सप्तशतीरहस्य भाग 2


                    सप्तशतीरहस्य              
          श्री दुर्गासप्तशतीःएक अध्ययन
                                                        
                                 -१-
                         सप्तशती : परिचय

सप्तशतीःपरिचय शीर्षक से प्रथम दृष्ट्या ऐसा लग सकता है कि इतने सुपरिचित पुस्तक (विषय) का परिचय देने का क्या औचित्य है ! इसके बारे में तो सामान्य व्यक्ति भी कुछ न कुछ जानकारी रखता ही है, विद्वानों की कौन कहें ।
सप्तशतीनाम से सर्वसाधारण का ध्यान सबसे पहले श्रीदुर्गा सप्तशती नामक देवीचरित पर ही जाता है, तत्पश्चात् एक और बहुचर्चित सप्तशती का ध्यान आता है – श्रीमद्भगवद्गीता का। चूँकि इन दोनों ग्रन्थों में सात सौ श्लोकों व सात सौ मन्त्रों का प्रयोग हुआ है, इस कारण सप्तशती नाम की सार्थकता सिद्ध होती है। 
प्रस्तुत प्रसंग में श्रीकृष्णसप्तशती वाली गीता की बात न करके, श्रीदुर्गासप्तशती ही अभीष्ट है। श्रीदुर्गासप्तशती एक अनमोल ग्रन्थ है, जिसके अल्पांश पक्ष से ही आम जन परिचित हैं। अतः विशेष परिचय (चर्चा)  अपरिहार्य प्रतीत हो रहा है।   
उक्त स्तोत्र में आद्योपान्त शक्तिमहिमा का ही वर्णन है, ऐसे में सामान्य जन इसे शाक्त सम्प्रदाय का अति विशिष्ट ग्रन्थ यदि मानते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं । लोकप्रियता की दृष्टि से तो श्रीमद्देवीभागवत महापुराण भी इसकी तुलना में, कहीं पीछे छूट जाता है। यजन-याजन-वृत्ति-बहुल ब्राह्मणवर्ग तो इसे अपना सर्वोत्तम अर्थोपार्जन का साधन मान बैठे हैं। अन्यान्य वर्गों में भी इसकी पर्याप्त लोकप्रियता देखी जाती है। विशेषकर शारदीय व वासन्तिक नवरात्रों में घर-घर में कलशस्थापन करके श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ करने-कराने का काफी चलन है सनातन धर्मावलम्बियों के यहाँ। दुर्गापूजा(दशहरा) के अवसर पर सामाजिक व्यवस्था से जगह-जगह पंडालों में देवी-प्रतिमा स्थापित होती है और अधिकांश जगहों में श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ संक्षिप्त वा सांगोपांग सम्पन्न किया/कराया जाता है। कट्टर वैष्णव सम्प्रदाय भी इसके आकर्षण से अछूता नहीं रह सका । 
    एक ओर वर्तमान समय में ब्राह्मणों की जीविका का बहुत बड़ा आधार है— श्री दुर्गासप्तशती, तो दूसरी ओर लोकआस्था का प्रबल सम्बल भी; किन्तु विडम्बना है कि ऐसा अद्भुत और अनमोल रत्न सिर्फ तुच्छ सांसारिक कामनाओं की पूर्ति का ग्रन्थमात्र बनकर रह गया है। लोगों की उत्सुकता, आकांक्षा और प्रयास केवल इतना ही है कि श्रीदुर्गापाठ से घर में शान्ति और समृद्धि आ जाए; थोड़ा और हुआ तो रोग-शत्रु-शमन-दमन का प्रयास-प्रयोग कर लिया गया; या फिर भूत-प्रेत वाधाओं से त्राण पाने के लिए देवी की आराधना की जाती है। इस प्रकार देवीमाहात्म्य का संकेत मति धर्में तथा शुभाम्— धन- पुत्रादि सहित धर्म विषयक शुभमति की भी प्राप्ति होती है— गौण हो गया।
   शक्तिभाव से – मातृभाव से जगदम्बा की उपासना सप्तशती का मुख्य उद्देश्य है और देवीसूक्त को इसकी भूमिका कह सकते हैं। ये बात अलग है कि देवीसूक्त तो पाठक्रम में पाँचवें अध्याय (तृतीय चरित्र) में आता है।    
शंकराचार्यजी ने प्रसिद्ध ग्रन्थ आनन्दलहरी में कहा है—
शिवःशक्त्यायुक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुम ।       
न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि ।। अर्थात् शक्ति से युक्त होने पर ही शिव प्रभावशाली हैं। शक्ति की रंजना न होने पर उनमें कोई संचार व गति सम्भव नहीं। शि से शक्ति रुपी इकार की मात्रा को यदि हटा दें तो शेष जो रहेगा वह शव (प्राणहीन) होगा ।
   शक्ति की आराधना की प्राथमिकता को दूसरे शब्दों में यों समझें कि सच्चिदानन्द पुरुष सत्तावान् पुरुष का लक्षण है । सत्, चैतन्य और आनन्द के साथ ब्रह्म के जो तीनों रुप हैं, बाद में नाम और रुप (जगत् रुप) भासित होता है। वस्तुतः ये पाँचो एकसाथ ही भासित होते हैं। किन्तु प्राणिमात्र को सिर्फ नाम और रुप का ही अनुभव प्रथमतः होता है। ये नामरुप ही आवरण शक्ति है, जिसने सच्चिदानन्द को आवर्णित (आच्छादित) कर रखा है। इस आवरण को ही प्रथमतः पार (लब्ध)  करना है, इस प्रकार शक्ति की आराधना की प्राथमिकता सिद्ध होती है।  
अब इसे तीसरे रुप में समझने का प्रयास करें — नवजात शिशु सर्वप्रथम पिता की अपेक्षा माता का ही बोध प्राप्त करता है (जानता-समझता) है। इसी भाँति मातृ रुप से परमात्मा की उपासना युक्तिसंगत और सहज प्रतीत होता है। गौरी-शंकर, सीता-राम, राधा-कृष्ण आदि नामोच्चारण का प्रचलन इसी प्राथमिकता का संकेत है।
  श्रीदुर्गासप्तशती मूलतः अष्टादश पुराणान्तर्गत श्री मार्कण्डेय महापुराण का अंश है । उक्त पुराण के ७७वें अध्याय में सावर्णिक मन्वन्तर कथाप्रसंग प्रारम्भ है। तदग्रे ७८वें अध्याय से ९०वें अध्याय पर्यन्त क्रमशः मधुकैटभबध, महिषासुरसैन्यबध, महिषासुरबध, शक्रादिस्तुति, देवीदूतसंवाद, धूम्रलोचनबध, चण्डमुण्डबध, रक्तबीजबध, निशुम्भबध, शुम्भबध, नारायणीस्तुति, देव्याराधन फलश्रुति एवं सुरथादि अभिलषित वरदान का प्रसंग है। 
  यहाँ एक और बात ध्यान देने योग्य है कि मार्कण्डेयपुराण में श्रीदुर्गासप्तशती नाम न होकर देवीमाहात्म्य कहा गया है। सबसे रोचक बात ये है कि जो आज श्रीदुर्गासप्तशती नाम से प्रचलित-व्यवहृत है उसमें वस्तुतः सात सौ श्लोक नहीं हैं, प्रत्युत उवाच’ ‘अर्धश्लोक एवं  त्रिपान्मन्त्र को भी समाहित करके सात सौ मन्त्र संख्या पूरी की गयी है। त्रिपान्मन्त्रों का प्रयोग पंचम अध्याय में किया गया है।
     सप्तपादानों की दुर्गम यात्रा के लिए सप्तशती का पाथेय तो चाहिए ही न और वो पूर्ण हुआ है बड़े रहस्यमय ढंग से।
 इसमें कुल ५६ उवाच, ६६ त्रिपान्मन्त्र एवं ४२ अर्द्धश्लोकों का उपयोग किया गया है ।
हालाँकि, किंचित प्राचीन प्रतियों में साढ़े बारह अतिरिक्त श्लोक और दो अतिरिक्त उवाच भी मिलते हैं। कुछ ऐसी प्राचीन प्रतियाँ भी हैं, जिनमें श्लोकों(मन्त्रों)की संख्या काफी अधिक है।
पाठकर्ताओं के लिए गीताप्रेस, गोरखपुर की प्रतियाँ ही सुग्राह्य हैं। किन्तु दुःखद बात है कि इन्होंने बिन सिले (व्यासपन्ना) पुस्तक से पाठ करने की महत्ता को बिलकुल नजरअन्दाज किया है।
ध्यातवय है कि पुस्तक अनसिला हो और छपाई शुद्धातिशुद्ध हो—इसका सदा ध्यान रखा जाना चाहिए। वर्णो या मात्राओं की किंचित त्रुटि भी क्षम्य नहीं है। अर्थ का अनर्थ हो जाना निश्चित है। भार्यारक्षतुभैरवी और भार्याभक्षतुभैरवी का अनर्थ खूब मिलता है व्यावहारिक जगत में। हनुमानजी और रावण का प्रसंग भी द्रष्टव्य है, जो कि पाठकर्ता विप्रों से हनुमान जी ने एक वर्ण का वरदान मांग लिया था, जिसके परिणामस्वरुप रावण का संहार सहज हो पाया।

   ध्यातव्य है कि मार्कण्डेयपुराण के उक्त प्रसंग के अन्तर्गत षडंगों का समावेश नहीं है। अपने आप में ये भी एक रहस्य ही है। वस्तुतः विशुद्ध तान्त्रिक रीति से सप्तशती की जो साधना की जाती है, उसमें विनियोग और ध्यान के पश्चात् सीधे देवीमाहात्म्य के सातसौ मन्त्रों का ही पाठ किया जाता है सिर्फ। तान्त्रिक विधि में मन्त्र भी उक्त  प्रकार से श्लोकवद्ध नहीं हैं, प्रत्युत मन्त्रों(श्लोकों) का मूलबीज ही व्यवहृत हुआ है। बीजों के विषय में इसी अध्याय में आगे विस्तृत चर्चा यथास्थान की गयी है।
  अनुभवी साधकों और विद्वानों द्वारा उक्त पुराण के देवीमाहात्म्य के श्लोकों को वाह्यअंग सहित सजा कर पाठ करने की व्यवस्था की गयी और वही विधि सामान्य प्रचलन में ग्राह्य हुयी । सांग (अंग सहित) पाठ की परिपाटी चल पड़ी और बीजात्मक स्वरुप कालान्तर में लुप्त-गुप्त होता चला गया । किन्तु आज भी देवी के किंचित विशिष्ट साधक उस मूल विधि को जानते हैं।
  अब से कोई सतहत्तर वर्ष पूर्व विन्ध्याचल के एक साधक की कृपा से पं. शिवदत्त शास्त्री जी ने मूलबीजों की जानकारी करके संग्रहित किया था। विदित हो कि शास्त्रीजी विविध पुस्तकों के रचयिता और अपने समय में सुख्यात रहे हैं। वेदान्ताचार्य श्री रामचन्द्रपुरी जी ने भी इन बीजों का सम्यक् अनुसन्धान किया है । इन दोनों महानुभावों ने बीजात्मक सप्तशती  तन्त्रात्मक सप्तशतीका संग्रह करके प्रकाशित भी कराया है। किन्तु ये सब सामान्य लोकचलन और व्यवहार में बिलकुल नहीं हैं। किंचित प्राचीन पुस्तकालयों में सम्भवतः पुस्तकें उपलब्ध हो जाएं । किन्तु साधकों में गुप्त रुप से प्रचलित-व्यवहृत अवश्य है। मैंने अपनी पुस्तक- बाबाउपद्रवीनाथ में ऐसे गुप्त साधकों के विविध प्रसंगों को विस्तार से प्रकाशित किया है।
   पुनः यहाँ स्पष्ट करना प्रासंगिक है कि मूलपाठ के प्रारम्भ में किया जाने वाला रात्रिसूक्त का पाठ सप्तशती के प्रथम अध्याय यानी मार्कण्डेयपुराण के ७९वें अध्याय से ग्रहण कर प्रयोगदृष्ट्या अलग कर लिया गया है। उसके बाद व्यवहृत पाठक्रम—कवच, अर्गला, कीलकादि अन्यान्य तन्त्र ग्रन्थों से लिए गए हैं। इसी भाँति तेरह अध्यायों के मूलपाठोपरान्त, किया जाने वाला देवीसूक्त सप्तशती के पाँचवें अध्याय से पुनः ग्रहण कर लिया गया है, तदन्ते प्राधानिक रहस्य, वैकृतिक रहस्य एवं मूर्तिरहस्य भी अन्यान्य तान्त्रिक ग्रन्थों से लिए गए हैं। ये पूर्व-पर के तीन-तीन मिलकर ही षडंग कहलाते हैं। ध्यातव्य है कि रात्रिसूक्त, देवीसूक्त मिलकर अष्टांग बनते हैं।
  इन छः और दो (कुल आठ) अंगों के अतिरिक्त, साधकों के विशेष कल्याण हेतु शापोद्धार और उत्कीलन का प्रयोग भी सुझाया गया है। सप्तशतीसर्वस्वम्, दुर्गार्चनसृति, दुर्गोपासनपद्धति, दुर्गाकल्पद्रुम, सर्वाङ्गदुर्गापूजापद्धति आदि ग्रन्थों में शापोद्धार की अनिवार्यता सिद्ध है। शापोद्धार और उत्कीलन के पश्चात् ही षडंग श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ होना चाहिए।
  प्रसंगवश पहले यहाँ इन दोनों शब्दों पर ही थोड़ी बात कर लें, ताकि जिज्ञासुओं को किसी प्रकार का संशय न हो। पहला शब्द है—शापोद्धार—अर्थ स्पष्ट है कि शाप से उद्धार करना है। ये शाप किसका? पौराणिक प्रसंगों से ज्ञात होता है कि अनेक मन्त्रों और स्तोत्रों को समयानुसार किसी न किसी घटना विशेष के कारण शापित किया गया है। वहीं, दूसरी ओर युगबोध का विचार करते हुए प्रायः मन्त्रों को कीलित भी कर दिया गया है। कीलित करना यानी विशेष सुरक्षा-व्यवस्था में रख देना, ताकि उसका दुरुपयोग न हो। उत्कीलन उसी कीलन का उपचार है।
  यहाँ एक और बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि आगे षडंगों में कवच-अर्गला-कीलक क्रम में जो कीलक स्तोत्र है, वह इससे बिलकुल भिन्न है। वह भी विशेष सुरक्षा का ही प्रतीक है, किन्तु उसका प्रयोग साधक आत्मरक्षार्थ करता है—वहाँ कीलन करना है, जबकि यहाँ जो उत्कीलन शब्द है, वो किसी और के द्वारा किए गए कीलन का भेदन (खोलना) है। इसीलिए उत्कीलन शब्द का प्रयोग किया गया है। चण्डीपाठ को शिव द्वारा कीलित किया गया है, जिसका उत्कीलन करना होता है, खोलना होता है। वस्तुतः ये स्तोत्र का कील खोलना है और पाठक्रम में आने वाला कीलक स्वयं को सुरक्षित करने के उद्देश्य से कीलित करने की क्रिया विशेष है।

   जहाँ तक इसकी विधि की बात है—अलग-अलग तन्त्रग्रन्थों में अलग-अलग विधियाँ कही गयी हैं, तो दूसरी ओर सर्वसुलभ किंचित मन्त्र भी सुझाये गए हैं इनके लिए। यथा—
ऊँ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा ।  इस मन्त्र का आदि-अन्त में सात-सात बार जप करना चाहिए । यही सरलतम शापोद्धार है।  
तदन्तर उत्कीलन हेतु आदि-अन्त में इक्कीस-इक्कीस बार इस मन्त्र का जप करे— ऊँ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशतिचण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा ।

  विदित हो कि ब्रह्मा, वशिष्ठ एवं विश्वामित्र के त्रिविध शाप से ग्रसित है चण्डीपाठ । अतः इनका शापविमोचन अनिवार्य है। चण्डीशाप विमोचन के लिए एक अन्य मन्त्र और तद्विनियोग रुद्रयामलतन्त्रम् के दुर्गाकल्प में निर्दिष्ट है ।  यथा—
विनियोग— ऊँ अस्य श्री चण्डीकायाः ब्रह्मवशिष्ठविश्वामित्र शाप विमोचन मंत्रस्य वशिष्ठ नारद संवाद सामवेदाधिपति ब्रह्मा ऋषयः सर्व्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गादेवताचित्तत्रयं बीजं ह्रीं शक्तिः त्रिगुणात्म स्वरुपिणी चण्डिकाशापविमुक्तौ मम संकल्पित कार्यं सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।।
विमोचन मन्त्र— ऊँ ह्रीं रीं रेतः स्वरुपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै ब्रह्मवशिष्ठविश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।।।। ऊँ श्रीं बुद्धि स्वरुपिण्यै महिषासुर सैन्यनाशिन्यै ब्रह्मवशिष्ठविश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।।।। ऊँ रँ रक्तस्वरुपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै ब्रह्मवशिष्ठ विश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।।।। ऊँ क्षुं क्षुधास्वरुपिण्यै देव वन्दिताय ब्रह्मवशिष्ठ विश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।।।। ऊँ छां छायास्वरुपिण्यै दूत संवादिन्यै  ब्रह्मवशिष्ठ विश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।।।। ऊँ शं शक्ति स्वरुपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै ब्रह्मवशिष्ठ विश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।।।। ऊँ तृं तृषास्वरुपिण्यै चण्डमुण्डबधकारिण्यै ब्रह्मवशिष्ठ विश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।।।। ऊँ क्षां क्षान्ति स्वरुपिण्यै रक्तबीजबधकारिण्यै ब्रह्मवशिष्ठ विश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।। ।। ऊँ जां जातिस्वरुपिण्यै निशुम्भबधकारिण्यै ब्रह्मवशिष्ठ विश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव।।।। ऊँ लं लज्जास्वरुपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवशिष्ठ विश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।।१०।। ऊँ शां शान्तिस्वरुपिण्यै देवस्तुतन्यै ब्रह्मवशिष्ठ विश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।।११।। ऊँ श्रं श्रद्धास्वरुपिण्यै सकल फलदात्र्यै ब्रह्मवशिष्ठविश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।।१२।। ऊँ कां कान्ति स्वरुपिण्यै राजवरप्रदानायै ब्रह्मवशिष्ठ विश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।।१३।। ऊँ मां मातृ स्वरुपिण्यै अनर्गमहिम्नसहितायै ब्रह्मवशिष्ठ विश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।।१४।। ऊँ ह्रीं श्रीं ह्रूं दुं दुर्गायै सं सर्वेश्वर्यकारिण्यै ब्रह्मवशिष्ठ विश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।।१५।। ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिवायै अभेद्य कवच स्वरुपिण्यै ब्रह्मवशिष्ठ विश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।।१६।। ऊँ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फट्स्वाहायै ऋग्वेदस्वरुपिण्यै ब्रह्मवशिष्ठ विश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ।। १७।। ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वती स्वरुपिणी त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नमः ।।१८।। इत्येवं हि महामन्त्रान्पठित्वा परमेश्वर । चण्डीपाठं दिवारात्रौ कुर्य्या देव न संशयः ।।१९।। एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति यः । आत्मानं चैव दातारं क्षयं कुर्य्यान्न संशयः ।।२०।।
(नोट—उक्त विमोचन में मूल क्रिया अठारहवें श्लोक पर्यन्त ही है, आगे के दो श्लोक पुष्पिकास्वरुप हैं। किन्तु साधक को इनका उच्चाचरण भी करना चाहिए। )
मारीचकल्पानुसार सप्तशती-शापविमोचनार्थ एक अन्य मन्त्र का निर्देश है, जिसका मन्त्रोद्धार इस प्रकार निर्दिष्ट है
प्रणवं पूर्व मुद्धृत्य रमाबीजं ततः परम् ।
रमा कामं ततः क्रोधं तारं वाग्भव संयुतम् ।
क्षोभं मोहं ततः पश्चात्कीलयेति त्रिधा द्विठम् ।। और इससे  मन्त्र बना  ऊँ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ऊँ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं । इस मन्त्र का जप पाठ के प्रारम्भ में ही एक सौ आठ बार कर लेने से काम चल जाता है, यानी पाठान्त में नहीं करना है। ध्यान देने की बात है कि मन्त्र में प्रयुक्त शब्दयोजना उत्कीलन का संकेतक है, किन्तु शापविमोचन का लाभ भी इसी से मिल रहा है, भले ही निर्दिष्ट संख्या अष्टोत्तरशत है।
 वाराहीतन्त्रम् एवं चिदम्बरम् संहिता में दुर्गा को महाशक्ति – पराशक्ति के रुप में साधने का निर्देश है। कात्यायनीतन्त्रम् में शापोद्धार एवं उत्कीलन हेतु किंचित भिन्न विधि का भी संकेत मिलता है। यथा—          अन्त्याद्यार्कद्विरुद्रत्रिदिगब्ध्यङ्केष्विभर्तवः ।
    अश्वोश्व इति सर्गाणां शापोद्धारे मनो क्रमः।।
    उत्कीलने चरित्राणां मध्याद्यन्तमिति क्रमः।।
अर्थात सर्वप्रथम तेरहवें अध्याय का पाठ करे, फिर पहले अध्याय का। पुनः बारहवें, दूसरे, ग्यारहवें, तीसरे, दसवें, चौथे, नौवें, पाँचवें, आठवें, छठे और अन्त में सातवें अध्याय का दो बार पाठ करें—यही शापोद्धार सहित पाठ वा शापोद्धारक्रम से पाठ हुआ। तथा उत्कीलन क्रम में पहले मध्यमचरित्र, फिर प्रथमचरित्र और अन्त में उत्तमचरित्र का पाठ करना कहा गया है।
विचारणीय तथ्य ये है कि लक्ष्य पर पहुँचने के लिए कई मार्ग हुआ करते हैं, किन्तु लक्ष्य तो एक ही होता है। मार्ग सीधे और थोड़े टेढ़े हो सकते हैं। सभी रास्ते सबके लिए होते भी नहीं। अतः गुरु निर्देशन में जो मार्गदर्शन हो, उसीका अनुसरण करें। मार्ग-वैविध्य के तर्क-वितर्क में पड़कर अपना समय और श्रम व्यर्थ न करें।
किंचित और विस्तार में जाएँ तो शापोद्धार और उत्कीलन के पश्चात् मृतसंजीवनी विद्या का जप भी करना चाहिए। यहाँ विद्या शब्द से भ्रमित न हों । मन्त्र, ज्ञान, क्रिया आदि कई अर्थों में विद्या शब्द का प्रयोग होता है । मृतसंजीवनी जप भी सात-सात बार आदि और अन्त में करने का शास्त्र निर्देश है। मन्त्र है— ऊँ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनिविद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा ।

अब षडंगों पर ध्यान देंविभिन्न ग्रन्थों में इनमें काफी क्रम-भेद मिलते हैं। वाराहीतन्त्रम् में स्पष्ट निर्देश है—
   देहसंरक्षणार्थाय कवचमादौततोर्गलाम् ।
 ततः कीलकम्पठेत् पश्चात् सप्तस्त्यास्तवं जपेत् ।।
  रात्रिसूक्तं जपेदादौ मध्ये सप्तशतीस्तवम् ।
  अन्ये तु जपनीयं वै देवीसूक्तमितिक्रमः ।।
  एवं सम्पुटितं स्तोत्रं सर्वकामार्थसिद्धिदम् ।
  पञ्चावृतौ स्वर्णमेकं त्रिरावृत्तौ तदर्धकम् ।।
  एकावृत्तौ पादमेकं दद्याद्वाशक्तितोबुधः ।।

चिदम्बरम् संहिता में पहले अर्गला, तत्पश्चात् कीलक और अन्त में कवच पाठ का निर्देश है। यथा—
अर्गलं कीलकं चादौ पठित्वा कवचं पठेत् ।
जप्या सप्तशती पश्चात् सिद्धिकामेन मन्त्रिणा ।।
इसी श्लोक का किंचित भिन्न पाठ भी मिलता है
अर्गलं कीलकं चादौ जपित्वा कवचं पठेत् ।
जपेत्सप्तशती पश्चात् क्रम एष शिवोदितः ।।
तो अन्य मत से कवच को प्राथमिकता दी गयी है, ये कहते हुए कि जिस प्रकार सभी मन्त्रों के अनुष्ठान में प्रथमतः बीज, शक्ति एवं कीलक का प्रयोग विधान है, उसी भाँति कवचादि का प्रयोग-क्रम होना चाहिए । यथा—कवच-अर्गला-कीलक—
कवचं बीजमादिष्टमर्गला शक्तिरुच्यते ।
कीलकं कीलकं प्राहुः सप्तशत्या महामनोः।।(योगरत्नावली)
 (यथा सर्वमन्त्रेषु बीजशक्तिकीलकानां प्रथममुच्चारणं तथा सप्तशतीपाठेपि कवचार्गलाकीलकानां प्रथमं पाठःकर्त्तव्यस्ततो रात्रिसूक्तादिपाठः)  
ये दोनों ही मत अपनी जगह पर तर्कसंगत हैं। कवच धारण करके कमरे में प्रवेश कर अर्गला (किवाड़ की किल्ली) लगाएँ और तब उस किल्ली को भी सुदृढ़ सुरक्षा प्रदान करने हेतु कीलन (कील) लगाएँ, ताकि बाहर से आसानी से कोई खोल न सके।  या पहली रीति के अनुसार- पहले कमरे में प्रवेश करके किवाड़ बन्द करें—अर्गला (किल्ली) लगा लें, उसमें कील भी लगा दें और तब कवच ( कायिक सुरक्षा प्रबन्ध) धारण करें।
महर्षि मार्कण्डेयजी के प्रश्नोत्तर स्वरुप ब्रह्माजी ने कहा है कि अर्गला और कीलक के पश्चात् कवच का पाठ, तदन्तर सप्तशतीपाठ
करना चाहिए।
    यहाँ हम पाते हैं कि व्यावहारिक प्रचलन से किंचित भिन्न क्रम सुझाया जा रहा है, जबकि व्यावहारिक (प्रचलित) रुप में कवच, अर्गला, कीलक का क्रम है। दुर्गोपासनाकल्पद्रुम के वचन हैं—       
कीलकं शंकरप्रोक्तं कवचं ब्रह्मणा कृतम् ।
अर्गलं विष्णुना प्रोक्तमेतत् त्रितयमुत्तमम् ।।  
अर्गलापाठ से पापनाशन होता है, कीलक से सिद्धिलाभ होता है एवं कवच तो कवच है ही। सदा इससे रक्षा होती है तथा आत्मोन्नत्ति का मार्ग प्रशस्त होता है । नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे — हे चण्डिके ! भक्तिपूर्वक तुम्हें प्रणाम करने से पापों का नाश होता है। जयत्वं देविचामुण्डे – यहाँ जय शब्द के उद्घोष से विक्षिप्त चित्त को अन्तर्मुख किया जाता है। चित्त का विक्षेप ही वस्तुतः पाप सूचक है और उसकी अन्तर्मुख प्रक्रिया ही पाप की विनाशलीला है।
उपासना (साधना) क्रम में विविध विघ्नों के नाशपूर्वक सम्यक् सिद्धि हेतु  कीलककर्ता शिव को नमन करते हुए महर्षि मार्कण्डेय कहते हैं—
विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदी दिव्यचक्षुषे ।
    श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्द्धधारिणे ।। (अर्थात् जो विशुद्ध निर्मल ज्ञान स्वरुप हैं, तीनों वेद जिसके चक्षु हैं, सिर पर अर्द्धचन्द्र धारण किये हुए हैं जो, ऐसे शिव की कल्याणकामना से प्रणाम करता हूँ, जो भुक्ति-मुक्ति प्रदान करने वाले हैं।)
ध्यातव्य है कि औपनिषदिक-आध्यात्मिक दृष्टि से श्रेय विद्या है और प्रेय अविद्या है। श्रेय है चित्त की शान्ति, जिससे आत्मज्ञान होता
है और प्रेय है सांसारिक सुख-भोग।
विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदी दिव्यचक्षुषे— कीलक के इस प्रथम मन्त्र का आध्यात्मिक रहस्य ये है कि गुरु श्रोत्रीय ब्रह्मनिष्ठ हों। नमः सोमार्द्धधारिणे इंगित करता है कि अर्द्धक्षीण मनवाले ही मन्त्र ग्रहण करने के अधिकारी हैं। अतः शिव-कीलित सप्तशती का निष्कीलन करके ही पाठ करना चाहिए, ताकि अभीष्ट सिद्धि हो सके ।

सच पूछें तो श्रीदुर्गासप्तशती अपने आप में अद्भुत-रहस्यमय साधना-सूत्र है। महर्षि मार्कण्डेय ने अल्पायुभोगी, कलिमल-ग्रसित मनुष्यों पर महती कृपा करके इस अनमोल साधना का प्रणयन किया है । पुरुषार्थ चतुष्टय— धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि-साधन-रहस्य विशद रुप से निर्दिष्ट है इस ग्रन्थ में। किन्तु, मध्य युगल—अर्थ-काम तक ही सिमटा रह गया और आद्यन्त युगल—धर्म-मोक्ष अनजाने में ही छिटक गया हमारे हाथों से।
सम्भवतः इस  बात से बहुत कम लोग ही अवगत होंगे कि योग साधना (चक्र साधना) का अद्भुत सूत्र है— श्रीदुर्गासप्तशती के अन्तर्गत ।
प्रसंगवश स्पष्ट कर दूँ कि त्रिगुणात्मिका सृष्टि में त्रिग्रन्थि बद्ध है मानव—ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि एवं रुद्रग्रन्थि । इन तीनों ग्रन्थियों को खोले वगैर मुक्ति सम्भव नहीं है, कदापि । अब इसे जिस भाँति खोलें, जिस विधि से खोंलें, खोलना तो पड़ेगा ही अन्यथा पशुत्व से बाहर होकर स्वरुपावस्था असम्भव है और इस परम पुनीत कार्य में श्रीदुर्गा- सप्तशती पूर्ण सहयोगी है ।
विदित हो कि आठ प्रकार के पाशों से हम प्राणीमात्र आबद्ध हैं। यही पशुत्व है —
घृणा शंका भयं लज्जा जुगुप्सा चेति पंचमी ।
कुलं शीलं तथा जातिरष्टौ पाशाः प्रकीर्तिताः।। (कुलार्णवतन्त्रम् १३-९॰) (घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील और जाति—ये ही अष्टपाश हैं)। इन अष्टपाशों में विवशतापूर्वक बंधे होने के कारण ही हम (मानव भी) पशु कहलाते हैं। इसी प्रसंग में आगे स्पष्ट किया गया हैपाशबद्धः पशुर्ज्ञेयः पाशमुक्तो महेश्वरः। (कुलार्णवतन्त्रम्-१३-९१)  
 यहाँ घृणा और जुगुप्सा शब्द समानार्थी तुल्य होकर थोड़े भ्रामक हो गए हैं। जबकि घृणा शब्द करुणा-पर्याय है, जैसा कि अमरकोष में कहा गया है—कारुण्यं करुणा घृणा । यद्यपि अमरकोषकार ने नानार्थ वर्ग में घृणा शब्द का करुणा और जुगुप्सा दोनों अर्थों में प्रयोग का अनुमोदन किया है। ध्यातव्य है कि उक्त अष्टपाश प्रसंग में घृणा शब्द का प्रयोग दया वा करुणा के अर्थ में ही लिया जाना चाहिए। उक्त अष्टपाशों से प्रयत्नपूर्वक मुक्ति पाने का प्रयास करना है। अतिरिक्त ज्ञान-क्षमता ही मनुष्य को पशुता से अलग करता है। आहार,निद्रादि शेष तो पशुओं में भी यथावत है ही।  यथा—
आहारनिद्राभयमैथुनश्च      सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् । 
 ज्ञानं नराणामधिको विशेष ज्ञानेन हीना पशुभिः समानाः ।।
अतः साधना पथ पर अग्रसर होकर ज्ञानलब्ध करना ही मनुष्य
का परम कर्तव्य है। मानव-पशु भेद करते हुए उक्त भावों का किंचित भिन्न प्रयोग भी मिलता है। श्लोक का पूर्वार्द्ध तो यथावत हैं । उत्तरार्द्ध में यहाँ ज्ञान के स्थान पर धर्म को रखा गया है। यथा—
 आहारनिद्राभयमैथुनश्च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् ।
      धर्मो हि तेषामधिकोविशेषः धर्मेणहीनाःपशुभिः समानाः।।
 पशुपतिनाथ (शिव) की शक्ति शिवा का आराधन इसमें (ज्ञान/धर्म) पर्याप्त सहयोगी है।

अब यहाँ सप्तशती के सम्बन्ध में एक विशिष्ट बात की ओर भी ध्यान दिलाना चाहता हूँ – क्या कभी किसी पाठकर्ता ने इस बात का विचार किया है, क्या किसी के मन में ये संशय उपजा है कि सप्तशती में देवी के चरित्र को तीन भागों में ही क्यों विभाजित किया गया—प्रथम चरित्र, मध्य चरित्र एवं उत्तम चरित्र ? चरितार्द्ध पर विश्राम करने की मनाही है, चरित्र खण्डित कर पाठ करने का निषेध किया गया। ये भी कहा गया है कि यदि सम्पूर्ण सप्तशती का पाठ सम्भव न हो सके तो सिर्फ मध्यम चरित्र का पाठ किया जाए। ये वातें अति महत्वपूर्ण हैं और रहस्यपूर्ण भी।
 प्रथम चरित्र मात्र प्रथम अध्याय में ही पूरा हो जाता है। इसके अन्तर्गत योगनिद्रा से विष्णु को मुक्त होने की प्रार्थनोपरान्त ब्रह्मा के आसन्न संकट का नाश हो जाता है - उनके ग्रास हेतु तत्पर मधु-कैटभ नामधारी दो भयंकर असुरों का , जो विष्णु कर्णमलोद्भूत थे,  विष्णु के द्वारा वध कर दिया जाता है। अद्भुत रुपक है यहाँ। द्वितीय (मध्यम) चरित्र—द्वितीय से चतुर्थ अध्याय पर्यन्त महिषासुर वध तथा इन्द्रादि देवताओं द्वारा शक्ति की स्तुति का प्रसंग है। तृतीय (उत्तम) चरित्र पाँचवें से तेरहवें अध्याय पर्यन्त, सच में उत्तम चरित्र है। देवीसूक्त इसी का अंग है, जिसकी तुलना श्रीमद्भगवद्गीता के विभूतियोग से की जा सकती है, जहाँ श्रीकृष्ण ने सृष्टि में अपनी सर्वव्याकता का निरुपण किया है। विविध शत्रुओं (असुरों) का वध इसी चरित्र के अन्तर्गत हुआ है साथ ही अभिलषित वरप्राप्ति भी इसी चरित्र का अंग है।
इस प्रकार जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि  देवी के मात्र तीन चरित्र ही क्यों? हालाँकि सत्व, रज, तम तीन गुणोंवाली त्रिगुणात्मिका सृष्टि के अनुसार महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रुप में त्रिगुणात्मिका शक्तिस्वरुपा मान कर निःशंक हुआ जा सकता है। सामान्य पाठक तो इतने से ही सन्तुष्ट हो जा सकते हैं। सही मान लिया जा सकता है—इतनी कथा को, किन्तु साधकों को इस पर गहन (सूक्ष्म) चिन्तन अवश्य करना चाहिए।
जीव क्या है- इस पर जरा विचार करें। जैसा कि कहा गया है— चैतन्यं यदधिष्ठानं लिंगदेहश्च यः पुनः । चिच्छाया लिंगदेहस्थं तत्संघो जीव उच्यते ।। (अधिष्ठान चैतन्य - आत्मा, लिंगशरीर (पंचकर्मेन्द्रिय, पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचप्राण एवं चतुः अन्तःकरण— चित्त, बुद्धि, मन एवं अहंकार) एवं चित्तचैतन्य का आभास (चिदाभास) ये सब मिलकर जीव संज्ञेय है। जीव के स्थूल, सूक्ष्म एवं आत्मा तथा चिदाभास से परस्पर तादात्म्य है। सत्, रज, तम इनके तारतम्य से तथा इनके तादात्म्य से कर्मज, सहज और भ्रामज — ये तीन प्रकार की ग्रन्थियाँ बनती हैं जीव में। ये ही कर्मबीज है, जो जीव के बन्धन और मोक्ष के कारण बनते हैं। इन्हें ही हम दूसरे शब्दों में क्रियमाण, संचित एवं प्रारब्ध कर्म की संज्ञा देते हैं। ध्यातव्य है कि प्राणियों में कर्मबीज-संस्कारों का आधार अन्तःकरण (चित्त, बुद्धि, मन और अहंकार) है, जिसके तीन दोष— मल, विक्षेप और आवरण हैं, जो क्रमशः जन्म-जन्मान्तर की वासना, चित्त की चंचलता तथा स्वस्थ अज्ञान (मलिन अज्ञान से किंचित भिन्न) कहलाते हैं।
तन्त्र की भाषा में ये ही त्रिग्रन्थियाँ हैं। यथा—ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि एवं रुद्रग्रन्थि । श्रीदुर्गासप्तशती में इन त्रिविध ग्रन्थियों के तारतम्य से ही तीन चरित्र— प्रथममध्यमोत्तमचरित्र संकलित हैं। प्रथम चरित्र में मधुकैटभबध का प्रसंग है। यही हमारी ब्रह्मग्रन्थि है। द्वितीयचरित्र में महिषासुरबध का प्रसंग है। यही विष्णुग्रन्थि है। तृतीयचरित्र वर्णित शुम्भादिबध ही रुद्रग्नन्थि है। उक्त सम्पूर्ण आख्यान में उक्त तीनों ग्रन्थियों के भेदन की प्रक्रिया सम्पन्न होती है। सप्तशती का यही आध्यात्मिक रहस्य है।
   इसे जरा और स्पष्ट करने हेतु क्रमशः तीनों चरित्रों के विनियोग में प्रयुक्त ऋषियों का ध्यान दें— प्रथम चरित्र के ब्रह्माऋषि हैं, द्वितीय चरित्र के विष्णुऋषि हैं, एवं तृतीय चरित्र के रुद्रऋषि हैं। तथा क्रमशः महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती देवता हैं। तीनों चरित्रों का वेद भी तदनुसार ही भिन्न-भिन्न है क्रमशः—ऋक्, यजु एवं सामवेद ।
अब इसे जरा योगशास्त्र की दृष्टि से भी विचार कर लें—षट्चक्रों में मूलाधार ही ब्रह्मग्रन्थि है, चूँकि यहीं ब्रह्मा का अधिष्ठान है। हृदय स्थित अनाहतचक्र ही विष्णुग्रन्थि है एवं भृकुटिमध्य रुद्र अधिष्ठान में रुद्रग्नन्थि है। ध्यातव्य है षट्चक्रभेदन गुरुप्रदत्त शक्तिपात से सर्वाधिक सहज हो जाता है, किन्तु ये सर्वसुलभ नहीं है। बड़े सौभाग्य से सद्गुरु मिलते हैं। और ये भी निश्चित है कि  पेशेवर कनफुकवा गुरु के वश की ये बात नहीं है। अतः आत्मशुद्धि पूर्वक आजीवन निरन्तर प्रयासरत रहना है। सद्गुरु की प्रतीक्षा श्रद्धा और विश्वासपूर्वक करनी है। यहाँ तक कि देहपात की भी चिन्ता नहीं करनी है। हालाँकि योग्यगुरु (योगीगुरु) अपनी शक्ति से ध्यानयोग की तान्त्रिक प्रणाली से सुषुम्णा तक परिचय (स्थापन) करा देते हैं, जिससे आगे का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
   महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराजजी ने तन्त्र और योग विषयक अपने विविध संकलनों में इस विधि पर विशद प्रकाश डाला है। कचनावां,मखदुमपुर (जहानाबाद) निवासी मगविभूति- डॉ. श्रीरामनरेश मिश्र हंस जी ने सप्तशती-सरोवर में आकंठ अवगाहन किया है । उनकी लघु पुस्तिका — ऊँ माँ काली ज्ञान-पिपासुओं के लिए मार्गदर्शिका बन सकती है।
       सच पूछें तो धर्म का गूढ़ तत्व आत्मा में ही निहित है। महाभारत में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद-क्रम में कुछ रहस्यमय प्रश्नों में ये भी है कि आत्मा को परमात्मा से मिलाने का रास्ता कौन सा है? तदुत्तर में युधिष्ठिर ने कहा है कि इस विषय में तर्क से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि तर्क मन का व्यापार है और आत्मा मन की तुलना में अतिसूक्ष्म है। अतः इस विषय में महापुरुष-निर्दिष्ट मार्ग का ही अनुसरण निष्ठापूर्वक करना चाहिए।
   महर्षि पतञ्जलि ने चित्तवृत्तियों के निरोध को ही योग कहा है—योगश्चित्तवृत्ति निरोधः। वस्तुतः मन नहीं, प्रत्युत चित्त चंचल होता है और इस चित्त की चंचलता ही मन को प्रभावित करती है। मनुष्य सदा विविध द्वन्द्वों के आघात से पीड़ित है। फलतः मध्यमाशक्ति या कहें मध्यभूता चित्तशक्ति को सहजरुप में समझ (खोज) नहीं पाता। प्राण की गति इड़ा-पिंगला (वाम-दक्षिण) से निरन्तर प्रवाहित होती रहती है और तन्मध्य के सुषुम्णा मार्ग का सहज बोध हो नहीं पाता। प्राण-अपान की इन विरोधी शक्तियों को किसी उपाय से रोककर, मध्य मार्ग गमन की कला सीखनी है। ये मध्य प्राण ही ब्रह्म है। पंचप्राणों के विषय में कहा गया है—
हृदि प्राणो गुदेऽपानः समानो नाभिमण्डले।
उदानः कण्ठदेशे स्यात् व्यानः सर्वशरीरगः ।।
श्रीकृष्ण की अमृतवाणी भी ध्यानयोग के विषय में संकेत करती है—
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्वाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ।। (गीता -२७)
वाह्य पदार्थों—रुपरसादि को बाहर करके, नेत्रों को दोनों भौंहों के बीच करके अथवा अर्द्धोन्मीलित नेत्रों से नासिका के भीतर संवरण करने वाले प्राण-अपान को सम बनाकर ये क्रिया सम्पन्न होती
है और इस क्रिया की सिद्धि हेतु ध्यान-प्रक्रिया(काय-मुद्रा) सुझाते हैं—
     समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
     संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।                                                          (गीता -१३)
(देह के मध्यभाग, शिर और ग्रीवा को सम तथा दृढ़ करके मूलाधार से मूर्द्धा पर्यन्त सीधा रखकर निश्चल बैठे। प्रयत्नशील होकर एकमात्र नासिकाग्र को ही स्थिर भाव से देखे - इधर-उधर देखे वगैर) ध्यातव्य है कि नासिकाग्र ही सुषुम्णा का स्रोत है। फलतः इस स्थान पर स्थिर होते ही मध्यमार्ग कार्यशील होने लगता है। गीता के छठे अध्याय में दिए गए आगे-पीछे के अन्य प्रसंगों पर भी साधक को ध्यान देना चाहिए। श्री दुर्गासप्तशती और श्रीकृष्ण सप्तशती (गीता) बहुत मायने में एक दूसरे के पूरक से प्रतीत होते हैं। क्योंकि कुछ बातें वहाँ स्पष्ट हैं, तो कुछ बातें यहाँ।
  
  प्रसंगवश यहाँ भी थोड़ी और चर्चा कर देता हूँ। मूलाधारचक्र में कुल कुण्डलिनी शक्ति सर्पाकार रुप में सुप्तावस्था में निश्चल पड़ी रहती है—प्रत्येक मानव शरीर में। यही ब्रह्मयोनि भी कहलाती है। इसी क्षेत्र में शरीर की तीन प्रधान वात (प्राण) नाडियाँ—इडा, पिंगला और सुषुम्णा भी अवस्थित हैं। साढ़ेतीन फेरे में सर्पाकार कुण्डलिनी शक्ति सुषुम्णा मार्ग को अपने मुख और पुच्छ से अवरुद्ध किये पड़ी रहती है। यही कारण है कि जीव अज्ञानान्धकार में भटकता रहता है। सुषुम्णा (ब्रह्मनाडी) का एक अर्थ अव्यक्त ध्वनि भी होता है। प्रायः लोग अज्ञानवश नाडी का एक ही अर्थ जानते-समझते हैं— नर्व - तन्त्रिकातन्त्र या वायु व रक्त प्रवहण वाली नसें। इसी भाँति चक्रों को सीधे ग्लैन्ड्स समझ-मान लेते हैं। सच पूछें तो योग के नाडी और चक्र हमारे स्थूल शरीर के अवयव हैं ही नहीं। ये हैं सूक्ष्मशरीर के प्राणमयकोष के अंग । ये मेरुदण्ड के भीतर हैं—मूलाधार से सहस्रार पर्यन्त व्याप्त । सुषुम्णा अग्नितुल्य है। इसके अन्तर्गत एकदम चमकीली वज्रानाड़ी (वज्रिणी) है और इसके भीतर पीतवर्णा चित्रा (चित्रिणी नाड़ी) नाम्ना सात्विकी नाड़ी है। इसी के भीतर ब्रह्मनाड़ी है। तन्त्रग्रन्थों में सुषुम्णा को वह्निरुपा, वज्रिणी को सूर्यरुपा और चित्रिणी को सोमरुपा कहा गया । यहीं ब्रह्मद्वार है, जहाँ से कुल कुण्डलिनी महाशक्ति ऊर्ध्वगमन करती है। इडा-पिंगला तो सुषुम्णा के बाह्य पथ पर हैं।
 ध्यातव्य है कि प्राणीमात्र का खिचाव मैथुन कामक्रिया के प्रति सर्वाधिक हुआ करता है। सच पूछें तो मैथुन काल के अन्त में (स्खलन काल में) जो विशिष्ट आनन्दानुभूति होती है, उसका एकमात्र कारण है— मैथुनकालिक श्वांस-प्रश्वास-प्रवाह-वेग से कुण्डलिनी शक्ति घातित होती है और क्षण भर के लिए एक विशिष्ट कम्पन्न उत्पन्न होता है उस क्षेत्र में, जिसका क्षीण प्रभाव ऊपर में मस्तिष्क तक पहुँच जाता है । अल्प क्षणांश के लिए स्व की परछाई का आभास मिलता है और क्षणांश में ही स्थिति (झलक) विलीन हो जाती है—वरसात में नभ में चमकने वाली विजली की कौंध से भी न्यून क्षणांश है - वह। किन्तु उसी विशिष्ट अनुभूति के लिए प्राणीमात्र पागल हुआ रहता है।
वस्तुतः ये प्राण-प्रहार का ही खेल है । प्राणायाम, जप, स्तोत्रपाठ और ध्यानादि क्रियाओं द्वारा भी हमारे शरीर में शनैःशनैः कुछ विशिष्ट शोधन और परिवर्तन होते रहते हैं। और अन्त में सिद्धि लब्ध होती है। यानी कि कुण्डलिनीशक्ति का जागरण अपरिहार्य है, विधि चाहे जो भी अपनाएँ।
श्रीदुर्गासप्तशती के कथाक्रम को योग वा तन्त्रशास्त्र की दृष्टि से परखने पर कई रहस्य उद्घाटित होंगे—स्वरोचिष मनु का प्रसंग है यहाँ। मनु मन का प्रतीक है और यहाँ आलोकित मन की ही बात की
जा रही है।
स्वारोचिषेन्तरे पूर्वं चैत्रवंश समुद्भवः सुरथोनाम राजाभूत्समस्ते क्षितिमण्डले....वभूवुः शत्रवो भूपाः कोलाविध्वं- सिनस्तदा...। — यहीं से कथा प्रारम्भ है न ।
(जिज्ञासुओं के लिए अच्छा होगा कि कथाप्रसंग को विस्तार से एक बार अवश्य देख लें मूल सप्तशतीग्नन्थ में, ताकि तान्त्रिक-यौगिक पृष्ठभूमि में अवतरण क्रम में सुविधा हो।)
यहाँ चैत्रवंश से मेरुदण्ड स्थित चित्रानाडी का संकेत है । राजा सुरथ ही कायस्थ आत्मा है। यानी चित्रानाड़ी में स्थित आत्मा – राजा सुरथ । प्रसंग स्वारोचिषेऽन्तरे पूर्वं  की है । ये अवस्था है स्वाधिष्ठानचक्र को पार कर जाने वाली कुण्डलिनी शक्ति की । मणिपूरचक्र में अवस्थिति ही सावर्णि सूर्यतनय – मनु है। राजा सुरथ यानी जीवन-मूल्य की तड़प-उद्दाम लालसा वाला जीव है । न्यायोचित प्रजापालन उसका ध्येय है।  
ध्यातव्य है राजा सुरथ चक्रवर्ती राजा हैं। चक्रवर्ती कहते किसे हैं— वह राजा जो समस्त क्षितिमण्डाधीश हो — पूरी पृथ्वी पर शासन हो जिसका। महर्षि पतंजलि के योगशास्त्र में स्पष्ट किया गया है कि सूर्यमण्डल पर्यन्त भुवनबाधा है—भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात् । नाभिचक्र (मणिपूर) ही राजा की राजधानी है। इसे स्पष्ट करने हेतु कठोपनिषद् का सुप्रसिद्ध कथन ध्यातव्य है—
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।   
आत्मेन्द्रियमनो युक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।
(आत्मा रथी है, शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम है और बुद्धि सारथि।)
कुल कुण्डलिनी महाशक्ति ही कोला या कहें कौला है - साधना-प्रक्रिया से इसे ही जगाना है, उठाना है, समृद्ध करना है। और इसके विरोधी (बाधक तत्त्व) ही कोलाविध्वंसी भूपगण कहे गए हैं। कुण्डलिनी जगे नहीं, उत्थित न होने पाये, इसमें अनेकानेक सांसारिक बाधाएँ हैं।
मणिपूर चक्रस्थित शक्ति लाकिनी हैं, जो मांसल तत्त्वों को नियंत्रित करती है। शरीर की पाचन प्रणाली के कई अवयव (वृक्क, अधिवृक्क, पित्ताशय, यकृत आदि) यहीं आसपास हैं, जिनसे विविध प्रकार के रसायन (हार्मोन्स) स्रवित होते रहते हैं। आवेग-संवेग, वासना, क्रोधादि चित्तवृत्तियों को प्रभावित करने में इन रसायनों का विशिष्ट योगदान हुआ करता है। कुण्डलिनी महाशक्ति को घात-प्रतिघात, चपलताएँ आदि झेलने को विवश होना पड़ता है। स्वाभाविक रुप से आत्मा (राजासुरथ) तो न्यायोचित और अनुशासनात्मक शासन करना चाहता है, किन्तु अनेक शत्रुओं का सामना करना पड़ता है । मायिक जगत की दुर्दम्य वासनाएँ अपना आधिपत्य जमा लेती हैं। मन्त्रियों की दुष्टता का शिकार होना पड़ता है और विवश होकर पलायन करना पड़ता है।
(मन्त्री कौन है हमारा - जरा इस पर विचार करें। हमारे मंत्री जिन पर हम बहुत भरोसा करते हैं, वे ही धोखा दे देते हैं)।
ये संसार ही विराट सघन वन है, जहाँ राजा सुरथ भटकते हुए भ्रमण कर रहे हैं। स्वराज से निर्वासन के पश्चात् भी मोह नहीं छूटता, विछुड़े हुए (हाथ से निकले हुए) परिजन, प्रजाजन, सम्पदादि हेतु विकलता सता रही है। पराजित राज्य की चिन्ता सता रही है।
 उसी विराट वन (संसार) में सविकल्प समाधि—भावुक प्राणी—समाधिवैश्य से भी वहीं मुलाकात होती है। समाधि समरसता में डूबा हुआ मन है (मैं - इगो) सांसारिक मोह की प्रबलता । सुरथ-समाधि दोनों ही सांसारिक (भौतिक) मायाबद्ध हैं। दोनों विवेकशील हैं, किन्तु मायाबद्ध भी है। ममत्व के आवर्तों में उब-चुब हो रहे हैं।
इसी अवस्था में सौभाग्यवश सत्यदर्शी — क्रियात्मक पौरुष — सर्जनात्मक शक्ति — ऋषि मेधा से भेंट हो जाती है । यही विज्ञानमय बोध है। सप्तशती का प्रथम चरित्र सत्-प्रतिष्ठा का प्रतीक है।
कथाक्रम में आगे जाऐं — ब्रह्मा विकल हैं, त्रस्त हैं, भयभीत हैं।
ब्रह्मा कौन है? ये सर्जनात्मक ऊर्जा । मजे की बात ये है कि इसे निगलने को (मार डालने को) दो महान असुर—मधु-कैटभ आतुर हैं।
और ये मधु-कैटभ कौन हैं? ये पालनकर्ता विष्णु (पोषिकाशक्ति) के कर्णमलोद्भव हैं। उस विष्णु के जो शेषशायी हैं। विषमता - विष- भय-आतंक की शेषशैय्या पर विश्राम करने वाला विष्णु, जो विराट जीवन के तमाम विषों और आतंकों से निर्लिप्त है। किन्तु उसकी पोषिकाशक्ति कार्यरत है। ये संलग्नता केवली भाव-दशा ही योगनिद्रा है।
कर्णेन्द्रिय क्या संदेश देता है हमें—शब्दों को ग्रहण करता है, विश्लेषित करता है और मन पर उसकी प्रतिक्रिया का प्रभाव पड़ता है। शब्द या तो मधुर (प्रशंसा) होते हैं या कटु (निन्दा) या तो प्रिय होते हैं या अप्रिय। ये ही मधु और कैटभ नामधारी महा असुर हैं, जो हमारी सर्जनात्मक ऊर्जा को ग्रसने को तत्पर हैं। मधु आसक्तिमय अनुराग है और कैटभ (कीट से व्युत्पन्न - कैटभ) स्वार्थ-प्रेरित विद्वेष है। घातक दोनों ही हैं - प्रशंसा हो या निन्दा, राग हो या द्वेष।
श्रीकृष्ण ने ऐसे ही विविध द्वन्द्वों से मुक्त होने हेतु निरन्तर प्रयासरत रहने को कहा है—तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी...। इस सम्बन्ध में गीता का द्वादशअध्याय विशेष विचारणीय और अनुकरणीय प्रतीत होता है।  आसक्तिमय अनुराग और स्वार्थ प्रेरित विद्वेष दोनों ही बुद्धि, विवेक और सद्विचार को ग्रसने को सदा आतुर रहते हैं और इसके परिणामस्वरुप सर्जनात्मक ऊर्जा भयत्रस्त होती है। विकल सर्जनात्मक ऊर्जा पोषिकाशक्ति से प्रार्थना करती है ।
ब्रह्मा द्वारा रात्रिसूक्त के स्तवन से विष्णु के नेत्रों को आबद्ध करनेवाली योगमाया तिरोहित हो जाती हैं। प्रथम चरित्र में तमोगुणी शक्ति का प्राकट्य है—निद्रादेवी का। त्रिगुणात्मिका सृष्टि में महाकाली
तमोगुण की अधिष्ठात्री-नियामिका-संहारिका हैं।
ध्यातव्य है कि महामाया और योगमाया में पर्याप्त भेद है। काल की नियामिका महाकाली यहाँ दो कार्य कर रही हैं—विष्णु को योगनिद्रा से जगाती हैं और मधु-कैटभ को मोहाविष्ट भी करती हैं। माया-ग्रसित असुर अपने विनाश की धरती ढूंढ़ लेते हैं—विष्णु की जँघा ही उनका स्थल हो जाता है, शेष चारों ओर तो जल ही जल व्याप्त है। मधु-कैटभ का नाश होकर व्यापक चिदाकाश में मानव-मूल्यों की रक्षा होती है।
   युग-युग में सुरथ और समाधि अपने-अपने स्वार्थिक स्व से निर्वसित होते हैं। कर्म के भयानक वन में भटकते हैं । बोधमय मेधा से मार्गदर्शन पाते हैं और महाशक्ति की आराधना से वर प्राप्त करके अपने स्व को लब्ध होते हैं।
अब आगे मध्यम चरित्र का अवलोकन करें। महालक्ष्मी के ध्यान से ये प्रसंग प्रारम्भ हो रहा है। तीन अध्यायों में चले इस चरित्र में मूल अभीष्ट है महिषासुर का संहार । ध्यातव्य है कि इस असुर के असंख्य सेना के पन्द्रह सेनापति हैं, जिनमें चिक्षुर प्रधान सेनानायक है—...महिषासुरनसेनानीश्चिक्षुराख्यो महासुरः।। (-४०) स्वाभाविक है कि पहले इन विकट सेनापतियों का ही संहार करना होगा, तब उनके सम्राट का संहार करना सम्भव होगा।
सांख्यमत से अहंकार तेईसवाँ तत्त्व माना गया है, यानी इसके पूर्व बाईस तत्त्व विद्यमान हैं। अहंकार आकाशादि बीस के बाद वाले अन्तःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार) का सर्वोच्च है। इसके बाद तो सीधे प्रकृति है और उसके पश्चात् पुरुष—पचीसवाँ यानी अन्तिम तत्त्व ।
अन्तःकरण का सिरमौर-अहंकार ही महिषासुर है। इसका वध करना अति दुरुह है। इस पर विजय पाना अति दुस्कर कार्य है। सब कुछ के नाश के पश्चात् भी ये भयंकर अहंकार बचा ही रह जाता है, जो संसार में पुनःपुनः वापसी का कारण बनता है। शास्त्र कहते हैं कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर और अहंकार उत्तरोत्तर क्रमशः सूक्ष्म हैं और तद्भाँति ही बली भी। स्पष्ट है कि अहंकार आकार की दृष्टि से कामादि की तुलना में अति सूक्ष्म है, किन्तु बलविचार से सर्वाधिक बली भी। इससे बच पाना बहुत कठिन है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों, देवताओं को भी नहीं छोड़ा है इस अहंकार ने। नारद जैसे महान भक्त भी अहंकार के शिकार हुए हैं। विश्वामित्र की क्या गणना, वशिष्ठ जैसे महान ऋषि भी अछूते नहीं रहे हैं।
अहंकार के आगोश में पड़े महानुभावों की आख्यायिकाओं-कथाओं से पुराणादि पटे पड़े हैं।
यही कारण है कि इसकी वलिष्ठता को देखते हुए ही समस्त दैवीशक्तियों को एकत्र होकर प्रकट होना पड़ा है इसके नाश के लिए—
ततः समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम् ।
तां विलोक्य मुदं प्रापुरमरा महिषार्दिताः।। (-१९)
महिषासुर महान चिति का विध्वंसक है। अपने प्रतिकार में विभिन्न आसुरभाव को समक्ष किए हुए है—चिक्षुर (विक्षेप), उदग्र (आवरण), महाहनु (दर्प), असिलोमा (भय), वाष्कल (दंभ), परिवारित (भोग की अभिलाषा), विडाल (लोभ) , चामर (मोह), उद्धत (क्रोध), ताम्र (देहाभिमान), अन्धक (बल), उग्रास्य (दोषदृष्टि), उग्रवीर्य (अ-क्षमा), दुर्धर (निष्ठुरता), दुर्मुख (द्वेष) ये सभी महान शत्रु हैं मानवता के (आत्मा के), जो महिषासुर की सेना में प्रधानपदों पर सुप्रतिष्ठित हैं। इन सभी सेवकों-रक्षकों से घिर कर महिषासुर (अहंकार) और भी वलिष्ठ हो रहा है। इन सबके नाश के पश्चात् ही उसका नाश सम्भव है।
सच्चिदानन्दस्वरुपा चामुण्डा(चंडिका) सिंह पर सवार हैं । सिंह संयम और अप्रतिम ऊर्जा का प्रतीक है ।  एक ओर संयम है, शिव है तो दूसरी ओर असंयम और अशिव (अमंगल) है। सप्तशती के मध्यम चरित्र से सुस्पष्ट है कि मानवी-चेतना के महाविध्वंसक महिषासुर के नाश के लिए अपने भीतर के दुर्गा (यहाँ महालक्ष्मी) (समस्त दैवीशक्तियों का एकीकृत पुञ्ज) को प्रकट करने की आवश्यकता है।
   सप्तशती की दुर्गा ही सच्चिदानन्दस्वरुपा है। सत्, चित्त, आनन्द से क्रमशः सत्ता, चेतना व शान्ति का बोध होता है। सत्ता (अस्तित्व) का बोध स्थूल शरीर में होता है। चित्त (चैतन्य) का बोध इन्द्रियों का विषय है तथा आनन्द का भान अन्तःकरण का विषय है। सामान्यतया जाग्रतावस्था में सत् का, स्वप्न में चैतन्य का और सुषुप्ति में शान्ति का बोध होता है।   
सच्चिदानन्द ब्रह्म का स्वरुपहै, गुण नहीं। सत्-चित्त-आनन्द तीनों पदों के तीन पृथक-पृथक प्रभाव हैं। अतएव श्रीदुर्गासप्तशती के तीनों चरित्रों में क्रमशः सत्-चित्त-आनन्द की सम्यक् उपासना की विधि का वर्णन है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इससे तीनों – ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि एवं रुद्रग्रन्थि का भेदन सहज ही सम्भव है। हो सकता है किंचित विद्वानों को यहाँ भेदन शब्द से आपत्ति हो सकती
है। वस्तुतः त्रिविध गाँठों को खोलने की विधि है— श्री दुर्गासप्तशती।
   इसे थोड़े और सरल शब्दों में कह सकते हैं कि साधक का कार्य सिर्फ सम्यक् प्रणाली से क्रिया सम्पन्न करने भर का है। शेष कार्य (मूलकार्य) तो भगवती कृपा से शनैः-शनैः स्वतः सम्पन्न होता रहता है। कल्पना करें—आप किसी रस्सी में उलझी हुयी गाँठ को खोलने का प्रयत्न कर रहे हैं । अशान्त चित्त व्यक्ति थोडी देर में ही उब जाता है और गाँठ के अस्तित्व का ही खंडन करने लग जाता है—रस्सी को काटने की मूर्खता कर देता है। किन्तु धैर्यवान व्यक्ति आहिस्ते-आहिस्ते प्रयत्न करता है और रस्सी के अस्तित्व को खंडित-बाधित किए वगैर ही गाँठ को खोलने में सफल हो जाता है।
  अब उत्तम (उत्तर) चरित्र (पंचम से त्रयोदश पर्यन्त) पर एक दृष्टि डालें। सत् और चित्त के पश्चात् आनन्द की बारी है। इस चरित्र में रुद्र ऋषि और महासरस्वती देवता हैं। कामबीज - क्लीँ है, जो कि आनन्दबीज के रुप में भी अभिहित है - तन्त्रशास्त्रों में। क्यों न हो, आनन्द ही तो जीवन का मूलाधार है। ये आनन्द परमात्मा का ही पर्याय है। सहस्रार भी यही है। यही भूमा का स्वरुप है। तैत्तिरीयोपनिषद् के अनुसार संसार के समस्त पदार्थों का आधार, कारण और संहार (लय) आनन्द ही है। अद्वैतानुभूति – आत्माराम की अवस्था आनन्द ही है। ज्ञान, कर्म, भक्ति, प्रपत्ति, पुष्टि एवं योग के माध्यम से आनन्द की प्राप्ति होती है। जबकि शैवदर्शन का मत है कि इच्छा–क्रिया-ज्ञान की समरसता ही आनन्दोपलब्धि है।
   इस उत्तम चरित्र के अन्त में ही सब कुछ सम्पन्न होता है — सुरथ राजा और समाधि वैश्य को देवी द्वारा अभिलषित वर प्राप्त होता है। उन्हें सर्वस्व की प्राप्ति होती है। इस चरित्र में सात महान असुरों का सात देवीस्वरुपों द्वारा वध किया जाता है। यथा— धुम्रलोचन, सुग्रीव, चण्ड, मुण्ड, रक्तबीज, निशुम्भ और शुम्भ ।
अब इस सातों को पहचानें— मायायुक्त क्रोध ही धूम्रलोचन है, मोहक वाणी  सुग्रीव है, विकट छलयुक्त क्रोध मुण्ड है, मत्सर और वासना ही असल में रक्तबीज है, जिसका नाश सर्वाधिक कठिन प्रतीत होता है। वासना बार-बार मरकर भी बार-बार जीवित हो उठती है—मारने के प्रयास करने वाले को भी धोखा दे देती है। इस प्रकार इसका रक्तबीज नाम सार्थक है। षडदोषों का प्रचंड रुप ही शुम्भ-निशुम्भ है—
    षड्दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
            निद्रा तन्द्रा भयं क्रोधं आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।
अर्थात् निद्रा, तन्द्रा, भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता ये छः महान दोष हैं हमारे अन्दर, जिनसे मुक्त होने की आवश्यकता है। वस्तुतः ये सात महा असुर षट्चक्रों के महाविकार हैं और इनकी ही विध्वंसिका शक्ति है चण्डिका ।
सप्तशती के पाठकों को प्रायः ये जिज्ञासा होती है कि तेरहवें अध्याय के अन्तिम श्लोक को दो बार क्यों कहा गया है। इसका सरल निदान रुद्रयामलतन्त्रम् में मिलता है— स्तोत्रे च संहितायाञ्च अन्त्यश्लोकं पठेद्विधा । ब्रह्मानन्द रसं पीत्वा येतु उन्मत्त योगिनः ।
इन्द्रोपि रङ्कवद्भाति का कथा नृप कीटकः ।।
   इस प्रकार चतुर, धैर्यवान साधक को श्रीदुर्गासप्तशती के रहस्यों को आत्मसात करते हुए स्व कल्याण का प्रयत्न करना चाहिए। त्रिगुणात्मिका शक्ति की त्रिविध उपासना से त्रिविध ग्रन्थियों का मोचन होता है और हम स्वरुप-स्थिति को लब्ध होते हैं।
शिवसंहितादि ग्रन्थों में सगुण-निर्गुण का अभेद सुस्पष्ट है। प्रसंगवश यहाँ ये भी स्पष्ट कर दें कि मूलाधार चक्र में रक्तनेत्रा डाकिनीदेवी का दर्शन होता है, जो कोटि सूर्य सदृश प्रकाशमान हैं। उसके ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र में महाविष्णु सहित महालक्ष्मी या कहें राधा-कृष्ण का स्वरुप है। मणिपूरचक्र में त्रिनेत्रशिव हैं सर्वमंगला शक्ति के साथ, तो अनाहत चक्र में त्रिनेत्रा दुर्गा हैं। विशुद्धिचक्र में मृत्युञ्जयशिव हैं अपनी शक्ति सहित, तो आज्ञाचक्र में सबका सारतत्त्व प्रणव (ऊँकार) का दर्शन होता है।
      तन्त्र और योग की गहराई में उतरकर उक्त त्रिग्रन्थियों का सम्यक् भेदन, कुण्डलिनी महाशक्ति के जागरण और सुस्थापन के सम्बन्ध में किंचित अन्य दृष्टि से विचार करें तो ज्ञात होता है कि विन्दु का नामान्तरण ही कुण्डलिनी शक्ति है। यही परमेश्वर की मायारुपी शक्ति है। परमेश्वर अथवा परमशिव चित्तस्वरुप हैं। इनमें दो शक्तियाँ है—एक चित् रुपी और दूसरी अचित् रुपी। चित् रुप शक्ति परमेश्वर से अभिन्न है। इसीका नाम स्वरुपशक्ति भी है। ये माया की भाँति मलिन नहीं है। जब कि विन्दुशक्ति परिग्रह शक्ति है।
ध्यातव्य है कि माया और महामाया में भेद है। माया मलिन जगत् का उपादान है और महामाया - विन्दु का नामान्तरण — कुण्डलिनी शक्ति है। सिर्फ, जगत् का उपादान । यहाँ ध्यान रखने की भी आवश्यकता है कि शुद्ध जगत् परमेश्वर से अन्तः संकल्प के प्रभाव में आविर्भूत होता है, जबकि अशुद्ध जगत् परमेश्वर के प्रभाव में माया से आविर्भूत होता है। हालाँकि शुद्ध और अशुद्ध दोनों ही जगत् जड़ है। किन्तु शुद्ध जगत् पर सविकल्प ज्ञान का प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु माया (अशुद्ध जगत्) पर सविकल्प ज्ञान का प्रभाव पड़ता है। माया ईश्वर के अधीन है। मायिक जगत् का यही उपादान है। शुद्ध जगत् में नीचे से ऊपर की ओर क्रमशः बढ़ें तो कह सकते हैं—शुद्धविद्या, ईश्वर, सदाशिव, शिव और सबसे ऊपर शक्ति ।
अन्तः संरचना के सम्बन्ध में थोड़ी और बातें अपेक्षित प्रतीत हो रही हैं— मूलाधार से  आज्ञाचक्र पर्यन्त मनुष्यशरीर में छः मूल चक्र हैं। (किंचित स्थिति में अन्य कुछ चक्रों की भी बात आती है) । चक्रों को सामान्य तौर पर लोग कमल कह देते हैं, किन्तु इसमें पर्याप्त भेद है। शक्ति जब तक सुप्तावस्था में होती है, तब तक उसका नाम चक्र होता है, किन्तु स्फुरण (जागरण) की अवस्था में उसी का नाम कमल हो जाता है। कमलदल ही मातृकाएँ हैं। कुण्डलिनीशक्ति के सुषुम्णानाड़ी में प्रवेश के बिना महाशक्ति का जागरण सम्भव नहीं है और सुषुम्णा में शक्ति का प्रवेश तभी सम्भव होता है, जब उभय पार्श्व की इडा-पिंगला नाड़ियों  का आवर्त समाप्त हो जाता है। प्रत्येक चक्र में तीन अंश होते हैं। सबसे पहले मातृका (वर्णमाला), इसके बाद नाद और इसके बाद विन्दु। वर्णमाला के रहस्य को ठीक से समझ कर इन्हें साधना होता है। अज्ञाता माता मातृका विश्वजननी ।
तान्त्रिक साधना प्रसंग में भगवद्पाद शंकराचार्य उद्घोष पूर्वक अपनी अद्भुत रचना सौन्दर्यलहरी में कहते हैं कि—
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं,
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि ।
मनोपि भूमध्ये सकलमपि भित्वा कुलपथम्,
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसे ।। (९)
अन्तर्याग बिना किया गया अनेकानेक उपचारों वाला बहिर्याग मंत्रजप-स्तोत्रपाठादि प्रायः निष्फल होता है—इस प्रकार अन्तःक्रियाओं की अनिवार्यता स्वयं सिद्ध है। हालाँकि ये कहकर अभ्यासी को निराश-हताश करना मेरा अभीष्ट नहीं है, प्रत्युत अन्तर्याग की महत्ता को बल देना है। यहाँ तन्त्र के एक गूढ़ बात का ध्यान रखना भी आवश्यक है कि मूल से विशुद्धि पर्यन्त चक्र-समष्टि को कुल एवं आगे अकुल संज्ञा है आगमशास्त्रों में। अतः कुल को विजित किए वगैर अकुल की अनुभूति कैसे ?
योगसाधक प्राणवायु का नियमन करते हुए निम्नोत्तर क्रमिक विजय प्राप्त करता है, जब कि तन्त्रसाधक  मध्यवर्ती अक्षरों के माध्यम से आगे बढ़ता है— जपात् सिद्धि जपात् सिद्धि जपात् सिद्धि वरानने - के उद्घोष में यही रहस्य निहित है।
 अब जरा सर्वशास्त्रों के मूल—वैदिक-औपनिषदिक पृष्ठभूमि में सप्तशतीरहस्य को ढूढ़ने-जानने का प्रयास करें।
सप्तशतीरहस्य का गूढ़ातिगूढ़ रहस्योघाटन ये है कि प्रचलित रुपमें हमारे सामने श्रीदुर्गासप्तशती का जो स्वरुप है वह वस्तुतः वृक्षरुप है। निश्चित है कि इस वृक्ष-सर्जना के मूल में पल्लवन-अंकुरण किसी न किसी बीज का ही हुआ है। बीज से वृक्ष तक की यात्रा को सम्यक् रुप से हृदयंगम करने पर ही श्रीदुर्गासप्तशती का असली रहस्य खुल सकता है। बीज से वृक्ष तक की यात्रा ही वस्तुतः वर्तमान सप्तशती है । अतः इसे आत्मसात करने हेतु हमें विपरीत यात्रा करनी होगी। पराम्बा की कृपा यदि प्राप्त हो जाए तो बीज से वृक्ष की ओर यात्रा भी सम्पन्न हो सकती है।
बीज हमें प्राप्त हो जाए, उसे अंकुरित-पल्लवित-पुष्पित-फलित करने की विधि हमें यदि ज्ञात हो जाए, तो सबकुछ हस्तामलक तुल्य दृष्ट हो जाए।  परन्तु इसके लिए सहज जिज्ञासु होने की आवश्यकता है। इस सहज-स्वाभाविक जिज्ञासा का अप्रतिम उदाहरण है—एक वैदिकसूक्त— नासदीयसूक्त
सच पूछें तो ये समस्त जागतिक जंजाल ही किसी मूल महाशक्ति (बीजात्मकशक्ति) का विस्तार मात्र है—एक ही शक्ति अनेक स्वरुपों में अपने आप को पल्लवित किए हुए है। विभिन्न वैदिकसूक्तों , औपनिषदिक आख्यानों , पौराणिक कथाओं आदि में हम सृष्टि के विकास की अमर-अद्भुत चित्रण-वर्णन का रसास्वादन कर सकते हैं। विभिन्न तन्त्रग्रन्थों में मुख्य रुप से सृष्टि का रहस्य ही उद्घाटित किया गया है। रहस्यों का लब्ध हो जाना ही तन्त्र की वास्तविक सिद्धि है।
ऋग्वेद के दसवें मण्डल में १२९वां सूक्त है नासदीयसूक्त, जो सृष्टिरहस्य को उद्घाटित करने वाला बड़ा ही रोचक   सूक्त है— इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है। इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति से है। माना जाता है कि यह सूक्त ब्रह्माण्ड के निर्माण के बारे में काफी सटीक तथ्य बताता है। नासदीयसूक्त में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का दार्शनिक वर्णन अत्यन्त उत्कृष्ट रूप में किया गया है । ऋषियों के इस अद्भुत ज्ञान से सिद्ध होता है कि समस्त संसार में सभ्यता की पराकाष्ठा भारत में देखी जा सकती है और यह अतिशयोक्ति या आत्मश्लाघा भी नहीं है । यह सूक्त मुख्य रूप से इस तथ्य पर आधारित है कि ब्रह्मांड की रचना कैसे हुई होगी। प्रसंगवश, आगे बढ़ने से पहले हम उस सूक्त का ही अवलोकन-मनन करें। यथा—
         नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
         किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥
अर्थ- सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत् = भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः = स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था। वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था । उस समय गहन = कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे।
         न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
          अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥२॥
अर्थ उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्रि और दिन का ज्ञान भी नहीं था। उस समय वह ब्रह्मतत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था। उस माया सहित ब्रह्म से भिन्न कुछ भी नहीं था और उससे परे भी कुछ नहीं था।
        तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं 
                   सलिलं सर्वमा इदं।
        तुच्छ्येनाभ्वपिहितं 
 यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥३॥
अर्थ सृष्टिके उत्पन्न होनेसे पहले अर्थात् प्रलय अवस्था में यह जगत् अन्धकार से आच्छादित था और यह जगत् तमस रूप मूल कारण में विद्यमान था। अज्ञात, यह सम्पूर्ण जगत् सलिल (जल) रूप में था। अर्थात् उस समय कार्य और कारण दोनों मिले हुए थे । वह व्यापक एवं निम्न स्तरीय अभाव रूप अज्ञान से आच्छादित था इसीलिए कारण के साथ कार्य एकरूप होकर यह जगत् ईश्वर के संकल्प और तप की महिमा से उत्पन्न हुआ ।
       कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
        सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥
अर्थ सृष्टि की उत्पत्ति होने के समय सब से पहले काम अर्थात् सृष्टि रचना करने की इच्छा शक्ति उत्पन्न हुयी, जो परमेश्वर के मन में सबसे पहला बीज रूप कारण हुआ; भौतिक रूप से विद्यमान जगत् के बन्धन-कामरूप कारण को ऋषियों ने अपने ज्ञान द्वारा भाव से विलक्षण अभाव में खोज डाला।
 तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त्।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥
अर्थ- सूर्य-किरणों के समान बहुत व्यापकता उनमें विद्यमान थी। यह सबसे पहले तिरछा था या मध्य में या अन्त में? क्या वह तत्त्व नीचे विद्यमान था या ऊपर विद्यमान था? या वह सर्वत्र समान भाव से भाव उत्पन्न था?  इस प्रकार इस उत्पन्न जगत् में कुछ पदार्थ बीज रूप कर्म को धारण करने वाले जीव रूप में थे और कुछ तत्त्व आकाशादि महान रूप में प्रकृति रूप थे; स्वधा— भोग्य पदार्थ-  निम्न स्तर के होते हैं और भोक्ता पदार्थ उत्कृष्टता से परिपूर्ण होते हैं।
      को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
     अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥
अर्थ - कौन इस बात को वास्तविक रूप से जानता है और कौन इस लोक में सृष्टि के उत्पन्न होने के विवरण को बता सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारण से सब ओर से उत्पन्न हुयी? देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं अतः ये देवगण भी अपने से पहले की बात के विषय में नहीं बता सकते। अतःकौन मनुष्य जानता है कि किस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ?
       इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
       यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥७॥
अर्थ यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुयी इसका मुख्य कारण है— ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना । इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरुप में प्रतिष्ठित है। वह आनंद स्वरुप परमात्मा ही इस विषय को जानता है। उसके अतिरिक्त (इस सृष्टि उत्पत्ति तत्व को) कोई नहीं जानता है।

            इतना कुछ जान लेने के पश्चात् भी प्रश्न शेष ही रह जाता है कि वह क्या था। जैसा कि ऊपर हम जान चुके या कहें मान चुके कि वह ईश्वर था, फिर भी वह ईश्वर क्या था?
            वस्तुतः सर्वप्रथम जो भी कुछ था वह तमस् था। नामरुप रहित केवल तमस् और वह तमस् तमस् से ही आवृत्त था । उक्त सूक्त में नामरुपादिरहित जिस अप्रकेत तमस् की ओर संकेत किया गया है, वह वही तामसी आदिशक्ति है, जिसने विष्णु (विराट् विश्व) को आच्छादित कर रखा था ।
            सप्तशती के प्रारम्भ में ही हम पाते हैं कि ब्रह्मा ने एक विशिष्ट शक्ति की प्रार्थना की है, जिसे हम वैदिक व तान्त्रिक रात्रिसूक्त के नाम से जानते हैं। सप्तशती के प्रथम अध्याय में ही तान्त्रिक रात्रिसूक्त समावेशित है। वैदिक रात्रिसूक्त ऋग्वेद ( दशम् मण्डल, दशम अध्याय के १२७वें सूक्त का मन्त्र संख्या से तक) से लिया गया है। कथाप्रसंग से प्रायः पाठक अवगत हैं, इसलिए हम सीधे मूल विषय पर आते हैं।
            समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त परशिव की इस आवरणात्मिका शक्ति को वेदान्तियों ने माया कहा है। इसका वाचक नाम या प्रणव ह्री है। सृष्टि के लय काल में यही माया शक्ति ह्रीं समस्त सृष्टिबीज को अपने कोख में पालती हुयी सुरक्षित रखती है। यही कारण है कि तान्त्रिक ग्रन्थों में इसे प्रतिपालिका कहा गया है। यही महामाया जब सृष्टि की पुनः कामना करती है, तो इसका अभिधान या वाचक बीज क्लीं  होता है और सृष्टिसंरचना में प्रवृत्त यही महाशक्ति ऐंबीज से वाच्य होती है। रुद्रयामल (गौरीतन्त्रम्) कुञ्जिकास्तोत्रम् में इसी की चर्चा है—ऐंकारी सृष्टिरुपिण्यै ह्रींकारी प्रतिपालिका क्लींकारी कामरुपिण्यै बीजरुपे नमोस्तुते ।
            इस प्रकार हम पाते हैं कि महामाया स्वयं ही सृष्टि के अभिव्यक्त होती हैं, अपना पालन करती हुयी स्वयं में स्थित रहती हैं और अन्त में स्वयं को स्वयं से आवृत्त करके अप्रकेत — नामरुपादिरहित स्थित रहती है। उक्त महाबीजत्रय—ऐं ह्रीं क्ली का ही विस्तार है सप्तशती के सातसौ मन्त्रात्मक श्लोकादि । इन्हें मूल बीजों का श्लोकद्रुम कहा जा सकता है। इन्हीं श्लोकद्रुमों से महामाया की महती कथा-अरण्यानी की सृष्टि हुयी है। इस अरण्यानी का कोई ओर-छोर नहीं है।
            वैदिक पृष्ठभूमि में विचार करने के पश्चात् अब जरा औपनिषदिक वार्ताओं पर भी एक नजर डाल लें। छान्दोग्योपनिषद् ६-१२-२ एवं ३ इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है। यथा—
          यं वै सोम्यैतमणिमानं न निभालयसे एतस्य वै सौम्यैषोणिम्नः महान् न्यग्रोधस्तिष्ठति...स ए एषौणिमा ऐतदात्म्यमिदं सर्वं तत् सत्यं सआत्मा तत्वमसि श्वेतकेतो !
          उक्त आरुणि-श्वेतकेतु संवाद बड़ा ही रोचक और चक्षुष्मीलक है। वटफल के भीतर जो अनगिनत छोटे-छोटे बीज पड़े हुए हैं। उन बीजोंको पुनः तोड़ने-फोड़ने पर उसके भीतर कुछ भी लक्षित नहीं होता। यानी अदृश्य अणिमा छिपी है उस लघुबीज के अन्तर्गत । अणोरमीयान् महतो महीयान्...यह अणिमाशक्ति ही बीज को वृक्ष का रुप देती है अनुकूल परिस्थिति में । इसी भाँति परमशिव की चित्तशक्ति ही विश्वाकार में परिणत हुई।
            दृष्यमान प्रपंचात्मक जगत् का ज्ञान नाम के अधीन है और नाम निर्भर है वाक् पर । ये वाक् स्वयं परमेश्वरी है तथा वाक् से प्रतिपाद्य समस्त अर्थ स्वयं शिव है। वस्तुतः ये दोनों परस्पर संपृक्त हैं। इसे ही शिवका अर्धनारीश्वररुप कहा गया है। महाकवि कालिदास ने अपने सुप्रसिद्ध काव्य रघुवंशम् के मंगलाचरण में वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये । जगतःपितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ।। — कह कर यही स्पष्ट किया है। गोस्वामीजी ने भी कुछ इन्हीं भावों को व्यक्त किया है—गिराअरथ जलवीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न कह कर। 
            वाक् और अर्थ— शिव और शक्ति के संश्लिष्ट वाङ्मयवपु का दो बाह्य स्वरुप भेद है, जिन्हें हम स्वर और व्यंजन के रुप में जानते हैं— शक्तिस्वरुपा स्वर और शिव स्वरुप व्यंजन । शिव-शक्ति संयुक्त ये सभी बीज हैं। वस्तुतः ये अक्षर हैं—इनका नाश कदापि नहीं होता— ककारादिक्षकारान्ता वर्णास्ते शिवरुपिणः । समस्तव्यस्तरुपेण षट्त्रिंशत्तविग्रहः ।। अकारादिविसर्गान्ताः स्वराःषोडश शक्तयः । नित्याः षोडशकात्मानः परस्परं समायुताः ।। शिवशक्तिमयावर्णाः शब्दार्थप्रतिपादकाः । शिवः स्वरपराधीनो न स्वतन्त्रः कथचन । स्वराः स्वतन्त्र जायन्ते न शिवस्तु कदाचन ।। इस प्रकार मातृकादूषण अक्षरोपनिषत् आदि ग्रन्थों में इन वर्णमात्रिकाओं की विशद चर्चा है। (इस विषय पर अपनी पूर्व रचनाओं—  बाबाउपद्रवीनाथ का चिट्ठा सूर्यविज्ञानःआत्मचिन्तनमें काफी प्रकाश डालने का प्रयास किया हूँ।)
वाक्यपदीयम् के वचन हैं—न सोस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते ।।(१-१२-३)
इस दृष्य जगत् में ऐसा कोई प्रत्यय,पदार्थ वा वस्तु नहीं, जिसे शब्द के बिना जाना जा सके। माला के मणियों के बीच से गुजरने वाले सूत्र की तरह सबकुछ शब्द-गुम्फित है, अनुस्यूत है। ऐसा कोई शब्द नहीं जो स्वर-व्यंजन रुप वर्ण-रहित हो।
            श्रीकृष्ण ने गीता अध्याय १५-१ में सृष्टि को ऊर्ध्वमूल-अधःशाखा वाला अश्वत्थ वृक्ष कहा है— ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि  यस्तं वेद  स वेदवित् ।  इसके पूर्व अध्याय १४- में भगवान कह चुके हैं कि इस सृष्टि का बीज ईश्वर, ब्रह्म वा शिव है। प्रकृति उसकी योनि है और परमात्मा शिव बीज प्रदायक पिता— सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः । तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।।
 ऊँ बीज को ही ईश्वर कहा गया है। तीनों स्वरुप—ब्रह्मा-विष्णु-महेश इसमें विद्यमान हैं। ऊँकार के अन्तर्गत अ इ उ तीन अक्षर हैं, जो क्रमशः आवरण, दल और अंकुर है। इनके अतिरिक्त एक अनिर्देश्य, अव्यवहार्थ, अग्राह्य चतुर्थ मात्रा भी है—चन्द्रविन्दु । ये चौथी मात्रा ही अव्यक्त अणिमाशक्ति है।
ध्यातव्य है कि वर्णो (शब्दों) से अर्थ की प्रतीति का मुख्य आधार है भावना। एक-एक वर्ण कई-कई अर्थों के वाचक भी है । किन्तु ऊँकार तो बिलकुल अकेला है । समष्टि का समन्वय है। इसीलिए महर्षि पतञ्जलि ने ऊँकार को ईश्वर का वाचक कहा है — तस्य वाचकः प्रणवः । तज्जपस्तदर्थभावनम् ।। (योगदर्शन, समाधिपाद २७,२८) इत्यादि। ऊँकार के विश्लेषण से भारतीय ग्रन्थ पटे पड़े हैं। अतः यहाँ इसपर विस्तार का कोई प्रयोजन नहीं दीखता। किन्तु हाँ, एक बात स्पष्ट कर दूँ यहाँ कि यदि एक मन्त्र के कई देवता हैं, यानी एक ही बीजमन्त्र कई देवशक्तियों का वाचक है, तो उसकी जप-साधना में भाव की प्रधानता का ध्यान रखना होगा। जैसे रां बीज राम और राहु दोनों के लिए हो सकता है। 
अब बीजों के क्रमिक ज्ञान पर प्रकाश डालते हैं। इस सम्बन्ध में कठोपनिषत् का यम-नचिकेता संवाद ध्यातव्य है । यमराज ने ऊँकार की महत्ता को समझाने से पहले ब्रह्म की आवर्णात्मिका पराशक्ति  के प्रकाश हेतु गुहा-साधना की बात की थी और फिर सृंका की बात की थी। सामान्यतः सृंका का अर्थ माला हैं, किन्तु आचार्य शंकर ने स्पष्ट किया है—सृंका शब्दवतीं रत्नमयीं मालामिमामनेकरुपां विचित्रा यद्वा सृंकाम् अकुत्सितां गतिं कर्ममयीं...।
गुहासाधना और सृंका—ये दोनों पद मननीय हैं। गुहा कहते हैं— परमेश्वर की मायाशक्ति ह्रीं बीज को और सृंका है अक्षमाला (वर्णमातृका) । किन्तु ध्यान रहे - बीजाक्षरों की गोपनीयता के विचार से श्रीं के लिए सृं का प्रयोग हुआ है, जैसे ह्रीं के लिए गुहा शब्द का । ये ऋषियों की कूटभाषा है, जो बिलकुल गुरुगम्य है।  सृंकाम् को आचार्य शंकर ने शब्दमयीं विशेषण से विभूषित किया है - इसका भी रहस्य है। श्रीसूक्त के कांसोस्मिताम् मन्त्र से जो लोग परिचित होंगे उन्हें ज्ञात है कि कां का क्या रहस्य है। सृं = श्री, एवं कां = कामना ।
उक्त गुहा शब्द-संकेत को और स्पष्ट करें । देव्यथर्वशीर्ष में इसे सर्वार्थसाधिका कहा गया है। यथा—वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम् । अर्द्धेन्दुलसितंदेव्या बीजं सर्वार्थसाधकम्।। और इसके स्थान का संकेत कृष्णवाली गीता में है— ईश्वरःसर्वभूतानां हृद्देशेर्जुन तिष्ठति । भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारुढ़ानि मायया ।। (१८-६१)
अब इन दोनों पर एकत्र ध्यान दें— वियत् कहते हैं आकाश को और बीजमन्त्र है , इसे ईकारयुक्त करें और बीतिहोत्र यानि अग्नि - से युक्त कर दें। यहाँ अग्निबीज रँ की बात नहीं कर रहा हूँ। बात कर रहा हूँ सिर्फ र की । और अब इसे अर्द्धेन्दुलसित करदें । यही गुहा है— परमेश्वर की मायाशक्ति ह्रीँ बीज । इसे ही देवीप्रणव भी कहते हैं। उपनिषत् कहते हैं कि जो भी साधक हृदयगुहा में (वा परमव्योम में—महाकाश में) निहित पराशक्ति ह्रीं को जान लेता है, उसके लिए कुछ भी अज्ञेय नहीं रह जाता—गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीम्
 ये महाशक्ति प्राणिमात्र के हृदयदेश में विद्युतलेखा की भाँति अनवरत जागरित रहती है, इसलिए इसे हृल्लेखा भी कहते हैं। इस प्रकार विचार करने पर ऊँकार से भी अधिक ह्रींकार की महिमा सिद्ध होती है। पञ्चदशीविद्या (कादिविद्या-हादिविद्या) में इस ह्रीं का विशेष प्रयोजन है। तीनों कूटों (वाग्भवकूट, कामकलाकूट, शक्तिकूट) में समान रुप से प्रयुक्त हुआ है। ज्ञातव्य है कि कादिविद्या की उपासना सद्गृहस्थों के लिए एवं हादिविद्या की उपासना परमहंसादि सन्यासियों के लिए कहा गया है।  सौन्दर्यलहरी में इन बातों की विस्तृत चर्चा है। श्रीदुर्गासप्तशती में इस मायाबीज— ह्रीं बीजमन्त्र का प्रयोग मध्यम चरित्र के लिए हुआ है। परब्रह्म (सत्य) की इस आवर्णात्मिका पराशक्ति को ईशावास्योपनिषद्-१५ में हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्...कहकर स्पष्ट किया गया है।

बीजक्रम में अब विचार करते हैं—कामबीज— क्लीँ की । परमशिव की चिदानन्दलहरी का वाचक शक्तिबीज क्लीँ है। इस बीज में क्, ल्, ई और अर्द्धेन्दु ये चार वर्णों का प्रयोग हुआ है। क वर्ण काली, कृष्ण और कामदेव के लिए, ल वर्ण इन्द्र तथा पृथ्वी के लिए, ई शक्ति एवं तुष्टि के लिए तथा अनुस्वार शिव-कल्याण आदि के वाचक हैं । किन्तु ध्यान रहे तन्त्रसाधना में क्लीँ को काली,काम और कृष्ण का बीज ही माना गया है।
क अर्थात् काम ब्रह्मसू— ब्रह्म की प्रथम कामना या इच्छा का प्रतीक है— कामःइच्छा कामना इत्यर्थः । ब्रह्म की प्रथम कामना क्या है? एकोहं बहुस्याम् । मैं अनेक हो जाऊँ । और इसके पश्चात् स ऐच्छत् जाया मे स्यात्—मेरी पत्नी हो। योगकर्णिका बीजकोश ९८-९९ में इन्हीं बातों को स्पष्ट किया गया है— कःकामदेवउद्दिष्टोप्यथवा कृष्ण उच्यते । ल इन्द्रः ईः तुष्टिवाजी सुखदुःखप्रदं च मम्।।  कामबीजार्थ उक्तस्ते तव स्नेहान्महेश्वरि ।
इस कामना मात्र से ही स्त्री-पुरुष संपृक्त (सम्मिलित)अर्द्धनारीश्वर स्वरुप उत्पन्न हुआ । पुनः उस स्वरुप ने ही स्वयं को विभाजित किया— स्त्री और पुरुष रुप में । इस अवस्था को अर्धबिगलम् कहा गया है — अधूरा होने का भान । संसार की सारी साधनाएं इसे पुनः पूर्वरुप में पाने की ही हैं। ईश्वर की इस कामना शक्ति क्लीँ को सृष्टिबीज भी कहा गया है। यही उसकी प्रकृति भी – या स्रष्टुः सृष्टिराद्या प्रकृतिरिति । ईश्वरीय काम (कामना) इस प्रकृति का सहारा लेकर ही साकार होती है—
     प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः । 
(गीता -) अथवा   
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भववाम्यात्ममायया ।। (गीता ४-६) । पृथ्वी (प्रकृति) का बीज कहा गया है को । सृजन की कामना (क) के पश्चात् उसके लिए आधारभूत शक्ति की आवश्यकता होती है। या कहें उस बीज को अंकुरित करने हेतु आधार चाहिए। अतः पृथ्वी बीज ल को कामबीज के साथ रखने की अनिवार्यता सिद्ध होती है । इस प्रकार परमशिव (ईश्वर) के कामबीज क को पृथ्वी (ल) में रोपण तो कर दिया गया, किन्तु कामबीज में जबतक अंकुरण की शक्ति नहीं होगी तब तक सृष्टि कैसे सम्भव है? अंकुरणशक्ति के अभाव में सृजन की ये प्रक्रिया घोर तमस में ही दबी पड़ी रह जायेगी। अतः कामबीज में स्पन्दन (उष्मा) की आवश्यकता है। ये कार्य परशक्ति की अभिन्न शक्ति (ई) के मेलन से सम्भव है - सम्भवायात्ममायया। ईश्वर अपनी मायाशक्ति (ई) के बिना अंकुरणादि का सृजन नहीं कर सकता । इसलिए अब क-ल के पश्चात् ई का प्रयोग हुआ । किन्तु ध्यान रहे इस कामबीज में भी जबतक अनिर्देश्य प्राणनशक्ति का संचार नहीं होगा, तबतक वो भला कैसे क्रिया सम्पन्न कर पायेगा ?  अतः चेतना (प्राणन) का संचार करने हेतु चैतन्यशक्ति शिवबीज—अनुस्वार को मिलाना पड़ा। इस प्रकार सम्पद्यमानार्थक, सम्भवनार्थक, सृष्ट्यर्थक कामबीज क्लीँ की निर्मिति हुयी । ये क्लीं, ब्रह्म का संकल्पबीज है। अतः संकल्पब्रह्म क्लीँ की उपासना करने वाला साधक जो कुछ भी संकल्प करता है, जहाँ तक संकल्प की गति होती है, वहाँ तक उसकी स्वेच्छागति भी हो जाती है। इस सम्बन्ध में छान्दोग्योपनिषद् - द्रष्टव्य है—
यावत् संकल्पस्य गतं तत्रास्य यथाकामचारो भवति, यः संकल्पो ब्रह्मेत्युपासते ।
श्रीदुर्गासप्तशती में ये बीज उत्तमचरित्र में प्रयुक्त हुआ है।

अब विचार करते हैं—वाग्बीज— ऐँ की। श्रीदुर्गासप्तशती में प्रथम चरित्र में ही इसका प्रयोग हुआ है। अतः कोई कह सकता है कि इसकी चर्चा सबसे पहले ही करनी चाहिए थी। किन्तु अब तक के बीज प्रसंग को आप ठीक से परखे हों यदि तो ये संशय निर्मूल हो गया होगा कि हम ऐसा क्यों कर रहे हैं।
शक्तिबीज ई की बात हम पहले भी कर चुके हैं। इस ईकार में जो पराशक्ति निहित है उसका बीज है ऐँ । इसमें बिन्दु परशिव का वाचक है और ऐ पराशक्ति का। इस बीज का निर्माण शक्तिवाजक बीज ई में भावप्रत्यय (घञ्) लगाने से हुआ— ईकारस्य भावः ऐकारः  अर्थात् ई में रहने वाली शक्ति का नाम बोधक है ऐ। पाणिनीअष्टाधायी --१८  में स्पष्ट है कि गत्यर्थक इण् धातु में भावे सत्र से भावार्थक घञ् प्रत्यय और वृद्धि करने से ऐं बनता है। यह ऐँ सृष्टिरुपिणी भगवती सरस्वती का वाचक है— ऐँकारीसृष्टिरुपिण्यै...। इसीलिए वाग्बीज भी कहा गया इसे।
इन्हीं बातों को दूसरी दृष्टि से देखें— शिव शब्द में शकार, इकार, वकार तथा अकार ये चार वर्ण हैं। इसमें शकार - वकार शिववाचक हैं। इकार-अकार शक्तिवाचक। यहाँ इ तथा अ के क्रम परिवर्तन कर देने से अ-इ हो गया। अब इन दोनों की सन्धि से ए बीज का निर्माण हो गया । (अष्टाध्यायी—अदेङ्गुणः आद्गुणः)
आद्यशंकर विरचित सौन्दर्यलहरी १९ में स्पष्ट किया गया है— ए कामकला बीज है। कामकलाबीज ही पूर्ववत् भाव में ऐ हो जाता है । इसमें परशिववाचक बिन्दु लगा देने से ऐँ बीज की अभिव्यक्ति होती है। यथा— मुखं बिन्दुं कृत्वा कुचयुगमधस्तस्य तदधो
हरार्धं ध्यायेद्यो हरमहिषि ते मन्मथकलाम् । स सद्यः संक्षोभं नयति वनिता इत्यतिलघु त्रिलोकीमप्याशु भ्रमयति रवीन्दुस्तनयुगाम् ॥ १९॥
समस्त जगत् इसी ऐँ शक्तिबीज की अभिव्यक्ति है,वाच्य है। इस तथ्य को ही यम ने नचिकेता को कठोपनिषद् में समझाने का प्रयास किया है- एतद् वै तत् ...। अतः पहले इसे ही स्पष्ट करने का प्रयास किया जाए— एत् (ए), अत् (अ), वै (निश्चय), तत् (वह) है। यहाँ एत् और अत् में तकार तपरस्तकालस्य अष्टाध्यीसूत्रानुसार केवल ए और अ को रेखांकित करते हैं। इस प्रकार एतत् वै तत् का अर्थ हुआ—यह सबकुछ ए और अ है। अब इसीका क्रम उलट दें और सन्धि करदें, जैसा कि पूर्व अनुच्छेद में कहा जा चुका है। इस प्रकार शिववाचक बिन्दु लगाते ही ऐँ बीज निर्मित हो जाता है। यहाँ एत् और अत् का क्रम बदलने पर भी इस बीज की सिद्धि हो सकती है। ए का भाववाचक ऐ बना लेने के पश्चात् परशिववाचक अकार को बिन्दुरुप मानकर इस बीज का निर्माण किया गया कह सकते हैं ।
कुञ्जिकास्तोत्र में ऐँकारी सृष्टिरुपिण्यै ही कहा गया है। ऐसी अभिव्यक्ति भगवती वाक् द्वारा ही सम्भव हो सकता है।  ध्यातव्य है कि ऋग्वेद के वागाम्भृणीसूक्त में य ई श्रृणोति से ई बीज बोध्य ऐँ बीज की ओर ही संकेत है। वहाँ भगवती वाक् अपने स्वरुप का स्वयं निर्वचन करती हुयी कहती हैं—परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सम्बभूव...। मैं आकाश और पृथ्वी से परे हूँ । यह सारी सृष्टि मेरी महिमा का प्रस्पन्दन है। सच पूछें तो उक्त वागाम्भृणीसूक्त वाक् पराशक्ति की महिमा का प्रतिपादक अद्भुत सूक्त है।
ऐँ बीज की महिमा प्रकाशित करने वाला एक रोचक प्रसंग है श्रीमद्देवीभागवत -- ४३, ५१ में — 
ऐ ऐ इति भयार्तेन दृष्टवा व्याध्रादिकं वने । बिन्दुविहीनमपीत्युक्तं वांच्छितं प्रददाति वै ।।  एक व्याध के वाण से आहत वराह की रक्षा हेतु तपश्चर्यारत सत्यव्रत नामक ब्राह्मण के मुख से अकस्मात् ऐ..ऐ...ध्वनि निःसरित हुयी । ऐ ऐ की अशुद्ध सारस्वत बीज से रक्षा हुयी । तो फिर शुद्धबीज ऐँ का क्या कहना । इस बीज की शुद्ध भावना पूर्ण जप से संसार के सभी भयों का विमोचन हो सकता है। इसकी उपासना से सभी दैवी और भौतिक शक्तियों की उपासना सम्पन्न हो सकती है। भगवती पराशक्ति का यह ऐँ बीज सारस्वतबीज होने के कारण समस्त लौकिक-पारलौकिक विद्याओं के उपार्जन में सक्षम है। अस्तु।

उक्त तीन और एक,  कुल चार – ऊँ ऐँ ह्रीँ क्लीँ मूल बीजों की चर्चा के पश्चात् दो और प्रधान बीजों की चर्चा भी प्रासंगिक प्रतीत हो रही है। इनमें प्रथम है महालक्ष्मीबीज श्रीं
ध्यातव्य है कि महालक्ष्मी के दो स्वरुप हैं—श्री और लक्ष्मी । शुक्लयजुर्वेदानुसार सहस्रशीर्षा, सहस्रपाद—जिसके एक पाद में सारा ब्रह्माण्ड है और तीन पाद ब्रह्माण्ड से परे अमृतमय हैं, उस नारायण की दो पत्नियों के रुप में इनकी मान्यता है—श्रीश्चते लक्ष्मीश्च- पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि... । विद्वद्वरेण्य महीधर ने इसे यूँ स्पष्ट किया है— यया सर्वजनाश्रयणीयो भवति सा श्रीः – जिसके द्वारा व्यक्ति सम्पत्तिशाली बनता है वह है श्री – श्रीयते अनया श्रीः सम्पदित्यर्थः  – जिसके द्वारा वह लक्षित किया जाता है, यानी दूसरों का ध्यान आकर्षित करता है वह है लक्ष्मी । यहाँ लक्ष्मी सौन्दर्य बोधिका शक्ति की बात की जा रही है — यया लक्ष्यते दृश्यते जनैः सा लक्ष्मीः। तैत्तरीय आरण्यक -१३- में   ययुर्वेद के उक्त मन्त्र—श्रीश्चते ... के स्थान पर ह्रीश्चते पाठ है। ध्यातव्य है कि वहाँ ह्रीं को लज्जाभिमानी देवता तथा लक्ष्मी को ऐश्वरशालिनी देवता माना गया है। यानी लक्ष्मीबीज न कहकर लज्जाबीज कहा गया है। स्पष्ट है कि श्री बीज एक ओर सम्पत्ति की स्वामिनी श्रीदेवी का वाचक है, तो दूसरी ओर सौन्दर्य की देवी लक्ष्मी का और तीसरी ओर शालीनता की देवी ह्रीं — लज्जा का भी। ये महालक्ष्मी सर्वसम्पत्स्वरुपिणी, सम्पत्ति की अधिष्ठात्री, वृद्धिस्वरुपा, वृद्धिदा, क्रोध-हिंसादिवर्जिता (ह्रीं स्वरुपा) सत्यरुपा,परमार्थप्रदा सर्वदा प्रसन्नस्वरुपा है। बैकुण्ठ में लक्ष्मी, इन्द्र के यहाँ स्वर्गलक्ष्मी,राजाओं के यहाँ राजलक्ष्मी और गृहस्थों के यहाँ गृहलक्ष्मी भी यही हैं। कमलपुष्प पर कान्ति और कोमलता के रुप में यही देवी विद्यमान रहती हैं।
श्रीं बीज में शकार, रकार, ईकार तथा बिन्दु ये चार वर्ण हैं। महालक्ष्मीका, सम्पत्ति का, तुष्टि का वाचक है, तथा बिन्दु दुःखहरार्थक है। यथा— महालक्ष्म्यार्थकः  शः  स्याद् धनार्थे रेफ उच्यते । ईस्तुष्टार्थे परो नादो बिन्दुर्दुःखपहारकः । (योगकर्णिका)   कमलवासिनी महालक्ष्मी का बीज है श्रीं, जिसके बारे में देवीभागवत में कहा गया है—लक्ष्मीर्मायाकामवामीङता कमलवासिनी वदिको मन्त्रराजोयं प्रसिद्धः स्वाहयान्वितः ।।  अर्थात् लक्ष्मी (श्रीं), माया (ह्रीं),काम(क्लीं), वाणी(ऐँ), ङे(ए), ता(कमलवासिनी शब्द में तद्अर्थ में ङें) इस प्रकार चतुर्थी विभक्ति लगकर कमलवासिन्यै के पश्चात् स्वाहा शब्द रखने से लक्ष्मी का मन्त्र बनता है— श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा । स्वाहा शब्द का प्रयोग किसी अन्य अर्थ में न होकर यहाँ नमः के रुप में ही हुआ है। स्वाहा शब्दका अर्थ स्वा+हा—अपने सर्वस्व का त्याग (ओहाक् त्यागे सूत्रानुसार) यानी समर्पण के रुप में किया गया है।
ऐँ, ह्रीँ, क्लीँ और श्रीं ये सब शक्ति प्रणव के रुप में मान्य हैं। मुख्यतः ये क्रमशः महासरस्वती, महाकाली, महालक्ष्मी और श्री की साधना में प्रयुक्त किए जाते हैं। किन्तु भावभेद से ये बीजमन्त्र विभिन्न देवी-देवताओं की साधना में भी प्रयुक्त हैं । जैसे क्लीं बीज का प्रयोग कामदेव, कृष्ण, काली और पराशक्ति के लिए किया जाता है। अस्तु।

अब एक अन्य अतिप्रधान बीज स्त्रीं की चर्चा करते हैं। स्त्रीं बधूबीज है। इसमें सकार दुर्गोत्तारणवाच्य है—दुर्गम स्थितियों से रक्षा करनेवाली शक्ति दुर्गा का वाचक है। भवसागरतारक कार समस्त मन्त्र के अर्थ का, कार मयामाया का तथा बिन्दु दुःखहर्ता का वाचक है। स्त्री(बधू)के रुप में वह महेश्वरी संसार के समस्त प्राणियों की रक्षा करती हैं। संसारसागर से तरण कराती हैं। लोककल्यार्थ वही महाशक्ति अपने आप को शिवबधू के रुप में प्रकट की हैं। वस्तुतः शिवबधू हैमवती उमा ही इस बीज की परम वाच्य हैं। ध्यान देने की बात है कि इसी स्त्रीबीजका आलम्ब लेकर पुंस्तत्व आत्मविस्तार करता है और अपने आप को अक्षर-शाश्वत बनाता है। इसी बीज का अश्रय लेकर वह सन्तान-तुन्तु का विस्तार करता है। अपने आपको नित्य नूतन प्र-णव बनाता है। आत्मा वै जायते पुत्रः—इन्हीं बातों का संकेत है। यह वही बीज है जिसकी कामना परमशिव ने सर्वप्रथम की थी— स द्वितीयमैच्छत्, जाया मे स्यात् । पत्नी को जाया भी कहते हैं, यानी पत्नी अपने पति को ही (पति-वीर्य के रुपमें) अपने गर्भ में धारण करती है, नौमास पर्यन्त पालन-संवर्धनोपरान्त सन्तान रुपमें प्रसवित करती है। सो कामयत जाया मे स्यादथ प्रजायेय (बृहदारण्क १-४-१७) इस प्रकार पत्नी को जाया कहने का मूल कारण स्पष्ट है।  
बधूबीज स्त्रीं की उपासना करने वाले साधक का गृहस्थ जीवन अतिसुखमय, शान्तिमय, समृद्धिपूर्ण होता है। जीवन पर्यन्त पति-पत्नी अभेदभाव से सामन्जस्य समरसता का आस्वाद करते हैं।  
बीजों के सम्बन्ध में उक्त विस्तृत चर्चा के पश्चात् एक अन्तिम बात का ध्यान दिलाना आवश्यक प्रतीत हो रहा है, जिसके सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध अक्षमालोपनिषद् में काफी कुछ कहा गया है। वहाँ अन्य चर्चाओं के साथ-साथ अ से क्ष पर्यन्त वर्णमाला में प्रयुक्त सभी वर्णों के अर्थ एवं गुणों का संक्षिप्त वर्णन भी है। इन्हीं गुणों के आधार पर अनगिनत बीजमन्त्रों का सृजन होता है। इन वर्णमातृकाओं से निर्मित बीजमन्त्रों की उपासना से मातृकाओं में निहित गुणों के अनुरुप सिद्धियाँ प्राप्त होती है। इसे आगे एक सारणी के माध्यम से स्पष्ट किया जा रहा है—
वर्ण
गुण
अं
सर्वव्यापक,मृत्युंजय
आं
आकर्षण एवं सर्वव्यापकता
इं
पुष्टिकर,क्षोभकर
ईं
वाक् प्रसाद,निर्मलता
उं
सर्वबलप्रद
ऊं
उच्चाटन,दुःसह
ऋं
संमोहन,चञ्चलता
ॠं
संमोहन,उज्ज्वलता
लृं
विद्वेषण,मोहकता
ॡं
मोहन
एं
सर्व वशकारी
ऐं
शुद्ध,सात्विक,पुरुषवशकारी
ओं
नित्य,शुद्ध,अखिलवाङ्मयता
औं
सर्ववाङ्मयता,वशंकर
अं
गजादि वशंकर
अः
मत्युनाशक,रौद्रस्वरुप
कं
सर्वविषहर,कल्याणप्रद
खं
व्यापक,सर्वक्षोभकर
गं
सर्वविघ्ननाशक,महत्तर
घं
सौभाग्यप्रद,स्तम्भक
ङं
उग्र,सर्वविषनाशक
चं
अभिचारघ्न,क्रूर
छं
भीषण,भूतनाशक
जं
दुर्धर्ष,कृत्यादिनाशक
झं
भूतनाशक
ञं
मृत्युप्रशामक
टं
सुभग,सर्वव्याधिहर
ठं
चन्द्रस्वरुप,चन्द्रबीज
डं
विषघ्न,शोभन
ढं
सर्वसम्पत्कर,सुभग
णं
सर्वसिद्धिप्रद,मोहन
तं
धनधान्यप्रद,सम्पत्दायक
थं
धर्मप्राप्तिकर,निर्मल
दं
पुष्टिकर,निर्मल
धं
विपुल,विषघ्न,ज्वरघ्न
नं
भुक्ति-मुक्ति प्रदायक
पं
विषघ्न,विघ्ननाशक,भव्य
फं
अणिमादि सिद्धिप्रद,ज्योतिस्वरुप
बं
सर्वदोषहर,शोभन
भं
भूतप्रशान्तकर,भयंकर
मं
विद्वेषक,मोहक
यं
सर्वव्यापक,पावन
रं
दाहक,विकृत
लं
विश्वंभर,
वं
सर्वव्यापन,संतुष्टिकर
शं
सर्वफलप्रद,निर्मल
षं
धर्मार्थकामप्रद,धवल
सं
सर्वकारण,सर्ववर्णिक
हं
सर्ववाङ्मयस्वरुप,निर्मल
ळं
सर्वशक्तिप्रद,प्रधान
क्षं
परात्परतत्त्वज्ञापक,परज्योतिस्वरुप
           

 


























































इस प्रकार बीजाक्षरों का गुणधर्मज्ञान रखते हुए, समुचित साधना की जाती है। ध्यातव्य है वैदिककाल से प्रचलित यज्ञादि क्रियाएं वस्तुतः विराट् की साधना है। फलतः यज्ञादि कर्मों के लिए विशेष रुप से बाह्य संसाधनों की आवश्यकता होती है। उसके वगैर काम नहीं चल सकता। इससे भिन्न (विपरीत) उपनिषद् प्रतिपादित क्रियाएँ—आत्मोपासना साधन-निरपेक्ष आन्तरिक साधना है। फलतः बीजनामों, बीजाक्षरों, बीजमन्त्रों की साधना में बाह्य संसाधनों की आवश्यकता न्यूनातिन्यून होती है। वाह्य साधन सापेक्ष उपासना जरा कठिन है। ऐसी साधना हेतु अपेक्षित वस्तु के साथ-साथ देश-काल का भी विचार (अनुकूल उपलब्धि) आवश्यक है। ऐसी साधनाओं में आने वाले विघ्न भी बाह्यतल पर ही होते हैं। जबकि आन्तरिक साधना हेतु साधक का शरीर और मन की अनूकूलता की प्रधानता है। संयम और धैर्य पूर्वक आन्तरिक साधना सरलता से सम्पन्न की जा सकती है। वस्तुतः योग व तन्त्र की साधना भावना-सापेक्ष है। हालाँकि भावना का महत्व लौकिक (वाह्य) जीवन में भी कम नहीं है।
पुनः स्मरण दिलाता हूँ कि बाहर जो कुछ भी है, वह सब हमारे भीतर भी विद्यमान है। भावना के सहारे आन्तरिक साधना में उतर कर उन सबसे परिचित होना है और इस परिचय में सप्तशती बीजमन्त्रों का अद्भुत योगदान है। अस्तु।
             
                                         ।। ऊँश्रीदेव्यार्पणमस्तु ।।
क्रमशः.......



















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