सप्तशतीरहस्यःभाग 18

              श्रीदुर्गासप्तशतीःएक अध्ययनः अठारहवाँ भाग

गतांश से आगे...
         अध्याय आठ- (च)अखण्डदीप-स्थापन,आरती(नीराजन)

अखण्डदीप व आरती-पात्र के सम्बन्ध में डामरतन्त्र में स्पष्ट संकेत है—सौवर्णं राजतं ताम्रं कांस्यं लोहं च मातिकम् । गोधूम माष मुद्गानां चूर्णेन घटितं तथा ।। सुवर्णे कार्यसिद्धिः स्याद्रौप्ये वश्यंजगद्भवेत् । ताम्रंतयोरभावेऽपि कांस्ये विद्वेषणं भवेत् । मारणं लौहपात्रेस्यादुच्चाट्टो मृण्मये तथा। गोधूमचूर्ण घटिते विवादे विजयो भवेत् । माषजे शत्रुसंस्तम्भो मौद्गेस्याच्छान्तिसत्तमा।। सन्धिकार्ये नदीकूलद्वयमृत्स्ना समुद्भवम्। अलाभे सर्व पात्राणां कुर्यात्ताम्रं चमार्तिकम् ।।

यहाँ सोना, चाँदी, ताम्बा, कांसा, लोहा, मिट्टी, एवं गेहूं, मूंग, उड़द आदि के चूर्णों से निर्मित दीपक का प्रयोग करने के औचित्य और प्रयोजन पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि सुवर्ण निर्मित दीपक से आरती करने पर सभी कार्यों की सिद्धि होती है। चाँदी के प्रयोग से जगत को वशीभूत करने की सिद्धि मिलती है । इसके अभाव में तांबे का प्रयोग किया जा सकता है। वैसे भी अन्यान्य (यन्त्रलेखन, पूजनादि कार्यों में) त्रिधातुक्रम में इन्हीं तीनों धातुओं की बात की जाती है। कांस्यपात्र का प्रयोग विद्वेषणकार्य में करना चाहिए। तथा लौहपात्र का मारणकार्य में। एवं उच्चाटनकार्य में मिट्टी के पात्र का प्रयोग करना चाहिए। गेहूं के आटे (चूर्ण) से निर्मित दीपक से आरती करने पर विवादों में विजय-लाभ मिलता है । उड़द-चूर्ण-निर्मित दीपक से आरती करने से शत्रुओं का स्तम्भन होता है एवं मूंग-चूर्ण-निर्मित दीपक से आरती करने से शान्तिलाभ मिलता है। सन्धिकार्यों में नदी के दोनों किनारों की मिट्टी के मिश्रण से निर्मित दीपक का प्रयोग करना चाहिए।

ध्यातव्य है कि उक्त प्रसंग में पीतल की चर्चा नहीं है,जबकि कांसे की चर्चा है। वस्तुतः ये दोनों स्वतन्त्र धातु न होकर मिश्रधातुएं है। तांबे में जस्ते के मिलावट से पीतल का और तांबे में रांगे के मिलावट से कांसे का निर्माण होता है। मिलावट की मात्रा आवश्यकतानुसार (गुण और कार्य के अनुसार) निर्धारित होती है। त्रिधातु के बाद पीतल के पात्रों का प्रयोग भी पूजनकार्य में प्रशस्त है। ज्ञातव्य है कि मीठे पदार्थ एवं दूध का तांबे के साथ संयोग सर्वदा वर्जित है, जबकि पीतल का उपयोग किया जा सकता है। कांसे एवं फूल( एक अन्य मिश्रधातु) के पात्र  भी ग्राह्य हैं पूजन कार्य में, किन्तु ध्यान रखना होगा कि कांसे में दूध, दही एवं खट्टे या अन्य खाद्य पदार्थ नहीं रखने चाहिए। क्यों कि विशेष रासायनिक परिवर्तन अतिशीघ्र होने लगता है, जो कि स्वास्थ्य एवं स्वाद की दृष्टि से अप्रयोज्य है।

दीपकार्थवस्तु की जाति की चर्चा करके, अब तत्मान की चर्चा करते हैं। यानी दीपक का प्रमाण क्या हो। यथा—सहस्रपल संख्यायां पात्रं शतपलैः स्मृतम् । शतार्द्धपलमानेतु त्रिंशतापात्रमुत्तमम् ।। पादोनशत संख्यायां षष्टिकं पात्र मुच्यते । शतमानेतदर्द्धंतदधिकं पल संयुतम् ।। सहस्रसंख्यके प्रोक्तं दिग्पले दिग्पलं स्मृतम् । नित्यं दीपे प्रमाणं हि पलैः सप्तभिरम्बिके ! ।।
मात्रा प्रमाण के पश्चात अब स्वरुप की चर्चा करते हुए ऋषि कहते हैं— बुध्नेषडंगुलं प्रोक्तमुच्छ्राये च षडंगुलम् । षोड़शांगुल मायामं सुन्दरं पात्रमुत्तमम् ।। नित्य दीपेतदर्द्धार्द्धं मानं सर्वेषु कर्मसु ।

दीपक में घृतादि प्रयोजन—
गोघृतेन प्रकर्तव्यो दीपः सर्वार्थ सिद्धये ।
मारणेमाहिषं प्रोक्तमुष्ट्रं विद्वेषणे भवेत् ।।
आविकं शान्तिके प्रोक्तमाज्यंचोच्चाटने भवेत् ।
तिलतैलेन वा दीपः कार्यः सर्वार्थ सिद्धये ।।
घृताभावे महेशानि ! मारणे सार्षपेण च । (गोघृत प्रज्वलित दीपक सर्वकार्य सिद्धिदायक है। मारणकर्म में भैंस के घी का प्रयोग करना चाहिए। ऊँट की घी का प्रयोग विद्वेषण कार्यार्थ करना चाहिए। आविक यानी भेंड़ के घी का प्रयोग शान्तिकर्मों में किया जाना चाहिए। आज्य यानी बकरी का घी उच्चाटनकर्म में प्रयुक्त होता है । इन जांगम घृत (एनीमल फैट) के पश्चात् वानस्पतिक तैलों में तिल का प्रयोग सर्वाधिक प्रशस्त है। इसे गोघृत के समकक्ष रखा गया है एवं भैंस के घी के समकक्ष सरसो के तेल का प्रयोग कहा गया है। अन्यान्य तान्त्रिक क्रूर कर्मों में सरसो के तेल का प्रयोग किया जाता है, जबकि समस्त सात्त्विक कर्मों में तिलतेल की मान्यता है। गोघृत की उत्तमता के विषय में अन्यत्र भी कहा गया है—उत्तमं गोघृतं प्रोक्तं मध्यमं महिषीभवम् । अधमं छागली जातं तस्माद्गव्यं प्रशस्यते ।
कहीं-कहीं दोनों प्रकार के दीप का प्रयोग भी कहा गया है। वहाँ स्पष्ट है कि—घृतदीपं सितवर्ति युतं देवतादक्षभागे तथा च तैल दीपं रक्तवर्ति युतं देवता वामभागे स्थापय । तथाच— घृतदीपो दक्षिणतस्ततैलदीपस्तु वामतः। (मन्त्रमहोदधि) यहाँ दो बातों का ध्यान रखना है - वाम-दक्षिण दिशा निर्धारण देवप्रतिमा से करना है,स्वयं से नहीं। एवं वर्तिकासूत्र का रंग विचार भी आवश्यक है। तैल का अर्थ तिलाभ्याम् इति तैलः — तिल का ही तेल, न कि अन्य।

         दीपक में वर्तिका प्रयोग— अयुग्मा वर्तिका ग्राह्या एकोत्तर शतावधि । गुरुकार्येधिका प्रोक्ता अल्पे अल्पा मता प्रिये ! सूत्रं श्वेतं तथा पीतं मांजिष्ठं च कुसुम्भकम् । कृष्णं च कर्बुरं चेति षट्कर्मसु नियोजयेत् ।। सर्वाभावे सितेनैव कुर्याद्वर्तीः पृथक् पृथक् ।।

अखण्डदीप में शलाका प्रयोजन— सामान्य दीपक में आवश्यकता नहीं होती, किन्तु सुदीर्घकाल तक निर्वाध प्रज्वलित होने के लिए अखण्ड दीपक में शलाका का प्रयोग किया जाता है। इसके प्रमाण की चर्चा करते हुए तन्त्रग्रन्थों में कहा गया है— षोडशांगुल माना च सौवर्णी तु शलाकिका । राजतौदुम्बरौ वापि सुलक्षा बुघ्नका तथा । तीक्ष्णाग्रा सरला मध्ये त्रिशूलेनाङ्किता तथा ।।

अखण्डदीप-स्थापन कालिक सावधानी—  अखण्डदीप स्थापन-क्रिया में किंचित विशेष सावधानी वरतने की आवश्यकता है। इस काल में कई प्रकार के विघ्नों का सामना करना पड़ सकता है। स्थापन समय के शकुन-विचार की भी तन्त्रग्रन्थों में चर्चा है एवं विघ्न घटित हो जाने पर उसके निवारण का उपाय भी सुझाया गया है। डामरतन्त्र में कहा गया है— दीपस्य शुकनान्वच्मि श्रृणु देवि ! यथाक्रमम् । येन विज्ञात मात्रेण जायते च फलाफलम् ।। दीपारम्भे सुरेशानि ! नवदेदशुभं वचः । तस्मिन्काले तदुक्तं हि तत्तथैव भवेद्ध्रुवम् ।। वर्जयेदशुभां वाणीं तस्मिन्काले विशेषतः । रक्ताम्बरो द्विजोऽव्यङ्गो रक्तमाल्यानुलेपनः ।। दीपारम्भे समायाति तस्य सिद्धिर्न संशयः । शूद्र वर्णः समायाति सिद्धः प्रोक्तास्तु मध्यमा ।। म्लेच्छस्य दर्शने प्रोक्तं बन्धनं दीपदस्य वै । मार्जार मूषकादिनां मध्यमं दर्शनं स्मृतम् ।। कृते दीप वरे देवि ! वीक्ष्यते च शुभाशुभम् । दीपज्वाला समाश्लक्ष्णा जायते यदि सुन्दरि ! अष्टभिर्दिवसैस्तस्य कार्यसिद्धिर्भवेद्ध्रुवम् ।। दीप ज्वाला तु देवेशि ! यदि वक्रा भवेत्तदा । नाशस्तस्य च बन्धूनां प्रोक्तः सर्वार्थ नाशकः ।। खरङ्क प्रभाज्वाला यदि स्याच्चसुरेश्वरि ! दीपकर्तुः सविघ्नो वै मरणं जायते ध्रुवम् ।। दीपज्योत्स्नाम्बिके कृष्णा जायते च सुरार्चिते ! शत्रूणां जायते कार्यं दीपकर्तुर्निर्थकम् ।। कृते दीपे यदानाशस्तत्क्षणा- ञ्जायतेऽम्बिके ! कार्यसिद्धिर्विलम्बेन भविष्यति न संशयः ।। कृतदीपस्य नाशः स्यात्प्रहरत्रय मध्यतः । मासे वर्षे तथा प्रोक्ता कार्य्यं सिद्धिर्हि सुन्दरि ! ।। दीपवर्यस्य नाशः स्याद्यदि रात्रौ कदाचन । तस्य गेहे धनं वास्तु नष्टं भवति निश्चितम् । दत्ते दीपे यदि पुनश्चटचटेति ध्रुवंभवेत् । तदा तस्य च कार्यं वै नष्टंयाति तथादिशेत् ।। वमतेदीपवय्यश्चेच्चौरतोभयमाददेत्। दीपपात्रं यदि पुनः स्रवते देवि सुन्दरि ! ।। गोनाशो जयते तस्य दीप कर्तुर्न संशयः ।। दीपवर्यस्य पात्रं वै भग्नं वै दृश्यते यदि । अष्टादश दिनादर्वाग्यजमानः सवांधवः ।। श्राद्धदेवस्य सदनं गच्छति प्रिय कामिनि !।। दीपे नष्टे पुनर्दीपं ज्वालयेन्मूढ़ चेतनः । दीप दाता दीप कर्ता मन्दचक्षुर्भवेत्सदा ।। कृते दीपे पुनर्वार्ता कारयेद्यदि मानवः । कार्य्य सिद्धिर्हि देवेशि षण्मासात्स्यादनन्तरम् ।। प्रज्वालितं दीपवर्य्यमशुचिर्मानवःस्पृशेत् । दीपकर्तुः शरीरे तु व्याधिर्वै जायते नृणाम्।। दीपकाष्ठामुमे ! श्वानो मार्जारो मूषकादयः । यदि स्पृशन्ति कल्याणि ताडनं राजतो दिशेत् ।। एवं दीपवरे विघ्नाः वहवः सम्भवन्ति हि । तस्माद्दीपं सुरेशानि ! विलोक्यं तु पदे पदे ।।
अखण्डदीपस्थापने विघ्न-शान्तिप्रयोग—अखण्डदीप स्थापन क्रम में किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित हो जाये, तो उसकी शान्ति हेतु शर्करा, आज्य, तिल, तण्डुलादि से जयन्ति मंगलाकाली... मन्त्र से यथाविधि होम करना चाहिए। तत्पश्चात् नवार्णमन्त्र से, देवि प्रपन्नार्ति हरे प्रसीद... मन्त्र से, एवं करोतु सानः शुभेति... मन्त्रों से भी होम करना चाहिए।

दीपक-मुख-दिशा—पूर्वाभिमुखे तु सर्वाप्तिः स्तम्भोच्चाटनयो- स्तथा । रक्षा विद्वेषयोः कार्यं  पश्चिमास्यं प्रदीपकम् । लक्ष्मी प्राप्तवुत्त- रास्यं मारणे दक्षिणामुखम्।  

आरती दिखलाने का क्रम— आदौ चतुष्पादतले च देव्याः  द्वौ नाभिदेशेमुखमण्डलैकम् ।। सर्वेषु चांगेषु च सप्तवारानारार्तिकं भक्त जनस्तु कुर्यात् ।। (प्रारम्भ में चार बार पैरों के समीप, तत्पश्चात दो बार नाभिदेश में, तत्पश्चात एक बार मुखमण्डल समक्ष एवं अन्त में सात बार सर्वांग पर दक्षिणावर्त चक्राकार दीप प्रदर्शित करे। यानी कुल मिलाकर चौदह बार आरती प्रदर्शित करे । ऐसा नहीं कि लम्बे समय तक नाच-कूद-कवायद करता रहे, जैसा कि आजकल आडम्बर किया जाता है। तन्त्र एवं योग की दृष्टि से विचार करें तो चौदह संख्या का रहस्य स्पष्ट है कि सप्तचक्रों का आरोह-अवरोहक्रम है निराजन के अन्तर्गत, जिसका केन्द्र है- भक्त का नाभिमण्डल । आरती प्रदर्शित करते समय साधक की चेतना अपने नाभिमंडल में संचरित होती रहे—ऐसा भाव हो।

उक्त श्लोक में आरती का क्रम बतलाकर, अब इसके फल पर प्रकाश डालते हुए ऋषि कहते हैं— बहुवर्ति समायुक्तं ज्वलन्तं चण्डिकोपरि । कुर्यादारार्त्रिकं यस्तु कल्पकोटि वसेद्दिवि ।। मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत्कृतं चण्डिकास्तवम्। सर्वे सम्पूर्णतामेति कृते नीराजने शिवे ! ।।

आरती करने के क्रम में कैसे, किन-किन वस्तुओं से करना चाहिए, इस पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं— यश्च नीराजनं कुर्यात्प्रथमं दीपमालया । द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतौ धौतवाससा ।। चूताश्वत्थादि पत्रैश्च चतुर्थं परिकीर्तितम् । पञ्चमं प्रणिपातेन साष्टाङ्गेन यथा विधिः।। (सर्वप्रथम दीपक से सात+सात आवृति आरती करे, जैसा कि आदौ चतुष्पादतले च देव्याः ...प्रसंग में ऊपर कहा जा चुका है। दूसरी बार जलपूरित शंख से उसी भाँति प्रदर्शन करे। तीसरी बार आम, पीपल आदि के पल्लवों से आरती करे। चौथी बार धौत उत्तरीयवस्त्र का तत्भाँति प्रदर्शन करे और अन्त में स्वयं प्रणिपात पूर्वक साष्टांग दण्डवत करे। )

कालोत्तरतन्त्रम् पद्मोत्तरखंड, हरिभक्तिविलास आदि ग्रन्थों में
अन्यान्य प्रयोजनों में भी नीराजन करने का महत्त्व बतलाया गया है। वर्तिका की संख्या स्थापन-पात्रादि का भी विचार किया गया है। यथा—यवपिष्ट प्रदीपाद्यैश्चूताश्वत्थादि पल्लवैः । औषधीभिश्च मेध्याभिः सर्व बीजैर्यवादिभिः ।। नवम्यां पर्वकालेतु यात्राकाले विशेषतः । यः कुर्याच्छ्रद्धया वीर ! देव्या नीराजनं नरः ।। शंखभेर्यादि निनदैर्जयशब्दश्चपुषकलैः। यावतो दिवसान् वीर ! देव्या नीराजनं कृतम् ।। तावत्कल्पसहस्राणि दुर्गालोके महीयते । यस्तु कुर्यात्प्रदीपेन सूर्यलोके महीयते ।।
                                   —  वर्तिका प्रमाण —
कुम्कुमागरु कर्पूर घृत चन्दन निर्माताः वर्तिकाः सप्त वा पञ्च कृत्वावन्दापनीयकम् । यः कुर्यात्सप्तदीपेन शंख घंटादिवाद्यकैः देव्याः पञ्चप्रदीपेन बहुशोभक्ति तत्परः ।।

 नीराजन-विधि—रं इति प्रज्वाल्य, श्रीं ह्रीं ग्लूं म्लूं प्लूं न्लूं ह्रीं श्रीं इति गंधपुष्पाभ्यामारार्त्रिकं सम्पूज्य, चक्रमुद्रां प्रदर्श्यास्त्रेण प्रोक्ष्य घंटावादन पूर्वकं मूलेन आरार्त्रिकं मन्त्रेण वा नीराजयेत् ।। (अग्निबीजोच्चारण पूर्वक दीप प्रज्वलित करे । निर्दिष्ट मन्त्रोच्चारणपूर्वक दीपपूजन करे। चक्रमुद्रा का प्रदर्शन करे। घंटादिवादन सहित मूलमन्त्र वा आरार्त्रिक मन्त्र से नीराजन करे। )
चक्रमुद्राहस्तौ तु सम्मुखौ कृत्वा संलग्नौ सुप्रसारितौ ।  
            कनिष्ठिकांगुष्ठकौ लग्नौ मुद्रैषा चक्र संज्ञिता ।।
         पूजनकाल में विविधोपचारक्रम में घंटी आदि वादन का नियम है। विधानपारिजात में कहा गया है—स्नाने धूपे च नैवेद्ये दीपे वस्त्रे च भूषणे । घण्टानादं प्रकुर्वीत तथा नीराजने पि च ।।  यानी आरती के समय घंटा-घड़ियाल आदि का वादन होते रहना चाहिए, किन्तु वाद्यों के सम्बन्ध में कुछ निषेध भी है— शिवागारे झल्लकं च सूर्यागारे च शंखकम् । दुर्गागारे वंशिवाद्यं मधुरीं च नवादयेत् ।। (योगिनीतन्त्रम्)
आधुनिक समय में विभिन्न प्रकार के वाद्ययन्त्रों का प्रयोग प्रायः मन्दिरों में किया जाता है - वटन दबाते ही एक साथ शंख, घंटी, घड़ियाल, नगाड़े आदि बजने लगते हैं। ये अज्ञानता और अकर्मण्यता का ज्वलन्त प्रतीक है। स्पष्ट है कि वाद्ययन्त्र की मौलिक ध्वनियों का शास्त्रज्ञान नहीं है इन लोगों को। आरती से लिए जो भी वाद्य आपके पास उपलब्ध हो उसी का प्रयोग करें, किन्तु यान्त्रिक ध्वनि का प्रयोग न करें। भक्तिरसामृत में आकंठ डूबने का प्रयास करें। मन की वीणा के तारों को झंकृत करने का प्रयास करें। समस्त दिव्य ध्वनियाँ तो आपके भीतर ही उपस्थित हैं।  
  
पुष्पाञ्जलि— हरिभक्तिविलास में आरती के पश्चात तीन बार पुष्पाञ्जलि देने का निर्देश है—
ततश्च मूलमन्त्रेण दत्वा पुष्पाञ्जलित्रयम् ।
महानीराजनं कुर्यान्महावाद्य जयस्वनैः ।।
प्रज्वालयेत्तदर्थं च कर्पूरेण घृतेन वा ।
आरार्तिकं शुभे पात्रे विषमानेक वर्तिकाम् ।।
प्रज्वलित वर्तिका की संख्या सदा विषम रहे—एक,तीन,पाँच,सात इत्यादि। आरती के अन्त में मूलमन्त्र से तीन बार पुष्पाञ्जलि भी प्रदान करे।
        अज्ञानवश व अभाव में प्रायः लोग फूलों को तोड़ कर चढ़ाते हैं- ऐसा करना वर्जित है, किन्तु पुष्पाञ्जलि अर्पण में टूटे हुए फूलों को चढ़ाया जा सकता है। वस्तुतः पुष्प-पंखुड़ियों के अर्पण का भाव है यहाँ।
                                 
क्रमशः...

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