सप्तशतीरहस्य- भाग 4

      श्रीदुर्गासप्तशतीःःएक अध्ययन (चौथा भाग)


                ।।ऊँ नमश्चण्डिकायै।।
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           सप्तशती केन्द्र : कुमारी पूजन
    नवरात्रादि देवी-अनुष्ठानों में कुमारी-पूजन का पर्याप्त प्रचलन है; किन्तु खेद की बात है कि भक्तगण सिर्फ एक औपचारिकता पूरा करके निश्चिन्त हो जाते हैं। आस-पड़ोस से सुविधानुसार कुछ बच्चियों को बुला लिए, हाथ-पैर धुलाकर चन्दन-टीका लगा दिए और भोजन करा दिए। खूब हुआ तो कुछ वस्त्रोपहार भी भेंट कर दिए; जबकि इसका गूढ़ात्मक रहस्य कुछ और ही है। कर्मकाण्ड भी विस्तृत है। अलग-अलग सम्प्रदायानुसार काल-भेद भी है और क्रिया-भेद भी।
   कुमारी-पूजन की क्रिया-विधि पर चर्चा करने से पूर्व कुमारी के सम्बन्ध में ही चर्चा अपेक्षित है। तन्त्रशास्त्रों में इसे कुमारीतत्व कहा गया है। इसकी तत्त्वात्मक-व्याख्या भी थोड़ी जटिल है। अतः सबसे पहले इसे ही ठीक से समझने का प्रयास करना चाहिए।
  महामहोपाध्याय पं.गोपीनाथ कविराजजी ने इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला है स्वरचित विविध पुस्तकों में।  उनके प्रकाश-प्रक्षेपण का मूल आधार है - स्वामी विशुद्धानन्दजी का लोकोपयोगी विविध व्याख्यान, जिसे कई अन्य अध्येताओं ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। सनातनी, जैन, बौद्ध, ईसाई आदि धर्मावलम्बियों ने इसी मूल तत्व को अपने-अपने ढंग से परखा-जाना और उपयोग किया है। महर्षि अरविन्द की अपनी अलग समझ रही है इस विषय पर। यहाँ हम कविराजजी के विचारों के अनुसार ही थोड़ी चर्चा करना चाहते हैं। विशेष जिज्ञासुओं को उनके मूलग्रन्थ अखण्डमहायोग का अवगाहन करना चाहिए। विदित हो कि ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या पर उनकी आस्था विशेष नहीं थी। सामान्य जन भी इसे पचा नहीं पाता कि ब्रह्म यदि सत्य है तो फिर ब्रह्म-निर्मित ये जगत् मिथ्या कैसे हो सकता है ! वस्तुतः ये सारी सृष्टि तो महामाया का लीलाविलास है—एक ही महाशक्ति का अनेक रुप प्राकट्य । इसीलिए जीवमात्र के कल्याण के हेतु योगीगण सदा तत्पर रहते हैं— भुक्ति-मुक्ति का परित्याग करके । व्यष्टि-मुक्ति से भिन्न, समष्टि-मुक्ति का प्रशस्त पथ ही महायोगियों का प्रयास हुआ करता है।
   प्रसंगवश यहाँ पहले अखण्डमहायोग की थोड़ी चर्चा समीचीन है। इसके अनुसार शक्ति की साम्यावस्था ही कुमारी है। अतः केन्द्रस्वरुपा शक्ति कुमारी ही इस साधना में उपास्यरुप में मान्य है। सृष्टि-लय की मध्यवर्तिनी कुमारीधारा का आश्रय ही जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति दिला सकता है। मन को अमन करने में कुमारी-सेवा बहुत ही सहयोगी है।  इसे साधना की पहली कड़ी भी कह सकते हैं। सच्ची सेवाभाव ही हमारे भीतर उत्पन्न नहीं हो पाता। निष्काम कर्म और निष्काम सेवा जरा कठिन कार्य है। श्रीकृष्ण ने भी इसी निष्कामता की बात की है।
   आगमशास्त्रों के अनुसार कुमारी-तत्व ही परम स्थिति है, जहाँ से सृष्टि का शुभारम्भ होता है। ध्यातव्य है उत्पत्ति के पश्चात् भी इस महातत्त्व का कुमारीत्व यथावत अक्षुण्ण रहता है। पुराण कहते हैं—कलिकाल के समापन में कुमारी माँ के गर्भ से ही ईश्वर का कल्कि अवतार होना है। ईसाई मतावलम्बियों की माँ मरियम इसी तत्व का पकड़ है - निष्कलंक गर्भाधान । शिवसूत्र के अनुसार कुमारी की परम इच्छा ही जगन्माता उमा माँ के स्वरुप में अवतरित हुई हैं। कुमारी-सत्ता की परम स्थिति काल और महाकाल से भी परे है।
   महाकालसंहिता में विशद प्रसंग है इसका। भगवान शिव की प्रसन्नता हेतु कुमारी-पूजा की महत्ता दर्शायी गयी है वहाँ । तन्त्रशास्त्र भी तो कुछ ऐसी ही बातें करता है—कुलकुण्डलिनी महाशक्ति का सहस्रार स्थित शिव से मिलन ही तो योगी का अभीष्ट हुआ करता है।
कौलमार्गी कुमारी-पूजा महारात्रि में करते हैं, जबकि स्मार्तगण अपराह्न वा संध्या काल में। जबकि सामान्यजन नवरात्र अनुष्ठान के समापन से पूर्व येन-केन-प्रकारेण कुमारी-पूजन करके नियम पूरा कर लेते हैं।   
यामलग्रन्थों में कुमारी तीन प्रकार की कही गयी हैं—परा, अपरा और परापरा । सृष्टि उन्मेष के पूर्व कुमारी की ही परम स्थिति थी— ऐसा यामलोक्त है। यही आद्याशक्ति है। ये महाशक्ति व कालशक्ति ही समस्त जगत् में क्रियाशील है। सृष्टि का एक नाम सर्ग भी है—परिणामी—परिवर्तनशील । संसार में सबकुछ परिणामी ही है, परिवर्तनशील ही है। कुछ भी स्थिर और यथावत नहीं रह सकता । जरा और स्पष्ट तौर पर इसे आवर्तनशील कहें तो अधिक अच्छा ।
ध्यातव्य है परिणामी-परिवर्तनशीलता—ये काल के अधीन है। समस्त सृष्टि कालराज्य के अन्तर्गत है। काल की सत्ता से परे जाना ही योगी का प्रयास है। उपासना का उद्देश्य ही है इस कालराज्य का अतिक्रमण—परिणामीभाव से मुक्ति
काल के अतिक्रमण के लिए (कालजयार्थ) शाक्तमतोक्त उपासना प्रचलित है। इसके लिए पंचदशी, षोडशी और सप्तदशी महाशक्तियों का ज्ञान आवश्यक है। इन तीनों को समझने से पूर्व कुछ अन्य बातों की समझ भी जरुरी है।
ज्ञातव्य है कि आवर्तन की गति दो प्रकार की है। इन दो गतियों (स्थितियों) का अनुभव संसार के अनेक कार्यों में हम सदा करते रहते हैं—उर्ध्वगति-अधोगति, आकुंचन-प्रकुंचन, श्वांस-प्रश्वांस, दिवा-रात्रि इत्यादि। काल जनित ये गतियाँ निरन्तर जारी हैं। इस उर्ध्वाधर के मध्य की स्थिति को पकड़नी है, समझनी है। वही स्थितिबिन्दु है, उसे ही प्राप्त करना है। जड़ता को दूर कर, चैतन्य की उपलब्धि यहीं होगी। कालातीत में पहुँचने की कला यहीं प्राप्त होगी। यही षोडशी है। और इसे ज्ञात कराने की विधि ही षोडशीविद्या के नाम से अभिहित है तन्त्रशास्त्रों में। इस विद्या के लब्ध होते ही शक्तिराज्य में प्रवेश हो जाता है।
   महात्रिकोण के मध्यबिन्दु में सदाशिव विराजते हैं। कामेश्वर-कामेश्वरी की समरसता यहीं विद्यमान रहती है। ध्यातव्य है कि इस मध्यबिन्दु के चारो ओर एक नित्य मण्डल परिभ्रमित होते रहता है। नित्यादेवी स्वरुपिणी, कालशक्तिरुपिणी पंचदशी यहीं हैं। ये आवर्तनशीला हैं। हालाँकि नित्या तो पूर्वकथित षोडशी भी हैं, किन्तु किंचित भेद है—षोडशी साक्षात् जगदम्बा हैं। तिथिक्रम से चन्द्रकला का विकास होते-होते पूर्णिमा की स्थिति आ जाती है—पंचदशी। किन्तु आवर्तनशीलता के कारण पुनः ह्रास भी होता है और अमावस्या की स्थिति भी आती है। यानी कि पंचदशी में कला की ह्रास-वृद्धि विद्यमान रहती है, जबकि षोडशी मध्य बिन्दु स्थिर है। इस मध्यबिन्दु का आश्रय लेकर ही पंचदशी कार्यशील है। ध्यातव्य है कि मध्यबिन्दु का आधार ग्रहणकर घूर्णनशील बिन्दु का क्रमगति दो प्रकार का है—वाम व दक्षिण । ये आवर्तन अनादि-अनन्त है।
   जरा ध्यान दें तो कुछ और बातें स्पष्ट होगी । मध्यबिन्दु है— स्थिर बिन्दु  । घूर्णनक्रिया है—वाम-दक्षिण । स्वाभाविक है कि स्थिरबिन्दु—मध्यबिन्दु—कूटस्थबिन्दु और आवर्तबिन्दु के बीच कोई न कोई अदृश्य रज्जु अवश्य है। स्थिरबिन्दु, आवर्तबिन्दु और संयोजन रज्जु — इन तीन के कारण ही कालचक्र बनता है। घूर्णनबिन्दु ही कालबिन्दु है। जीवमात्र इसी का आश्रयी है—जन्म-मरण के आवर्त में उब-चूब होता हुआ। ये आवर्तनयुक्त बिन्दु ही देह संज्ञित है एवं स्थिरबिन्दु ही आत्मा है। चलबिन्दु ही प्रकृति है और अचल बिन्दु ही पुरुष।
   उक्त पंचदशी और षोडशी से भी परे एक और स्थिति है—सप्तदशी, जहाँ एक ओर क्रियाशीलता भी है और दूसरी ओर अनन्त निष्क्रियता भी। सच पूछें तो सक्रिय-निष्क्रिय का भेद ही नहीं है वहाँ । वही अखण्डकुमारीतत्त्व है। विश्वसृष्टि यहीं से प्रसवित हो रही है निरन्तर। निरन्तर क्षरित होते हुए भी अ-क्षरित है, अखण्ड है ये कुमारीतत्व ।  
  लगभग सभी शास्त्र कहते हैं कि ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति है हमारा शरीर — यश्मिनपिण्डे, तस्मिनब्रह्माण्डे। अथवा यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे  जो कुछ भी ब्रह्माण्ड में है, वह सबके सब हमारे शरीर में भी विद्यमान है। ऐसे में निश्चित है कि ये स्थिरबिन्दु भी हमारे भीतर विद्यमान है । इसे ही ढूँढ़ना है, जानना है। सूर्यगीता में इसे ही किंचित दूसरे रुप में कहा गया है। समष्टि और व्यष्टि की समानता ही मूल भाव है —ब्रह्माण्डानि च पिण्डानि समष्टिव्यष्टिभेदतः ।
      परस्पर विमिश्राणि सन्त्यनन्तानि संख्यया ।।
इस अखण्डकुमारीतत्त्व की खोज और प्राप्ति में अति सहायक है कुमारीपूजा । अप्रत्यक्ष-अमूर्त तक पहुँचने में सहायिका है देहधारिणी कुमारी माँ । साकार मातृरुपा कुमारी की सेवा से देहशुद्धि होती है, पुष्टि होती है, सिद्धि होती है। स्थूलदेह की शुद्धि और पुष्टि क्रमिक रुप से सूक्ष्मदेह की शुद्धि-पुष्टि का मार्ग प्रशस्त करता है। अतः शक्त्योपासना का प्रधान अंग माना गया है कुमारी पूजा को।
    ध्यातव्य है कि सामान्य जनोपयोगी पशुता के नाश (जातिभेदादि) क्रम में लोग कह देते हैं कि कुमारी पूजा में किसी भी जाति की कन्या को ग्रहण किया जा सकता है, किन्तु फिर भी,   सुन्दरी, सम्भ्रान्त, ब्राह्मणीकन्या का विशिष्ट महत्व है। नेत्र-आँख-दांत आदि की बेडौल बनावट और विकलांगता आदि दोषों से ग्रसित न हो। वस्तुतः जगदम्बा की बाह्यमूर्ति की उपासना है ये, फिर अ-सौन्दर्य की मान्यता कैसे हो सकती है !
 पूजार्थ वर्जित कुमारियों के विषय में कहा गया है—
हीनाधिकाङ्गीं कुष्ठादि विकारां कुकुलां तथा। ग्रन्थिस्फुटित सर्वाङ्गी रक्त पूय ब्रणाङ्किता । जात्यन्धां केकरां काणां कुरुपां तनु रोमशाम् । संत्यजेद्रोगिणीं कन्यां दासी गर्भ समुद्भवाम् ।
  वर्जित कुमारियों के सम्बन्ध में एक और बात का ध्यान रखना चाहिए— तावत्संपूज्यते कन्या यावत्पुष्पं न दृष्यते । (स्कन्दपुराण) यानी मासिक चक्र का प्रारम्भ न हुआ हो, जिस बालिका में वही कुमारी-पूजा योग्य है। मासिकचक्र की शुरुआत अलग-अलग परिवेशों में भिन्न-भिन्न आयु में दृष्टिगोचर होता है—नौ से सोलह वर्ष तक, कहीं इससे भी ऊपर ।  अतः निःसंकोच इस बात की जानकारी कर ले कन्या के माता-पिता से।
  स्कन्दपुराण में ही एक और बात की वर्जना है— एकवर्षा तु या कन्या पूजार्थं तां तु वर्जयेत् । गन्ध पुष्पफलादीनां प्रीतिस्तस्या न विद्यते।। (एक वर्षीया कन्या को यहाँ ग्राह्य होते हुए भी निषिद्ध किया जा रहा है, क्यों कि छोटी वालिका में सांसारिक वस्तुओं के प्रति ज्ञान का अभाव लक्षित होता है।)
 ऋषि पुनः कहते हैं— ज्ञातिभेदेन कामना भेदेषु तत्पूज्यतामाह — कामनाभेद से वर्णभेद विचारणीय है। ब्रह्मणीकन्या को सभी कार्यों के लिए श्रेष्ठ कहते हुए भी पुनः कहते हैं कि विजयप्राप्ति हेतु क्षत्रिय कन्या होनी चाहिए, अर्थलाभार्थ वैश्यकन्या,सन्तान कामनार्थ शूद्र कन्या एवं दारुण दुःख निवारण हेतु अन्त्यज कन्या का चयन करे। यथा—
ब्राह्मणीं सर्व कार्येषु जयार्थे नृप वंशजाम् ।
लाभार्थे वैश्य वंशोत्थां सुतार्थे शूद्र वंशजम्।
दारुणे चान्त्य जातीयां पूजयेद्विधना नरः।

देवीपुराण में कुमारीपूजा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है— दुःख दारिद्य नाशाय शत्रूणां नाशनाय च। आयुषे बल वृद्ध्यर्थं कुमारीः पूजयेन्नरः ।। आयुष्कास्त्रिमूर्तिं तु त्रिवर्गस्य फलाप्तये । अपमृत्यु व्याधि पीड़ा दुःखानामपनुत्तये ।। सौख्य धान्य धनारोग्य पुत्र पौत्रादि वृद्धये । कल्याणीं पूजयेद्धीमान्नित्यं कल्याण वृद्धये । आरोग्य सुख कामी तु धन कामस्तथैव च ।। यशस्कामी नरोनित्यं रोहिणीं परिपूजयेत् । विद्यार्थी च जयार्थी च राज्यार्थी च विशेषतः ।।
   कुमारीपूजाक्रम में करणीय संकेत देते हुए ऋषि कहते हैं— प्रक्षाल्य पादौ सर्वासां कुमारीणां च वासव । सुलिप्ते भूतले रम्ये तत्र सा आसने स्थिता ।। पूजयेद्गन्धपुष्पैश्च स्रग्भिश्चापि मनोरमैः । पूजयित्वा विधानेन भोजनं तासु दापयेत् ।। खण्डं लड्डु गुडं सर्पि दधिक्षीरं समाक्षिकम् । तासां देयं कुमारीणां शनैस्संभोजयेत्तु ताः ।। पानीयं यातितं देयमन्नं वा याचितं शुभम् ।। तास्तृप्तास्तु यदा सर्वास्तदा त्वाचमनंददेत् । आचम्यं चाक्षतान्दत्वा त्वया क्षन्तव्यमित्युत ।। दातुः शिरसि दातव्याः कन्यकाभिरथाक्षताः।। तेनापि प्रणिपातस्तु कर्तव्यो भक्ति पूर्वकः ।। अनेन विधिना शक्र ! देवी क्षिप्रं प्रसीदति ।। ददाति विविधान्कामान्नमनोभीष्टान्सुराधिप ! राज्यं कृत्वा ततः पश्चाद्देवी- लोकश्च गच्छति।।
  वर्ण (रंग) भेद से पूजा भेद सिद्ध करते हुए कौलावली तन्त्र में कहा गया है — 
गौरीं सर्वेष्ट संसिद्ध्यै पीताङ्गी जय कीर्तये । लाभार्थेरुणवर्गाङ्गीमसितामारणादिष्विति क्वचित् । एकवंश समुद्भूतां कन्यां सम्यक् प्रपूजयेत् ।
कुमारी-तत्व एवं पूजन के सम्बन्ध में कुछ और चर्चा अपेक्षित है। कई अन्य बातों का भी ध्यान रखने का शास्त्र-संकेत है। हालाँकि ये समझना-जानना बहुत कठिन है, किन्तु कहा गया है कि कुमारी-पूजा हेतु चयनित कुमारी का चित्त कामकलुषित कदापि न हो व वाग्दत्ता (मंगेतर) न हो । चयनित कुमारियों की आयु सात से नौ के बीच की हो तो अति उत्तम ।
हालाँकि सोलह वर्ष तक की कुमारियों का नाम-क्रम गिनाया गया है तन्त्रग्रन्थों में । तन्त्रपरम्परा का सुख्यात ग्रन्थ - शाक्तप्रमोद में भी कुमारीतन्त्रम् समाविष्ट है। विदित हो कि कुमारीतन्त्रम् में रुद्रयामलतन्त्रम् उत्तरखण्ड षष्ठपटल का प्रसंग विस्तार से ग्रहण किया गया है। यहाँ कुमारियों के ये सोलह नाम क्रमशः वर्षानुसार गिनाये गए हैं। किंचित पाठभेद एवं नाम भेद से कुब्जिकातन्त्रम् एवं वृहन्नीलतन्त्रम् में और भी विस्तार से कुमारी पूजा का प्रसंग है। कुमारीकवच एवं स्तोत्र भी वहाँ उपलब्ध है। उन्हीं ग्रन्थों के यत्किंचित सारतत्व यहाँ उद्धृत किया जा रहा है। यथा—
एक वर्षा भवेत्संध्या द्विवर्षा तु सरस्वती ।
त्रिवर्षाचत्रिधामूर्तिश्चतुवर्षाचकालिका ।।
सुभगापञ्चवर्षातुषड्वर्षाचभवेदुमा ।    
सप्तभिर्व्भिल्लनीसाक्षादष्टवर्षातुकुब्जिका ।।   नवभिःकालसन्दर्व्भादशभिश्चापराजिता ।
एकादशेतु रुद्राणीद्वादशाब्देतुभैरवी ।
त्रयोदशेमहालक्ष्मीर्द्द्विसप्तापीठनायिका ।।
क्षेत्रज्ञापञ्चदशभिःषोडशेचाम्बिकामता ।
एवङ्क्रमेणसंगृह्ययावत्पुष्पन्नजायते ।।

१.      वर्ष — संध्या
२.      वर्ष — सरस्वती
३.      वर्ष — त्रिधामूर्ति
४.      वर्ष — कालिका
५.      वर्ष — सुभगा
६.      वर्ष — उमा
७.      वर्ष — मालिनी(भिल्लनी)
८.      वर्ष —कुब्जिका
९.      वर्ष — संकर्षा(सन्दर्भा)
१०. वर्ष —अपराजिता
११. वर्ष —रुद्राणी
१२. वर्ष —भैरवी
१३. वर्ष —महालक्ष्मी
१४. वर्ष —कुलनायिका(पीठनायिका)
१५. वर्ष —क्षेत्रमा
१६. वर्ष —चण्डिका(अम्बिका)

  पूजार्थ चयनित कुमारीगण की संख्या सदा विषम होनी चाहिए— पाँच, सात, नौ...। यदि अधिक संख्या में उपलब्धि सम्भव न हो तो एक से भी काम चल सकता है। विशेषकर काम्यकर्म एवं नैमित्तिककर्म में तो एक ही कुमारी का प्रयोजन है। हाँ, शारदीय नवरात्रादि में अनेक की बात कही गयी है।
  कुमारी कन्याओं को सुमधुर गीत-वाद्यादि सहित पूजा-स्थल में प्रवेश करावे। तुलनात्मक रुप से जो सर्व सुन्दरी हो उसे प्रधान कुमारी का पद देकर, पूजक अपने वाऐं हाथ से कुमारी का दाहिना हाथ पकड़कर आगे ले आवे—त्रयम्बकं जगतामास्ते जगत् आधार रुपिणी ... माँ अम्बा आगतां आद्ये जगदाधाररुपिणी... इत्यादि वाक्यों से प्रशंसित करते हुए । अब पहले अपना दाहिना पैर आगे बढ़ावे और मुख्य कुमारी को आसन प्रदान करे। तद्भाँति ही अन्य कुमारियों के साथ भी करे। सबको पंक्तिबद्ध आसन प्रदान करे। आसन पर कुमारियाँ खड़ी ही रहेंगी और उनकी दृष्टि नीचे की ओर झुकी हुई होनी चाहिए ।  
  देवीपूजन की भाँति ही कुमारियों का पादप्रक्षालन, यथोपलब्ध वस्त्रालंकरण आदि करके यथोपचार श्रद्धावनत होकर पूजन सम्पन्न करे। पूजक व्यक्ति मुख्य कुमारी को आद्यामाँ स्वरुपा, भाव-पूर्वक एक प्याली में तीर्थजल वा गंगाजल लेकर भूतोपसारण, अभिवादनादि करे। पुनः प्राणायाम करके दिग्बन्धन करे। कुमारियों का चरणोदक लेकर अपने सिर पर छिड़के। धुले हुए पैर को अपने अंगवस्त्र से पोंछे। पुनः अक्षत लेकर भूतापसारण-विघ्नोपसारण कर्म करे। तन्त्रशास्त्रों की मान्यता है कि आद्याशक्ति के पूजास्थल में प्रवेश के साथ ही अन्यान्य विघ्नकर्तागण भी किसी न किसी रुप में प्रवेश कर जाते हैं, जिनका अपसारण अनिवार्य है। विविध देव-देवियाँ भी आ उपस्थित होती हैं इस दिव्य पूजा-दर्शन हेतु।
   कुमारीपूजनोपरान्त अग्रलिखित अठारह नामों का सस्वर उच्चारण करते हुए क्रमशः अपने शरीर के अँगों में कुमारिकान्यास करे। यथा—

१.      महाचन्द्रयोगेश्वरी— शिर
२.      सिद्धिकराली—मुख
३.      सिद्धिविकराली—नेत्र
४.      महान्तामारी—कान
५.      वज्रकपालिनी—नासिका
६.      मुण्डमालिनी—चिवुक
७.      अट्टहासिनी—दंतपंक्ति
८.      चण्डकपालिनी—स्कन्ध
९.      कालचक्रेश्वरी —हृदय
१०. गुह्यकाली—बाहु
११. कात्यायनी—जठर(उदर)
१२. कामाख्या—पृष्ठ
१३. चामुण्डा—नितम्ब
१४. सिद्धिलक्ष्मी—जघनसंधि
१५. कुब्जिका—जंघा
१६. मातंगी—पाद
१७. चण्डेश्वरी—सर्वांग
१८.  कौमारी—सर्वांग

अब, पाँच वर्षीय एक बालक का वरण भी करें वटुक के रुप में एवं नौ वर्षीय बालक का गणेश के रुप में। इनका भी यथोपचार पूजन सम्पन्न करे। तदन्तर अष्टभैरव का भी पूजन  करे— असितांगभैरव, रुद्रभैरव, चण्डभैरव, क्रोधभैरव, उन्मत्तभैरव, कपालभैरव, भीषण
भैरव एवं संहारभैरव।
       इनके साथ ही अष्ट देवियाँ भी हैं महामाया, कालरात्रि, सर्वमंगला, डमरुका, राजराजेश्वरी, सम्पद्प्रदा, भगवती एवं कुमारी। इन्हीं देवियों के साथ छः शक्तियाँ भी हैं । किंचित ग्रन्थों में इन्हें परिचारिका भी कहा गया है (नामभेद) अनंगकुसुमा, मन्मथा, मदनातुरा, कुसुमातुरा,मदनातुरा एवं शिशिरा ।

            मुख्य कुमारी की पूजा करने के पश्चात् ही शेष कुमारियों की पूजा की जानी चाहिए। पूजनोपरान्त सबको यथेष्ठ सुस्वादु भोजन परोसे । भोजन काल में जहाँ तक सम्भव हो मौन और शान्ति का वातावरण हो । पहले से चल रहे गीत-वाद्यादि को भी भोजन के समय बन्द करा दे। स्वयं भी यथोचित मौन साधे । मौन की इस सम्यक् साधना ही कुमारीतत्त्व का दर्शन कराने में समर्थ है। आहारोपरान्त कुमारियों को मधुर ताम्बूल बीड़ा अर्पित करे। यथेष्ट दक्षिणाद्रव्य समर्पित करने के पश्चात् महाकालसंहितोक्त कुमारीस्तोत्र का सस्वर पाठ करे। इसे इस अध्याय के अन्त में यथावत प्रस्तुत किया गया है।

    देवीपुराण में ही कुमारीपूजन-प्रशस्ति में यहाँ तक कहा गया है कि— न तथा तुष्यते शक्र ! होमदान जपेन तु । कुमारी भोजनेनात्र यथा देवी प्रसीदति । (कुमारी को भोजन कराने से देवी जितना प्रसन्न होती हैं, उतना होम, दान, जपादि से भी नहीं) अतः देवी-उपासकों को कुमारीपूजन अवश्य करना चाहिए।
 ध्यातव्य है कि कुमारियों द्वारा छोड़ा गया जूठन यत्र-तत्र फेंक न दे, प्रत्युत सम्भव हो तो श्रृगाल (सियार) के निमित्त कहीं एकान्त में रख छोड़े या फिर जमीन में गाड़ दे।  
   सर्वांग दुर्गापूजापद्धति में अति संक्षिप्त रीति से नवकुमारियों की पूजाविधि वर्णित है। यहाँ एक वर्षीया कुमारी की पूजा का स्पष्ट निषेध भी है। दो से दस वर्ष पर्यन्त नौ कुमारियों के नाम सहित आवाहन मन्त्र भी निर्दिष्ट है। असमर्थ हो तो नौ के वजाय एक कुमारी की ही पूजा करे। समुचित आसन देकर मन्त्रोच्चारण पूर्वक आवाहन करे। यथा — यजमानः पूजयेच्च कन्यानां नवकं शुभम्। द्विवर्षाद्यादशाब्दान्ताः कुमारी परिपूजयेत् । अर्थादेकहायनाल्प वयस्का वर्ज्याः।। ता आसने उपवेश्यावाहयेत् मन्त्रेण  ।।  मन्त्राक्षरमयीं लक्ष्मीं मातृणाम् रुपधारिणीम् । नवदुर्गात्मिकां साक्षात्कन्यामावाहयाम्यहम् ।।
अनेनैव मन्त्रेण नवापि आवाहयेत् । अशक्तौ यथाशक्ति एकामपि।
वय वर्ष
संज्ञा
वर्षीया
कुमारी
वर्षीया
त्रिमूर्ति
वर्षीया
कल्याणी
वर्षीया
रोहिणी
वर्षीया
कालिका
वर्षीया
चण्डिका
वर्षीया
शाम्भवी
वर्षीया
दुर्गा
१० वर्षीया
सुभद्रा
आवाहन मन्त्राः—
वर्षीया— सर्वस्वरुपे सर्वेशे सर्वशक्ति स्वरुपिणि । पूजां गृहाण कौमारि जगन्मातर्नमोस्तुते।।
वर्षीया— त्रिपुरां त्रिपुरा धारां त्रिवर्गं ज्ञानरुपिणीं । त्रैलोक्य वन्दितां देवीं त्रिमूर्तिं पूजयाम्यहम् ।।
  वर्षीया— कलात्मिकां कलातीतां कारुण्यहृदयां शिवां । कल्याण जननीं देवी कल्याणीं पूजयाम्यहम् ।।
वर्षीया— अणिमादि गुणाधारामकाराद्यक्षरात्मिकाम् । अनन्तां शक्तिकां लक्ष्मीं रोहिणीं पूजयाम्यहम् ।।
वर्षीया— कामचारां शुभां कांतां कालचक्र स्वरुपिणीं । कामदां करुणोदारां कालिकां पूजयाम्यहम् ।।
वर्षीया— चण्डवीरां चण्डमायां चण्डमुण्ड प्रभंजनीं । पूजयामि सदा देवीं चंडिका चंडविक्रमाम् ।।
वर्षीया— सदानन्दकरीं शान्तां सर्वदेव नमस्कृताम् । सर्वभूतात्मिकां लक्ष्मीं शांभवीं पूजयाम्यहम् ।।
वर्षीया— दुर्गमे दुस्तरे कार्ये भवदुःखविनाशिनीं । पूजयामि सदा भक्त्या दुर्गां दुर्गतिनाशिनीम् ।।
१० वर्षीया—सुन्दरीं स्वर्णवर्णाभांसुखसौभाग्यदायिनीम् । सुभद्र जननीं देवीं सुभद्रांपूजयाम्यहम् ।।
उक्त मन्त्रों से कुमारियों का आवाहन करने के पश्चात् तत् तत् नाम मन्त्र से यथोपलब्धोपचारपूजन करना चाहिए । यथा—          ऊँ कौमार्यैनमः, ऊँ त्रिपुरायै नमः, ऊँ कल्याण्यै नमः इत्यादि।
नोट— शारदीय नवरात्र में प्रत्येक दिन एक-एक कुमारी की पूजा का भी शास्त्रनिर्देश मिलता है। ध्यातव्य है इनके नाम नौ देवियों के प्रथमं शैल पुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी इत्यादि प्रचलित नामों से बिलकुल भिन्न हैं । यथा — हृल्लेखा, गगना, रक्ता, मतेच्छूष्मा, करालिका, इच्छा, ज्ञान, क्रिया एवं दुर्गा। अस्तु।
               ।।कुमारीस्तोत्रम्।।
जय कालि ! महाभीमे भीमरावे भवापहे।
संसारदावाग्निशिखे वृजनार्णवतारिणि ।।।।
ब्रह्मेन्द्रोपेन्द्रभूतेश प्रभृत्यमखवन्दिते ।
सर्गपालनसंहार कारिण्यहितकारिणि ।।।।
गुह्यकालि परानन्द रसपूरित विग्रहे ।
परब्रह्मरसास्वाद कैवल्यानन्ददायिनि ।।।।
गुणातीतेपिसगुणे महाकल्पान्तनर्तिकि ।
कुमारीरुपमास्थाय विज्ञे प्रज्ञास्वरुपिणि ।।।।
आगतासि ममागारं शारद्यार्या समाप्तये ।
सांवत्सरिक कल्याणसूचनाय तथैव च ।।।।
धन्योस्मि कुतकृत्योस्मि सफलं जीवितं मम ।
यस्मात् त्वमीदृशं कृत्वा कौमारं रुपमुत्तमम् ।।।।
गुह्यकालि समायाताब्दिक पूजाजिघृक्षया ।
त्वामेवैतेन रुपेण देवेभ्यः प्रर्थिता पुरा ।।।।
दत्तवत्यसि साम्राज्यं वरानपि समीहितान् ।
मह्यमप्यद्य देवेशि वरदेहि सुपूजिता ।।।।
ब्रह्मणे सृष्टि सामर्थ्यं त्वं पुरा दत्तवत्यसि ।
विष्णवेच त्वमेवादास्तथा पालन शक्तिताम् ।।।।
महारुद्राय संहार कर्त्तृत्वमददः शिवे ।
देवेभ्यः चापि दैत्यानां नाशने दक्षतामपि ।।१०।।
अन्तर्यामिन्यमीशानि त्रिलोकी वासिना मपि ।
निवेदयामि किम् तेहं सर्वकर्मैकसाधिनि ।।११।।
शत्रुनाशं राज्य लाभं शरीरारोग्यमेव च ।
त्वत् पादाम्बुजयोर्भक्तिं याचेहं चतुरोवरान् ।।१२।।
नमस्ते भगवत्यम्ब नमस्ते भक्तवत्सले ।
नमस्ते जगदाधारारुपिणी त्राहि मां सदा ।।१३।।
मातर्नवेद्मिरुपं ते न शारीरं न वागुणम् ।
भक्त्याहृदस्थिता पूजां तव जानाम्यमन्यधीः ।।१४।।
त्वं माता त्वं पिता बन्धुस्त्वमेवजगदीश्वरी ।
त्वं गतिः शरणं त्वं च स्वर्गस्त्वं मोक्ष एव च ।।१५।।
विहाय त्वां जगन्मातर्नान्यां जानामि देवताम् ।
नमस्तेस्तु नमस्तेस्तु नमस्तेस्तु नमो नमः ।।१६।।
                 ।।इति कुमारीस्तोत्रम्।।
            कुमारीतन्त्रम् के कुमारीमन्त्र पुरश्चरण प्रसंग में ऋषि कहते हैः—  अथवक्ष्येमहादेव्याःकुमार्य्याजपहोमकः ।
लक्षसङ्ख्यञ्जपङ्कृत्वा मायाँव्वावाग्भवम्मनुम् ।।   कालीबीजंव्वापिनाथअथवाकामबीजकम् । सदाशिवेनपुटितम्बिन्दुचन्द्रविभूषितम् ।।
अथवा प्रणवेनापि पुटितन्त्रिदशेश्वर ।  तद्दशांशेनजुहुयाद्घृताक्तविल्वपत्रकैः ।।
अथवा श्वेत पुष्पैश्च कुन्दपुष्पैर्म्महाफलम् ।
एवं क्रमेणजुहुयात्करवीप्रसूनकैः।।
घृताक्तैःकेवलैर्व्वापि चन्दनागरुमिश्रितैः ।  हविष्याशीदिवाभागेरात्रौ पूजापरोभवेत् ।।
निजपूजमशेषैस्तु कुलद्रव्यैः प्रपूजयेत् ।
रविसंख्यञ्जपेत्तत्र परमानन्द रुपधृक ।। 
ततः प्राणात्मकंव्वायुं शोधयित्वापुनःपुनः ।।
प्राणायामत्रयं कृत्वा चाष्टाङ्गैःप्रणमेन्मुदा ।
प्रणामसमयेनाथ इदं स्तोत्रम्पठेद्यदि ।।
कवचञ्च तथापाठ्यंकुमारीणमथापिवा । निजदेव्यामहास्तोत्रम्पीठाङ्गं कवचन्ततः ।। कमारीणामहन्देवसहस्रन्नामसाष्टकम् ।
यःपठित्वासिद्धिमाप्नोति नात्रकार्य्याविचारणा ।।
                       ।।इति।।
कुमारीपूजा की अनिवार्यता और महत्ता पर अति विस्तार से टिप्पणी करते हुए नीलतन्त्रम् पूर्वखण्ड सप्तदशपटल में कहा गया है—
कुमारीपूजा फलंव्वक्तुन्नार्हामि सुन्दरि ।
जिह्वाकोटिसहैस्रैस्तु वक्त्रकोटिशतैरपि ।। तस्मात्ताम्पूजयेद्वालांसर्व्वजातिसमुद्भवाम् ।
जातिभेदोनकुर्वीत कुमारी पूजने शिवे ।।
जातिभेदान्महेशानि नरकान्ननिवर्तन्ते । विचिकित्सापरोमन्त्रीध्रुवंसपातकीभवेत् ।। देवीबुद्ध्यामहाभक्तास्तस्मात्ताम्परिपूजयेत् ।
सर्वविद्यास्वरुपाहि- कुमारीनात्रसंशयः ।। यदिभाग्यवशाद्देविवेश्याकुल समुद्भवाम् । कुमारींल्लभतेकान्तेसर्व्वस्वेनापिसाधकः ।।... इत्यादि   नोट— रुद्रयामल, उत्तरखण्ड,सप्तमपटल में विस्तार से कुमारी-पूजा का प्रसंग है। इसी प्रसंग को यथावत शाक्तप्रमोद में भी संकलित किया गया है। विशेष जिज्ञासुओं को उक्त मूलग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए। अस्तु।
क्रमशः.....

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