सप्तशतीरहस्य भाग 3

                         सप्तशतीरहस्य भाग 3
         श्री दुर्गासप्तशतीःएक अध्ययन का तीसरा भाग


                    ।। ऊँ नमश्चण्डिकायै ।।
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            सप्तशती-प्राण :  नवार्णमन्त्र
सप्तशती का परिचय प्राप्त कर चुके पूर्व प्रसंग में, किन्तु परिचय की पूर्णता तभी सिद्ध होती है, जब उसके प्राण (तह) तक पहुँच हो जाए। सुपरिचित श्रीनवार्णमन्त्र को श्रीदुर्गासप्तशती का प्राण कहने (मानने) में जरा भी संकोच नहीं ।
सप्तशती-पाठ-क्रम में मूल पाठ के प्रारम्भ और अन्त में नवार्णमन्त्र (अष्टोत्तर शत वा सहस्र) जप का नियम है। कुछ विद्वान इसे ही नवार्ण सम्पुटित पाठ कहते हैं। किन्तु आगे सम्पुट-विधान में जो विधियाँ व्यवहृत हैं, तद्नुसार इसे सम्पुट पाठ कैसे कह सकते हैं—सोचने वाली बात है। क्यों कि असल में सम्पुट पाठ क्रम में प्रत्येक मन्त्र को अभीष्ट मन्त्र द्वारा सम्पुटित करते हैं। यहाँ तो सहज रुप में पूरी सप्तशती को ही सम्पुटित कर निश्चिन्त हो लिए। अस्तु, पहले इस सप्तशती प्राण मन्त्र को ही ठीक से समझें।
नवार्णमन्त्र के सम्बन्ध में डामरतन्त्र में कहा गया है — निर्धूतनिखलध्वान्ते नित्यमुक्तेपरात्परे । अखण्डब्रह्मविद्यायै चित्सदानन्दरुपिणीं । अनुसंदध्महे नित्यं वयं त्वां हृदयाम्बुजे । इत्थं विशदयत्येषा या कल्याणी नवाक्षरी ।। अस्या महिमलेशोपि गदितुं केन शक्यते । बहुनां जन्मनामन्ते प्राप्यते भाग्यगौरवात् ।।
इसी भाँति मेरुतन्त्र की उक्ति है—अथातः सं प्रवक्ष्यामि चामुण्डायाः महामनुम् । नववर्णात्मकं यस्य सेवनाद्भुक्तिमुक्तयः ।। सुरथो यत्प्रसादेन राज्यं प्राप्याभवन्मनुः । संसार बन्धनिर्नाशि ज्ञातमाप्तं समाधिना ।। मार्कण्डेयपुराणोक्तं चरित्रत्रितयंतव । जपाद्यस्यफलं दद्यात्तं मनुं वच्मिसाम्प्रतम् ।। वाक्लज्जाकामबीजान्ते चामुण्डायै पदं वदेत् । विच्चे नवार्ण मन्त्रोयं शक्तिमन्त्रोत्तमोत्तमः ।। अस्मिन्नवाक्षरे मन्त्रे महालक्ष्मीर्व्यवस्थिता। तस्मात्सुसिद्धः सर्वेषां सर्वदिक्षु प्रदीपकः ।।
आद्य प्रणव को छोड़कर ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे—इन नौ वर्णों से ही नवार्णमन्त्र का सृजन हुआ । मन्त्र के प्रारम्भ में ऊँ का उच्चारण तो अनिवार्य है, किन्तु इसकी गणना नहीं की जाती । देवी के प्रायः सभी कार्यों में नौ अंक की प्रधानता मिलती है। यथा—नवमी
तिथि, नवरात्र, नवदुर्गा, नवकन्या, नौ कोष्ठकों वाला यन्त्र इत्यादि।
एकमात्र पराशक्ति सूक्ष्मरुप से सदा-सर्वत्र विराजमान रहती हैं, किन्तु परिस्थिति वश ये भिन्न-भिन्न प्रतीत होती है—
एकैव शक्ति परमेश्वरस्य भिन्ना चतुर्था व्यवहारकाले ।
गृहे सा लक्ष्मी भोगे भवानी समरे च दुर्गा प्रलये च काली ।।
ऊँ पराशक्ति का सर्वाधिक दिव्य साक्षात् स्व-रुप है और नवार्ण मन्त्र— ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अपने सर्वस्व का प्रकट रुप । सूक्ष्म विचार करने पर ज्ञात होता है कि ऐं आत्मतत्त्व है, ह्रीं विद्यातत्त्व एवं क्लीं शिवतत्त्व ।
   श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् में इसकी व्यापक स्पष्टी है। विदित हो कि अथर्ववेद में इस स्तोत्र की काफी महिमा गायी गयी है। इसके पाठ से देवीकृपा का अतिशीघ्र वर्षण होता है। यही कारण है कि सप्तशती के साधकों को रात्रिसूक्त से पूर्व इसका पाठ करने का सुझाव दिया जाता है। पराशक्ति की महिमा यहाँ बिलकुल स्पष्ट है— हे चित्स्वरुपिणी  महासरस्वती ! हे सत् रुपिणी महालक्ष्मी ! हे आनन्द स्वरुपिणी महाकाली ! ब्रह्मविद्या पाने के उद्देश्य से हम तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती स्वरुपिणी चण्डिके ! तुम्हें नमस्कार है। अविद्या रुपी रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि को खोलकर हमें मुक्त करो ।
 वाणी (ऐं), माया (ह्रीं), ब्रह्मसू - काम (क्लीं),   तदग्रे षष्ठ व्यंजन - च, वही वक्त्र अर्थात् आकार से युक्त - चा, सूर्य (म), अवामश्रोत्र- यानी दक्षिणकर्ण (उ) और विन्दु- अनुस्वार युक्त (मुं), टकार से तीसरा- ड, वही नारायण अर्थात् आ से मिश्र  (डा), वायु (व), वही अधर अर्थात् ऐं से युक्त (यै) और विच्चे—ये नवार्णमन्त्र अपने उपासकों को आनन्द और ब्रह्मसायुज्ज प्रदान करने वाला है। यथा—
वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम् ।
सूर्योवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्ताष्टात्तृतीयकः ।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक् ततः ।
विच्चे नवार्णकोर्णः स्यान्महदानन्ददायकः ।।
अब जरा रुद्रयामल गौरीतन्त्रम् के अनुसार नवार्ण मन्त्र की संरचना और महत्ता पर ध्यान दें  ऐं सर्जना की विराट शक्ति है,ह्रीं प्रतिपालिका की विराट शक्ति एवं क्लीं  कामरुपा महासिद्धिदात्री शक्ति चामुण्डा  सारे अनिष्ट और अमंगल का समूल नाश करने वाली चण्डघाती हैं, यै वरदायिनी शक्ति और विच्चेसदा सर्वदा अभय प्रदान करनेवाली शक्ति हैं।  यथा—
ऐंकारी सृष्टिरुपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका ।
क्लींकारी कामरुपिण्यै बीजरुपे नमोस्ते ।।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी ।
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररुपिणि ।।
ऐँ को सत् बीज, ह्रीँ को चित् बीज एवं क्लीँ को आनन्द बीज भी कहा गया है। ऐं को महाकाली का, ह्रींको महालक्ष्मी का एवं क्लीं को महासरस्वती का बीज-विग्रह माना गया है। इस प्रकार सप्तशती के तीन चरित्रों में क्रमशः सत् चित् आनन्द की संप्रतिष्ठा है। यथा — प्रथम में सत्- महाकाली, द्वितीय में चित्-महालक्ष्मी एवं तृतीय में आनन्द- महासरस्वती । अन्तिम पद—विच्चे नमस्कार वाचक है और इसके पूर्व पद में विराजमान हैं भगवती चामुण्डा । इस मध्य पद - चामुण्डा के विषय में श्रीदुर्गासप्तशती के पाँचवें से सातवें अध्याय पर्यन्त कथोदधि में डुबकी लगावें तो कुछ रोचक तथ्य लब्ध हों।
यहाँ संक्षेप में इसकी चर्चा प्रासंगिक प्रतीत हो रही है। पंचम अध्याय के प्रारम्भ में ही प्रसंग है— शुम्भ-निशुम्भ की दानवी शक्ति से विक्षुब्ध-त्रस्त देवगण पराम्बा-जगज्जननी की स्तुति कर रहे थे । गंगास्नान को प्रस्थित देवी पार्वती ने जिज्ञासा की कि आपलोग किसकी स्तुति कर रहे हैं । देवगण कुछ कहना ही चाहते थे कि तत्क्षण  पार्वती के शरीर से एक दिव्यातिदिव्य शक्ति प्रकट होकर बोली कि ये मेरी स्तुति कर रहे हैं। ये शक्ति ही शिवा, अम्बा, अम्बिका आदि विविध नामों से विख्यात हैं। इस शक्ति के प्रकट होते ही पार्वती का शरीर काला पड़ गया, जो कि कालिका के नाम से प्रख्यात हुयी। हिमगिरि पर शिलासीन अम्बिका के दिव्य सौन्दर्य पर आकर्षित-मोहित होकर शुम्भ ने संदेश भेजा पत्नी बनने हेतु । तदुत्तर में देवी ने कहा— यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति । यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति ।। — देवी  के इस वचन से क्रोधित शुम्भ ने अपने सेनापति धूम्रलोचन को आदेश दिया कि उस अहंकारिणी सुन्दरी की चोटी पकड़कर खींचकर ले आए । आज्ञापालक धूम्रलोचन तो देवी के हुंकार मात्र से भस्म हो गया। तदन्तर उसकी साठहजार सैनिकों की भी वही गति हुई। इस घटना से क्रुद्ध शुम्भ चण्ड-मुण्ड को प्रेषित किया। उसे देखकर क्रोधाविष्ट देवी के ललाट से एक शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ जिसका वर्णन सप्तशती के सप्तम अध्याय में है— 
कालीकराल वदना....नादापूरितदिङ्मुखा ।। (श्लोक संख्या ,,)। इस काली ने ही चण्ड-मुण्डादि का वध किया और उनका मुण्ड लेकर अम्बाजी के पास पहुँची, जिस पर प्रसन्न होकर अम्बाजी ने कहा—
यस्याच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता ।
चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवि भविष्यति ।। — चण्ड-मुण्ड के सिरों को लेकर आने वाली तुम देवी कालिका अब से चामुण्डा के नाम से लोकचर्चित होओगी ।
नवार्णमन्त्र में प्रयुक्त चामुण्डायै पद उसी अपरिमेय शक्ति का द्योतक है। इस पुस्तक के प्रथम अध्याय में ही स्पष्ट किया जा चुका है कि विकट छलयुक्त क्रोध ही चण्ड है और बौद्धिक मायायुक्त द्वेष ही मुण्ड है। इन दोनों की विनाशिका शक्ति ही चामुण्डा हैं।
ध्यातव्य है इस चामुण्डायै पद में पाँच व्यंजनवर्णों और चार स्वरवर्णों का प्रयोग हुआ है— च् म् ण् ड् य् एवं आ उ आ ऐ । इस प्रकार इसकी वर्णसंख्या भी ही है। इन वर्णों का बड़ा ही अद्भुत प्रभाव है। इसकी महत्ता को देखते हुए ही इसे महामन्त्र के मध्य में स्थान दिया गया है।
षट्चक्रस्थित विविध वर्णों की अवस्थितिक्रम में जिज्ञासु साधकों को इन-इन स्थानों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
(इसकी विशद चर्चा बाबाउपद्रवीनाथ एवं सूर्यविज्ञान नामक दोनों पुस्तकों में मैं कर चुका हूँ।)
चक्र के उन-उन दलों पर ध्यान केन्द्रित करने से आगे के कई कार्य आसान हो जाते हैं। नवार्णमन्त्र की स्वतन्त्र (एकल) साधना (पुरश्चरणादि) के पीछे भी यही रहस्य है।

नवार्णमन्त्र का एक और स्वरुप विविध ग्रन्थों में मिलता है— ऊँ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै नमः । गौरीतन्त्र, वाराहीतन्त्र, चिदम्बरसंहितादि ग्नन्थों में स्पष्ट है कि पराशक्ति के श्रीचरणों में अपने अहं का पूर्ण विसर्जन करे—  नमोदेव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः । नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ।। यहाँ भी ह्रीं का वही स्वरुप है जो पूर्व नवार्ण में कहा गया है। श्रीं श्री दायक है, दुं अमंगलनाशक और दुर्गा तो दुर्गतिनाशिका है ही । अतः ये मन्त्र भी परसिद्धि और परमानन्ददायक है।
डामरतन्त्रम् में नवार्णमन्त्र का कुछ और स्वरुप भी मिलता है—   ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं ल्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं नमः।।
ऊँ ऐं ऐं ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा।।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं लृं ह्रीं नमः।।(दक्षिणात्य)
ऊँ हूं ऐं ऐं ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा।।(सारस्वत)

किंचित सिद्ध योगियों के अनुसार एक और नवार्णमन्त्र की चर्चा मिलती है, जिस पर सामान्यतया किसी का ध्यान शायद ही गया हो। सप्तशती के चतुर्थ अध्याय में एक रक्षा मन्त्र है—
शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके ।
घंटास्वनेन नः पाहि चापज्यानिः स्वनेन च।। (-२४) ( हे देवि !    
आप शूल से हमारी रक्षा करें। अम्बिके ! आप खड्ग से हमारी रक्षा करें तथा घंटा की ध्वनि एवं धनुष की टंकार से भी हमारी रक्षा करें। ) सामान्य अर्थ तो यही है। जबकि गूढ़ार्थ है — हे देवि ! अपने खड्ग से हमारे दैहिक,दैविक,भौतिक—त्रितापों को नष्ट करें। जाग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति की व्याधि (वाधाओं) को नष्ट करें। त्रिदेह—स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर का अतिक्रमण कर सकूँ घंटाध्वनियों द्वारा । घंटाध्वनि में विशेष रहस्य निहित है। नाद और स्पन्दन (प्रणव) के अतिक्रमण का भाव है यहाँ। कारण और महाकारण शरीर में महिषासुर रुपी अहंकार का षट्चक्रभेदन द्वारा शमन कर सहस्रार या कि ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश कर क्रमशः ऊर्ध्वगति प्राप्त कर ज्ञानराज्य में प्रवेश पा सकूँ । मानव-शरीर के परम लक्ष्य की प्राप्ति ही इस महामन्त्र का मूल उद्देश्य है। ध्यातव्य है उक्त मन्त्र में नौ बार का प्रयोग हुआ है, इसीलिए नवार्णमन्त्र कह कर इसके रहस्य की ओर ध्यान दिलाया गया है। मानव जीवन का परम लक्ष्य ब्रह्मप्राप्ति है। उसे ही वेधना है—वहीं पहुँचना है । प्रणवरुपी धनुष में आत्मारुपी बाण का संधान करके ब्रह्म-साक्षात्कार करना है। बाण सदा सीधे अपने लक्ष्य की ओर गमन करता है। घंटा (परावाणी) की अन्तिम ध्वनि टन् यानी बिन्दु है । यथा—
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।
अप्रत्येन वेधव्यो शरवत् तन्मयो भवेत् ।।

उक्त नवार्ण मन्त्र के सम्बन्ध में कितना भी कहा जाए, कम ही है। वैसे तो श्रीदुर्गासप्तशती का प्रत्येक श्लोक मन्त्र ही है और सबका अलग-अलग ढंग से प्रयोग है। किन्तु नवार्ण तो वस्तुतः प्राण है। इस प्राण की साधना सर्वाधिक अपेक्षित है।
बहुत से साधक स्वतन्त्र रुप से भी इसकी साधना करते हैं। वर्ण लक्ष जपेत् सिद्धिः सिद्धान्तानुसार नौ वर्णों वाले इस मन्त्र के नौ लाख पुरश्चरण संख्या विहित है। कलौसंख्या चतुर्गुणाः का भी ध्यान रखना आवश्यक है। ज्ञानार्णवतन्त्रम् में प्रत्येक लक्षजप के फल निर्दिष्ट हैं। यथा—  लक्षमेकं जपेद्देवि महापापैः प्रमुच्यते ।
 लक्षद्वयेन पापानि सप्त जन्म कृतान्यपि ।।।।
 नाशयेच्चण्डिकादेवी साधकस्य न संशयः ।
 जप्त्वा लक्षत्रयं मन्त्री यन्त्रितो मन्त्रविग्रहः ।।।।
 पातकं नाशयेदाशु यदि जन्म सहस्रकम् ।
 जप्त्वा विद्यां चतुर्लक्षं महावागीश्वरो भवेत् ।।।।
 पञ्च लक्षाद्दरिद्रोपि साक्षाद्वैश्रवणो भवेत् ।
 जप्त्वा षड् लक्षमेतस्या महाविद्या धनेश्वरः ।।।।
 जपत्वैव सप्तलक्षाणि खेचरी मेलको भवेत् ।
 अष्टलक्ष प्रमाणश्च जप्त्वा विद्यां महेश्वरि ।।।।
 अणिमाद्यष्टसिद्धीशो जायते देवपूजितः ।
 नवलक्ष प्रमाणं तु जप्त्वा वै नव चण्डिकाम् ।।।।
 विधिवज्जायते मन्त्री रुद्रमूर्तिरिवापरः ।
 कर्ता हर्ता स्वयं गौरि लोकेप्रतिहत प्रभः।
 प्रसन्नो मुदितो धीरः स्वच्छन्दगतिरीरितः ।।।।  
साधक को चाहिए की जन्मकुण्डली का विचार करके, साधनानुकूल समय सुनिश्चित करे। शारदीय नवरात्र, वासन्तिक नवरात्रादि भी अनुकूल काल विशेष हैं। किन्तु उस काल में भी अपनी ग्रह-स्थिति (साधक वा वाधक) का विचार अवश्य करना चाहिए। देवीयन्त्र वा लघुमूर्ति (आठ अंगुल मात्र) की विधिवत स्थापन-पूजन करके, सामान्य विनियोग, न्यासादि का प्रयोग करते हुए दीर्घकालिक अनुष्ठान प्रारम्भ करना चाहिए ।
 एक और बात का ध्यान रखना आवश्यक है— देवी के नाम पर लोग सीधे रक्त परिधान का ही चुनाव कर लेते हैं, किन्तु रक्त वा काषायवस्त्र सबके लिए नहीं है। सामान्यजन तो इसके बिलकुल अधिकारी ही नहीं है, जबकि आजकल आडम्बरी परिधानों का प्रचुर प्रयोग हो रहा है।  उचित होगा कि मध्यम मार्ग—पीत परिधान का प्रयोग किया जाए। असन-वसन, व्यसन, संभाषण आदि का कठोरता पूर्वक ध्यान रखते हुए साधना करनी चाहिए। सौभाग्य से योग्य गुरु (पेशेवर कनफुकवा नहीं) मिल गए हों तो उनके श्रीचरणों में प्रणिपात पूर्वक उनके ही निर्देशन में कार्य करे, अन्यथा अपनी माता वा भगिनी को ही तात्कालिक गुरु स्वीकरते हए, उनमें ही जगदम्बाभाव से समर्पित होकर साधना कर सकते हैं। यहाँ-वहाँ भटकने और किसी झांसेबाज के चंगुल में फँसने से कहीं अच्छा है जन्मदात्री के श्रीचरणों में समर्पित होना। जगज्जननी का ही स्थूल स्वरुप  है जन्मदात्री माँ- इसे न भूलें।  
कुलार्णवतन्त्रम् में अनुष्ठानस्थल के सम्बन्ध में कहा गया है—
गृहे शतगुणं विद्याद् गोष्ठं लक्षगुणं भवेत् । कोटिर्देवालये पुण्यमनन्तं शिवसन्नधौ ।। इन्हीं बातों को पुराणों में किंचित भिन्न रुप (विस्तार) से कहा गया है— गृहे चैकगुणः प्रोक्तः गोष्ठे शतगुणः स्मृतः । पुण्यारण्ये तथा तीर्थे सहस्रगुणमुच्यते ।। अयुतः पर्वते पुण्यं नद्यां लक्षगुणो जपः । कोटि देवालये प्राप्ते अनन्तं शिवसंनिधौ ।। — 1.घर में शतगुणा, गोशालादि में लक्षगुणा, अन्य देवालयों में कोटिगुणा एवं शिवालय में अनन्तगुणा फलदायी है। 2.घर में एकगुणा (सामान्य), गोशाला में शतगुणा, पुण्यारण्यों एवं तीर्थस्थलों में सहस्रगुणा, पर्वत पर दस हजार गुणा, नदीतीर पर लाखगुणा, अन्य देवालयों में करोड़गुणा एवं शिवालय में अनन्तगुणा फलदायी होता है।
अतः विन्ध्याचल आदि शक्तिपीठों में वास करके भी अनुष्ठान साधा जा सकता है, किन्तु समयानुसार तीर्थस्थलों की स्थिति काफी विकृत और अशान्त  हो गयी है। सर्वसुलभ होने के कारण तीर्थस्थल ज्यादातर पिकनिकस्पॉट बन कर रहे गए हैं। स्वाभाविक है कि वहाँ भी व्यवसायीकरण हो गया है। नदियाँ अस्तित्व विहीन हो रही हैं। बर्बरतापूर्वक अतिक्रमण हो रहा है। उनकी धार्मिक व सामाजिक मर्यादाओं का घोर उल्लंघन हो रहा है। अतः सद्गृहस्थ का निज आवास ही सर्वश्रेष्ठ साधनाभूमि हो सकती है। किन्तु हाँ, सुविधानुसार शक्तिपीठों (देवीतीर्थों) का दर्शन अवश्य करें—कम से कम अनुष्ठान के आदि-अन्त में।
तोडलतन्त्रम् में मन्त्रचैतन्य-विधि पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है— सर्व मन्त्रस्य चैतन्यं श्रृणु पार्वति सादरं । सहस्रारे महापद्मे विन्दुरुपं परं शिवं । कुण्डलिनीं समुत्थाप्य हंसेन मनुना सुधीः ।। नासाग्रे या स्थिरा दृष्टिर्जायते परमेश्वरि । तदैव मन्त्र चैतन्यं कुण्डली चक्रगं भवेत् । सहस्रारे महापद्मे कुण्डल्या सहितं गुरुं ।। भावयेत्सर्व मन्त्राणां चैतन्यं जायते प्रिये। तदेव प्रजपेन्मन्त्रं सिद्धिदं नात्रसंशयः।। अस्तु।
                ।।ऊँ श्री जगदम्बार्पणमस्तु।। 
क्रमशः......

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