सप्तशतीरहस्य भाग 8

                       श्रीदुर्गासप्तशतीःःएक अध्ययन का आठवाँ भाग

             (न्यास परिचय और प्रयोग के अन्तर्गत- नवार्णविधि क्रम न्यास)


ध्यातव्य है नवार्णमन्त्र की स्वतन्त्र साधना (पुरश्चरणादि) भी की जाती है। वैसे में संक्षिप्त न्यास से काम नहीं चलता। प्रत्युत शास्त्र विहित सभी (एकादश) न्यासों का प्रयोग करना चाहिए।
                            —: नवार्णविधि : —  
विनियोग— ऊँ अस्य श्री नवार्णमन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा- ऋषयः गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्च्छन्दांसि श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः  नन्दाशाकम्भरीभीमाः शक्तयः रक्तदन्तिका दुर्गा भ्रामर्यो बीजानि अग्निवायुसूर्यास्तत्त्वानि ऋग्यजुःसामवेदाः ध्यानानि श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।।
ऋष्यादिन्यासः— (ये विनियोग क्रम का अतिरिक्त न्यास है। ये दो प्रकार का है, जिनमें किसी एक का ही प्रयोग करना चाहिए। इसके बाद ही मूल एकादश न्यासों का क्रम है।)
(प्रथम प्रकार)-  ऋष्यादिन्यास
ऊँ ब्रह्मविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नमः शिरसि ।
ऊँ गायत्र्युष्णिगनुष्टुप्छन्दोभ्यो नमो मुखे ।
ऊँ  श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वती देवताभ्यो नमः हृदि ।
ऊँ नन्दाशाकम्भरीभीमाः शक्तिभ्यो नमो दक्षिणस्तने ।
ऊँ रक्तदन्तिका दुर्गाभ्रामरी बीजेभ्यो नमो वामस्तने ।
ऊँ अग्निवायुसूर्यतत्त्वेभ्यो नमो नाभौ ।
 (द्वितीय प्रकार)- (आधार मन्त्रमहोदधि १८-१११)
(ऊँ ऐं बीजम् ह्रींशक्तिः क्लीं कीलकम् का प्रयोग)
ऊँ ऐं बीजाय नमः गुह्ये । ऊँ ह्रीं शक्तये नमः पादयोः।
ऊँ क्लीं कीलकाय नमः नाभौ ।।
अब मूल मन्त्र से दोनों हाथों का प्रक्षालन करके, आगे के विविध न्यासों को करें।
(शास्त्रवचन है—कृतेनयेन देवस्य सारुप्यं याति मानवः।। उक्त प्रथम न्यास को करने से मनुष्य देवीरुपको प्राप्त होता है।)
अब शुद्धमातृका न्यास करे—(इसका प्रयोग पूर्व में षोढा न्यास क्रम में किया जा चुका है, किन्तु पुनः यहाँ भी नवार्णविधि क्रम में करना है)
 प्रथमन्यासः— शुद्धमातृकान्यासः
अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ॡं नमो हृदि।
एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं नमो दक्ष भुजे।
ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं नमो वाम भुजे।
णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं नमो दक्ष पादे।
मं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं नमो वाम पादे।
अथ द्वितीयन्यासः—सारस्वतन्यासः—
अस्मिनसारस्वते न्यासेकृते जाड्यं विनश्यति । (इस दूसरे यानी सारस्वत न्यास को करने से मूर्खता नष्ट होती है)
ध्यातव्य है कि आगे द्विवचनात्मक पदों का प्रयोग है। दोनों हाथ की अँगुलियों का परस्पर स्पर्श करेंगे। दोनों मणिबन्धों (कलाई) और कर्पूर (कुहनियों) का बारी-बारी से स्पर्श करेंगे। शिर, शिखा, कवच, नेत्र आदि का उसी भाँति स्पर्श करेंगे, अस्त्रायफट् बोलकर वायें हाथ पर दायें हाथ की मध्यमा और तर्जनी से फटकार की ध्वनि करेंगे। तदग्रे सभी दिशाओं में तत्-तत् मन्त्रोचारण पूर्वक चुटकी बजायेंगे। इत्यादि।   यथा—   
             ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः कनिष्ठयोः।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः अनामिकयोः।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः मध्यमयोः ।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः तर्जन्योः।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः अँगुष्ठयोः।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः करतलयोः।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः करपृष्ठयोः।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः मणिबन्धयोः।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमःकर्पूरयोः।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः हृदये।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिरसि।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिखायाम्।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः कवचे।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः नेत्रयोः।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमःअस्त्रायफट्।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः पूर्वस्याम्।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः आग्नेय्याम्।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमःयाम्याम् ।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः नैर्ऋत्ये।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः पश्चिमायाम्।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः वायव्याम्।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः उत्तरे।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः ऐशान्याम्।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः ऊर्ध्वे।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नमः अधः।
                      ।। इति द्वितीयन्यासः।।
          अथ तृतीय न्यासः —मातृकागण न्यासः—
(तृतीयेस्मिनकृते न्यासे त्रैलोक्य विजयी भवेत् –  इस तीसरे न्यास को करने से मनुष्य त्रिलोकविजयी होता है।)
ऊँ ह्रीं ब्राह्मी पूर्वतः मां पातु ।
ऊँ ह्रीं माहेश्वरी आग्नेयां मां पातु ।
ऊँ ह्रीं कौमारी दक्षिणस्याम् मां पातु ।
ऊँ ह्रीं वैष्णवी नैर्ऋत्याम् मां पातु ।
ऊँ हीं वाराही पश्चिमायाम् मां पातु ।
ऊँ ह्रीं नारसिंही वायव्याम् मां पातु ।
ऊँ ह्रीं इन्द्राणी उत्तरस्यां मां पातु ।
ऊँ ह्रीं चामुण्डा ईशान्याम् मां पातु ।
ऊँ ह्रीं व्योमेश्वरी ऊर्ध्वं मां पातु ।
ऊँ ह्रीं सप्तेश्वरी पाताले मां पातु ।
                   ।। इति तृतीयन्यासः ।।
                         चतुर्थन्यास—षड्देवीन्यास—
तुर्यं न्यासं नरः कुर्याज्जरामृत्युं व्यपोहति। (इस चौथे न्यास को करने से मनुष्य वृद्धावस्था और मृत्यु को दूर करता है)
ऊँ कमलाङ्कुशमण्डिता तन्दजा पूर्वांगं मे पातु ।
ऊँ खड्गपात्र करा रक्तदन्तिका दक्षिणाङ्गं मे पातु ।
ऊँ पष्पपल्लव संयुक्ताशाकम्भरी पृष्ठांगं मे पातु।
ऊँ धनुर्वाणकरा दुर्गार्तिहारिणी दुर्गा वामांगं मे पातु।
ऊँ शिरःपात्रकरा भीमा मस्तकाच्चरणान्तं मे पातु।
ऊँ चित्रकान्ति भृद् भ्रामरी चरणाभ्यां शिरः पर्यन्तं मे पातु।                          ।।इति चतुर्थन्यासः।।
                 अथ पञ्चम न्यासः— ब्रह्माख्यन्यासः—
 कृतेस्मिनपञ्चमे न्यासे सर्वान्कामानवाप्नुयात् । ( इस पंचम न्यास के करने से मनुष्य की सभी कामनायें पूरी होती हैं)
ऊँ ब्रह्मासनातनः पादादि नाभि पर्यन्तं मां पातु।
ऊँ जनार्दनः नाभेर्विशुद्धि पर्यन्तं नित्यं मां पातु।
ऊँ रुद्रस्त्रिलोचनः विशुद्धेर्ब्रह्मरन्ध्रान्तं मां पातु।
ऊँ हं सः पादद्वयं मे पातु।
ऊँ वैनतेयः करद्वयं मे पातु।
ऊँ सर्वानन्दमयो हरिः परापरौ देह भागौ मे पातु।
                   ।।इति पञ्चमन्यासः।।
        अथ षष्ठन्यासः—महालक्ष्म्यादिन्यासः—
(इस न्यास को करने से मनुष्य सद्गति को प्राप्त होता है)
ऊँ अष्टादशभुजायुक्तमहालक्ष्मीर्मध्ये मे पातु।
ऊँ अष्टभुजायुक्तसरस्वती ऊर्ध्वं मे पातु।
ऊँ दशभुजामण्डिता महाकाली अधः मे पातु।
ऊँ सिंहः हस्तद्वयं मे पातु।
ऊँ परहंसोक्षियुग्मम् मे पातु।
ऊँ दिव्यमहिषारुढोयमः पदद्वयं मे पातु।
ऊँ महेशश्चण्डिकासहितः सर्वांगानिमेपातु।
                    ।।इति षष्ठन्यासः।।
          अथ सप्तमन्यासः—बीजमन्त्रन्यासः—
विन्यसेत् सप्तमेन्यासे कृते रोगक्षयो भवेत् । (सप्तमन्यास को करने से रोगनाश होता है)
  ऊँ ऐं नमः शिखायाम् । ऊँ ह्रीं नमः दक्षनेत्रे। ऊँ क्लीं नमः वामनेत्रे। ऊँ चां नमः दक्षकर्णे। ऊँ मुं नमः वामकर्णे। ऊँ डां नमः दक्षनासापुटे । ऊँ यैं नमः वाम नासापुटे। ऊँ विं नमः मुखे। ऊँ च्चें नमः गुदे ।
                   ।।इति सप्तमन्यासः।।
       अथाष्टमन्यासः—विलोम बीजन्यासः—
कृतेस्मिन्नष्टमेन्यासे सर्वदुःखं विनश्यति। (इस न्यास को करने से सभी प्रकार के दुःखों का नाश होता है)
  ऊँ च्चें नमः गुदे । ऊँ विं नमः मुखे। ऊँ यैं नमः वाम नासापुटे। ऊँ डां नमः दक्षनासापुटे। ऊँ मुं नमः वाम कर्णे। ऊँ चां नमः दक्षकर्णे। ऊँ क्लीं  नमःवामनेत्रे। ऊँ ह्रीं नमः दक्षनेत्रे। ऊँ ऐं नमः शिखायाम्।
                   ।।इति अष्टमन्यासः।।
               
अथ नवमन्यासः—मन्त्रन्यासः—कुर्वीत नवमंन्यासं मन्त्रव्याप्ति स्वरुपकम्।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमः मस्तकाञ्चरणपर्यन्तं पूर्वांगे।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमःमस्तकाञ्चरणावधि दक्षिणांगे।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमः मस्तकाञ्चरणावधि पृष्ठे।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमः मस्तकाञ्चरमावधि वामांगे।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमः मस्तकात्पादान्तम् ।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमः पादादि शिरोन्तम्।
                     ।।इति नवमन्यासः।।
              अथ दशमन्यासः—षढङ्गन्यासः—
कृतेस्मिन्दशमेन्यासे त्रैलोक्यं वशगं भवेत् । (इस दशम न्यास के करने से तीनों लोक वश में होते हैं)
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमः हृदयाय नमः।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमः शिरसे स्वाहा।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमः शिखायैवषट् ।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमःकवचाय हुम्।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमःनेत्रत्रयायवौषट्।
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमः अस्त्रायफट्।
                       ।।इति दशमन्यासः।।
अथ एकादशन्यासः—इसके अन्तर्गत तीनों बीजों— ऐं श्यामरंग का, ह्रीं सूर्य के रंग का एवं क्लीं को चन्द्रमा(स्फटिक) के रंग का भावित करते हुए, क्रमशः ऊपर से नीचे की ओर पूरे शरीर में चेतना को घुमाते हुए, दिए गये मन्त्रों का मानसिक उच्चारण करना है।
श्यामवर्णाभ ऐं बीजार्थ मन्त्र—
ऊँ खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा। शंखिनी चापिनी बाणा भुशुण्डी परिघायुधा ।। सौम्या सौम्यतराशेषसौम्ये- भ्यस्ततिसुन्दरी । परापराणां परमात्वमेव परमेश्वरी ।। यच्च किञ्चित्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके । तस्य सर्वस्य या शक्तिः सात्वं किं स्तृयसे मया।। यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्तियो जगत् । सोपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः । विष्णुःशरीर ग्रहणमहमीशान एव च । कारिस्तास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान्भवेत् ।।
रविवर्णाभ ह्रीं बीजार्थ मन्त्र—
ऊँ शूलेनपाहिनोदेवि पाहि खड्गेन चाम्बिके । घंटा स्वनेन नः पाहि चापज्यानिः स्वनेन च।। प्राच्यां रक्षप्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे । भ्रामणेनात्मशूल्सय उत्तरस्यां तथेश्वरि । । सौम्यानि यानि रुपाणि त्रैलोक्ये विचरन्तिते । यानिचात्यर्थ घोराणितैरक्षास्मांस्तथा भुवम् ।। खड्ग शूल गदादीनि यानि चास्त्राणि तेम्बिके । करपल्लव संगीनि तैरस्मान्रक्षसर्वतः ।।
स्फटिकाभ क्लीं बीजार्थ मन्त्र—
ऊँ सर्वस्वरुपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते । भयेभ्यस्त्राहिनो देवि दुर्गे देवि नमोस्तुते ।। एतत्तेवदनं सौम्यं लोचनत्रय भूषितम् । पातुनः सर्व भूतेभ्यः कात्यायनि नमोस्तुते ।। ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुर- सूदनम् । त्रिशूलंपातुनोभीतेर्भद्रकाली नमोस्तुते।। हिनस्तिदैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्ययाजगत् ।। सा घण्टा पातुनो देवि पापेभ्यो नः सुतानिव ।। असुरासृग्वसा पंकचर्चितस्ते करोज्वलः । शुभाय खङ्गो भवतु चण्डिके त्वां नतावयम् ।।
                ।।इति एकादशन्यासः।।
उक्त एकादशन्यासों के अतिरिक्त मूलन्यास, अक्षरन्यास और दिङ्न्यास अभी और करना शेष है। तत्पश्चात् देवीध्यान पूर्वक नवार्णजप प्रारम्भ किया जाना चाहिए।
(संक्षिप्त रीति से पाठ वा जप क्रम में भी नवार्णविधि के प्रारम्भ में दिये गये विनियोग और ऋष्यादि न्यास के पश्तात् इन तीन न्यासों को अवश्य करना चाहिए। )
(क)               ऊँ ऐं अँगुष्ठाभ्यां नमः । ऊँ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ।
ऊँ क्लीं मध्यमाभ्यां नमः। ऊँ चामुण्डायै अनामिकाभ्यां नमः ।  ऊँ विच्चे कनिष्ठकाभ्यां नमः । ऊँ ऐं हृदयाय नमः । ऊँ ह्रीं शिरसे स्वाहा। ऊँ क्लीं शिखायैवषट् । ऊँ चामुण्डायै कवचाय हुम् । ऊँ विच्चे नेत्रत्रयायवौषट् । ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्रायफट् ।।
(ख)      ऊँ ऐं नमः शिरसि। ऊँ ह्रीं नमः नेत्रयोः। ऊँ क्लीं नमः ललाटे। ऊँ चां नमः  भ्रुवोः । ऊँ मुं नमः कर्णयोः। ऊँ डां नमः गण्डयोः। ऊँ यैं नमः मुखे। ऊँ विं नमः दन्तपंक्त्योः। ऊँ चें नमः जिह्वायां । ऊँ ऐं नमः स्कन्धयो । ऊँ ह्रीं नमः गले । ऊँ क्लीं नमः भुजयोः । ऊँ चां नमः हृदि । ऊँ मुं नमः पार्श्वयोः। ऊँ डां नमः पृष्ठे । ऊँ यैं नमःनाभौ । ऊँ विं नमःलिंगे । ऊँ च्चें नमः कट्योः । ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमः गुह्ये ।  ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमः करयोः । ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमः पादयोः । ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमः।।
(ग)              ऊँ ऐं प्राच्यै नमः । ऊँ ऐं आग्नेय्यै नमः । ऊँ ह्रीं दक्षिणायै नमः । ऊँ ह्रीं नैर्ऋत्यै नमः। ऊँ क्लीं प्रतीच्यै नमः। ऊँ क्लीं वायव्यै नमः। ऊँ चामुण्डायै उदीच्यै नमः। ऊँ चामुण्डायै ईशान्यै नमः । ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ऊर्ध्वै नमः । ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नमः।।
उक्त तीनों प्रकार के न्यासों को करने के पश्चात् ध्यान करें— 
   शंखं चक्रं गदां बाणान्पाशं परिघ शूलके ।
  भुशुण्डीं च शिरः खड्गं दधतीं दशवक्त्रकाम्।।
  तामसीं सिद्धिदांनौमि महाकालीं दशांघ्रिकाम्।
  मालां च परशुं बाणान् गदां कुलिशमेवच ।।
  पद्मं धनुः कुण्डिकां च दंडं शक्तिमसिं तथा।
  खेटकं जलजं घंटां सुरापात्रं च शूलकम् ।।
  पाशं सुदर्शनं चैव दधतीं लोहित प्रभाम् ।
  पद्मस्थितांमहालक्ष्मीं भजे महिषमर्दिनीम्।।
  घण्टां शूलं हलं शंखं मुसलासि धनुः शरान् ।
  दधतीमुज्वलां नौमिदेवीं गौरी समुद्भवाम्।।

अब ऊँ मां माले महामाये सर्वशक्ति स्वरुपिणि । चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मां सिद्धिदा भव—इस मन्त्र से माला की प्रार्थना करके, ऊँ ह्रीं सिद्ध्यै नमः उच्चारण पूर्वक माला को ललाट से लगावे। तदुपरान्त विहित (संकल्पित) संख्या जप सम्पन्न करे।

प्रत्येक दिन के संकल्पित जप के पश्चात् भी पूर्वोक्त षडंगन्यासों को भी करना चाहिए।

क्रमशः... 

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