श्री दुर्गासप्तशतीःःएक अध्ययन (पाँचवां भाग)
।।ऊँ नमश्चण्डिकायै।।
-४-
भूतशुद्धि : एक विशिष्ट प्रक्रिया
भूतशुद्धि वस्तुतः अन्तः क्रियाविशेष
है। इस सम्बन्ध में शिवोक्ति ध्यातव्य है— सर्वेसु वाह्यपूजासु अन्तः पूजा
विधीयते । अन्तः पूजा महेशानि ! वाह्य कोटि फलं लभेत् । भूतशुद्धि लिपिन्यासौ विनायस्तु प्रपूजयेत् ।
विपरीत फलं दद्याद्भक्त्या पूजते यथा ।।
श्रीमद्देवीभागवतपुराण,
एकादश स्कन्ध (संस्कार-प्रकरण) के आठवें अध्याय
में श्रीनारायण-नारद संवादक्रम में भूतशुद्धि की विशद चर्चा की गयी है ।
ध्यातव्य
है कि संस्कार-प्रकरण में ये सभी बातें कही गयी हैं। किसी विधि का किसी विशेष
स्थान में वर्णन किंचित विशिष्ट बातों की ओर ईंगन हुआ करता है, जिस पर प्रायः
पाठकों का ध्यान नहीं जा पाता । खास कर पुराणों के वर्णन में तो ज्यादातर लोग कथारस
क्रम में ही उलझे रह जाते हैं और रत्तीभर भी क्रम भंग होने पर ऊहापोह में पड़ जाते
हैं । उसके मीन-मेष चिन्तन को वाद-जल्प और वितण्डा की स्थिति तक खींच ले जाते हैं
और ऐसे में होता ये है कि ऋषियों का गूढात्मक कल्याणभाव (उद्देश्य) हमारे हाथों
में आकर भी दूर छिटक जाता है।
साधनाक्रम
की एक बहुत ही विशिष्ट प्रणाली है भूतशुद्धि, जिस पर बहुत कम लोगों का ही ध्यान गया
है। हालाँकि कर्मकाण्ड के कई पुस्तकों में इस क्रिया की चर्चा है, किन्तु वहाँ
सिर्फ चर्चा भर है, पूरी विधि बतलायी नहीं गयी है। युवावस्था में जिज्ञासावश कई विद्वानों से इसे
जानने-समझने का प्रयास किया, क्योंकि मेरी समझ में भी यही बात थी कि शिखाबन्धन,
तिलकधारण, आचमन, आसन- शुद्धि, आसन-बन्धन जैसी ये भी कोई सामान्य क्रिया होगी ।
किन्तु कहीं से समुचित और सन्तोषप्रद उत्तर न मिला ।
कहते
हैं न कि कोई सद जिज्ञासा, सद उत्कंठा चेतन से अचेतन की ओर अग्रसर होकर, संचित हो
जाता है और फिर परमचेतन की सीमा का सुगन्ध भी कालान्तर
में प्राप्त करने लगता है। सद्गुरु की प्राप्ति भी उसी सदतृष्णा का प्रमाणपत्र है।
मुझे
भी एक ऐसे ही सन्त-दर्शन का सौभाग्य मिला, जो विशुद्ध गृहस्थ जीवन में रहते हुए इस
क्रिया को सुदीर्घ काल से साधते आ रहे थे।
मिट्टी
यदि हो, बीज मिल जाए सौभाग्य से तो सीधे-टेढ़े वपन से भी अंकुरण हो ही जाता है
प्रायः । उन महापुरुष के सानिध्य में इस विशिष्ट विधि को हृदयंगम करने का सुअवसर
मिला, जिसे यहाँ नए जिज्ञासुओं के लाभार्थ संकलित कर रहा हूँ।
ध्यातव्य है कि सामान्यतया हम अज्ञानी जन
जाने-अनजाने, देखा-देखी,
कुछ न कुछ पूजा-पाठ, जप-अनुष्ठान, ध्यान-चिन्तनादि करने लग जाते
हैं। धार्मिक प्रवृत्ति के लोग सामान्य सुलभ धर्म विषयक विविध पुस्तकों का सामान्य
अध्ययन करके भी कुछ न कुछ क्रियायें करने लग जाते हैं; किन्तु
विशिष्ट गुरु-प्रदत्त दीक्षा या कम से कम शिक्षा का भी सौभाग्य नहीं मिला रहता,
वैसी स्थिति में बहुत सी क्रियायें
व्यर्थ चली जाती हैं। हालाँकि शुद्ध भाव से की गयी सामान्य क्रिया भी निष्फल नहीं
जाती, किन्तु लक्ष्य तक पहुँचने में
अकारण विलम्ब तो होता ही है। इसे कुछ-कुछ यूँ समझा जा सकता है कि वियावान जंगल में
भटकते पुरुष के लिए निकटस्थ गन्तव्य भी दुरुह हो जाता है, किन्तु सौभाग्य से कोई मार्गदर्शक मिल जाए यदि अचानक, तो उसके
दिशा-निर्देश से गन्तव्य सरल सिद्ध हो जाता है।
साधना-पथ
की प्रारम्भिक शिक्षा है —भूतशुद्धि क्रिया । इसके वगैर अनजाने
में ही बहुत से विकास कार्य बाधित होते रहते हैं। अतः इसकी महत्ता और क्रियाविधि
को ठीक से हृदयंगम करके अभ्यासी को आगे का कार्य करना चाहिए ।
ऐसा
नहीं कि ये विधि सिर्फ श्रीदुर्गासप्तशती के साधकों के लिए है। किसी भी क्रियाविशेष में
भूतशुद्धिक्रिया का आधारबल कार्यशील होता है।
श्रीनारायण
अपने भक्तप्रवर नारदजी को इसकी महत्ता पर प्रकाश डालते हुए, पूरी विधि
बहुत ही गहराई से समझाए हैं । तन्त्र-योग की साधना में प्रवेश करने हेतु भूतशुद्धि-क्रिया
बहुत ही उपयोगी है ।
हालाँकि
योगमार्ग में तत्त्वशोधन की और भी कई विधियाँ बतलाई गई है — समयानुसार अलग-अलग प्रसंगों
में, अलग-अलग ऋषियों द्वारा; किन्तु भूतशुद्धि की इस विधि को विशिष्ट कहना अतिशयोक्ति
नहीं होगी।
प्रसंगवश
पहले हम यहाँ मूल शास्त्रीय वचनों को उद्धृत करते हैं, तत्पश्चात् उसे सरल शब्दों
में अभ्यासियों के कल्याणार्थ यथासम्भव स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे । किन्तु
ध्यान रहे - इसका ये अर्थ कदापि नहीं कि ऐसी गूढ़ क्रिया में वगैर योग्य गुरु के,
सिर्फ पुस्तकावलोकन करके कोई प्रवृत्त
हो जाए।
देवीभागवत-११।८
संस्कार प्रकरणांग स्वरुप - भूतशुद्धि प्रकरण —
श्रीनारायण उवाच —
भूतशुद्धिप्रकारं च कथयामि
महामुने !
मूलाधारात्
समुत्थाय कुण्डलींपरदेवताम् ।। १ ।। सुषुम्नामार्गमाश्रित्य
ब्रह्मरन्ध्रगतां स्मरेत् ।
जीवं
ब्रह्मणि संयोज्य हंसमन्त्रेण साधकः ।। २ ।।
पादादिजानुपर्यन्तं
चतुष्कोणं स-वज्रकम्।
लं
बीजाढ्यं स्वर्णवर्णं स्मरेदवनिमण्डलम् ।।३ ।।
जान्वाद्या
नाभि चन्द्रार्धनिभं पद्मद्वयाङ्कितम्।
वं बीजयुक्तं
श्र्वेताभमस्भसो मण्डलं स्मरेत् ।। ४ ।।
नाभेर्हृदयपर्यन्तं
त्रिकोणं स्वस्तिकान्वितम् ।
रं
बीजेन युतं रक्तं स्मरेत् पावकमण्डलम् ।।५ ।।
हृदो
भ्रूमध्यपर्यन्तं वृतं षड्बिन्दुलाञ्छितम् ।
यं-बीजयुक्तं
धूम्राभं नभस्वन्मण्डलं स्मरेत् ।।६।।
आ-ब्रह्मरन्ध्रं
भ्रूमध्यात् वृतं स्वच्छं मनोहरम् ।
हं-बीज
युक्तमाकाशमण्डलं च विचिन्तयेत् ।।७।।
एवं
भूतानि सञ्चिन्त्य प्रत्येकं संविलापयेत् ।
भुवं
जले जलं बह्नौ वह्निं वायौ नभस्यमुम् ।।८।।
विलाप्य
खमहङ्कारे महत्तत्त्वेऽप्यहंकृतिम् ।
महान्तं
प्रकृतौ मायामात्मानि प्रविलापयेत् ।।९।।
शुद्धसंविन्मयौ
भूत्वा चिन्तयेत् पापपूरुषम् ।
वामकुक्षिस्थितं
कृष्णमङ्गुष्ठपरिमाणकम् ।।१०।।
ब्रह्महत्याशिरोयुक्तं कनकस्तेयबाहुकम्
।
मदिरापानहृदयं
गुरुतल्पकटीयुतम् ।।११।। तत्संसर्गिपदद्वन्द्वमुपपातकमस्तकम्
।
खड्गचर्मधरं
कृष्णमधोवक्त्रं सुदुःसहम् ।।१२।।
वायुबीजं
स्मरन् वायुं सम्पूर्येनं विशोपयेत् ।
स्वशरीरयुतं
मन्त्रो वह्निबीजेन निर्दहेत् ।।१३।।
कुम्भके
परिजप्तेन ततः पापनरोद्भवम् ।
बहिर्भस्म
समुत्सार्य वायुबीजेन रेचरेत् ।।१४।।
सुधाबीजेन
देहोत्थं भस्म संप्लावयेत् सुधीः।
भूबीजेन
घनीकृत्य भस्म तत्कनकाण्डवत् ।।१५ ।।
विशुद्धमुकुराकारं
जपन् बीजं विहायसः।
मूर्धादिपादपर्यन्तान्यङ्गानि
रचयेत् सुधीः ।।१६।।
आकाशादीनि
भूतानि पुनरुत्पादयेच्चितः ।
सोऽहं-मन्त्रेण
चाऽऽत्मानमानयेद्धृदयाम्बुजे ।।१७।।
कुण्डली
जीवमादाय परसङ्गात् सुधामयम् ।
संस्थाप्य
हृदयाम्भोजे मूलाधारगतां स्मरेत् ।।१८।।
रक्ताम्भोधिस्थपोतोल्लसदरुणसरोजाधिरुढ़ाकराब्जैः
शूलं
कोदण्डभिक्षूद्भवमथ गुणमप्यङ्कुशं पञ्चबाणान् ।
विभ्राणाऽसृक्कपालं
त्रिनयनलसिता पीनवक्षोरुहाढ्या
देवी
बालार्कवर्णा भवतु सुखकरी प्राणशक्तिः परा नः ।। १९ ।।
एवं
ध्यात्वा प्राणशक्तिं परमात्मस्वरुपिणीम् ।
विभूतिधारणं
कार्यं सर्वाधिकृतिसिद्धये ।।२०।।
विभूतेर्विस्तरं
वक्ष्ये धारणे च महाफलम् ।
श्रुतिस्मृतिप्रमाणोक्तं
भस्मधारणमुत्तमम् ।।२१।।
श्रीनारायण कहते हैं कि हे
नारद ! सामान्य क्रिया में भी आसनादि शुद्धि-वन्धनोपरान्त, निज पराम्परानुसार तिलक अथवा भस्मादि
धारण करने के पश्चात् क्षितित्यादि पञ्चभूतों की शुद्धि अवश्य करें। तदर्थ सर्वप्रथम
परदेवता (देवीकुण्डलिनी) को कुम्भक-क्रिया द्वारा ऊपर उठाने की भावना करे। ऊपर
अन्तिम लक्ष्य तक उसे ले जाने की भावना करे। हंस मन्त्र से जीवात्मा को परमब्रह्म
में मिलाने की भावना करे। पुनः चेतना को नीचे उतार कर, पैर से लेकर घुटने तक चतुष्कोण यन्त्र की वज्र सहित भावना करें।
ध्यातव्य है कि इस यन्त्र के चारों कोनों पर तिरेसठ रेखाएँ हैं। इसे स्वर्णवर्णी
अवनीमण्डल समझते हुए, तन्मध्य
पृथ्वीबीज लं की कल्पना करें। तदग्रे घुटने से नाभि पर्यन्त अर्द्धचन्द्राकार
यन्त्र की भावना करें, जिसके
दोनों कोनों पर दो कमल विराज रहे हों। यही श्वेतवर्ण जलमण्डल है,
जिसका बीजाक्षर वं है। तदग्रे नाभि
से लेकर हृदय पर्यन्त त्रिकोणयन्त्र की भावना करे, जिसके तीनों कोनों पर स्वस्तिक का पवित्र चिह्न बना हुआ हो।
यही अग्निमण्डल है, जिसका
वर्ण रक्त है और बीज रं है। तदग्रे हृदय से लेकर भ्रूमध्य पर्यन्त वृत्ताकार भावना
करें, जो छः विन्दुओं से युक्त हो।
इसका वर्ण धुएं की भाँति है। इसके मध्य में वायुबीज - यं की स्पष्ट भावना करे।
यही वायुमण्डल है। तदग्रे भ्रूमध्य से ऊपर ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त वृहत्वृत्त की
भावना करे, जिसका वर्ण विशुद्ध स्वच्छ और
सुन्दर है । इसके बीचोबीच आकाशबीज - हं की भावना करें । यही आकाश मण्डल है।
इस
प्रकार पञ्चमहाभूतों को तत् तत् वर्ण और आकृति सहित एकाग्रचित्त (दत्तचित्त) होकर
यथोचित काल तक ध्यान करते हुए कारणरुप में लय करने (होने) की भावना करनी चाहिए।
यानी संहार क्रम में (नीचे से ऊपर की ओर) क्रमशः पृथ्वी >
जल >
अग्नि >
वायु
> आकाश
के क्रम से लय करने की भावना करें।
अब
आकाश को भी तत्कारणरुप अहंकार में विलय करने की भावना करें। पुनः अहंकार को
महतत्त्व में विलीन होने (करने) की भावना करें। पुनः महतत्त्व को अपने कारणरुप
प्रकृति में लय करने की भावना करें। प्रकृति को अपने कारणरुप आत्मा में लय करने की
भावना करें। फिर अपने को शुद्धसंवित् (ज्ञान) स्वरुप समझे - ऐसी
भावना करें।
अब
अपने शरीर के भीतर अदृश्य रुप से छिपे बैठे पापपुरुष का ध्यान करे। वह पुरुष वामकुक्षि
में छिपा बैठा है। उसका रंग अत्यन्त काला है और आकार अंगुष्ठ प्रमाण तुल्य है। इस
पापपुरुष का शिर – प्रथम
महापातक (ब्रह्महत्या) है । इसकी भुजा - द्वितीय महापातक (सुवर्ण-स्तेय) है। इसका
हृदय (तृतीय महापातक) मदिरापान है। इसका कटिप्रदेश – चतुर्थ महापातक- गुरुपत्नीगमन है। इसके दोनों पैर महापातकियों
के संग में उठने-बैठने, सम्भाषण
करने वाले लोग हैं। इसके पैर की सभी अंगुलियाँ अन्यान्य उपपातक हैं। यह विचित्र और
अति बलशाली पाप पुरुष अपने आयुध के रुप में ढाल-तलवारधारी है। इसका स्वभाव बड़ा ही
दुष्ट और भयप्रद है। शरीर में इसकी
अवस्थिति अधोमुख है ।
उक्त
भावना सहित वाम नासा से पूरक करते हुए वायुबीज - यं का स्मरण करना चाहिए। पुनः
यथासम्भव कुम्भक करे । कुम्भक क्रम में उक्त पापपुरुष का शोषण करे (सुखावे)।
तदुपरान्त अग्निबीज- रं का स्मरण करते हुए, पापपुरुष को दग्ध करे । तदुपरि पापपुरुष के भस्मावशेष को पुनः
वायुबीज (यं) के मानसिक उच्चारण सहित दक्षिण नासिका से रेचन कर दे- बाहर निकाल दे।
तदन्तर पापपुरुष के भस्म को चन्द्रमा के
अमृतबीज- वं के उच्चारण से उत्पन्न हुए अमृत से आप्लावित करे। यानी ऐसी भावना करें
कि अमृत बून्दों से आप्लावित होकर भस्म पिण्डाकार हो गया है। तदुपरान्त पृथ्वीबीज
(लं) के उच्चारण सहित उस द्रवीभूत भस्म के घनीभूत स्वरुप को इस प्रकार भावित करें
कि वह सुवर्णाण्ड में परिवर्तित हो गया है। तदुपरान्त विहायस बीज मन्त्र (हं) का
उच्चारण करते हुए, उस सुवर्णाण्ड को निर्मल दर्पण तुल्य भावना करें ।
अब
साधक को चाहिए कि उक्त अण्ड में समस्त मानवांगों की भावना करे। पुनः जिस क्रम में
ब्रह्म में पञ्चमहाभूतों को लय किया जाता है, उसी क्रम से क्रमशः आकाश >
वायु >
अग्नि >
जल >
पृथ्वी को चित्तोत्पन्न करके
यथापूर्व स्थान में स्थापित कर दे।
अब
सोऽहम् मन्त्र से जीवात्मा को परमात्मा से पृथक करके,जीवात्मा को हृदय-पुण्डरीक
में स्थापित करे।
जीवात्मा
को परमात्मा से पृथक करने की विधि ये है कि कल्पना करे कि कुण्डलिनी महाशक्ति
परमात्मा के सम्पर्क से अमृतमय हुए जीवात्मा को पृथक करके हृदपुण्डरीक में स्थापित
करने के पश्चात् पुनः अपने मूलस्थान यानी मूलाधार में लौट गयी है।
अब
प्राणप्रतिष्ठार्थ प्राणशक्ति का ध्यान करे, जिसकी विधि इस प्रकार है— एक रक्ताम्भोधि (लालसागर) है जिसमें एक जलयान है । जलयान में
एक सुन्दर प्रस्फुटित लालकमल है, जिसपर
प्राणशक्ति प्रतिष्ठित है। शक्ति के करकमलों में त्रिशूल, ईक्षुदण्ड निर्मित कोदण्ड, गुण (पाश), अंकुश,
प़ञ्चबाण और असृक् (रक्तपूरित कपाल)
है। इस त्रिनयना देवी के स्तन अति पुष्ट हैं। उनके शरीर का वर्ण नवोदित सूर्य की
भाँति है। उस महाशक्ति से प्रार्थना करें कि हे प्राणशक्ति ! आप हम पर प्रसन्न
होकर, सुख प्रदान करें। अस्तु।
यामलोक्त
भूतशुद्धि किंचित भिन्न प्रतीत होता है, हालाँकि तथ्य समान ही है । जिज्ञासुओं की
सुविधा के लिए उसे भी यथावत प्रस्तुत कर रहा हूँ। यथा—
ऊँ
सूर्यः सोमो यमः कालः संध्या भूतानि पञ्च च।
एते
शुभाशुभस्येह कर्मणो मम साक्षिणः ।।
भो
देव ! प्राकृतं चित्तं पापाक्रान्तमभून्मम ।
तन्निसारय चित्तान्मे पापं तेस्तु नमो नमः ।।
इस प्रकार प्रार्थना करके अपने दक्षिण भाग में—
ऊँ
गुं गुरुभ्यो नमः । वाम भाग में— ऊँ गं गणपतये नमः ।। इस प्रकार ध्यान
करके भूतशुद्धि करे— कुम्भक प्राणायामे मूलाधारात्
कुण्डलिनी परदेवतां विसतंतुनिभां समुत्थाय ब्रह्मरन्ध्रगतांस्मृत्वा हृदयस्थं जीवं
प्रदीप कलिकाकारं गृहीत्वा सुषुम्णामार्गेण ब्रह्मरन्ध्रं गत्वा हंसः सोहं इति
मन्त्रेण जीवं ब्रह्मणि संजोजयेत् । ततः पादादि जानु पर्यन्तं चतुष्कोणं
वज्रलांछितं स्वर्णवर्णं पृथ्वीमण्डलं ऊँ लं इति भूबीजाड्यं स्मरेत् ।। जान्वादि
नाभिपर्यन्तं अर्द्धचन्द्राकारं पद्मद्वयाङ्कितं श्वेतवर्णं अपांस्थानं सोममण्डलं
ऊँ वं इति वरुणबीजाड्यं स्मरेत् ।। नाभ्यादि
हृदय पर्यन्तं त्रिकोणं स्वस्तिकांकितं रक्तवर्णमग्निमण्डलं ऊँ रं इति वह्निबीजाड्यं स्मरेत् ।। हृदयादि भ्रूमध्यपर्यन्तं वृत्तं षड्
बिन्दु लांछितं धूम्राभं वायुमण्डलं ऊँ वं इति वायुबीजाड्यं स्मरेत् ।।
भ्रूमध्यादारभ्यब्रह्मरन्ध्रान्तं वृत्तं स्वच्छमनोहरमाकाशमण्डलं ऊँ हं इति
आकाशबीजाड्यंस्मरेत् ।। एवं भूतगणंस्मृत्वा ततः पूर्वोक्त मध्ये (मंडले) पादेन्द्रियं
गगनं घ्राणं गन्धः ब्रह्मा निवृत्तिः समानः गंतव्यदेशः च एवमष्टौपदाश्चिन्त्याः ।।
जलमध्ये (मंडले) हस्तेन्द्रिय ग्रहण ग्राह रसना रस विष्णुः प्रतिष्ठो दानाः
ध्येयाः ।। तेजमध्ये (मंडले) वायु विसर्ग विसर्जनीय चक्षु रुप शिव विद्या ध्याना
ध्येयाः ।। वायुमंडले उपस्था नन्द स्त्री स्पर्शन स्पर्श ईशान शान्त्यु पानाः
ध्येयाः ।। आकाशमंडले वाक् वक्तव्य वदन श्रोत्र शब्द सदाशिव शान्त्यतीताः प्राणाः
इत्यष्टौ चिन्त्याः ।। एवं भूतानि संचिन्त्य पूर्व पूर्वकार्यस्योत्तरं कारणे
विलापनं ब्रह्मपर्यन्तंकार्यम् ।।
तथा च — ऊँ
लँ हुँ फट् इत्यनेन पञ्चगुणं पृथ्वीमप्सु उपसंहारामि इति जले भुवं विलापयेत् ।।१।। ऊँ वं
हुं फट् इति चतुर्गुणा अपोग्नौ उपसंहरामि इति जलमग्नौ विलापयेत् ।।२।। ऊँ रँ
हुँ फट् इति त्रिगुणां इति तेजो वायावुपसंहरामि इति बह्निं वायौ विलापयेत् ।।३।। ऊँ यँ हुँ फट् इति द्विगुणं वायुमाकाश उपसंहारामि
इति वायुमाकाशे विलापयेत् ।।४।। ऊँ हँ
हुँ फट् इत्येकगुणमाकाशमहंकार उपसंहरामि ।। इत्याकाशमहंकारे विलापयेत् ।।५।। ऊँ ऊँ
अहंकारं महत्तत्त्व उपसंहरामि—इत्यहंकारं महत्तत्त्वे विलापयेत् ।।६।। ऊँ
महत्तत्त्वं प्रकृत्तावुपसंहरामि—इतिमहत्तत्त्वं प्रकृतौ विलापयेत् ।।७।। ऊँ
प्रकृतिमात्मन्युपसंहरामि— इत्यनेन मायामात्मनि विलापयेत् ।।८।।
इस प्रकार
स्वयं को शुद्ध संवित् (ज्ञानमय) स्वरुप समझते हुए स्व शरीर स्थित पापपुरुष का
चिन्तन करे, जो वामकुक्षि में छिपा बैठा है— वासनामयं वामकुक्षिस्थितं
कृष्णमंगुष्टपरिमाणकं ब्रह्महत्या शिरोयुक्तं कनकस्तेयवाहुकं मदिरापान हृदयं
गुरुतल्प कटीयुतं तत्संसर्गि पदद्वंद्वमुपपातक मस्तकं खङ्गचर्मधरं दुष्टमधो- वक्त्रं सुदुःखसहमेवं पापपुरुषं चिन्तयित्वा
पूरकप्राणायामे ऊँ यँ इति वायुबीजेन द्वाविंशद्वारं षोडशवारं वा आवर्तितेन पापपुरुषं
शोषयेत् ।। ततः स्वशरीरयुतं पापं कुम्भकेन ऊँ रँ इति वह्निबीजेन चतुष्यष्ठि
द्वात्रिशद् वारमावर्तितेन तदुत्वाग्निना दहेत् ।। ततो रेचक प्राणायामे ऊँ यँ इति
वायुबीजेन षोडश वारं अष्ट वारं वा जपित्वा दक्षिणनाड्या तद्भस्म स्वशरीराद्वहिः
रेचयेत् ।। ततो देहोत्वं भस्म ऊँ वँ इत्युच्चारितेन सुधाबीजेन तदुत्यामृतेन
संप्लाव्य पश्चात् ऊँ लँ इति भू बीजेन तद्भस्म घनीभूतं पिण्डं कृत्वा कनकाण्डवत्
भावयेत् ।। ततः ऊँ हँ इति आकाशबीजं जपन् तत्पिण्डं मुकुराकारं भावयित्वा
तस्यमूर्द्धादि नखान्तः अवयवाः मनसा रचनीयाः ।। ततःपुनरपि सृष्टिमार्गेण ब्रह्मणः
सकाशात् आकाशादीनि भूतान्युत्पादयेत् ।। तथा च ब्रह्मणः प्रकृतिः प्रकृतेर्महत्
महतोऽहंकारः अहंकारादाकाशः आकाशाद्वायुः वायोरग्निः अग्नेरापः
अद्भभ्यः पृथ्वी पृथिव्या ओषध्यः ओषधीभ्योऽन्नम्
अन्नाद्रेतः रेतसः पुरुषः इत्युत्पाद्यः ।। ऊँ हँसःसोहम् इति मन्त्रेण ब्रह्मणैकं
भूतं जीवं स्वहृदयाम्बुजे संस्थाप्य कुण्डलिनीं मूलाधारगतां स्मरेत् ।।
अब
महाकुण्डलिनीदेवी का ध्यान करे—
ऊँ रक्ताम्भोधिस्थपोतोल्लसदरुणसरोजाधिरुढ़ाकराब्जैः
पाशं कोदण्डमिक्षुद्भवमथचाप्यंकुशं पञ्चवाणान् । विभ्राणा
सृक्कपालं त्रिनयनलसितापीवक्षोरुहाढ्या ।
देवी वालार्कवर्णा भवतु सुखकरी
प्राणशक्तिः परानः ।।
सुविधाक्रम
में कुछ विद्वानों का मत है कि उक्त
(दोनों) विधि से जो लोग भूतशुद्धि न कर सकें, उन्हें सप्तशती साधना क्रम में अति
संक्षिप्त विधि का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।
इसके लिए ऊँ ह्रौं मन्त्र का कम से कम एक
माला जप करना चाहिए। किन्तु ध्यान देने की बात है कि कहाँ भूतशुद्धि
की व्यापक व्यवस्था और कहाँ इस लघु मन्त्र का सामान्य जप ।
हाँ ये बात अलग है कि योग्य गुरु सानिध्य के
अभाव में इस लघुमन्त्र से किंचित सन्तुष्ट हुआ जा सकता है। इस
भूतशुद्धि क्रिया के अन्तर्गत बहुत ही गूढ़ कल्याणभाव छिपा हुआ है।
साधना
की सुदृढ़ भूमि तैयार करने में भूतशुद्धिक्रिया का बहुत बड़ा योगदान है। अतः अभ्यासी को चाहिए कि इसका अभ्यास निरन्तर करता रहे - कुछ
लम्बे समय तक। जैसा कि क्रिया-विधि में ही स्पष्ट है—जाने-अनजाने, इहजन्म – पूर्वजन्मार्जित
(शेष कर्म) जो पापपुरुष के रुप में संचित है हमारे संस्कारों में और ऊर्ध्वगति में
सहायक के विपरीत वाधक सिद्ध हो रहा है, उनका शोधन-मार्जन-शमन क्रमशः होता जायेगा
और एक दिन ऐसा आयेगा कि हमारा शरीर आत्मसाक्षात्कार के योग्य विशुद्ध बन जायेगा ।
उक्त
भूतशुद्धि क्रिया के पश्चात् अपने शरीर में देवी चण्डिका की प्राणप्रतिष्ठा का
विधान है । तत्पश्चात् ही आगे की क्रियाएँ सम्पन्न करनी चाहिए। भूतशुद्धि तो शरीर
को पापमुक्त करके विशुद्ध करने की प्रक्रिया मात्र है। साधक का शरीर जितना ही
शुद्ध होगा, साधना उतनी ही सहज होगी। जिज्ञासुओं
की सुविधा के लिए यहाँ उसकी विस्तृत विधि की चर्चा आवश्यक प्रतीत हो रही है। यथा—
।। स्व प्राणप्रतिष्ठाविधि ।।
हथेली
में जल लेकर प्राणप्रतिष्ठा निमित्त विनियोग करे— ऊँ अस्य प्राणप्रतिष्ठामन्त्रस्य
ब्रह्मविष्णुमहेश्वराऋषयः ऋग्यजुःसामानि छन्दांसि प्राणशक्तिर्देवता आँबीजं
ह्रींशक्तिः क्रौं कीलकं स्वशरीरे चण्डिका देवता प्राणप्रतिष्ठापने विनियोगः ।।
अब
अग्र निर्दिष्ट विविध न्यास करें।
(न्यास
की महत्ता और अनिवार्यता के सम्बन्ध में विशेष जानकारी इस पुस्तक के अन्य अध्याय
में उपलब्ध है।)
ऋष्यादिन्यासः—
ऊँ ब्रह्मविष्णुमहेश्वरऋषिभ्यो नमः शिरसि । ऊँ ऋग्यजुसामानि छन्दोभ्यो नमः मुखे
।। ऊँ प्राणशक्त्यैनमो हृदि । ऊँ आँबीजाय नमो गुह्ये । ऊँ ह्रीं शक्तये नमः पादयो
। ऊँ क्रौं कीलकाय नमः सर्वांगे ।
अक्षरन्यासः—(करन्यास)
— ऊँ ङं कं खं घं गं नमो वाय्यग्निवार्भूम्यात्मने अंगुष्ठाभ्यां नमः । ऊँ अं चं छं झं
जं शब्द स्पर्श रुप रस गन्धात्मने तर्जनीम्यां नमः । ऊँ णं टं ठं ढं डं श्रोत्र त्वङ्नयन
जिह्वा प्राणात्मने मध्यमाभ्यां नमः । ऊँ नं तं थं धं दं वाक् पाणिपायूपस्थात्मने
अनामिकाभ्यां नमः । ऊँ मं पं फं भं वं वक्तव्यादान गमन विसर्गानन्दात्मने
कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ऊँ शं यं रं वं लं हं षं क्षं सं लं बुद्धिमनोहंकारचित्तात्मने
करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
अक्षरन्यासः— हृदयादिन्यास— ऊँ ङं कं खं घं गं नमो वाय्यग्निवार्भूम्यात्मने हृदयाय नमः ।
ऊँ अं चं छं झं जं शब्द स्पर्श रुप रस गन्धात्मने शिरसे स्वाहा । ऊँ णं टं ठं ढं डं
श्रोत्र त्वङ्नयन जिह्वा प्राणात्मने शिखायैवषट् । ऊँ नं तं थं धं दं वाक् पाणिपायूपस्थात्मने
कवचाय हुँ । ऊँ मं पं फं भं वं वक्तव्यादान गमन विसर्गानन्दात्मने नेत्र त्रयायवौषट्
। ऊँ शं यं रं वं लं हं षं क्षं सं लं बुद्धिमनोहंकारचित्तात्मने अस्त्राय फट् ।
(नोट—उक्त
करन्यास एवं हृदयादिन्यासों में वर्णों का क्रम किंचित व्यक्रमित प्रतीत हो रहा है
– जैसे ङ के बाद क ख फिर घ ग इत्यादि क्रम से । इससे भ्रमित नहीं होना चाहिए ।
यहाँ यही क्रम विहित है)
उक्त
तीनों न्यासों के पश्चात् अब—
१.
नाभि से पैर के निचले हिस्से पर्यन्त
पाशबीज— आँ की भावना करें।
२.
हृदय से नाभि पर्यन्त शक्तिबीज— ह्रीं
की भावना करे।
३.
मस्तक से हृदय पर्यन्त सृणिबज— क्रों
की भावना करें।
अब अपने हृदय पर दाहिनी हथेली रखकर इन मन्त्रों
का उच्चारण करे— ऊँ यँ त्वगात्मने नमः । ऊँ रँ असृगात्मने नमः । ऊँ लँ
मांसात्मने नमः । ऊँ वँ मेदात्मने नमः । ऊँ शँ अस्थ्यात्मने नमः । ऊँ यँ
मज्जात्मने नमः । ऊँ सँ शुक्रात्मने नमः । ऊँ ह्रौं ओजात्मने नमः । ऊँ हँ
प्राणात्मने नमः । ऊँ सँ जीवात्मने नमः ।
अब
सिर से पैर तक स्पर्श करे इस मन्त्रोच्चारण पूर्वक—ऊँ यं रं लं वं शं षं सं लं
हं क्षं ।
अब—
ऊँ मण्डूकादि परतत्वांतपीठदेवताभ्यो नमः, ऊँ जयादि शक्तिभ्यो नमः, ऊँ ह्रीं
क्रों पीठाय नमः के उच्चारण पूर्वक हाथ जोड़कर प्राणशक्ति का ध्यान करें— ऊँ
पाशंचापासृक्कपाले श्रृणीषूच्छूलं हस्तैर्विभर्ती रक्तवर्णाम् । रक्तोदन्वत्पोतरक्तांबुजस्थां
देवीं ध्याये प्राणशक्तिं त्रिनेत्रां ।।
अब
हृदय पर हथेली रखकर इन मन्त्रों का उच्चारण क्रमशः तीन बार करें— ऊँ आँ ह्रीं
क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः ऊँ ममशरीरे चण्डिका देवतायाः प्राणा इह
प्राणाः । ऊँ आँ ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः ऊँ ममशरीरे चण्डिका देवतायाः
जीव इह स्थितः । ऊँ आँ ह्रीं क्रौं यं रं लं
वं शं षं सं हौं हंसः ऊँ ममशरीरे चण्डिका देवतायाः सर्वेन्द्रियाणि वाङ्मनश्चक्षु
श्रोत्र घ्राण जिह्वा पाद पायूषस्थानानि इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा ।
तदन्तर
पन्द्रह बार ऊँकारका उच्चारण करें और अन्त में बोले—मम देहस्था चण्डिकायाः
गर्भाधानादि पञ्चदश संस्कारान्संपादयामि ।
इस
प्रकार देवी की प्राणप्रतिष्ठा की भावना करें । स्वयं को देवीमय भावित करें।
कहा
भी गया है—देवी भूत्वा देवीं जपेत् ।
।।ऊँ
श्रीदेव्यर्पणमस्तु।।
क्रमशः...
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