दाल-रोटी


दाल-रोटी
आज तो दाल-रोटी दिवस है न? ” – लॉकडाउन की खिल्ली उड़ाते या कहें धज्जी उड़ाते हुए बटेसर काका सुबह-सुबह मेरे घर आ धमके इस सवाल के साथ, जबकि मैं कई दिनों से इसी दाल-रोटी के सवाल से खुद ही जूझ रहा हूँ। मेरे ही जैसे और भी बहुत से लोग ऐसे  सवालों से जूझ रहे होंगे । आज काका का यूँ आना, जरा भी अच्छा न लगा मुझे ।
मुंहकरखी लगाने वाला मॉस्क तो वो कभी इस्तेमाल ही नहीं किए । रोज की तरह मुंह पर लिपटा हुआ अंगोछा भी आज नदारथ था। नतीजा ये हुआ कि मैं जो इत्मीनान से बैठे चाय सुड़क रहा था, खटाक से गिलास टेवल पर रखा और सट्ट से गमछा लपेट लिया अपने मुंह पर । क्या करें, जमाना ही ऐसा आ गया है - मुंहदिखाने के लायक ही नहीं रह गया है इन्सान ।
काका को शायद डर नहीं है, किन्तु मुझे तो भई डर भी है और चिन्ता भी है अपनों की । देश-दुनिया की चिन्ता-फिकर करें ना करें, अपनी और अपनों की चिन्ता तो करनी ही चाहिए । हमारे नेता लोग भी बार-बार ऐसी ही प्रैक्टिकल सलाह दे रहे हैं।
खाने वाले और दिखाने वाले— हाथी के दांतों की दो सिरीज की तरह नेताओं के पास भी दो तरह के सिद्धान्त और संदेश हुआ करते हैं। मीडिया के सामने कही जाने वाली बातों का ज़मीनी ताल्लुक कुछ नहीं होता। भले ही जहाँ-तहाँ फँसे स्टूटेंट, पर्यटक और मजदूरों के लिए कोई खास व्यवस्था नहीं हो पायी है अव तक, किन्तु नेताजी के निकम्मे औलादों के सकुशल घर वापसी के लिए हजारों किलोमीटर गाड़ी दौड़ गयी । और मजे की बात ये है कि रास्ते में किसी ने कुछ पूछ-पाछ न भी किया ।
दरअसल नेता का मतलब ही होता है दिव्यलोक का प्राणी । किसी ने देखा, किसी ने देख भी न पाया । सबकी औकात तो है नहीं उनसे दो-हाथ करने की। और ये मीडियावाले भी ज्यादातर विचारवान ही होते हैं। आँखिर सोच-विचार करके न चलें तो काम कैसे चले ! सब बात लिख-बोल ही देंगे, तो दाल-रोटी कैसे चलेगी ! जब कि पंचतन्त्रवाली सीमा और परिभाषा रह ही नहीं गयी है—दाल-रोटी की। अब इसके दायरे में फ्रिज,ए.सी. से लेकर मोटर-सोटर सब आगए हैं। हवाई यात्रायें तो दाल-रोटी की अनिवार्य शर्तों में एक है।
पहले के जमाने में दाल-रोटी की चिन्ता सिर्फ मजदूरों को होती थी, किन्तु आजकल उनको छोड़कर बाकी सबको होने लगी है। दरअसल उन बेचारों के पास समय ही कहाँ है ज्यादा सोच-विचार करने के लिए । दिन निकलते ही घर से निकल पड़े। सारा दिन हाड़ तोड़कर कमाये। देर रात घर वापस आए। रूखा-सूखा जो रहा सो खा-पीकर खर्राटे भरे। किन्तु बाकी लोगों को इसी दाल-रोटी के चक्कर में सारी जिन्दगी गुजर जाती है। और मजे की बात ये है कि मनमाफिक जुगाड़ पूरा ही नहीं हो पाता ।  
इस दाल-रोटी के सही वटवारे के लिए कितनी ही क्रान्तियाँ हुयी । लालसलाम का नारा बुलन्द हुआ । हँसिया-बाल और हँसिया-हथौड़ा का टैगिंग हुआ । यहाँ तक कि 1 मई को मजदूर दिवस के रुप में घोषित किया गया । 1886 में शिकागो में जन्मा ये दिवस 1923 आते- आते भारत में भी जम गया । किन्तु परिणाम क्या हुआ .मजदूरों की स्थिति और स्तर में कितना सुधार हुआ सबको पता है। दिवस मनाने से भला कोई काम होता है ? हुआ है आज तक ?
मेरी चुप्पी पर काका ने फिर वही सवाल दागा— आज तो दाल-रोटी दिवस है न?
हाँ काका,आप सही कह रहे हैं—आज दाल-रोटी दिवस ही है । मेरा वस चले तो मजदूर दिवस का नाम बदल कर दाल-रोटी दिवस ही कर दूँ ; किन्तु बात तो फिर वहीं की वहीं रह जायेगी। मजदूर नेताओं के तोंद का घेरा बढ़ता जायेगा और मजदूर का अस्थि-पंजर निखरता जायेगा । ऐसे में दाल-रोटी कहो या मजदूर-किसान...।
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