श्रीदुर्गासप्तशतीःःएक अध्ययनःःभाग इक्कीश
गतांश से आगे...
अध्याय आठः(झ) पत्र-पुष्प-विचार
पत्र-पुष्पचयन (फूल-पत्ते तोड़ने) के
सम्बन्ध में जानकारों के बीच भी काफी भ्रम है कि स्नान करके फूल तोड़े या बिना स्नान
किए । हारीतस्मृति के ये वचन प्रायः लोग प्रमाणस्वरुप
प्रस्तुत कर देते हैं—स्नानं कृत्वा तु ये केचित् पुष्पं चिन्वन्ति मानवाः । देवतास्तन्न
गृह्णन्ति भस्मीभवति दारुवत् ।। यानी स्नानोपरान्त फूल न तोड़े, क्यों कि देवता इसे स्वीकार
नहीं करते। इस वचन से आपाततः यही प्रतीत होता है कि प्रातः स्नान से पूर्व ही पुष्प
चयन कर ले । किन्तु इस श्लोक का तात्पर्य ये
बिलकुल नही है। निबन्धकार ने स्पष्ट निर्णय दिया है कि यहाँ स्नान का तात्पर्य मध्याह्न
स्नान का है, न कि प्रातः स्नान का। फलितार्थ ये है कि मध्याह्न
स्नान के बाद फूल न तोड़े, प्रातःस्नान के बाद तोड़ ले –
१.स्नानम् - प्रातःस्नानातिरिक्तम्
। स्ननानोत्तरं प्रातः पुष्पाहरणादि विधानात् । तन्मध्याह्नस्नानपरम् ।
२.अस्नात्वा तुलसीं छित्वा देवतापितृकर्मणि
। तत्सर्वं निष्फलं याति पञ्चगव्येन शुद्ध्यति ।। पद्मपुराण के इस वचन में ‘तुलसी’ पद पुष्पादि का उपलक्षक है। अतः इस वचन से सिद्ध
होता है कि स्नान किए वगैर यदि तुलसी-फूल आदि तोड़े जाएं तो पाप लगता है। इसे स्पष्ट
करते हुए आचारेन्दु में कहा गया है— अत्र तुलसीपदं पुष्पमात्रपरम् । इस प्रकार स्पष्ट
है कि प्रातः स्नान के पश्चात् ही पत्र-पुष्पादि चयन करे।
आगे क्रमिक रुप से कुछ विशेष बातों
पर ध्यानाकर्षण किया जा रहा है—
१.
दक्ष ने समिधा (होमकार्यार्थ काष्ठादि) का चयन समय दिन का
दूसरा भाग माना है।
२.
ध्यातव्य है कि दिन को आठ भागों में विभक्त किया गया है।
३. फूल तोड़ते समय प्रायः लोग अपने गमछे में रख लेते हैं।
ऐसा न करें। गमछा आपके लिए भले ही शुद्ध है, किन्तु उसमें रखा हुआ पुष्प-पत्रादि पदार्थ देवताओं के योग्य नहीं ।
४.पुष्पग्रहणमन्त्र— मा न शोकं कुरुष्व त्वं स्थान त्यागं
च मा कुरु । देवतापूजनार्थाय प्रार्थयामि वनस्पते ।।
५.विसृज्य पुष्पमेकं तु वाचा वरुणमुच्चरेत् । व्योमाय च पृथिव्यै
च द्वित्रिपुष्पं यथाक्रमम् ।। पहला फूल तोड़ते
समय ‘ऊँ वरुणाय नमः’ दूसरा फूल तोड़ते
समय ‘ऊँ व्योमाय नमः’ तीसरा फूल तोड़ते
समय ‘ऊँ पृथिव्यै नमः’ बोले ।
६.स्कन्दपुराण
का वचन है कि वे हाथ धन्य हैं जो तुलसीपत्र ग्रहण करते हैं— शालग्रामशिलायार्चं
प्रत्यहं तुलसीक्षितौ । तुलसीं ये विचिन्वन्ति धन्यास्ते करपल्लवाः ।।
७.तुलसी का एक-एक
पत्ता न तोड़कर, पत्तियों के साथ अग्रभाग
भी साथ में तोड़ना चाहिए । तुलसीमंजरियों को भी पत्रसहित तोड़कर प्रभु को अर्पित करे।
तुलसीमंजरी सभी फूलों से श्रेष्ठ है। पद्मपुराण में कहा गया है कि भगवान को कौस्तुभमणि
भी उतना प्रिय नहीं है, जितना कि तुलसीमंजरी—तावत्गर्जन्ति भूतानि कौस्तुभादीनि भूतले। यावन्न
प्रप्यते कृष्णा तुलसी विष्णुवल्लभा ।। तथा च श्यामापि तुलसी विष्णोः प्रिया गौरी विशेषतः।
स्कन्दपुराण
में भगवान ने तुलसी की प्राथमिकता के सम्बन्ध में कहा है—करवीर प्रसूनं
वा मल्लिका वाथ चम्पकम् । उत्पलं शतपत्रं वा पुष्पे चान्यतमं तु वा ।। सुवर्णेन कृतं
पुष्पं राजतं रत्नमेव वा । मम पादाब्जपूजायामनर्हं भवति ध्रुवम् ।।
तुलसीतल न हो तो कनेर, चम्पा, बेला, कमल आदि सभी पुष्प
व्यर्थ हैं। एक ओर मालती आदि की ताजी माला हो दूसरी और वासी तुलसीदल हो तो पहले भगवान
तुलसी को ही ग्रहण करते हैं। इस प्रकार तुलसी की तुलनात्मक श्रेष्ठता सिद्ध हो रही
है।
८.तुलसीपत्र तोड़ने
के मन्त्र—
तुलस्यमृतजन्मासि
सदा त्वं केशवप्रिया ।
चिनोमि केशवस्यार्थे
वरदा भव शोभने ।।
त्वदङ्ग सम्भवैः
पत्रेः पूजयामि यथा हरिम् ।
तथा कुरु पवित्राङ्गि
! कलौमल विनाशिनि ।। (आह्निकसूत्रावली)
९.तुलसीचयन में
निषिद्धकाल—वैधृति और व्यतिपात इन दो योगों में, अमावस्या, पूर्णिमा और द्वादशी इन तीन तिथियों में, रवि,
मंगल, शुक्र - इन तीन दिनों में, सभी संक्रान्तियों में, जनना एवं मरणाशौचों में तथा किसी
भी दिन गोधूलिकाल से आगामी सूर्योदय पूर्वकाल पर्यन्त तुलसी न तोड़ें।
१०.पहले का तोड़ा हुआ तुलसीपत्र भी प्रयोग किया जाता है,क्यों कि ये वासी नहीं होता – वर्ज्यं पर्युसितं पुष्पं वर्ज्यं पुर्युषितं जलम्
। न वर्ज्यं तुलसीपत्रं न वर्ज्यं जाह्नवीजलम् ।। (वृहन्नारदीय) जैसे
शुक्रवार के निमित्त गुरुवार को ही अतिरिक्त पत्र संग्रह कर ले। अभाव में पौधे के नीचे
गिरे हुए पत्र का भी उपयोग किया जा सकता है। एकनिष्ठ भक्त के लिए तो यहाँ तक भी कहा
गया है कि भूलवश तुलसी संग्रह न किया जा सका हो, तो क्षमा-प्रार्थनापूर्वक निषिद्ध दिनों में भी तुलसी ग्रहण कर सकता है,
किन्तु ध्यान रहे ये आलसी और प्रमादी के लिए नहीं, बल्कि निष्काम और एकनिष्ठ भक्त के लिए कहा गया है, न
कि आम व्यक्ति के लिए ।
११. पद्मपुराण
में विविध पत्रों की उत्तरोत्तर श्रेष्ठता का क्रम इस प्रकार कहा गया है—अपामार्गदलं
पुण्यं तस्माद्भृङ्गरजस्य च । तस्माच्च खादिरं श्रेष्ठं शमीपत्रं ततः परम् । दूर्वापत्रं
ततः श्रेष्ठं ततश्च कुशपत्रकम् । ततो दमनकं श्रेष्ठं ततो बिल्वस्य पत्रकम् ।। बिल्वपत्रादपि
हरेस्तुलसीपत्रमुत्तमम् ।। (अपामार्ग > भृंगराज > खदिर > शमी > दूर्वा > कुश >
दौना > बिल्व > तुलसी
) ।
१२. श्रेष्ठता
में बिल्वपत्र को तुलसीपत्र के बहुत करीब माना गया है । वासी होने के दोष से वो भी
मुक्त है। किन्तु इसके ग्रहण की निषिद्धता का काल किंचित भिन्न है। यथा— अमारिक्तासु
सन्क्रान्त्यामष्टम्यामिन्दुवासरे । विल्वपत्रं न च छिन्द्याच्छिन्द्याच्चेन्नरकं व्रजेत्
।। (लिंगपुराण) (अमावस्या, चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी, अष्टमी, संक्रान्ति एवं
सोमवार को बिल्वपत्र न तोड़े ।
१३. बिल्वपत्र
की महत्ता और अनिवार्यता पर बल देते हुए स्कन्दपुराण एवं आचारेन्दु ने तो यहाँ तक कह
दिया है कि अभाव में पहले का चढ़ाया हुआ बिल्वपत्र भी धोकर पुनः उपयोग किया जा सकता
है। यथा— अर्पितान्यपि बिल्वानि प्रक्षाल्यापि पुनःपुनः । शंकराचार्पणीयानि न नवानि यदि
क्वचित् ।। किन्तु ध्यान रहे—अभाव और लाचारी
को स्वभाव न बना लें । इसी प्रसंग में आगे मन्त्र निर्देश है।
बिल्वपत्र तोड़ने का मन्त्र— अमृतोद्भव
! श्रीवृक्ष !
महादेवप्रियः सदा । गृह्णामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात् ।।
१४. अन्यान्य
पूजन सामग्रियों पर शुद्धि हेतु जल-प्रोक्षण करने का विधान है, किन्तु फूल पर जल का छिड़काव कदापि न करें। जल से धोया हुआ
फूल देवताओं के योग्य नहीं रह जाता । आजकल वाजारीकरण के दौर में अधिक समय तक फूलों
को ताजा रखने के लिए जल का छिड़काव किया जाता है। व्यापारी के यहाँ फूलों के रख-रखाव
में भी अति लापरवाही वरती जाती है। कई दिनों के बासी फूल भी बाजार में धड़ल्ले से बिकते
रहते हैं। विक्रेता को धर्म से कोई मतलब नहीं, मतलव है सिर्फ
पैसे से और क्रेता भी इसका महत्त्व नहीं समझता, फूल चढ़ाने की
औपचारिता में जकड़ा रहता है। हालाकि माली के
घर में रखा हुआ फूल वासी नहीं होता— न पर्युषितदोषोऽस्ति मालाकारगृहेषु च ।। (आचारेन्दु) ऐसा शास्त्र
वचन मिलता है, किन्तु इसका ये अर्थ नहीं कि कई दिनों के
वासी सूखे फूलों का हम प्रयोग करें। इस सम्बन्ध में मेरी स्पष्ट राय है कि बिना फूल
के पूजा कर लें, किन्तु बाजारु दूषित फूलों का प्रयोग कदापि न
करें।
१५. आदिदेव गणपति
को तुलसीपत्र कदापि नहीं चढ़ाना चाहिए। शेष सभी पत्र-पुष्पादि अर्पित किए जा सकते हैं— तुलसीं वर्जयित्वा
सर्वाण्यपि पत्रपुष्पाणि गणपतिप्रयाणि। (आचाभूषण) तथा च न तुलस्या गणाधिपम् । (पद्मपुराण) दुर्वा एवं दुर्वांकुर इन्हें विशेष प्रिय है। जिस भाँति
शिवार्चन बिल्वपत्र के बिना, विष्ण्वार्चन तुलसीपत्र
के बिना अधूरा है, उसी भाँति दुर्वा बिना गणेशार्चन अधूरा है।
दुर्वांकुरों की माला बनाकर चढ़ायें तो अतिउत्तम ।
१६. देवीपूजन में विहित पुष्पों के सम्बन्ध में आचारभूषण में
कहा गया है—ऋतुकालोद्भवैः पुष्पैर्मल्लिकाजातिकुंकुमैः । सितरक्तैश्च कुसुमैस्तथा पद्मैश्च
पाण्डुरैः ।। किंशुकैस्तगरैश्चैव किंकिरातैः सचम्पकैः। बकुलैश्चैव मन्दारैः कुन्दपुष्पैस्तिरीटकैः
। करवीरार्कपुष्पैश्च शिंशपैश्चापराजितैः ।।
समस्त लालफूल देवी को अतिशय प्रिय हैं, जिनमें ओड़हुल (जवाकुसुम) सर्वप्रिय है। तन्त्र में इसे योनिपुष्प
माना गया है। योनिपुष्प अपराजितापुष्प को भी कहा जाता है, जो
त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु महेश) के नामानुसार तीन रंगों (पीत,
नील एवं श्वेत) (ब्रह्मक्रान्ता, विष्णुक्रान्ता
एवं शिवक्रान्ता) के नाम से भी ख्यात है। अपामार्ग (चिड़चिड़ी- बुधग्रह की समिधा) के
फूल भी भगवती को प्रिय हैं। द्रोणपुष्प (गुमा का फूल) भी भगवती को विशेष प्रिय है।
इसके अलावा बेला, चमेली, केसर, मौलश्री, पलाश, अशोक, तगर, चम्पा, कुन्द, लोध्र, कनेर, शीशम, कमल, कर्णिकार, अमलतास,
गूमा, बन्धूक (दुपहरिया), अगस्त्य, सिन्दुआर, शल्लकी,
माधवी, कुशमंजरी, केवड़ा,
कदम्ब, भटकटैया, भृङ्गराज, मदार और आक के फूल भी देवी को अर्पित
किए जाते हैं। किन्तु मदार और अर्क, भृंगराजादि को विहित-प्रतिषिद्ध
(अभाव) की सूची में रखा गया है— 1. अर्कपुष्पविधानं तु विहितालाभे द्रष्टव्यम् देवीनामर्कमन्दाराविति निषेधम्
।। 2. अर्कमन्दारनिषेधो दुर्गेतरदेवीविषयः । दुर्गापूजाधिकारे तयोः पाठात् । (आचारेन्दु) 3.विहितप्रतिषिद्धैस्तु विहितालाभतोऽर्चयेत्
। यानी यदि अन्य पुष्प उपलब्ध न हों तो शिवप्रिय इन दोनों
पुष्पों का प्रयोग करे। दूसरी बात ध्यान देने योग्य है कि दुर्गा से भिन्न अन्य देवियों
को अर्क और मन्दार न चढ़ावें। तथा च—सेवन्तिका वकुल चम्पक पाटलाब्जैः। पुन्नाग
जाति करवीर रसालपुष्पैः ।। बिल्वप्रवाल तुलसीदल मालतीभिः । त्वां पूजयामि
जगदीश्वरि मे प्रसीद ।। अन्येषां कुसुमानांच यावद्गन्ध विषर्ययम् । पुष्पपञ्च
पञ्चगव्यञ्च उपचारांस्तथापरान् ।। घ्रात्वा निवेद्य देविशि ! नरो नरकमाप्नुयात् । अङ्गसंस्पृष्टमाघ्रातं त्यज्यं पर्युषितं बुधैः ।।
केशकीटोपविद्धानि शीर्ण पर्युषितानि च । स्वयं पतित पुष्पाणि त्यजेदुपहतानि च ।। इसी क्रम में आगे देव्यर्थ वर्ज्य पुष्पों के सम्बन्ध में कहते हैं— शक्तौ
दूर्वार्कमन्दारोमालूरंतगरं रवौ । निर्गन्धं केश कीटादि दूषितं चोग्रगन्धकम् ।।
मलिनं तुच्छ संस्पृष्टमाघ्रातं स्वविकासितम् । अशुद्धभाजनानीतं स्नात्वानीतं च
यातितम् । शुष्कं पर्युषितं कृष्णं भूमिगं नार्पयेत्सुमम् ।। पत्रं पुष्पं फलं
देवे न प्रदद्यादधोमुखम् । पुष्पाञ्जलौ न तद्दोषस्तथा पर्युषितस्य च ।।
१७. नारदपुराण
में शिव एवं विष्णु के प्रिय पत्र-पुष्पों के सम्बन्ध में कहते हैं कि विष्णु के लिए
विहित सभी पुष्पों को शिव के लिए ग्राह्य माना गया है, किन्तु केतकी (केवड़ा) इसका अपवाद है, यानी केवड़ा का फूल शिव को कदापि न चढ़ाये—विष्णोर्यानीह चोक्तानि पुष्पाणि च पत्रिकाः । केतकीपुष्पमेकं तु विना तान्यखिलान्यपि
। शस्तानेव सुरश्रेष्ठ शंकराराधनाय हि ।।
१८. शिवार्चन में विहित पुष्पों को उत्तरोत्तर सहस्रगुणसम्पन्न
बतलाते हुए क्रम गिनाया गया है—दस सुवर्णमुद्रादान के पुण्यफल तुल्य है आक (अकवन) का एक
फूल । आक > कनेर > बिल्वपत्र
> द्रोणपुष्प (गूमा) > अपामार्ग
(चिड़चिड़ी) > कुश > शमीपत्र >
नीलकमल > धतूरा > शमीपुष्प
।
महर्षि व्यास
ने कनेर की कोटि में चमेली, मौलश्री, पाटला, मदार, श्वेतकमल,
शमीपुष्प और भटकटैया तथा धतूरे की कोटि में नागचम्पा और पुन्नाग को माना
है—करवीर समा ज्ञेया जातीबकुलपाटलाः
। श्वेतमन्दार कुसुमं सितपद्मं च तत्समम् ।। शमीपत्रं बृहत्यश्च कुसमुमं तुल्यमुच्यते
। नागचम्पकपुन्नगौ धत्तूरकसमौ स्मृतौ ।।
१९. भविष्यपुराण में शिवार्चन में विहित पुष्पों को इस प्रकार
गिनाया है— करवीर, मौलश्री, धतूरा, पाढर, बड़ीकटेरी, कुरैया, कास, मन्दार, अपराजिता, शमीपुष्प, कुब्जक, शंखपुष्पी, अपामार्ग, कमल, चमेली, नागचम्पा, चम्पा, खस, तगर, नागकेसर, किंकिरात (कटसरैया), गूमा, शीशम, गूलर, जयन्ती, बेला, पलाश, कुसुम्भ, कुंकुम, नीलकमल, रक्तपद्मादि।
२०. शिवार्चन
में निषिद्ध पुष्प— कदम्ब फल्गुपुष्पं च केतकं च शिरीषकम् । तिन्तिणी बकुलं कोष्ठं कपित्थं गृञ्जनं
तथा ।। बिभीतकं च कार्पासं श्रीपर्णी पत्रकण्टकम् । शाल्मली दाडिमी वर्ज्यं धातकी शंकरारार्चने
।। केतकी चातिमुक्तं च कुन्दौ यूथी मदन्तिका । शिरीषसर्जनबन्धूककुसुमानि विवर्जयेत्
।। (वीरमित्रोदय) (कदम्ब, फल्गु यानी गन्धहीन, सारहीन फूल,
केवड़ा, शिरीष, तिन्तिणी,
बकुल, कोष्ठ, कैथ,
गाजर, बहेड़ा, कपास,
गंधारी, पत्रकंटक, सेमल,
अनार, धव, केतकी, वसंत ऋतु में खिलने वाले कंद विशेष, कुन्द, जूही, मदन्ती, शिरीष, सर्ज और दुपहरिया के फूल शिवार्चन में प्रयोग नहीं करना चाहिए ।
२१. कदम्ब, बकुल, कुन्द आदि पर विशेष विचार करते
हुए काल विशेष में विहित और शेष काल में निषिद्ध कहा गया है। यथा— कदम्बकुसुमैः शम्भुमुन्मत्तैः सर्वसिद्धिभाक् ।
तथाच कदम्बैश्चम्पकैरेवं नभस्ये सर्वकामदा । — चम्पा,
कदम्ब और धतूरे के फूलों से सारी सिद्धियाँ मिलती हैं, जबकि दूसरी ओर ये कहा जा रहा है— अत्यन्तप्रतिषिद्धानि कुसुमानि शिवार्चने । कदम्ब फल्गुपुष्पं च केतकं च शिरीषकम्
।। वीरमित्रोदयकार ने इस शंका का समाधान करते हुए कहा है— सामान्यतः कदम्बकुसुमार्चनं यत्तद् वर्षर्तुविषयम्
अन्यदा तु निषेधः तेन न पूर्वोत्तरवाक्यविरोधः । ये काल विशेष
की बात है। भाद्रपदमास में कदम्बपुष्प का विधान किया गया है,
एवं शेष काल में निषेध । इसी भाँति सायंकाल में बकुल (मौलश्री) का फूल चढ़ाया जाना
चाहिए। माघमाल में कुन्दपुष्प से शिवार्चन विहित है—कुन्दपुष्पस्य निषेधेऽपि माघे निषेधाभावः ।
२२. नृसिंहपुराण में विष्णु के प्रिय पुष्पों की विस्तृत चर्चा
है। यथा— द्रोणपुष्पे तथैकस्मिन् माधवाय निवेदिते । दत्त्वा दश सुवर्णानि यत्फलं तदवाप्नुयात्
।। द्रोणपुष्पसहस्रेभ्यः खादिरं वै प्रशस्यते । खादिरपुष्पसहस्रेभ्यः शमीपुष्पं विशिष्यते
।। शमीपुष्पसहस्रेभ्यो बकपुष्पं विशिष्यते । बकपुष्पसहस्राद्धि नन्द्यावर्तो विशिष्यते
। नन्द्यावर्तसहस्राद्धि करवीरं विशिष्यते ।। करवीरस्य पुष्पाद्धि श्वेतं तत्पुष्पमुत्तमम्
। कुशपुष्पसहस्रद्धि वनमाली विशिष्यते ।। नवमल्लौसहस्राद्धि चाम्पकं पुष्पमुत्तमम्
। अशोकपुष्पसाहस्राद् वासन्तीपुष्पमुत्तमम् ।। वासन्तीपुष्पसाहस्राद् गोजटापुष्पमुत्तमम्
। गोजटापुष्पसाहस्रान्मालतीपुष्पमुत्तमम् ।। मालतीपुष्प साहस्रात् त्रिसंध्यं रक्तमुत्तमम्
। त्रिसंध्यरक्तसाहस्रात् त्रिसंध्यश्वेतकं वरम् ।। त्रिसंध्यश्वेतसाहस्रात् कुन्दपुष्पं
विशिष्यते । कुन्दपुष्पसहस्राद्धि शतपत्रं विशिष्यते ।। शतपत्रसहस्राद्धि मल्लिकापुष्पसाहस्राद्
जातीपुष्पं विशिष्यते ।। विहित पुष्पादि
में उत्तरोत्तर सहस्रगुणात्मक फल कहा गया है। यथा— गूमा >
खदिर (खैर) > शमी > मौलश्री > नन्द्यावर्त > कनेर > श्वेतकनेर कुश > बनबेला
> चम्पा > अशोक > माधवी > वासन्तिक > गोजटा
> मालती > रक्तत्रिसंधि (फगुनिया)
> श्वेत त्रिसंधि > कुन्द >
कमल > बेला > चमेली
।
२३. विष्णुधर्मोत्तर पुराण में कुछ और प्रिय पुष्पों की चर्चा
है—मालतीबकुलाशोकशेफालीनवमल्लिकाः
। आम्राततगरास्फोता मल्लिकामधुमल्लिकाः ।। यूथिकाष्टपदं स्कन्दं कदम्बं मधुपिंगलम्
। केतकं कुरबं बिल्वं कह्लारं वासकं द्विजाः ।। पञ्चविंशतिपुष्पाणि लक्ष्मीतुल्यप्रियाणि
मे । (मालती, मौलश्री, अशोक, कालीनेवारी (शेफालिका), वसंतीनेवारी ( नवमल्लिका),
आमड़ा, तगर, आस्फोत,
बेल, मधुमल्लिका, जूही (यूथिका),
अष्टपद, स्कन्द कदम्ब, मधुपिंगल,
पाटला, हद्य, लवंग,
अतिमुक्तक (माधवी), केवड़ा, कुरब, काह्लार (सायंकालीन कमल) और अडूसा(वाकस)।
२४. कमल पुष्प
भगवान विष्णु को सर्वाधिक प्रिय है। ध्यातव्य है कि कमल के अनेक भेद हैं। तन्त्र ग्रन्थों
में भेदानुसार फलभेद भी चर्चित है। शत रक्त कमल तुल्य एक श्वेत कमल को कहा गया है।
लक्ष श्वेतकलम तुल्य एक नील कमल है। करोड़ नीलकमल तुल्य एक पद्म (कमल विशेष) को माना
गया है। एक पद्म समर्पण का फल विष्णुपुरी प्राप्ति सुनिश्चित है। किन्तु कालप्रभाव
वश ये सब बहुत सी वस्तुयें दुर्लभ हो चुकी हैं। तन्त्र और योग की गहराई में जायें तो
इन बातों का और भी विशेष अर्थ है।
२५. राजाबलि की
जिज्ञासा पर भक्तराज प्रह्लाद ने विष्णुप्रिय किंचित पुष्पों की चर्चा की है — जातीशताह्वा सुमनाः कुन्दं चारुपुटं तथा । बाणं च चम्पकाशोकं
करवीरं च यूथिका ।। पारिभद्रं पाटला च बकुलं गिरिशालिनी । तिलकं जम्बुवनजं पीतकं तगरं
तथा ।। एतानि तु प्रशस्तानि कुसुमान्यच्युतार्चने । सुरभीणि तथान्यानि वर्जयित्वा तु
केतकीम् । (जाती, शतपुष्पा, चमेली, कुन्द,
कठचंपा, बाण, चम्पा,
अशोक, कनेर, जूही,
पारिभद्र, पाटला, मौलश्री,
गिरिशालिनी, तिलक, अड़हुल,तगर एवं समस्त पीत पुष्प—गेंदा
आदि) तथाच स्कन्दपुराणे — अगस्त्यवृक्षसम्भूतैः कुसुमैरसितैः
सितैः । येऽर्चन्ति हि देवेशं तैः प्राप्तं परमं पदम् ।। तथाच अग्निपुराणे— मालती
मल्लिका चैव यूथिका चातिमुक्तकः । पाटला करवीरं च जया यावन्तिरेव च ।। कुब्जकस्तगराश्चैव
कर्णिकारः करण्टकः । चम्पको धातकः कुन्दौ बाणो बर्बरमल्लिका ।। अशोकस्तिलकश्चम्पस्तथा
चैवाऽऽरुषकः । अमी पुष्पाकाराः सर्वे शस्ता केशवपूजने ।। (अगस्त्यपुष्प, आम की मंजरी, मालती,
बेला, जूही (माधवी), यावन्ती,
कुब्जई, पीली कटसरैया, धव,
बाण (काली कटसरैया), बर्बरमल्लिका और अडूसा ।
) तथाच विष्णुधर्मोत्तरपुराण में तीसी (अलसी), भूचम्पा,
गोकर्ण, नागकर्ण एवं पुरन्ध्रि पुष्पों को भी विष्णुप्रिय
बतलाकर, आगे विष्णु के लिए निषिद्ध पुष्पों की चर्चा करते हैं—नार्क नोन्मत्तकं काञ्चीं तथैव गिरिकर्णिकाम् । न
कण्टकारिका पुष्पं अच्युताय निवेदयेत् ।। कौटजं शाल्मलीपुष्पं शैरीषं च जनार्दने ।
निवेदितं भयं शोकं निःस्वस्तां च प्रयच्छति ।। (आक,
धतूरा, कांची, गिरिकर्णिका,
भटकटैया, कुरैया (इन्द्रजौ), सेमल, शिरीष, कैथ, कोशातकी, लांगुली, सहिजन,
कचनार, बरगद, गूलर,
पीपल, पाकर, कपीतन (आमड़ा)
।
२६. विष्णु हेतु
निषिद्ध पुष्पों में एक और विशेष चर्चा मिलती है कि घर में रोपे गए कनेरपुष्प का प्रयोग
न करे—न गृहे करवीरोत्थैः कुसुमैरर्चयेद्धरिम् ।
२७. सूर्यार्चने
पुष्प विचार— भविष्यपुराण में कहा गया है कि आक का एक फूल सहस्रस्वर्णमुद्रार्पण तुल्य है।
इसी प्रसंग में आगे अन्यान्य प्रिय पुष्पों का क्रम गिनाते हैं, जो उत्तरोत्तर सहस्राधिक गुणसम्पन्न हैं— जवाकुसुम > पीत कनेर >
बिल्वपत्र > पद्म > रंगीनपद्म > मौलश्री > कुश
> शमी > नीलकमल > केसर > रक्तकनेर । यदि इनके फूल न उपलब्ध हों तो अभाव
में इनके पत्ते भी चढ़ा सकते हैं—अलाभे सति पुष्पाणां पत्राण्यपि निवेदयेत् । पत्राणामप्यलाभे तु फलान्यपि निवेदयेत् ।। तथाच —
बिल्वपत्रं शमीपत्रं पत्रं भृंगरजस्यच । तमालपत्रं च हरे सदैव तपनप्रियम् ।।
तुलसीकालतुलसी तथा रक्तं च चन्दनम् । केतकी पद्मपत्रं च सद्यस्तुष्टिकरं रवेः ।। (वीरमित्रोदय)
पत्तों के अभाव में फलों का प्रयोग करें। ध्यातव्य है कि
यहाँ फलों का नैवेद्यार्थ अर्पण नहीं किया जा रहा है। वीरमित्रोदय में सूर्यार्पण हेतु
अन्य पुष्पों की भी चर्चा है—बेला, मालती, काश, माधवी, पाटला, कनेर, जपा, यावन्ति, कुब्जक, कर्णिकार, पीली कटसरैया,
चम्पा, रोलक, कुन्द,
काली कटसरैया, बर्बरमल्लिका, अशोक, तिलक, लोध्र, अरुषा,कलम, मौलश्री, अगस्त्य, पलाश इत्यादि।
२८. सूर्यार्चन
में निषिद्ध पुष्प—गुंजा, धतूरा, तगर, आमड़ा, कांची, गिरिकर्णिका और भटकटैया ।
२९.
वीरमित्रोदय ने स्पष्ट निषेध किया है— कृष्णलोन्मतत्तकं काञ्ची तथा च गिरिकर्णिका
। न कण्टकारि पुष्पं च तथान्यद् गन्धवर्जितम् ।। देवीनामर्कमन्दारौ सूर्यस्य तगरं तथा
। न चाम्रातकजैः पुष्पैरर्चनीयो दिवाकरः ।।
१.
पत्र,
पुष्प, फलादि जैसे वृक्षारुढ़ होते हैं, उसी भाँति अर्पित भी करें। उत्पन्न होते
समय इनका मुख ऊपर की ओर होता है, अतः उसी भाँति चढ़ावे। दूर्वा और तुलसीदल को अपनी
ओर करके चढ़ावे। किन्तु बिल्वपत्र इस नियम का अपवाद है। इसे सदा उलटा ही चढ़ावें। कुछ
ऋषियों का मत है कि दूर्वा, तुलसी और बिल्वपत्र के अतिरिक्त अन्य पत्र किसी भी तरह
चढ़ाया जा सकता है। यथा — 1.यथोत्पन्नं तथार्पणम् । 2.दुर्वाः
स्वाभिमुखाग्राः स्युर्बिल्वपत्रमधोमुखम् । 3. पत्रं वा यदि वा पुष्पं फलं
नेष्टमधोमुखम् । 4.तुलस्यादि पत्रम् आत्माभिमुखं न्युब्जमेव समर्पणीयम् । 5.इतर
पत्राणामप्यूर्ध्वमुखाधोमुखमनयो-र्विकल्पः ।
२.
किसी भी फूल
की कली को नहीं चढ़ाना चाहिए, किन्तु कमल कलिका अपवाद में है।
३.
फूलों का नाम, विधि और निषेध की सुदीर्घ चर्चा भी संक्षिप्त ही रहेगी,
क्यों कि इसके विषय में शास्त्रचर्चा का अम्बार है। संक्षेप में यही
जानें कि येषां न प्रतिषेधोऽस्ति गन्धवर्णान्वितानि च । तानि पुष्पाणि देयानि विष्णवे
प्रभविष्णवे।। (विष्णुधर्मोत्तरपुराण)
४.
पत्रपुष्पादि
चढ़ाने-उतारने की मुद्रा के सम्बन्ध में कहते हैं—1. मध्यमानामिकाङ्गुष्ठैः
पुष्पं संगृह्य पूजयेत् । 2.अङ्गुष्ठतर्जनीभ्यां तु निर्माल्यमपनोदयेत् । 3.तर्जन्यंगुष्ठयोगेन
पुष्पमुद्रां प्रदर्शयेत् । मध्यमा, अनामिका और अँगूठे की सहायता से फूल
अर्पित करे एवं तर्जनी और अँगूठे के सहारे फूल उतारे ।
५.
रंग-गन्धहीन, अयोग्य स्थान पर उदित पुष्पों को कदापि ग्रहण न करें। विधि
का ज्ञान हो न हो, निषेध का ज्ञान और ध्यान अवश्य रखें ।
अस्तु।
---( )---
क्मशः...
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