सप्तशतीरहस्य प्रथम भाग



                           अनुक्रमणिका
           पुरोवाक्                                                ७.                            
१.   सप्तशती : परिचय                                      ११.                             
२.  सप्तशती-प्राण : नवार्णमन्त्र                         ५१.
३.  सप्तशती केन्द्र : कुमारी पूजन                      ५९.
४.  भूतशुद्धि : विशिष्ट प्रक्रिया                             ७३.
५.  न्यास : परिचय और प्रयोग                            ८५.
(क) परिचय -                                       ८५.
(ख) प्रयोग   -                                      १०३.   
६.  सप्तशती : साधना कब-कैसे                        १३९.
७. ज्ञातव्य एवं ध्यातव्य—                                   १४७.
(क)  बीजात्मक सप्तशती  (-) —         १४७.
(ख) साधना का शुभारम्भ                        १७७.
(ग)  सप्तशती पाठान्त होमःविशेष विचार  १८४.
(घ)  सिद्धकुञ्जिकाःरहस्यमयी कुञ्जी          २०७.
(ङ)  सम्पुट प्रयोग                                      २०८.         
(च)  अखण्डदीप-स्थापन,आरती(नीराजन)  २१०.
(छ) विविधोपचार                                       २१७.
(ज)  पूजन-सम्बन्धी विविध बातें                 २१८.
(झ) पत्र-पुष्प-विचार                                   २३.
(ञ)  माला प्रकरण                                      २४९.
(ट)  ग्रह-नक्षत्र-राश्यादि-वनस्पति-मन्त्र-सूची २५७.
(ठ)  सप्तौषधि-दशौषधि-सर्वौषधि-शतौषधि-  २६१.
उपसंहार              ------------                          २६७.
परिशिष्ठ               -----------            


     

    ।                                                       । श्रीवागीश्वर्यैनमः ।
                                       पुरोवाक्
 द्विजत्व ग्रहण के थोड़े ही दिनों बाद सप्तशती के प्रति अज्ञात आकर्षण होने लगा। आठवें वर्ष में उपवीती होने के साथ ही संध्या-गायत्री का क्रम पूरी निष्ठा से शुरू हो गया था। अपरिहार्य अध्ययन कार्य की प्राथमिकता विशेष (स्वतन्त्र) रुप से किसी बड़े अनुष्ठान हेतु अवकाश नहीं दे पाया, फलतः द्वादशवर्षीय सतत गायत्री अनुष्ठान का लक्ष्य लेकर सांसारिक जीवन में उतर गया। कौटुम्बिक दबाव में असमय (अल्पवय- सत्रहवर्ष) में ही गृहस्थाश्रम-प्रवेश भी हो गया । युवावस्था के झंझावातों ने जीवन को झकझोरने का भरपूर आनन्द लिया । परिणामतः द्वादशवर्षीय अनुष्ठान का प्रथम चक्र तो येन-केन-प्रकारेण पूरा किया, किन्तु द्वितीय चक्र पुनः साध ही न पाया । आरोह-अवरोह का चक्र अधूरा ही रह गया । यहाँ तक कि सुदीर्घकाल तक   गायत्री-स्त्यान की स्थिति भी झेलनी पड़ी । हालाँकि इस बीच पराम्बा की कृपा से अन्यान्य मन्त्र-साधना सतत जारी रहा । परन्तु भटकाव भरपूर झेला । तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र की दुनिया का खाक भी खूब छाना । पिपासा बढ़ती गयी, परन्तु सुशीतल जलोपलब्धि का सर्वथा अभाव ही रहा ।  
श्रीकृष्ण वाली सप्तशती तो घुट्टी में ही मिली थीनित्य एक श्लोक शब्दार्थ सहित याद करने पर एक चॉकलेट और न याद करने पर पाँच छड़ी खाने की शर्त पर, किन्तु श्रीदुर्गा वाली सप्तशती भी बलात् आकर्षित करता रहा । तदन्तरगत वर्णित ऋषि, राजा और वैश्य की कथायें रोचक होते हुए भी रूच-पचन पा रही थी। मन ये स्वीकारने को कदापि राजी ही नहीं हो रहा था कि इन कथाओं से भोग-मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। और यदि है, जैसा कि शास्त्रों, साधकों और विद्वानों का डिंडिमघोष है, तो फिर निश्चित ही इसमें कुछ विशेष रहस्य छिपा हुआ है, जो सामान्य प्रचलन में नहीं है। फलतः कथाजाल से बाहर निकलकर, या कहें कथाजाल में प्रविष्ट होकर कुछ लब्ध करने की पिपासा जगी और सप्तशती को सम्यक् रुप से समझने की दिशा में खोज प्रारम्भ किया। थोड़े भ्रमण और मन्थन के बाद कुछ संत-महात्माओं की कृपा-प्रसाद से संकेत मिला कि सप्तशती-तत्व को आत्मसात किए वगैर कोई सुलभ मार्ग नहीं है। इसके लिए मूलमन्त्र की
साधना अपरिहार्य है। आगे का मार्ग वहीं से लक्षित हो सकता है।
वैसे भी गायत्री की तुलना में इसका पुरश्चरण काफी सरल है, किन्तु सांसारिक मायामोह-जंजाल ने उस सरल को भी दुरुह ही बनाए रखा  । सामान्य रुप से क्रिया तो चलती रही, किन्तु आनुष्ठानिक बल प्रदान करने में असमर्थ रहा।
उम्र के एक पड़ाव पर आकर चिन्तन की धारा किंचित परिवर्तित हुई तत्पश्चात् पराम्बा की माया ने कुछ और ही स्वरुप दिखाना शुरु कर किया । जीवन के थपेड़े खूब रुलाए, खूब धकिआए, खूब भटकाए भी ; किन्तु महामाया की कृपा से भीतर की शान्ति खोई नहीं कभी, प्रत्युत यदा-कदा होठों पर मुस्कान बन कर बिखरती रही-
— वाह रे महामाया ! तुम भी खूब मजे लेती हो ।
इस सुदीर्घ अन्तराल में महामाया की कृपा और पूर्वजों के आशीष स्वरुप जो कुछ भी लब्ध हुआ—मुक्ता-प्रवाल या कहें सीप-घोंघा उसे ही कुछ वर्ष पूर्व  बाबाउपद्रवीनाथ का चिट्ठा एवं         सूर्यविज्ञान : आत्मचिन्तन नामक दो पुस्तकों में यथास्थिति सजा कर या कहें वेतरतीब ही रख छोड़ा — सुधी पाठकों के लिए। कुछ शेष प्रतीत हो रहा है उसे इस सप्तशतीरहस्य के रुप में संजोने की धृष्टता कर रहा हूँ।  जी हाँ, दुस्साहस कहना ही उचित होगा। क्योंकि न तो मैं कोई साधक हूँ और न विद्वान ही, ऐसे में विद्वत्तापूर्ण बातें करना शेखी बघारना ही तो है।  
फिर भी ये सोचकर कि आने वाले समय में पता नहीं  समय की क्या दुर्गति होगी !  ऋषि-महर्षियों द्वारा रचित ग्रन्थ तो आज भी दुर्बोध हो रहे हैं। अतीत और वर्तमान में विकट कलिकाल के विद्वानों द्वारा समय-समय पर रची गयी एवं रची जा रही पुस्तकें भी आनेवाली पीढ़ी के लिए कितनी सुबोध होंगी - कहा नहीं जा सकता ।  ऐसी परिस्थिति में मुझ अल्पज्ञ की लेखनी ही शायद भावी पीढ़ी की प्रदीपिका सिद्ध हो जाए।
इस आत्मविश्वास के साथ सप्तशतीरहस्य पर चर्चा करने की दुस्साहस कर रहा हूँ। आशा है विद्वद्जन मुझे क्षमा कर देंगे और युवा पीढ़ी नूतन आलोक का अनुगमन करेगी।
सप्तशतीरहस्य को ये स्वरुप देने में जिन ऋषि-महर्षियों, संतों,साधकों, गुरुजनों, विद्वानों आदि का प्रसाद ग्रहण किया हूँ, उन सबके प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करना अपना परम कर्तव्य समझता हूँ। किन्तु इन सबसे ऊपर अष्टविषयक आचार्य अपने पितृव्य पंडित श्री बालमुकुन्द पाठक जी को रखना चाहूँगा, जिन्होंने  हितोपदेश रचयिता पं. श्रीविष्णुशर्मा की तरह बड़े ही सहज-सरल रुप से अबोधावस्था में ही योग और तन्त्र के बीज बो दिए मेरे मानस की मरुभूमि में।  कालान्तर में अनुकूल वातावरण पाकर वही बीज अंकुरित-पल्लवित-पुष्पित-फलित हुआ है और आज आपके सामने सप्तशतीरहस्य के रुप में अर्पित करने की पावन स्थिति बन पायी है।  अस्तु।

विनीत—
कमलेश पुण्यार्क                                                                                                                                      सूर्यसप्तमी, विक्रमाब्द-२०७६.
मैनपुरा, मैनपुरा-चन्दा, कलेर, अरवल (बिहार) भारत
guruji.vastu@gmail.com, mb.8986286163 

क्रमशः जारी...

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