सप्तशतीरहस्य- भाग 16


                 श्रीदुर्गासप्तशतीःःएक अध्ययनःःभाग सोलह            

                  अध्याय- 8-  (घ) सिद्धकुञ्जिकाःरहस्यमयी कुञ्जी

श्री दुर्गासप्तशती के प्रायः सभी पुस्तकों में रुद्रयामल गौरीतन्त्रम् का एक स्तोत्र मिलता हैसिद्धकुञ्जिकास्तोत्रम् । इसके विषय में इस स्तोत्र के अन्त में बड़ा ही रोचक और ध्यानाकर्षक टिप्पणी हैयस्तु कुञ्जिकया देवि हीनां सप्तशती पठेत् । न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ।। वन में रोने के समान है सप्तशती का पाठ, यदि वह कुञ्जिकापाठहीन हो ।

इस स्तोत्र की पुष्पिका में ही शिव घोषणा करते हैं कि किसी बाह्याडम्बर की आवश्यकता नहीं है न कवचं नार्गलास्तोत्रं  कीलकं न रहस्यकम् । न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्  ।। कुञ्जिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत् ।...

इस वचनों से ये स्पष्ट है कि इस स्तोत्र की स्वतन्त्र साधना भी की जा सकती है।  प्रारम्भिक चार श्लोकों की भूमिका वा कहें माहात्म्य के बाद, सीधे मूल मन्त्र का ब्रह्मास्त्र पिरोया हुआ है उक्त स्तोत्र में । आगे पुनः भगवती के विविध स्वरुपों के स्मरण पूर्वक उनकी गरिमा-महिमा की चर्चा है। सातवें श्लोक में स्पष्ट संकेत है मातृकारहस्य का । त्रोटय-त्रोटय की दावेदारी पूर्ण आग्रह के साथ हम कर क्या रहे हैंविचारणीय है।

मातृकारहस्य के विषय में काफी कुछ प्रकाश डाला जा चुका है इस पुस्तक के अन्यान्य अध्यायों में ।  जाने-अनजाने साधक यही तो करता रहता है या कहें अन्तर्जगत में यही तो होता रहता है। मातृकायें ही तो मूल हैं । इन्हें ही चैतन्य करना है। हालँकि करना क्या है ! चैतन्य की चैतन्यता का अनुभव करना है सिर्फ । इस अनुभव तक पहुँचने के लिए हमें जो भी करना पड़े । हम जिस किसी रास्ते से जाएं, जाना तो अन्ततः वहीं है।

कुञ्जिकास्तोत्र को साधनाओं की कुञ्जी कहने में हमें जरा भी संकोच नहीं । इस छोटे से स्तोत्र में सृष्टि का सारा रहस्य, सारी विधियाँ, सारी क्रियायें संजो दी गयी हैं, पिरो दी गयी है इस मालामन्त्र में । किन्तु ध्यान रहे, देखने में बहुत छोटा और साधने में बहुत सरल लगते हुए भी उतना सरल है नहीं ।

अट्टालिका गगनभेदी बनानी है, तो उसका नींव तो मजबूत करना ही होगा न ! सरल समझ कर, आडम्बरहीन समझकर, सीधे इसे साधने की धृष्टता कदापि न की जाए। अन्यथा परिणाम बहुत ही घातक हो सकते हैं। गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति कहकर सावधान करने के पीछे शिव का यही उद्देश्य है।

   यम-नियम की सुदीर्घ साधना के पश्चात ही इसकी साधना में उतरना चाहिए । अन्य मलों को पहले पूरी तरह दूर करलें, तभी इसमें हाथ डालें। अन्यथा लाभ के बदले हानि का सामना करना होगा और फिर उस दुष्परिणाम से शायद ही कोई लौकिक गुरु त्राण दिला सकेगा।  पैसिन्जर ट्रेन के ट्रैक पर जेटप्लेन को कदापि नहीं दौड़ाया जा सकता। उसके लिए उन्मुक्त आकाश की आवश्यकता है। अस्तु ।
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क्रमशः...

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