श्रीदुर्गासप्तशतीःःएक अध्ययनःःतेरहवाँ भाग
ज्ञातव्य और ध्यातव्य
इसके पूर्व प्रसंग (क-1-2)में आप सप्तशती के दो बीजात्मक स्वरुपों से परिचय पा चुके हैं।
(ख) साधना का शुभारम्भ
विगत
अध्याय— सप्तशती साधना कब-कैसे – में प्रारम्भिक बहुत सी बातों की चर्चा की जा
चुकी है। उसी प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए अब सीधे शुभारम्भ की बात करते हैं।
सामान्य रुप से सप्तशती पाठ वा
नवार्णमन्त्र जप करना अभीष्ट हो तो कोई बात नहीं, किन्तु सप्तशती साधना या नवार्णमन्त्र
साधना अभीष्ट हो तो सर्वप्रथम, अपनी जन्मकुण्डली
विचार करते हुए साधक-बाधक ग्रहों की तुष्टि का यथोचित प्रबन्ध (उपाय) समय पर अवश्य
कर लेना चाहिए। तदुपरान्त माता-पिता जीवित हों, तो उनका आदेश और आशीर्वाद लेकर, नान्दीमुख(आभ्युदयिक)
श्राद्ध सम्पन्न करे। ध्यातव्य है कि श्राद्ध शब्द से लोग प्रायः भ्रमित हो जाते
हैं । विशेष कर पितृजीवी इसे करना उचित नहीं समझते। जब कि वस्तुतः ये एक आभ्युदयिक
कर्म है। पुत्र-पुत्री के विवाह, गृहप्रवेश आदि नैमित्तिक कर्मों के क्रम में भी
इसे करने का विधान है। अतः साधना हेतु इच्छुक व्यक्ति को इससे ही अपनी क्रिया का
शुभारम्भ करना चाहिए। माता-पिता जीवित न हों यदि तो विधिवत पार्वणश्राद्ध
करना चाहिए । विधिवत पार्वणश्राद्ध ढाई-तीन घंटे की क्रिया है,जिसे सुविधानुसार घर
में या देवस्थल में सम्पन्न किया जाना चाहिए। इसके लिए किसी योग्य आचार्य का सहयोग
लेना चाहिए। साधना निमित्त पार्वण-श्राद्ध का सर्वोत्तम अनुकूल समय है आश्विन मास
की अमावस्या तिथि । ध्यातव्य है कि अगले दिन से ही शारदीय नवरात्र का शुभारम्भ हो
रहा है।
विधिवत मुण्डन कराकर, नवीन यज्ञोपवीत और
वस्त्रादि धारण कर, दोपहर से पहले उक्त श्राद्धकर्म सम्पन्न कर ले। श्राद्धोपरान्त
एक ब्राह्मण और एक भिक्षुक का भोजन अवश्य करावें और उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा भी दें।
फिर स्वयं सपरिवार भोजन करे। उस दिन रात्रि में पुनः अन्नादि ग्रहण न करे। अत्यावश्यक
हो तो दूध-फलादि लिया जा सकता है।
अगले दिन यानी आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को
प्रातः स्नान-संध्योपासनादि नित्य कृत्य से निवृत्त होकर किंचित फलाहार-दुग्धाहार
ले ले, ताकि लम्बे समय तक बुभुक्षित मन की चंचलता से मुक्ति मिल सके ।
कलशस्थापन हेतु अभिजित मुहूर्त
सर्वश्रेष्ठ माना गया है, जो प्रायः दिन के साढ़े ग्यारह बजे के आसपास प्रवेश करता
है। इसका शुद्ध ज्ञान तात्कालिक पंचांग-विचार से कर ले।
कलशस्थापन हेतु साधनाकक्ष के मध्यपूर्व
वा ईशान में स्थान सुनिश्चित करे। साधनाकक्ष में कुछ भी अवांछित सामान कदापि न
रखे। सिर्फ और सिर्फ पूजापाठ सम्बन्धित सामान ही वहाँ रहे। कक्ष बहुत बड़ा या बहुत
छोटा न हो । रौशनी और वायु का समुचित प्रबन्ध हो एवं ध्वनिप्रदूषण से सर्वदा मुक्त
हो । कक्ष की आन्तरिक साज-सज्जा आडम्बर हीन, किन्तु सुरुचिपूर्ण हो । सामने की
दीवार पर जगदम्बा की विविध झाँकियों वाली तस्वीरें रखी जा सकती हैं। दिवंगत
माता-पिता की तस्वीरें पीछे या दक्षिणी दीवार पर लगायी जा सकती हैं। गुरु की
तस्वीर सामने रखी जा सकती है ।
इस प्रकार सुसज्जित कक्ष में हरिद्रा
रंजित सफेद कम्बल पर पूर्वाभिमुख आसन ग्रहण करे । देवीसाधना के नाम पर सीधे रक्त
या गैरिक परिधान धारण करना उचित नहीं है। रक्त का प्रतिकूल प्रभाव भी है एवं गैरिक
का अधिकार गृहस्थ को नहीं है। आसन के सम्बन्ध में भी यही बात है। पीतरंजित सफेद
भेड़ के कम्बल का चुनाव मध्यम निरापद मार्ग है।
पूजनादि क्रम के विषय में
तन्त्रग्रन्थों में कहा गया है—
आदौ गणेश्वरः पूज्यः ऊँकारं पञ्चधा ततः
। गणयागोगणेशस्य वास्तुयोगिनि पूजनम् ।। मातरो मातृपूजा च वृद्धिःश्राद्धमतः परम्
।। ऋत्विजां वरणं रक्षाविधिवच्चकुशण्डिका । उत्पत्तिस्थापनंप्रोक्तं- कलशस्तदनन्तरम्
।। प्रधानावाहनं पूजाग्रहादीनां च पूजनम् । होमं च बलिदानं च पूजायास्तदनन्तरम् । वेदपाठोग्रहां
स्तुत्वाद्विजातीनां प्रतर्पणम् ।। पूर्णाहुत्यभिषेकं च ततोयज्ञप्रदक्षिणा ।
विसर्जनंक्रमःशान्तेर्मघनश्यामे न कीर्तिता ।।
सामने
बिल्वपीठ (बेल की लकड़ी का बना हुआ पीढ़ा) अथवा भूमि पर नवीन पीत वस्त्र
विछाकर अष्टगन्ध चन्दन, रोली, हरिद्राचूर्णादि से कलशस्थापन हेतु घटार्गलयन्त्र , विन्दु-त्रिकोण-वृत्त-भूपूर
युक्त लघुयन्त्र, श्रीदुर्गायन्त्र अथवा सिर्फ
अष्टदलकमल का विधिवत लेखन करे । इस पुस्तक में यत्रतत्र अध्यायों के अन्त में कुछ
उपयोगी यन्त्रों का चित्र दिया हुआ है। उक्त, स्थापित कलश पर देवीप्रतिमा / देवीयन्त्र (सुवर्ण, रजत, ताम्र या पीतल यथेच्छ) को
स्थापित करे । किंचित ऊँची पीठिका पर देवीप्रतिमा
स्थापित करके, उसके सामने कलशस्थापन भी कर सकते हैं। यन्त्र लेखन के पश्चात यथेष्ठ मात्रा में
तीर्थमृतिका वा उपलब्ध शुद्ध मिट्टी बिछा कर यवान्नरोपण करें। कलश के समीप ही नवीन
श्वेतवस्त्र पर गौरी-गणेशादि स्थापन पूजन भी करे। नवग्रह, षोडशमातृका, पंचलोकपाल, दशदिक्पाल, ६४ योगिनी, ५० क्षेत्रपाल, वास्त्वादि समस्त
देवी-देवताओं का भी विधिवत आवाहन-पूजन प्रथम दिन करना चाहिए । आगे के दिनों में इन
सबका संक्षिप्त पूजन सम्पन्न होगा। आत्मशुद्धि, विविध पवित्रीकरण, रक्षाविधान, स्वस्तिवाचन,
पुण्याहवाचन, संकल्प आदि अनुष्ठान के प्रारम्भिक अंग हैं, तो पूर्णाहुति होम, बलिदान
आदि समापन अंग । श्रद्धा-शक्त्यानुसार सदक्षिणा ब्राह्मणभोजन और भिक्षुभोजन भी अनुष्ठान का
प्रधान अंग है ।
घटार्गलयन्त्र का विस्तृत वर्णन
शारदातिलक के नवमपटल श्लोकसंख्या ९५ से १०० पर्यन्त है। इसका लेखन जरा जटिल है। त्रिकोणयन्त्र
लेखन बिलकुल सरल है। इन दोनों यन्त्रों का चित्र प्रसंगान्त में दिया हुआ है।
श्रीदुर्गायन्त्र-संरचना यहाँ प्रस्तुत
किया जा रहा है। ताकि ज्ञात हो सके कि चित्र में कहाँ किसका आवाहन करना चाहिए। यथा—
त्रिकोण-३,त्रिकोण के बाहर- ६,षट्कोणों में- ६,षट्कोणों के बाहर- ४,अष्टदल में - २४, चौबीस दलों में- २४,चौबीसदलों के बाहर—
दिक्पाल- १०,आयुध-१०,भूपुर के बाहर ४ ।
इन्हीं बातों को अब विस्तार में देखें—
१.त्रिकोण
में बिन्दु के बीच- ह्रीं
२.त्रिकोण के बीच-
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ।
ऊँ मं मंलायै नमः।
३.त्रिकोण के बाहर—ऊँ
ब्रह्मणे नमः । ऊँ सरस्वत्यै नमः।
ऊँ विष्णवे नमः । ऊँ श्रियै नमः ।
ऊँ शिवाय नमः । ऊँ
उमायै नमः ।
४.षट्कोणों में
(पूर्वादि क्रम से)— ऊँ नं नन्दजायै नमः।
ऊँ रं
रक्तदन्तिकायै नमः ।
ऊँ शां
शाकम्भर्य्यै नमः ।
ऊँ दुं
दुर्गायै नमः ।
ऊँ भीं
भीमायै नमः ।
ऊँ भ्रां भ्रामर्यै नमः ।
५.षट्कोण के बाहर—(वाहनादि)—
दक्षिण में— ऊँ मं
महिषाय नमः ।
ऊँ कां कालाय
नमः ।
उत्तर में— ऊँ सिं सिंहाय नमः ।
ऊँ मृं मृत्वये
नमः ।
६.अष्टदलों में (पूर्वादि क्रमसे)—
पूर्व – ऊँ जं जयायै नमः । ऊँ ब्रां ब्राह्म्यै नमः ।
ऊँ अं असिताङ्गभैरवाय नमः ।
अग्निकोण- ऊँ दों
दोग्घ्र्यै नमः । ऊँ वाराह्यै नमः ।
ऊँ भीषणभैरवाय नमः ।
दक्षिण- ऊँ अं अजितायै नमः । ऊँ
मां माहेश्वर्य्यै नमः ।
ऊँ चं चण्डभैरवाय नमः ।
नैर्ऋत्य कोण—ऊँ अं अघोरायै नमः। ऊँ नां नारसिंह्यै नमः।
ऊँ सं संहारभैरवाय नमः
।
पश्चिम— ऊँ निं
नित्यायै नमः । ऊँ कौं कौमार्यै नमः।
ऊँ उं उन्मत्तभैरवाय नमः ।
वायुकोण— ऊँ विं
विलासिन्यै नमः । ऊँ ऐं ऐन्द्र् यै नमः।
ऊँ कं कपालभैरवाय नमः ।(किंचित ग्रन्थों में
ऐन्द्री के स्थान पर अपराजिता है।
वस्तुतः ये पर्याय है।)
उत्तर— ऊँ विं
विजयायै नमः । ऊँ वैं वैष्णव्यै नमः।
ऊँ रुं रुरुभैरवाय नमः ।
ईशानकोण — ऊँ अं अपराजितायै नमः ।
ऊँ चां चामुण्डायै नमः। ऊँ क्रों
क्रोधभैरवाय नमः।
७.चतुर्विंशतिदलों में (पूर्वादि क्रमसे)—
ऊँ
विं विष्णुमायायै नमः । ऊँ चें चेतनायै नमः।
ऊँ
बुं बुद्ध्यै नमः। ऊँ निं निद्रायै नमः ।
ऊँ क्षुं क्षुधायै नमः।
ऊँ
छां छायायै नमः । ऊँ शं शक्त्यै नमः। ऊँ तृं तृष्णायै नमः।
ऊँ
क्षां क्षान्त्यै नमः। ऊँ जां जात्यै नमः। ऊँ लं लज्जायै नमः।
ऊँ
शां शान्त्यै नमः । ऊँ श्रं श्रद्धायै नमः। ऊँ क्रां कान्त्यै नमः।
ऊँ
लं लक्ष्म्यै नमः। ऊँ धृं धृत्यै नमः। ऊँ वृं वृत्त्यै नमः।
ऊँ
स्मृं स्मृत्यै नमः। ऊँ दं दयायै नमः। ऊँ तुं तुष्ट्यै नमः।
ऊँ
पुं पुष्ट्यै नमः । ऊँ मां मात्रे नमः। ऊँ भ्रां भ्रान्त्यै नमः।
ऊँ
चिं चित्यै नमः।।
८.चतुर्विंशति दलों
के बाहर(पूर्वादि क्रमसे)— दिग्पाल—
लं इन्द्राय
नमः(पूर्व), रं अग्नये नमः (अग्निकोण), मं यमाय नमः(दक्षिण),क्षं निर्ऋतये
नमः(नैर्ऋत्यकोण),वं वरुणाय नमः(पश्चिम),यं वायवे नमः (वायुकोण), सं सोमाय नमः (उत्तर),
हं ईशानाय नमः (ईशानकोण), अं ब्रह्मणे नमः (ईंशान-पूर्व के मध्य), ह्रीं अनन्ताय नमः (पश्चिम-नैर्ऋत्य के मध्य)।
इसी भाँति उनके
आयुधों को भी उसी क्रम से स्थापित करें—
ऊँ वं वज्राय नमः,ऊँ शं शक्तये नमः । ऊँ
दं दण्डाय नमः। ऊँ खं खड्गाय नमः। ऊँ पां पाशाय नमः । ऊँ अं अंकुशाय नमः। ऊँ गं
गदायै नमः । ऊँ त्रिं त्रिशूलाय नमः । ऊँ पं पद्माय नमः। ऊँ चं चक्राय नमः।।
९.भूपुर के बाहर
चारों कोणों में— अग्नि - क्षं क्षेत्रपालाय नमः। नैर्ऋत्य- वं वंटुकाय नमः । वायु- यों
योगिनीभ्यो नमः । ईशान- गं गणपतये नमः।
उक्त
विधि से सप्तशतीयन्त्र का लेखन करके, उसमें भगवती एवं अन्यान्य देवी-देवताओं को
आयुध एवं वाहन सहित आवाहित करके विधिवत पूजन करना चाहिए ।
यहाँ ये
स्पष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि यन्त्र वस्तुतः देवी-देवताओं का विशिष्ट स्वरुप
ही है । तुलनात्मक रुप से इसे यूँ समझें—
यन्त्र— आवरण सहित देवता की उपासना
का आलम्बन ।
मन्त्र—
देवता का शब्दमय स्वरुप ।
तन्त्र—उपासना
का विधान ।
स्थापन-पूजन कार्य हेतु किसी अधिकृत
कर्मकाण्डीय पुस्तक (नित्यकर्म पूजाप्रकाश, नित्यकर्मपद्धति, दुर्गार्चनसृति,
दुर्गापूजापद्धति आदि) का सहयोग लिया जा सकता है।
स्थितिनुसार संक्षिप्त वा विस्तार सहित
कर्मकाण्ड सांगोपांग पूरा होना चाहिए । आलस्य और आज्ञानवश किसी मुख्य कर्म में
लापरवाही न वरतें । साधक का मुख्य लक्ष्य कुछ और ही होता है। वाह्य कर्मकाण्ड तो
बाहरी ढांचा भर है- इसे न भूलें। अस्तु ।
क्रमशः..
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