विधियों का पालन भी करते रहना चाहिए। प्रारम्भिक स्थिति में नाडीशोधन प्रणायाम का अभ्यास (तीन चक्र से इक्कीस चक्र तक) अवश्य करना चाहिए। परिवेश अनुकूल हो तो अधिक भी किया जा सकता है। ये अभ्यास छःमाह से एक वर्ष पर्यन्त विशेष आवश्यक है। बाद में आवश्यकतानुसार संख्या न्यूनाधिक रखी जा सकती है। त्रिआयामीय प्रणायाम में इसका विशेष सहयोग मिलता है। ध्यान की चिन्ता में पड़ने की जरुरत नहीं, परन्तु धारणा की ज्योति तो जलानी ही होगी।

इन अभ्यासों के पश्चात् (अभ्यस्त हो जाने पर) अन्तःकायिक संरचना का ज्ञान (जानकारी) प्राप्त करके, मूल पांच चक्रों पर पांचों तत्वबीजों का सतत अभ्यास करना चाहिए, जो इस प्रकार हैं—
१.  मूलाधार   पृथ्वी   लं    २.          स्वाधिष्ठान जल वं
३.  मणिपूर    अग्नि    रं    ४. अनाहत          वायु    यं
              ५.विशुद्धि आकाश  हं

उक्त अभ्यासों के साथ-साथ यथोपलब्ध सामान्य पूजन-सामग्री सहित माँ की सेवा में यथेष्ठ समय देना होगा। ऐसा नहीं कि अलभ्य और दुर्लभ सामग्रियों के चक्कर में समय और श्रम व्यर्थ करें। सबसे बड़ी सामग्री है—हमारा शरीर, हमारा मन। और, ये तो हम लगा ही सकते हैं ! लगाना ही होगा, अन्यथा कोई उपाय नहीं है।  

कुछ काल तक अनिवार्य रुप से वाह्यपूजा (मूर्ति, तस्वीर, यन्त्रादि) का सतत अभ्यास चलना चाहिए। तदुपरान्त  नवार्णविधि में निर्दिष्ट विविध न्यासों का अभ्यास करें। प्रारम्भ में आवश्यक नहीं कि सभी न्यास किये ही जाएं। यथाक्रम शनैःशनैः अभ्यास बढ़ाना चाहिए। न्यास के साथ-साथ नित्य एक माला जप से प्रारम्भ कर तीन, पाँच, सात, नौ... सहस्र संख्या पर्यन्त जप का अभ्यास क्रमिक रुप से बढ़ाता जाए। वर्ष-दो वर्ष के बाद लम्बे अनुष्ठान के योग्य शरीर और मन तैयार हो जायेगा। इतने समय के निरन्तर अभ्यास से विविध न्यासों का भी अभ्यास हो जायेगा ।
ध्यातव्य है कि ये सभी क्रियायें संध्या समय वा रात्रि में भी की जा सकती हैं।
तत्त्वशोधन तो पहले से चल ही रहा है, अब इसके साथ-साथ भूतशुद्धि का अभ्यास भी प्रारम्भ कर देना चाहिए। तदन्तर आगामी वर्ष-दो वर्ष के अभ्यास के पश्चात् मातृकाओं में गहन प्रवेश का प्रयास करना चाहिए।

मातृकामाला (अक्षमाला—अक्षरमाला) का अभ्यास दृढ़ हो जाने पर अन्तरमातृकान्यास का रास्ता खुलने लगेगा। बहिर्मातृका में चेतना को स्थिर करते हुए अभ्यास जारी रखे, यानी उक्त दोनों मातृकान्यास एक साथ चलाते रहें ।

आगे न्यासों की संख्या का क्रमिक विकास करता जाए। ध्यान
देने योग्य बात ये है कि 
भूतशुद्धि एवं न्यास स्वतन्त्र साधना के रुप में भी है  और सप्तशती-अधीन साधना भी। इन सबकी दृढ़ता और अभ्यास के पश्चात् ही सर्वांगीण सप्तशती-साधना की बात आयेगी। अनुष्ठानिक रुप से सप्तशती-साधना प्रारम्भ करने से पूर्व उचित है कि सुविधानुसार विविध नवरात्रों में (या अन्य कालों में भी नित्य-नैमितिक रुप से) पाठ का अभ्यास किया जाए, ताकि किसी प्रकार की त्रुटि न रहे।
सम्पूर्ण सप्तशती—तेरहों अध्याय आदि-अन्त के षडंग वा अष्टांग
युक्त पाठ करना प्रारम्भ में सम्भव न हो तो सिर्फ मध्यमचरित्र यानी दूसरे, तीसरे और चौथे अध्याय मात्र का ही पाठ किया जाय। ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए कि सिर्फ पहला अध्याय (प्रथमचरित्र) या फिर पाँचवें से तेरहवें अध्याय (उत्तम चरित्र) का पाठ किया जाए। वस्तुतः मध्यम चरित्र संतुलन विन्दु है, अतः उसका स्वतन्त्र अस्तित्व भी है। स्वतन्त्र प्रयोग भी । मूलसप्तशतीपाठ का क्रम इस प्रकार है—
प्रथमं चरितं प्रोक्तं मधुकैटभनाशनम् ।
द्वितीयविद्धि चरितं महिषासुरघातनम् ।
उत्तमं चरितं ज्ञेयं शुम्भदैत्यवधान्वितम् ।
चरितानि  जपेत् त्रीणि सरसस्यान्यतन्द्रितः ।
तथा शतमादौ शतचान्ते जपेन्मन्त्र नवार्णमकम् ।
चण्डी सप्तशती मध्य सम्पुटोमुदाहृतः ।
सकामः सम्पुटोजाप्यो निष्कामःसम्पुटं बिना ।।

पाठ के सम्बन्ध में कुछ और बातों (विधि-निषेध) का भी ध्यान रखना आवश्यक है।  स्पष्ट निर्देश है कि छः गुण युक्त और छः दोष मुक्त होना चाहिए कोई भी स्तोत्र-पाठ । यथा—
माधुर्यमक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु  सुस्वरः।
धैर्यं लयसमर्थं च षडेते पाठका गुणाः।।
गीती शीघ्री शिरःकम्पी तथा लिखितपाठकः।
अनर्थज्ञोल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः।।
स्वर-माधुर्य, प्रत्येक अक्षरों का स्पष्ट उच्चारण, प्रत्येक पदों का स्पष्ट विभाग, सुन्दर स्वरोच्चारण, धीरता और लयवद्धता—ये छःगुण कहे गए हैं; तथा पाठ करते समय गीत की तरह राग पूर्वक गायन करना, शब्दोच्चारण में जल्दबाजी, सिर हिला-हिलाकर पाठ करना, अपनी हाथ से लिखी हुयी पुस्तक का पाठ करना, अर्थ की जानकारी रखे बिना पाठ करना, स्वरों का अधूरा (अल्प कण्ठ्य उच्चारण)—ये छः दोष कहे गए हैं। ध्यान देने योग्य बात यहाँ ये भी कि स्व रचित स्तोत्र का निषेध नहीं किया गया है, प्रत्युत किसी स्तोत्र का अपने हाथ से नकल करके, उससे पाठ करने का निषेध है। स्वरचित स्तोत्र तो और भी महिमामय है।
इसी प्रसंग में और भी बातें हैं—
अज्ञानात्स्थापिते हस्ते पाठे ह्यर्धफलं ध्रुवम् ।
न मानसे पठेत्स्तोत्रं वाचिकं तु प्रशस्यते ।।
उच्चैःपाठं निषिद्धं स्यात्वरां च परिवर्जयेत् ।
शुद्धेनाचलचित्तेन पठितव्यं प्रयत्नतः ।।
कण्ठस्थपाठाभावे तु पुस्तकोपरि वाचयेत्।
न स्वयं लिखितं स्तोत्रं नाब्राह्मणलिपि पठेत् ।।
पुस्तके वाचनं शस्ते सह्स्रादिकं यदि।
ततो न्यूनस्य तु भवेद् वाचनं पुस्तकं विना ।। — अर्थात् पुस्तक-पीठ की महत्ता न समझते हुए लोग प्रायः  हाथ में पुस्तक लेकर पाठ करने लगते हैं। इसी सम्बन्ध में कहा गया है— अज्ञानवश  पुस्तक हाथ में लेकर पढ़ने से आधा फल होता है। दूसरी बात ये कि किसी स्तोत्र का मानसिक पाठ भी नहीं करना चाहिए। वाणी से स्पष्ट उच्चारण अनिवार्य है। बहुत जोर-जोर से बोलना अथवा पाठक्रम में उतावलापन- जल्दबाजी भी न करे। यत्नपूर्वक शुद्ध एवं स्थिर चित्त से पाठ करना चाहिए। यदि पाठ कण्ठस्थ न हो तो पुस्तक से पाठ करे। (हालाकि अन्य ऋषि का मत है कि कण्ठस्थ होने पर भी पुस्तक साक्ष्य आवश्यक है, यानी पुस्तक देख कर ही पाठ करे)। इसी प्रसंग में आगे स्पष्ट किया गया है कि लघुस्तोत्रों(चालीसा आदि)का पाठ पुस्तक के वगैर भी किया जा सकता है, किन्तु दीर्घ स्तोत्र (शत, सहस्रादि श्लोक वाले) की स्थिति में पुस्तक साक्ष्य अनिवार्य है, भले ही कण्ठस्थ क्यों न हो।  अपने हाथ से लिखे हुए स्तोत्र का पाठ न करे। इस बात को पूर्व श्लोक में भी स्पष्ट किया जा चुका है - यानी अपने हाथ से नकल किये गए स्तोत्रादि का निषेध है, स्वरचित स्तोत्रादि का नहीं। ब्राह्मणेत्तर वर्णों द्वारा रचित अथवा नकल किए गए स्तोत्र का भी उपयोग पाठ करने में न करे।
इन्हीं बातों को किञ्चित अन्य ऋषियों के मत से भी स्पष्ट किया गया है। यथा—आधारं  स्थापयित्वा तु पुस्तकं वाचयेत्ततः । हस्ते संस्थापनाद्देवि भवेदर्द्धफलं यतः ।। यावन्नपूर्यतेध्यायस्ताव-न्नविरमेत्पठन् । यदि प्रमादादध्याये विरामो भवति प्रिये ! पुनरध्यायमारभ्य पठेत्सर्वं मुहुर्मुहुः । अनुक्रमात्पठेद् देवि शिरः कम्पादिकं त्यजेत् ।।
पूर्व अनुच्छेद में निर्दिष्ट विधि-निषेध के अतिरिक्त यहाँ एक और बात  का निर्देश भी है कि अध्याय के बीच में बोलना भी निषिद्ध है। प्रमादवश यदि बोल दे तो पुनः अध्याय के प्रारम्भ से पाठ प्रारम्भ करे।
पाठकर्ता को इस बात में भी सदा सावधानी वरतनी चाहिए कि अध्याय के प्रारम्भ में अंकित अथ और अन्त में अंकित इति का उच्चारण कदापि न करे। प्रारम्भ में ऊँ देव्यैनमः इत्यादि बोले एवं अन्त में ...देवीमहात्म्ये प्रथमः ऊँ तत्सत् अथवा  देव्यर्पणमस्तु ऊँ तत्सत् का उच्चारण करे, अथवा ऊँ मार्कण्डेय पुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवी महात्म्ये सत्याः सन्तु जगदम्बार्पणमस्तु इत्यादि बोलकर आचमनी से जल गिरा दे। । अध्याय के अन्त में इति का उच्चारण करने से लक्ष्मी का नाश होता है। अध्याय के प्रारम्भ में अथ एवं प्रथम...द्वितीय इत्यादि कहने से प्राणनाश होता है।  यथा— इति शब्दो हरेत्लक्ष्मीं बधः कुल विनाशकः । अध्यायो हरते प्राणान्मार्कण्डेयादिकं वदेत् ।।

नवार्णमन्त्र की साधना स्वतन्त्ररुप से भी की जा सकती है। क्योंकि सप्तशती का सारतत्त्व ही नवार्णमन्त्र में निहित है।  अतः अपने आप में पर्याप्त है ये, किन्तु यहाँ भी भूतशुद्धि और विविध न्यास (सप्तशती न्यास छोड़कर, शेष न्यास) तो करने ही होंगे। पूर्व में ही कहा जा चुका है कि वर्णलक्ष संख्या परिमाण ही पुरश्चरण माना जाता है, यानी आनुष्ठानिक रुप से नौलाखनवार्णमन्त्र जप करना, एक पुरश्चरण कहलाता है। ये अपने आप में सतत साधना है। कलौसंख्याचतर्गुणाः नियमानुसार छत्तीश लाख हो जायेगा।
   सप्तशतीस्तोत्रपाठ की साधना का संकल्प लिया गया हो यदि, तो उसके अन्तर्गत अष्टोत्तरशत वा अष्टोत्तर सहस्र नवार्णजप ही पर्याप्त है।
            सप्तशती-साधना का शुभारम्भ शारदीय नवरात्र  (आश्विन महीने के शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तिथि पर्यन्त) से किया जाना उत्तम है। वासन्तिक नवरात्र (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तिथि पर्यन्त) भी इसी श्रेणी में है। ज्ञातव्य है कि इसके अतिरिक्त दो और प्रधान नवरात्र हैं—आषाढ़ एवं फाल्गुन महीने के शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तिथि पर्यन्त। लोक में इन्हें गुप्त नवरात्र के नाम से जाना जाता है। सच पूछा जाए तो प्रत्येक महीने (साल के बारहों) का शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तिथि पर्यन्त नवरात्र ही है और इसी भाँति प्रत्येक महीने का कृष्णपक्ष पितृपक्ष के रुप में मान्य है।  
सप्तशती की गूढ़ साधना-क्रम में षट्चक्रों पर आरोह-अवरोह क्रम की साधना इन्हीं छः-छः नवरात्रियों में सम्पन्न करने का विधान है। यथा—आश्विन-मूलाधार, कार्तिक-स्वाधिष्ठान, मार्गशीर्ष-मणिपूर, पौष-अनाहत, माध-विशुद्धि, फाल्गुन – आज्ञा । और पुनः अवरोह क्रम में चैत्र – आज्ञा, वैशाख-विशुद्धि, ज्येष्ठ-अनाहत, आषाढ़ - मणिपूर, श्रावण-स्वाधिष्ठान एवं भाद्रपद- मूलाधार।
इस क्रम-विकास पर गौर करें तो स्पष्ट हो  जायेगा कि आश्विन और चैत्र की लोक-प्रधानता का क्या रहस्य है। या तो साधक नीचे से ऊपर की ओर जाने का अभ्यास करता है, या फिर ऊपर से नीचे की ओर आने का । षष्टम से प्रथम वा प्रथम से षष्टम का अभ्यास है ये।
ध्यातव्य है कि वृत्त पर न आदि होता है और न अन्त । जहाँ आदि है, ठीक उसके समीप ही कहीं अन्त भी है। इस अन-अन्त—अनन्त को ही समझना है । अनन्त को समझ कर अनन्त में ही विलीन हो जाना है । सागर में तो हैं ही, पर सागर को ढूढ़ने की चेष्टा में लगे हैं। इसीलिए सागर का पता नहीं चल रहा है। सारा उद्योग सागर की खोज के लिए ही है। और उसका पता तभी लग पायेगा जब जगदम्बा की कृपा होगी।
            सामान्य गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी इन अभ्यासों को जारी रखा जा सकता है। ध्यातव्य है कि शब्द नवरात्र है—नौ अहोरात्रों का समावेश है यहाँ। शुद्ध-सात्त्विक दिनचर्चा में समय व्यतीत करते हुए, सतत साधनारत रहने की आवश्यकता है। अन्य बाहरी क्रियाकलापों से जितना अधिक कटे रहेंगे, उतना ही अच्छा होगा। रात्रि के निशीथकाल का भी भरपूर उपयोग  होना चाहिए। खान-पान शुद्ध-सात्विक रहेगा तो, तीन-चार घंटे की निद्रा (विश्राम) शारीरिक और मानसिक रुप से पर्याप्त है। अस्तु।
                            ।।ऊँ श्री जगदम्बार्पणमस्तु।।
क्रमशः....

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