सप्तशतीरहस्य - भाग 14

 श्रीदुर्गासप्तशतीःःएक अध्ययन का चौदहवाँ भाग

गतांश से आगे...
प्रसंग क और ख से सम्बन्धित कुछ चित्र,तदुपारान्त पाठान्त होमचर्चा-


                      (ग)सप्तशती पाठान्त होमविशेष विचार
 
किसी भी अनुष्ठान की समाप्ति होमकार्य से होती है। इस सम्बन्ध में कई बातों का ध्यान रखना आवश्यक है । सर्वप्रथम इस बात का निश्चय होना चाहिए कि होमकार्य हेतु कुण्ड-निर्माण करें अथवा स्थण्डिल (वेदिका) । सामान्य पूजन क्रम में तो सुविधानुसार किसी पात्र में देवदारधूप जला कर घी से कुछ आहुतियाँ डाल देते हैं, किन्तु अनुष्ठान विशेष हेतु कुण्ड वा स्थण्डिल निर्माण अत्यावश्यक है। शारदातिलक, ज्ञानार्णवतन्त्रम्, कुण्डसिद्धिरहस्य आदि ग्रन्थों में कुण्ड के अनेक प्रकार कहे गए हैं — चौकोर, चन्द्राकार, वृत्ताकार, योन्याकार, त्रिभुजाकार, षट्कोणाकार, सप्तकोणाकार, अष्टकोणाकार, इत्यादि । यथा—  योनिकुण्डे भगाकारे वर्तुलेवार्धचन्द्रके । नव त्रिकोण कुण्डेवा चतुरस्रेष्टपत्रके ।। योनिकुण्डे भवेद्वाग्मी भगे चाकृष्टिरुत्तमा । वर्तुलेतु भवेल्लक्ष्मीरर्द्धचन्द्रे त्रयं भवेत् ।। नवत्रिकोणकुण्डे तु खेचरत्वंप्रजायते । चतुरस्रेभवेच्छा-न्तिर्लक्ष्मीःपुष्टिररोगता ।। पद्माभे सर्वसम्पत्तिरचिरादेव जायते ।। अष्टकोणे तु सुभगे समीहित फलं भवेत् ।।
 प्रसंगवश यहाँ विविध प्रकार के कुण्डों से परिचय कराते हैं— १.चतुरस्रकुण्डम्— दिक्साधनविधया पूर्वापररेखां दक्षिणोत्तर रेखांच निष्पादयेत् । तादृशरेखा प्रान्तचतुष्टस्य प्रत्येकं पार्श्वद्वये चिकीर्षितपरिमाणस्यार्द्धमर्द्धनिधाय तत्सन्धौकोणचिन्हानि कुर्यात् । ततःकोणचिन्हेषु सूत्रचतुष्टयनियातनाच्चतुरस्रंसंपद्यत इति । यथाकथं-चिद्वाचतुर्विंशत्यङ्गुलैश्चचुर्भिर्भुजैः समकर्ण चतुरस्रं निष्पादयेत् ।।
.योनिकुण्डम्— समचतुरस्रक्षेत्रस्य पश्चिमरेखामध्यात् पूर्व रेखामध्यभेदिनो क्षेत्रसूत्रपञ्चमांशेनाधिकां गर्भरेखामालिख्य नैर्ऋत्यदेशे कोणसूत्रस्य तुरीयांशे चिन्हं कृत्वात च्चिन्होपरि विन्यस्तादेः सूत्रस्य पूर्वोक्त गर्भरेखा मूलावन्यस्तं प्रान्तं परिभ्रम्य बहिर्वृतार्द्ध निष्पादयेत् । एवं वायव्यकोणेपि वहिर्वृतार्द्ध रचयेत् । ततोगर्भरेखामान्तात् वृत्तद्वय प्रान्तस्यर्शिसूत्रद्वयंनिपात्यपिप्पलपत्राकारंयोनिकुण्डं  विदध्यादिति ।।
.अर्धचन्द्रकुण्डम्— नवधाविभज्य तत्राद्यन्तौ भागौ त्यक्त्वा अवशिष्ट सप्तभागादिमरेखागर्भदेशे सूत्रादिनिधाय तस्यैव भागसप्तक- स्यान्तिमरेखा गर्भदेशे सूत्रान्तं निवेश्य तत्सूत्रपरिभ्रमेण प्रथम रेखातुल्यविश्रान्तप्रान्तं वृत्तार्द्धं रचयेत् । अथ प्रथमरेखाप्रान्त द्वयमपि
वृत्तार्द्धे संयोज्यचन्द्रार्द्धं सम्पादयेत् ।।
.त्रिकोणकुण्डम्— समचतुरस्रक्षेत्रस्य पश्चिमरेखामध्यात् पूर्वस्थितरेखामध्यमेदिनीं क्षेत्रसूत्रतृतीयभागाधिकां गर्भरेखामालिख्य पश्चिम रेखाप्रान्तद्वयमपि क्षेत्रसूत्रतृतीयभागाधिकं कुर्यात् ततोगर्भरेखाप्रान्तात् पश्चिमरेखाप्रान्तद्वयस्पर्शिसूत्रद्वयं निपात्य त्रिकोणं सम्पादयेत् ।।
.वर्तुलकुण्डम्—चतुरस्रक्षेत्रे कोणान् कोणान्तरगामिन्सूत्रस्यार्द्धं कोणार्द्ध शब्देनोच्यते। कोणार्द्धस्याष्टधाविभक्तस्य यावानष्टमोभागस्ता-वन्तंभागं चतुर्दिक्षुबहिर्विन्यसेत् । ततः क्षेत्रगर्भदेशे सूत्रादिनिधाय बहिःस्थिताष्टमभागं विन्यस्तं तस्यैव सूत्रस्य प्रान्तंसर्वतः परिभ्रम्य वृत्तकुण्ढ सम्पादयेत् ।।
.षट्कोणकुण्डम्—समचतुरस्रक्षेत्रं स्वष्टांशमानेनोत्तरतोदक्षिण-तश्च वर्द्धयित्वातदाय चतुरस्रं सम्पादयेत् । तस्मिश्च दक्षिणोत्तरायतां गर्भरेखां रचयेत् । गर्भरेखाया मध्यविन्दोस्तदुत्तरप्रान्तविन्दोश्च समभुज त्रिकोणं पूर्वेश्यान्यन्तराले पश्चिमवायव्यान्तराले च मत्स्यमुत्पाद्य सम्पादयेत् । एवमेव गर्भरेखामध्यात् तद्दक्षिणप्रान्ताच्च समत्रिकोणं पूर्वाग्नेयान्तराले पश्चिमनैर्ऋत्यान्तराले च मत्स्येन सम्पादयेत् । तदित्थं चत्वारो मत्स्या द्वौ च गर्भरेखाप्रान्तावित्येतेषु षट्कोणविन्दुषु षण्णां योगसूत्रानां निपातनात् षट्कोणं सम्पद्यते ।।  
.पद्मकुण्ड—चतुरस्रक्षेत्रं पूर्वापरतो दक्षिणोत्तरतश्चाष्टधाविभज्य क्षेत्राद्वहिरष्यष्टमभागेन चतुर्दिक्षुवर्द्धयेत् । ततः क्षेत्रमध्यादष्टमांशत्रि-ज्यया कृतं प्रथमं वृतं कर्णिकास्यात् । पुनर्द्वितीयेन अष्टमांशेन वर्द्धितया त्रिज्यया कृतं चतुर्थं वृत्तं हलकोटयःस्यु । हलानामुपरितनो भूमिर्दलकोटिः मध्यतश्चतुर्थेष्टमांशे चतुरस्रक्षेत्रं परिसमाप्यते । ततः क्षेत्राद्बहिः परिवर्द्धितेन पञ्चमेनाष्टमांशेन वर्द्धितया त्रिज्ययाकृतं पञ्चमं वृत्तंदलाग्राभूमिः स्यात् । पञ्चस्नेतेषु वृत्तेषु सर्वत्र वृत्तद्वयपाल्योनन्तरं त्र्यंगुलं द्रष्टव्यम् । हस्तमात्रे क्षेत्रे क्षेत्राष्टमांशस्य त्र्ययङ्गुलात्मकत्वात् । अथ कर्णिकां स्वविस्तारतुल्योच्चां विहाय खनेत् । तदिदमष्टदलं पद्मं सम्पद्यते ।।  
.अष्टकोणकुण्डम्—चतुरस्रक्षेत्रस्य पूर्वापरं दक्षिणोत्तरच्च गर्भसूत्रं त्रयोदशभागैः स्वीयद्वात्रिंशांशसहितैश्चतुर्दिक्षुवर्दध्येत् । वर्द्धितयोः प्रान्तयोः सूत्रदाने नान्यच्चतुरस्रं वाह्यंक्रियते । ततो गर्भसूत्रं कोणसूत्रं चान्तरान्तरांतए पुनरन्यारेखा अष्टौकार्याः तासामन्तररेखाणां वाह्य चतुरस्रे यत्र योगस्तत्र तत्र चिन्हंकृत्वा तेषु योगचिन्हेषु सूत्रंनिपातयेत् । ततोष्टभुजक्षेत्रं सम्पद्यते ।।
तथाच—किंचित विशेषः—एतेषु कुण्डेषु खातादीनि पञ्चागनि यथायथं रचयेत् । तथा च चतुरस्रे, त्रिकोणे, वर्तुले, षट्कोणे, पद्मे, अष्टकोणे तु पश्चिम मेखलासु पूर्वमुखीं तथैव अर्द्धचन्द्रे दक्षिण मेखलासू- त्तरामुखी योनिविन्यसेत् । योनिकुण्डेतु योनिं च दापयेत् ।।
     इस प्रकार उक्त व्याख्याओं में हम पाते हैं कि सर्वाधिक सरल है – चतुरस्रकुण्ड । कुण्डों में इसे सर्वोत्तम माना गया है। ये चतुरस्रकुण्ड दो प्रकार का होता है - मेखला रहित और मेखला सहित । नियम है कि अधिक आहुतियाँ देनी हों तो मेखलारहित तथा कम आहुतियाँ देनी हों तो मेखलासहित कुण्ड-निर्माण करना चाहिए।
        एक से पचास आहुति पर्यन्त कुण्ड-परिमाण इक्कीस अंगुल लम्बाई, चौड़ाई, गहराई वाला हो। आगे सौ आहुति पर्यन्त अरत्नि साढ़े  वाइस अँगुल । इसी भाँति आगे भी जाने। इसी प्रसंग में आगे कहते हैं—नाभियोनि समायुक्तं कुण्डं श्रेष्ठं त्रिमेखलम् । कुण्डं द्विमेखलं मध्यं नीचस्यादेक मेखलम् ।। (तीन मेखला उत्तम, दो मेखला मध्यम और एक मेखला निकृष्ट होता है)। कुण्ड के आकार के समान वा कमल सदृश नाभि बनावे। चौबीस अँगुल कुण्ड हो तो बारह अँगुल लंबी, आठ अँगुल चौड़ी व बारह अँगुल ऊँची योनि होनी चाहिए।                      
         स्कन्दपुराण में कहा गया है—न्यूनसंख्योदिते कुण्डेऽधिको होमो विधीयते । न न्यूनसंख्यो होमश्चाऽधिककुण्डे कदाचन ।।
१.मेखलारहित कुण्ड एक घनहाथ (लंबा,चौड़ा,गहरा) होना चाहिए, उसके ऊपर नौ अंगुल ऊँची मेखला बनती है।
२.मेखला सहित कुण्ड की लम्बाई और चौड़ाई तो एक-एक हाथ ही होती है, पर गहराई पन्द्रह अँगुल होना चाहिए, जिसके ऊपर नौ अँगुल की मेखला होती है। इसका क्षेत्रफल एक घनहस्त के करीब होता है। समुचित दिक्साधन करके द्वादशास्र एक हस्त परिमित कुण्ड बनाकर उसके ऊपरी भाग पर एक-एक अँगुल चारो ओर छोड़कर नौ अंगुल ऊँची, चार अंगुल चौड़ी पहली मेखला, उसके बाहर (पहली मेखला से संलग्न) पाँच अँगुल ऊँची और तीन अँगुल चौड़ी दूसरी मेखला, उसके बाहर दो अँगुल ऊँची, दो ही अँगुल चौड़ी तीसरी मेखला बनानी चाहिए। इस सम्बन्ध शास्त्र वचन इस प्रकार हैः-
द्विरंगुलोच्छ्रितो वप्रः प्रथमः समुदाहृतः । त्र्यंगुलोच्छ्रायसंयुक्तं वप्रद्वयमथोपरि ।। द्वयंगुलंस्तत्र विस्तारः सर्वेषां कथितो बुधैः ।। (मत्स्यपुराण ९३/९६)
यावान् कुण्डस्य विस्तारः खननं तावदीरितम् । खाताद् बाह्येऽङ्गुलः कुण्डः सर्वकुण्डेष्वयं विधिः ।।
                                                                                                        तथा च शारदातिलके—
व्यासात्खातः करः प्रोक्तो भिन्नं तिथ्यङ्गुलेन तु ।
कुण्डात्परं मेखला स्यादुन्नता सा नवाङ्गुलैः ।।
प्रधानमेखलोत्सेधमुक्तमत्र नवाङ्गुलम् ।
तद्वाह्यमेखलोत्सेधं पञ्चाङ्गुलमितिस्फुटम् ।।
तद्वाह्यमेखलोत्सेधमङ्गुलद्वितयं क्रमात् ।
चतुस्त्रिद्वयङ्गुलव्यासो मेखलात्रितयस्य तु ।।
मेखला के बाद अब योनि की चर्चा करते हैं -१२अँगुल ऊँची, १२अँगुल लम्बी और ८अँगुल चौड़ी पीपल के पत्ते सदृश कुण्ड के पश्चिम भाग में योनि बनानी चाहिए, जो एक अँगुल कुण्ड में प्रविष्ट हो। कुण्ड के बीच में तीन अँगुल ऊँची, चार अँगुल चौड़ी, चार अँगुल लम्बी नाभि भी बनानी चाहिए। यथा-
दीर्घा सूर्याङ्गुला योनिस्त्र्यंशो ना विस्तरणे तु ।
एकाङ्गुलोच्छ्रिता सा तु प्रविष्टाभ्यन्तरे तथा ।।
कुम्भद्वयार्थसंयुक्ता अश्वत्थदलवन्मता ।
अङ्गुलष्ठमेखलायुक्ता मध्ये त्वाज्याधृतिक्षमा ।। (त्रैलोक्यसार)
                                                                                                     इस प्रकार योनि और नाभि से युक्त तीन मेखला वाला कुण्ड श्रेष्ठ माना गया है— योनिनाभिसमायुक्तं कुण्डं श्रेष्ठं त्रिमेखलम् ।
इसी प्रसंग में पुनः कहते हैं - कि स्त्री यजमान हो तो योनिकुण्ड ही बनावे। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखे कि योनिकुण्ड में योनि और पद्मकुण्ड में नाभि नहीं बनावे - योनिकुण्डे तथा योनिं पद्मे नाभिं च वर्जयेत् ।।
            विद्वद्श्रेष्ठ कमलाकर भट्टजी ने सिद्धान्ततत्वविवेक  में योनिकुण्ड की निर्माण विधि को स्पष्ट किया है—
फलात् खखाष्टवेदाघ्नात् त्र्यादिखाद्रिहृतात्पदम् ।  बाहुरश्वत्थपत्राभे योनिकुण्डे प्रजायते ।। समत्रिभुजवत् तस्माद् व्यासोऽप्यत्राद्यहस्तके । कुण्डे भुजो भवेद् व्यासोऽअंगुलाद्यो गणितेन वै ।। समत्रिभुजवत्पूर्वे कृत्वा तुल्यं त्रिबाहुकम् । योनिकुण्डे ततो बाहुत्रयमध्यातद् भुजाद् बहिः ।। मण्लार्धत्रयं लेख्यं बाह्वर्धभ्रमणादिह । एकार्धवृत्तमध्याच्च पार्श्वयोस्तद्भुजाग्रगे ।। काये रेखे च तत्सक्ते चापे त्यक्त्वाऽवशेषकम् । योनिकुण्डं भवेदाद्यमश्वत्थदलयोनिभम् ।।
योनिकुण्ड में भुज = 
(योनिकुण्ड का क्षेत्रफल X 4800का वर्गमूल )भाग 7073=
556 X 4800 का वर्गमूल भाग 7073 = 2764800 वर्गमूल भाग 7073 =
  = ३९०।५४ (स्वल्पान्तर से अंगुलात्मक लब्धि)
        ज्ञातव्य है कि एक हाथ के कुण्ड का अँगुलात्मक क्षेत्रफल २४×२४=५७६ होता है। इसे ही उक्त सूत्र में सुलझाया गया है। इसी को भुज मानकर समत्रिकोण त्रिभुज बनाकर, भुजार्ध को केन्द्र मानकर तीनों अर्धवृत्त निर्माण करके, ऊपर के चापार्द्ध बिन्दु त्रिकोण के कोणपर्यन्त रेखा को जोड़कर शेष चापार्द्ध को हटा देने से पीपल के पत्ते सदृश योनिकुण्ड बन जाता है। शेष क्रिया चतुर्भुजवत् ही रहती है। न्यून आहुति हो तो १×१ हाथ की सामान्य वेदिका(स्थण्डिल) ही बनावें, इसमें भी तीन मेखलायें अवश्य हों। इसमें योनि नहीं बनानी चाहिए। यथा—
स्थण्डिले मेखला कार्या कुण्डोक्ता स्थण्डलाकृतिः । 
योनिस्तत्र न कर्तव्या कुण्डवत् तन्त्रवेदिभिः ।।
  निर्माण सम्बन्धी अन्यान्य नियम भी हैं । कई बारीकियाँ भी हैं। नियमोलंघन का भयंकर दुष्परिणाम भी है। इनका आकार आहुति की मात्रा पर भी निर्भर है। नियमों के विशेष बन्धन से मुक्ति और दुष्परिणामों से बचने हेतु विद्वानों ने यहाँ तक कह दिया है कि—कुण्डेतु बहवो दोषाः स्थण्डिले बहवो गुणाः । तस्मात्कुण्डं परित्यज्य स्थण्डिले हवनं चरेत् ।।      तथाच  
मानहीने महाव्याधिरधिके शत्रुवर्द्धनम् । अनेक दोषदं कुण्डमत्र न्यूनाधिकं यदि । तस्मात्सम्यक् पीरक्ष्यैव कर्त्तव्यं शुभनिच्छता ।।  
 कुण्डनिर्माण में बहुत प्रकार के दोष हैं एवं वेदी निर्माण में अनेक गुण । अतः वेदी पर ही होम करना प्रशस्त है। नाप (लम्बाई, चौड़ाई, गहराई, योनि, यूप, पीठादि) में कमी होने से व्याधि की आशंका रहती है एवं अधिक होने पर शत्रुओं की वृद्धि होती है। किंचित आचार्यों के मत से अधिक होने पर आचार्य एवं यजमान व्याधिग्रस्त होता है तथा कम होने पर धन-पशु आदि की हानि होती है। टेढ़ा-मेढ़ा होने पर विविध संताप झेलना पड़ता है। छिन्न मेखला से मरण एवं मेखलाहीन होने पर द्रव्यनाश होता है। योनि में त्रुटि हो तो स्त्रीनाश एवं कंठ में त्रुटि हो तो पुत्र-शोक झेलना पड़े। माप में किंचित त्रुटि होने पर भ्रातृद्रोह, विशेष त्रुटि होने पर मृत्यु भी हो सकती है। अतः कल्याण की आकांक्षा वाले को माप की न्यूनाधिकता का सम्यक् ज्ञान रखना अति आवश्यक है एवं  कुण्ड निर्माण कार्य अति सावधानी पूर्वक करना चाहिए ।

     आजकल लोहे के बने-बनाये कुण्ड बाजार में आसानी से उपलब्ध हैं, जिसे लोग धड़ल्ले से प्रयोग भी कर रहे हैं। देखा-देखी और बाजारीकरण के दौड़ में अज्ञानता और मूर्खता का जीता-जागता उदाहरण है ये । मजे की बात ये है कि किसी विद्वान ने इस पर अँगुली उठाना या दिशा निर्देश देना भी आवश्यक नहीं समझा ।

         जिस-तिस माप का बना हुआ लौहकुण्ड पदार्थ, परिमाण और परिणाम तीनों दृष्टि से विचारणीय है। डामरतन्त्र में कहा गया है— सुवर्णे कार्यसिद्धिः स्याद्रौप्ये वश्यंजगद्भवेत् । ताम्रंतयोरभावेऽपि कांस्ये विद्वेषणं भवेत् । मारणं लौहपात्रेस्यादुच्चाट्टो मृण्मये तथा । अतः लौहकुण्ड का सर्वदा परित्याग करना चाहिए। सबसे आसान और निरापद है तांबे या पीतल की थाली में मिट्टी या बालू बिछाकर संक्षिप्त होमकार्य सम्पन्न कर लेना ।
         आगे एक चित्र के माध्यम से हवनवेदी की सजावट को स्पष्ट किया जा रहा है—

विशेष होम हेतु आवश्यकतानुसार अठारह, सताइस, छत्तीश वा चौआलिस अँगुल परिमाण की समतल वा त्रिपायदानीया वेदी का निर्माण करे । समतल वेदी पर चावल चूर्ण (चौरेठा) से क्रमशः तीन घेरा बनावे । अथवा तीन तल वाली होने पर क्रमशः उत्तरोत्तर छोटा होते जाए— ४४ > ३६ > २७ । ऊपरी समतल को तीन घेरे में आवृत करते हुए, मध्य में रोली से अधःत्रिकोण बनाये और उसके मध्य में अग्निबीज रँ लिखे । वेदी के दाहिने भाग में दक्षिण और अग्निकोण के मध्य में अष्टदल वा स्वस्तिक चिह्न पर ब्रह्मकलश(२५६मुट्ठी चावल से भरा हुआ कलश) स्थापित करे। वेदी-व्यवस्था का ही प्रधान अंग है- ब्रह्मास्थापन, प्रोक्षणी, प्रणीता, कुशकण्डिकादि ।

ब्रह्मा के स्थान के सम्बन्ध में भी मतान्तर है। प्रायः लोग इन्हें ईशान में रख देते हैं - जैसा कि वास्तुमंडल में ईशान और पूर्व में स्थान है। तो कुछ लोग अग्नि कोण में, कुछ सीधे दक्षिण में। अतः प्रसंगवश इसका भ्रमनिवारण अत्यावश्यक प्रतीत हो रहा है। वास्तुमंडल, दिक्पालमंडल वा ग्रहमंडल में ब्रह्मा का स्थान निर्विवाद रुप से ईशान-पूर्व मध्य में ही है; किन्तु अग्निवेदी के साथ यह नियम मान्य नहीं है। अतःप्रश्न उठता है कि क्या इसे अग्निकोण में रखें, जैसा कि सूक्ष्म परख के अभाव में लोग रख दिया करते हैं या कि दक्षिण में ? इस सम्बन्ध में भारतीयविवाहपद्धतिमें एक प्रश्नोत्तर है, जिसे यहाँ उद्धृत किया जा रहा है
प्रश्नउत्तरे सर्वतीर्थानि, उत्तरे सर्व देवता, उत्तरे प्रोक्षणी-प्रोक्ता, किमर्थं ब्रह्म दक्षिणे?
उत्तरदक्षिणे दानवा प्रोक्ता, पिशाचाश्चैव राक्षसाः। तेषां संरक्षणार्थाय ब्रह्मस्थाप्य तु दक्षिणे ।। यानी सभी तीर्थ, देवादि, प्रोक्षणी-प्रणीता जब उत्तर में है, तब ब्रह्मा को दक्षिण में क्यों? तदुत्तर में कहा गया कि दक्षिण में दानव, राक्षस, पिशाचादि वास करते हैं, अतः यज्ञ में इनसे रक्षार्थ ब्रह्मा को यहीं स्थान देना चाहिए।
   उक्त प्रश्नोत्तर का थोड़ा और विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि अग्नि कोण में अग्निदेव का स्थान है, साथ ही ग्रहों में शुक्र का स्थान भी यहीं है। ये महाशय ही दानवादि के प्रिय गुरु हैं। आदरणीय यज्ञ-रक्षक पितामह ब्रह्माजी को इनके समीप ही कहीं स्थान देना उचित है, इस बात का ध्यान रखते हुए कि अग्नि और शुक्र दोनों का सामीप्य भी मिले, तथा यम के क्षेत्र में अतिक्रमण भी न हो। इस प्रकार सुनिश्चित स्थान पर चावल-हल्दीचूर्ण, कुमकुमादि से अष्टदल कमल बना कर, उस पर पीतरंजित चावल से परिपूर्ण एक कलश की स्थापना करे। इस ब्रह्मकलश के आकार और चावल की मात्रा के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश है कि यजमान की मुट्ठी से दोसौछप्पन मुट्ठी चावल होना चाहिए, जो कि करीब साढ़े बारह किलो होता है। अज्ञान या अभाव में लोग एक छोटा सा कलश मात्र रख देते हैं। इस विशेष कलश पर पूर्णपात्र रखने का विधान नहीं है, प्रत्युत कुशा में गांठबांध कर (मानवाकृतिस्वरुप) ऊपर से खोंस देना चाहिए।
ब्रह्मावरणः- अब, द्रव्य-अक्षत-पुष्पादि लेकर, सुविधानुसार, किसी ब्राह्मण को ब्रह्मा नियुक्त करेयथा चतुर्मुखो ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः । तथा त्वं मम यज्ञेऽस्मिन् ब्रह्मा भव द्विजोत्तम ! एवं, उक्त ब्रह्माकलश
के समीप आसन देकर, गायत्र्यादि जप हेतु निवेदन करे।  

हवनवेदीसंस्कार(पञ्चभूःसंस्कार,कुशकण्डिका,परिस्तरणम्)
अब, कुशा लेकर वेदी का झाड़न संस्कार करे, झाड़न प्रयुक्त कुशा को वेदी के ईशान कोण में फेंक दे। थोड़ा सा कपूर जलाकर, हवनवेदी पर अंगार भ्रमण की क्रिया भी करे। तत्पश्चात् गोमय मिश्रित जल का वेदी पर प्रोक्षण करे। अब,दाहिने हाथ में एक कुशा लेकर, बायें हाथ की हथेली को फैलाकर, वेदी पर दक्षिणोत्तर क्रम से तीन बार रखते हुए, पश्चिम से पूर्व की ओर तीन रेखायें खींचे, तथा तीनों रेखाओं पर से (अँगूठा और अनामिका के सहारे) चुटकी भर वालु/मिट्टी उठा कर वेदी के उत्तर दिशा में फेंक दे, तथा शुद्ध जल का छिड़काव कर दे। तत्पश्चात् वेदी के उत्तर दिशा में, क्रमशः दो कुशा खण्डों पर दो पात्र प्रोक्षणी और प्रणीता के निमित्त स्थापित करें। इन दोनों में जल भर कर, अलग-अलग कुशा से ढक दे। पूर्व प्रसंग में अग्नि-वेदी-व्यवस्था को एक  चित्र के माध्यम से स्पष्ट किया जा चुका है।
       अब, वेदी के पूरब में उत्तराभिमुख, दक्षिण में पूर्वाभिमुख, पश्चिम
में उत्तराभिमुख एवं उत्तर में पूर्वाभिमुख एक-एक कुशा रखे, तथा अग्निवेदी से प्रणीता तक एवं वेदी से ब्रह्मा तक भी एक-एक कुशा रख दें। तत्पश्चात् नवीन कांसे वा फूल की थाली में किसी बालिका से अग्नि मंगवाकर, अग्निवेदी के मध्य (किंचित अग्निकोण की ओर) में स्थापित करे। ध्यातव्य है कि अग्निस्थाली को सम्मुख रखते हुए वेदी पर अँगार उझले, तथा वायीं ओर रिक्त अग्निस्थाली को रख कर, उसमें पुष्पाक्षत सहित कुछ द्रव्य भी छोड़ दे । इस थाली सहित द्रव्य का अधिकार विप्रवालिकाओं का ही हुआ करता हैं – कांस्यपात्रस्थं लौकिकाग्निमग्निकोणादानीय सुवासिनी द्वारा प्रत्यङ्मुखमुपसमाधाय ।
       ध्यातव्य है कि विशेष यज्ञों में अरणीमन्थनक्रिया द्वारा अग्नि प्रकट की जाती है ।  वहाँ लौकिक अग्नि लाने की आवश्यकता नहीं होती ।
              अग्निसम्मुखीकरण के सम्बन्ध में एक रोचक प्रश्नोत्तर है— आहुतीदेवमुत्पाद्यपश्चात्कर्मसमाचरेत् । अधोवक्त्रोर्ध्वपादश्च प्राङ्गमुखोहव्यवाहनः । तिष्ठत्वेवंप्रभावेण आहुती कस्य दीयते । तदुत्तर में कहते हैं— सपवित्राम्बुहस्तेन बह्नेःकुर्यात्प्रदक्षिणम् । हव्यवाट्-  सलिलंदृष्ट्वाविभीतो सम्मुखो भवेत् ।।
                                अग्निस्थापन मन्त्रः-
ॐ मुखं यः सर्वदेवानां हव्यभुक् कव्यभुक तथा । पितृणां च नमस्तुभ्यं विष्णवे पावकात्मने ।। रक्तमाल्याम्बरधरं रक्तपद्मासनस्थितम्। रौद्रवागीश्वरीरुपं वह्निमावाहयायहम् ।। ॐ अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनम् । सुवर्ण वर्णममलमनन्तं विश्वतो मुखम्।। सर्वतः पाणिपादश्च सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्। विश्वरुपो महानग्निः प्रणीतः सर्वकर्मसु ।। ॐ अग्ने शाण्डिल्यगोत्राय मेषध्वज मम सम्मुखो भव । प्रसन्नो भव। वरदा भव । ॐ पावकाग्नये नमः।।
       अब, अग्नि प्रकट (प्रज्ज्वलित) हो जाने पर, आम्र के डंठल में आम्रपत्र को मौली के सहारे बाँध कर होमार्थ स्रुवा बनावे और उसे वेदी पर स्थापित अग्नि में किंचित तपावे । वैदिक कर्मकाण्डी लोग विशेष काष्टनिर्मित स्रुवा साथ रखते हैं। स्रुवा के आकार और निर्माण की भी खास विधि है । आचार्य अपने हस्तप्रमाण खदिरकाष्ठ का स्रुवा उपयोग करते हैं—स्रुवःखादिरोहस्तमात्रः...।
              होमकाल में स्रुवा को हाथों में कैसे ग्रहण करे इस सम्बन्ध में कहा गया है—अग्रे धृत्वा तु वैधव्यं मध्ये धृत्वा प्रजाक्षयः । मूले च म्रियते होता स्रुवस्थानं कथं भवेत् ?
           तदुत्तर में कहते हैं— अग्रन्मध्यस्तु यन्मध्यं मूलान्मध्यस्तु मध्यमम् । स्रुवां च धारयेद्विद्वदायुरागोग्यप्रदं सदा ।।
       अब, ॐ पावकाग्नये नमः मन्त्रोच्चारण पूर्वक आवाहित अग्नि का पंचोपचार पूजन करे। तत्पश्चात् निम्नांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक सिर्फ घी से पाँच आहुतियाँ प्रदान करें। प्रत्येक आहुति के बाद स्रुवा में शेष घी को उत्तर की ओर रखे पात्रों में झाड़ता जाये । प्रज्वलित अग्नि के उत्तर भाग में-  ॐ नमः प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम । प्रज्वलित अग्नि के दक्षिणभाग में – ऊँ इन्द्रायस्वाहा, इदं इन्द्राय न मम । अग्निमध्य में - ॐ भूः स्वाहा,  इदमग्नये न मम ।  ॐ भुवः स्वाहा, इदं वायवे,  न मम । ॐ वं स्वाहा, इदं सुपर्णाय न मम । ॐ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम । 
तथाच, एक और घृताहुति इस मन्त्र से प्रदान करें—यथावाणप्रहाराणां कवचं भवति वारकम् । तथा दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारिणा । ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम ।।    तत्पश्चात् पुनः आचार्य महोदय इसी मन्त्र का उच्चारण करते हुए यजमान पर जल छिड़क दें।

आहुतिविचार.तरल पदार्थ घृतादि की आहुति स्रुवा से तथा ठोस पदार्थों की आहुति बिना स्रुवा के प्रदान करे। यथा— द्रवद्रव्यं स्रुवेणैव पाणिना कठिनं हविः। स्रुवहोमे सदा त्याज्यः प्रोक्षणीपात्र मध्यतः।।

.आहुति की मात्रा न बिलकुल कम हो और न बहुत अधिक तर्जनी, कनिष्ठा को हटाकर, यानी मध्यमा, अनामिका और अँगुष्ठ के सहारे जितनी मात्रा उठायी जा सके - यही उचित मात्रा है एवं आहुति प्रदान करने की विहित मुद्रा भी यही है।

मुद्रा के सम्बन्ध में शास्त्र निर्देश है- होमे मुद्राः स्मृतास्तिस्रो मृगी हंसी च सूकरी । मुद्रां बिना कृतो होमः सर्वो भवति निष्फलः।। शान्तिके तु मृगी ज्ञेया हंसी पौष्टिक कर्मणि। सूकरी त्वभिचारेषु कार्या मन्त्रविदुत्तमैः ।। सूकरी करसंकोची हंसी मुक्तकनिष्ठिका । कनिष्ठा तर्जनी युक्ता मृगीमुद्रा प्रकीर्तिता ।।
. आचार्य मन्त्रोच्चारण करें, यजमान आहुति डाले, साथ ही स्वयं भी स्वाहा बोलते रहे । आहुति के प्रत्येक खंड के पश्चात् वेदी परप्रज्वलित अग्नि से बाहर, कलछी से थोड़ा जल गिरा दिया करे । 
  सम्पुटित होम में मन्त्रसंख्या का निर्देश इस प्रकार मिलता है—मन्त्रपुटं बीजपुटं दुर्गास्तोत्रं पठेत्सदा । मन्त्रबीजपुटादुर्गा कामनासिद्धिदासदा। होमकालेसदामन्त्रंदुर्गामन्त्रं पृथक्हुनेत् । कामनाबीज संयोगो दुर्गा मन्त्रेण संहुनेत् । दुर्गास्तवन मन्त्राणां संख्यासप्तशतं भवेत् । कामना मन्त्रसंख्या च शतं चैव चतुर्दश ।। मध्येमन्त्रान्सप्तशतद्दोमकाले तु योजयेत् । पाठे मन्त्रपुटं वाच्यं होमे मन्त्राः पृथक् पृथक् ।। होमसंख्या च मन्त्राणां शतं वै चैकविंशतिः । पाठेबीजपुटंवाच्यं होमे बीजपुटं हुनेत् ।। मन्त्रपुटं श्लोकार्ध लौकिक वैदिक मन्त्रपुटं ।। बीजपुटं ऐं ह्रीं क्लीं इत्यादि ना संपुटम् ।। बीजसंयोगः दुर्गामन्त्रेण संहुनेत् ।। मन्त्रसंयोगे पृथक् होमः तेषां संख्या चतुर्दश शतम् ।।  
 श्रीदुर्गासप्तशती पाठ के पश्चात् होम-विधान का सामान्य नियम है कि नवार्णमन्त्र से यथेष्ट आहुतियाँ प्रदान की जाएँ । ध्यातव्य है कि सप्तशती में श्लोक, श्लोकार्द्ध, उवाच आदि सभी मन्त्र कहे गए हैं, जिनकी संख्या सात सौ है। अतः सातसौ आहुतियाँ तो होनी ही चाहिए । आद्यन्त नवार्णमन्त्र जप भी अष्टोत्तरशत हुआ है। पूरी क्रिया नौ दिनों की है। अतः सामान्य और सरल नियम ये है कि क्रमिक दशांश नियमानुसार सहस्र आहुतियाँ प्रदान करें । यदि नवार्ण मन्त्र से होम कर रहे हैं, तो सीधे दसमाला जप करते हुए आहुतियाँ प्रदान करें । स्वाभाविक है कि होता और जापक दो व्यक्ति होंगे । व्यक्तिगत रुप से क्रिया हो रही हो, तो उचित होगा कि पति जप कर ले और पत्नी आहुति डाले। परिवार के अन्य अधिकारी सदस्यों का सहयोग भी लिया जा सकता है । ये आहुतियाँ सिर्फ घी अथवा शाकल्य से दी जा सकती हैं । शास्त्रों में घृत को मोक्षदायक कहा गया है । सम्पुट पाठ की स्थिति में ये संख्या इक्कीस माला हो जायेगी । गणना के सम्बन्ध में एक और बात जान लेनी चाहिए कि एक सौ आठ मनके की माला में आठ की गणना नहीं करते। इस प्रकार दस माला जप का मतलब हुआ मात्र एक हजार जप , न कि एक हजार अस्सी।   

दुर्गाभक्तितरंगिणी, डामरतन्त्रम्, मन्त्रमहार्णव १८-१४७ आदि में आहुति के सम्बन्ध में विशद चर्चा है। यथा—  पायसंसर्पिषायुक्तं तिलैः शुक्लैर्विमिश्रितम् । होमयेद्विधिवद्भक्त्या दशांसेन नृपोत्तम । रुद्राध्यायेयथा होमोमन्त्रेणैकेन साध्यते ।। तथा स्तोत्रं जपेद्धोमं श्लोकेनैकेन साधयेत् ।। यद्वासप्तशती जाप्ये होमे मन्त्री नवाक्षरः । तथाच देवीपुराणे— पूजयेत्तिल होमैश्च दधिक्षीरघृतादिभिः ।

     सप्तशतीस्तोत्र से प्रतिश्लोक तिल-पायस होम का भी विधान है—प्रति श्लोकं च जुहुयात्पायसंतिलसर्पिषा । पुर्श्चरणकार्येतु बिल्वपत्रयुतैस्तिलैः । (इस श्लोक का पूर्वार्द्ध यथावत सप्तशती के अन्त में रहस्य प्रसंग में भी आया है।)  
रुद्रयामल में कहा गया है— प्रधानद्रव्यमुद्दिष्टं पायसान्नंतिलास्तथा । किंशुकैः सर्षपैःपूगैर्लाजादूर्वाङ्कुरैस्तथा । यवैर्वा –श्रीफलैर्दिव्यैर्नानाविधफलैस्तथा । रक्तचन्दनखण्डैश्चग्गुलैश्चमनोहरैः । प्रतिश्लोकंचजुहुयात् सर्वद्रव्याणि च क्रमात् ।। पायसान्नेन जुहुयात्पूजिते हेमरेतसि ।। इत्यादि ।
 आहुतिद्रव्य— आहुति देने हेतु शाकल्य-निर्माण की कई विधियाँ निर्दिष्ट है—(1) तिलार्द्धंतन्डुला प्रोक्ता तण्डुलार्द्धं यवास्तथा । तण्डुलैस्त्रिगुणं चाज्यं यथेष्ठं शर्करामता ।। तिलाधिक्ये भवेल्लक्ष्मी यवाधिक्ये दरिद्रता । घृताधिक्ये भवेन्मुक्ति सर्वसिद्धिस्तुशर्करा ।।
(2) यवस्यभागाश्चत्वारो तदर्द्धं तण्डुलं स्मृतम्। तदर्द्धं च तिलंज्ञेयं शर्कराचतदर्द्धिका । होमद्रव्यमितिख्यातं घृतंशर्करया समम् ।।
किस होमद्रव्य का क्या परिणाम है, इस सम्बन्ध में एक और श्लोक मिलता है—आयुःक्षयंयवाधिक्यं यवसाम्यंधनक्षयः । सर्वकामसमृद्ध्यर्थं तिलाधिक्यं सदैवहि । इसका विचार करते हुए होमद्रव्यों की मात्रा इस प्रकार निश्चित करने का निर्देश भी मिलता है
(3) तिल, चावल , जौ, गुड़ और घी का मिश्रण क्रमशः आधा-आधा, यानी तिल का आधा चावल, चावल का आधा जौ, जौ का आधा गुड़ और गुड़ का आधा घी ।

पायस प्रमाण— सामान्य तौर पर दूध में चावल पका कर खीर बनाने का चलन है। होमकार्य हेतु हविष्य वा पायस की चर्चा मिलती है। आयुर्वेदीय ग्रन्थ भावप्रकाश पूर्वखंड, कृतान्नवर्ग में इसे क्षीरिका नाम दिया गया है। इस सम्बन्ध में कहा गया है— पायसं परमान्नं स्यात् क्षीरिकापि तदुच्ते । शुद्धेर्द्ध पक्वे दुग्धेतु घृताक्तांन्तण्डुलानपचेत् । ते सिद्ध  क्षीरिकाख्याता सासिताज्ययुतोपमा । क्षीरिकादुर्जराबल्या धातुपुष्टिप्रदा गुरुः । विष्टम्भिनो हरेत्पित्तरक्तपित्ताग्निमारुतान् ।।
अब, आहुति दान प्रकार के सम्बन्ध में कहते हैं— सकारेसूतकं
विद्याद्धकारे मृत्युमादिशेत् । आहुतिस्तत्र दातव्यःयत्र आकार दृष्यते ।
प्रफुल्ल प्रज्वलित अग्नि में ही, मध्य में, आहुति प्रदान करना चाहिए । धूम्रग्रस्त अग्नि में कदापि आहुति प्रदान न करे। आहुति क्रम में अग्नि के विविध अंगों की भावना की गयी है यहाँ । स्वरुप, स्थिति और गन्धादि का भी विचार किया गया है । सबके अलग-अलग परिणाम भी कहे गये हैं। तत्सम्बन्धी  शास्त्रवचन हैं—सधूमोग्निः शिरोज्ञेयो निर्धूमश्चक्षुरेव च । ज्वलत्कृशोभवेत्कर्णः काष्ठलग्नश्च नासिका ।। अग्निर्लालयते वज्र शुद्धस्फटिक सन्निभः । सम्मुखं तत्र विज्ञेयं चतुरंगुल मानतः ।।
तथाच ग्रन्थान्तरे — सधूमोग्निः शिरोज्ञेयं निर्धूमश्चक्षुरेवहि । ज्वलत् कृष्णोभवेत्कर्णः काष्ठलग्ने मनस्तथा । प्रज्वलोग्निस्तयाजिह्वा एतदेवाग्निलक्षणम् । आस्यान्तर्जुहुयादग्ने विपश्चित्सर्व कर्मसु । कर्णे होमे भवेद्व्याधिर्नेत्रेन्धत्व मुदीरितम् । नासिकायांमनः पीड़ा मस्तके धन संक्षयः । स्वर्णसिन्दूर बालार्क कुंकुमक्षौद्रसन्निभः । सुवर्णरेतसोवर्णाः शोभनः परिकीर्तितः । भेरीवादित्र हस्तीन्द्र ध्वनिर्वह्नेः शुभावहः । नाग चम्पक पुन्नाग पाटला यूथिका निभः । पद्मेन्दीवर कल्हार सर्पिर्गु-ग्गुल सन्निभः । पावकस्य शुभोगन्ध इत्युक्तं तन्त्रवेदिभिः ।। प्रदक्षिणास्त्यक्तकम्पाश्छत्राभः शिखिनःशिखाः । शुभदा यजमानस्य राज्यस्यापि विशेषतः ।। कुन्देन्दु धवलोधूमोवह्नेः प्रोक्तः शुभावहः । कृष्णः कृष्णगतेर्वर्णो यजमानं विनाशयेत् । खरस्वर समोवह्नेर्ध्वनिः सर्वविनाशकृत् ।। पूतिगन्धो हुतभुजो होतुर्दुःखप्रदोभवेत् । छिन्नवर्ता शिखा कुर्यान्ममृत्यं धनपरिक्षयम् ।। शुकपक्षनिभो धूमः पारावत समप्रभः । हानि तुरग जातीनां गवां च कुरुते  चिरात् ।। एवं विधेषु दोषेषु प्रयश्चित्तायदेशिकः । मूलेनाज्येन जुहुयात्पञ्चविंशतिमाहुतीः ।।   
तथा च वनदुर्गाकल्पे—सर्वकार्य प्रसिद्ध्यर्थं जिह्वायां तत्र होमयेत् । चक्षुः कर्णादिकं ज्ञात्वा होमयेद्देशिकोत्तमः । अग्निकर्णे हुतं यत्तु कुर्याच्चेद्व्याधितोमयम् । नासिकायां महद्दुःखं चक्षुयोर्नाशनं भवेत् । केशेदारिद्रपदं प्रोक्तं तस्माज्जिह्वासुहोमयेत् । यत्रकाष्टं तत्र श्रोत्र यत्र धूमस्तु नासिके । यत्राल्पज्वलनं नेत्रे यत्र भस्मतु तच्छिरः । यत्र प्रज्वलितो बह्निस्तत्र जिह्वा प्रकीर्तितः ।
तथाच –  शत्रुनाशकहोमे एतदंगेषु हवनात्तदङ्ग क्षयो भवति। यदाहुः बह्नेःशिरसि नासायां श्रोत्रे चक्षुसि वा तथा जुहुपयाच्चेत्तदा
क्षिप्रं तदंगानि विनाशयेत् ।।
 अग्नि प्रज्वलित करने हेतु लोग मुंह से फूंक मारने लगते हैं, ये बिलकुल असंगत और शास्त्रविरुद्ध है।  इस सम्बन्ध में कहते हैं— 
वस्त्रवाते भवेद्वयाधिः शूर्पेण च धनक्षयः । 
पाणिना जायतेमृत्युः कर्मसिद्धर्मुखेन तु ।।

विशेष नियम के अन्तर्गत सप्तशती के विविध मन्त्रों से भी आहुति देने  का विधान है। किन्तु सप्तशती-मन्त्रों से होम करने में कुछ विशेष सावधानी भी रखनी होती है। कुछ मन्त्र ऐसे हैं, जिनके उच्चारण पूर्वक आहुति प्रदान करना निषिद्ध है। उनके स्थान पर सीधे नवार्ण मन्त्र से ही आहुति देनी चाहिए।
     दूसरी बात जानने योग्य ये है कि कुछ विशेष मन्त्रों के साथ आहुति-सामग्री भी भिन्न है, यानी सामान्य शाकल्य से अथवा घी से आहुति न देकर वस्तु विशेष का प्रयोग करना है। प्रत्येक अध्याय के अन्त में विशेष मन्त्र से विशेष सामग्री से आहुति देने का भी विधान है। ध्यातव्य है कि जहाँ वस्तु निर्दिष्ट न हो वहाँ घृत वा सामान्य शाकल्य से ही आहुति देनी चाहिए।

क्रमशः... 

Comments