श्री दुर्गासप्तशतीःःएक अध्ययनःःभाग बाईस
गतांश से आगे...
अध्याय आठ (ञ) माला प्रकरण
गतांश से आगे...
अध्याय आठ (ञ) माला प्रकरण
शास्त्र
कहते हैं कि जब तक अजपा की स्थिति न बन जाय, अन्तर्मातृका का सम्यक् ज्ञान
न हो जाये, तबतक तो बाह्य जप की गणना करनी ही चाहिए। ऐसे में निश्चित है कि गणना
के लिए कोई आधार आवश्यक है। अलग-अलग कार्यों (उद्देश्यों) और अलग-अलग मन्त्रों के
लिए अलग-अलग वस्तुओं से निर्मित मालाओं का प्रयोग मन्त्र-जप गणना हेतु सुझाया गया
है। सबकी अपनी महत्ता सिद्ध करते हुए, रुद्राक्ष को सर्वग्राही यानी प्रायः सभी
मन्त्रों के लिए प्रशस्त कहा गया है। अतः सामान्य पूजकों-साधकों को विशेष उलझन में
पड़ने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी यत्किंचित नियमों का पालन तो हर हाल में करना
ही चाहिए। इस सम्बन्ध में कुछ विषेष बातों का ध्यान दिलाया जा रहा है—
१. जिस किसी
पदार्थ से मन्त्रजप की गणना नहीं करनी चाहिए। यथा— नाक्षतैर्हस्तपर्वैर्वा न
धान्यैर्न च पुष्पकैः । न चन्दनैर्मृ- त्तिकया जप संख्यां न कारयेत् । लाक्षां
कुसीदं सिन्दूरं गोमयञ्च करीषकम् । विलोड्य गुटिकां कृत्वा जप संख्यान्तु कारयेत्
।। (शाक्तानन्दतरंगिणी) पुष्प, चावल, धान्यादि, हाथ की अँगुलियों, चन्दन, मिट्टी
आदि से गणना न करे, किन्तु लाक्षा, चन्दन, मिट्टी, सिन्दूर आदि की गुटिका बनाकर गणना
की जा सकती है। ध्यातव्य है कि करमाला (हाथ की अँगुलियों के पर्वों पर बनी माला) का
विशेष महत्त्व है। देव एवं देवी मन्त्रों के लिए अलग-अलग करमाला का विधान है। ब्रह्मयामल
के वचन हैं— आरभ्यानामिकामध्यं पर्वाण्युक्ता-न्यनुक्रमात् । तर्जनीमूलपर्यन्तं
जपेद् दशसु पर्वसु ।। मध्यमा-ङ्गुलिमूले तु यत्पर्व द्वितयं भवेत् । तद् वै मेरुं
विजानीयाज्जपे तं नातिलङ्घयेत् ।। अनामामूलमारभ्य कनिष्ठादिक्रमेण तु ।
तर्जनीमध्यपर्यन्तमष्टपर्वसु सञ्जपेत् ।।
२. इन्हीं बातों
को रुद्रयामल में इस प्रकार कहा गया है—अनामायास्त्रयं पर्व
कनिष्ठायास्त्रिपर्विका । मध्यमायास्त्रयं पर्वं तर्जनी मूलपर्वणि ।। प्रादक्षिण्य
क्रमेणैव जपेद्दशसुपर्वसु । शक्तिमालासमाख्याता सर्वमन्त्र प्रदीपिका ।। पर्वद्वयं
तु तर्जन्यां मेरुं तद्विद्धि पार्वति ! तर्जन्यग्रे तथा मध्ये योजपेत्तत्र
मानवः । चत्वारिसस्यनस्यन्ति आयुर्विद्यायशोबलम् ।।
३. नित्यकर्मपूजाप्रकाश
में कहा गया है कि गायत्री मन्त्र का जप देवकरमाला पर ही करे। पर्वभिस्तु
जपेद्देवीं माला काम्यजपे स्मृता । गायत्री वेदमूला स्याद् वेदः पर्वसु गीयते ।। (ब्रह्मयामल)
गायत्री को वेदमाता कहा गया है। इस कारण इनका जप पर्वों पर ही होना चाहिए। पूर्व
क्रमांक १ में पर्वों पर
जप को त्याज्य कहा गया है। इसका आशय ये है कि जप काल में अँगूठे को सीधे पर्वमध्य
में ही रखें, न कि पर्वसन्धि पर। अतः पर्वसंधि के स्पर्श से बचें। गायत्री जप में
एक और बात का सदा ध्यान रखना चाहिए कि मूलमन्त्र में ‘वरेण्यम्’ पद है । जप के
समय इसके स्थान पर ‘वरेणियम्’ का उच्चारण
करना चाहिए— पाठ काले वरेण्यम् , जप काले वरेणियम् ।
४. देव करमाला में
मध्यमा अंगुली का मूल और मध्यपर्व को सुमेरु माना गया है। इसका स्पर्श व उलंघन
जपकाल में कदापि नहीं होना चाहिए। अनामिका अँगुली के मध्यपर्व को एक, मूल पर्व को
दो, कनिष्ठिका अंगुली के मूलपर्व को तीन,मध्यपर्व को चार, अग्र पर्व को पाँच, एवं
अनामिका के अग्रपर्व को छः, मध्यमा के अग्रपर्व को सात, तर्जनी के अग्र पर्व को
आठ, मध्य को नौ, मूल को दश मानते हुए, इसी क्रम से दस बार जप कर ले। इस प्रकार दस करमाला
पूरा करने पर सौ की संख्या पूरी हो गयी। अब क्रमशः एक और दस वाले स्थान को छोड़कर,
यानी अनामिका के मध्य के वजाय मूल से प्रारम्भ कर, तर्जनी के मध्य पर्यन्त आठ की
संख्या पूरी करे। इस प्रकार कुल एकसौआठ की देवकरमाला पूरी होगयी । शक्तिकरमाला
हेतु बुनियादी बातें वही हैं, सिर्फ सुमेरु का स्थान परिवर्तित हो जाता है।
शक्तिकरमाला में तर्जनी का अग्र और मध्यपर्व सुमेरु माना जाता है। तदनुसार आठ, नौ,
दस का स्थान भी बदल जाता है। सात यथास्थान रहेगा। आठ मध्यमा के मध्यपर्वपर, नौ
मध्यमा के मूल पर्व पर एवं दस तर्जनी के मूल पर्व पर गणित होगा यहाँ।
५. जप करने के लिए
और पहनने के लिए माला बिलकुल अलग-अलग होना चाहिए। प्रायः लोग अज्ञानवश एक ही माला
का प्रयोग करते हैं। गले में धारण किये हुए माला को ही निकाल कर जप करने बैठ जाते
हैं।
पहले जप किया हुआ
माला बाद में धारण किया जा सकता है, किन्तु धारण किया हुआ माला जप के योग्य कदापि
नहीं है। प्रायः देखते हैं कि सुविधा की दृष्टि से लोग एक ही माला रखते हैं - गले में
से निकाल कर जप किए और पुनः गले में डाल लिए- यह विलकुल अज्ञानता और मूढ़ता है। सामान्य
जन को तो इससे कोई अन्तर भले न पड़ता हो, साधकों को ऐसा कदापि
नहीं करना चाहिए।
६.
जप करने वाले माला
के सभी मनकों के बीच ग्रन्थियाँ भी अवश्य होनी चाहिए। जबकि पहनने वाले माला के बीच
ग्रन्थियों की अनिवार्यता नहीं है। हो भी सकती है और नहीं भी।
७.
रुद्राक्ष के दानों को गूंथते समय उसके मुख-पुच्छ की
पहचान करते हुए, गूथना चाहिए। मुख से मुख का मिलन एवं पुच्छ से पुच्छ का मिलन होना
चाहिए। इससे विपरीत गुंथाई अशुद्ध कही जायेगी। माला गूंथने के विषय में मुण्डमालातन्त्रम्
में विस्तार से कहा गया है— मुखे मुखन्तु संयोज्य पुच्छे पुच्छं तु योजयेत् । तत्स्वजातीयमेकाक्षं
मेरुत्वेनाग्रतोन्यसेत् ।। सार्द्धद्धया वर्तनेन ग्रन्थिं कुर्यादधो दृढं ।
ब्रह्मग्रन्थिं ततो दद्यान्नागपाशमथापि वा ।। गो पुच्छ सदृशी कुर्यादथसर्पाकृतिभवेत्
। ग्रन्थिहीनं न कर्तव्यं मेरुपृष्ठेन दूष्यति ।। अप्रतिष्ठित मालाभिर्मन्त्रं
जपति यो नरः । सर्वंतद्विफलं विद्यात्क्रुद्धा भवति चण्डिका ।। न धारयेत्करे कण्ठे
मूर्न्द्धि च जपमालिकाम् ।
८.
एक व्यक्ति द्वारा व्यवहृत माला दूसरा व्यक्ति कदापि
प्रयोग न करे। किन्तु गुरु वा गुरुतुल्य (पितादि) द्वारा प्रसाद स्वरुप प्रदान
किया गया माला आशीर्वाद स्वरुप सुग्राह्य है।
९. ध्यातव्य है कि
पहले से घर में पड़े - पितादि द्वारा व्यवहृत माला ग्रहण किया जा सकता है, किन्तु विशेष साधना में
वह भी नहीं चलेगा। पुरानी माला पर किन-किन मंत्रो का जप चला है - यह जानना भी महत्त्वपूर्ण
है। प्रायः देखा जाता है कि घर में पड़ी पुरानी माला सीधे पूर्वज की सम्पत्ति की तरह
हथिया कर व्यवहार करने लगते हैं - साधकों के लिए यह उचित नहीं है। मान लिया किसी ने
माला पर वाम क्रिया साधी हो और आप विशुद्ध दक्षिण वाले हैं, तो
ऐसी स्थिति में ग्रहण कर आप परेशानी में पड़ सकते हैं। (यहाँ वाम-दक्षिण का सामान्य
भेद मात्र ईंगित है, अन्तर्भेद की बात मैं नहीं कर रहा हूँ)
१०.रुद्राक्ष माला का प्रयोग
सर्वकार्यार्थ कहा गया है, फिर भी यदि सुलभ हो तो विशिष्ट मन्त्रों के लिए
तद्विहित मनकों का प्रयोग किया जाना चाहिए। विशिष्ट तान्त्रिक क्रियाओं में तो
मनकों का द्रव्य, मात्रा और परिमाण की महत्ता और भी पालनीय है।
११.अपने हाथ से
गूंथे गये, ग्रन्थि डाले गए माला का स्वयं के लिए प्रयोग कदापि न करे । ऐसा करने
से कार्यसिद्धि भी नहीं होती, साथ ही धन और यश की हानि भी होती है। यथा— स्वहस्त
ग्रथिता माला, स्वहस्तात्घृष्ट चन्दनम् । स्वहस्त लिखितम्स्त्रोत्रम् शक्रस्यापि
श्रियं हरेत् ।।
१२.माला गूंथने के पश्चात् विधिवत उसका
संस्कार होना अति आवश्यक है। असंस्कृत माला अप्रतिष्ठिमूर्ति के समान है।
१३.
यामलोक्त मालाप्रकरण— विधि यज्ञाज्जपो यज्ञो विशिष्टो
दशभिर्गुणैः । उपांशुःस्याच्छत गुणः सहस्रो मानसः स्मृतः।। मुक्ताफलामलमणिस्फीतवैदूर्य
सम्भवाम् । पुत्रजीवक पद्माक्ष रुद्राक्ष स्फटिकोद्भवाम् ।। प्रवाल पद्मरागादि
रक्तचन्दन निर्मिताम् । कुंकुमागुरुकर्पूरं मृगनाभि विभाविताम् ।। अक्षमालां
समाहृत्य चण्डिकाकृत विग्रहः । अथमुक्ताफलमयी सम्राज्य फलदायिनी ।। यथा
मुक्ताफलमयी तथा स्फटिक निर्मिता । रुद्राक्ष मालिका मोक्षे भवेत्सर्व समृद्धिदा
।। प्रवाल मालिकावश्ये सर्वकार्यार्थ साधिका । माणिक्यमाला विमला साम्राज्य
फलदायिनी । पुत्रजीवकमालातु लक्ष्मी विद्या प्रदायिनी ।। पद्माक्षमालया
लक्ष्मीर्जायते च महद्यशः । रक्तचन्दनमाला तु मोक्षदा वश्यदाभवेत् ।। अक्षमाला- पदेनाकारादिक्षकारान्त
मातृकामालोच्यते । अक्षमालां समाश्रित्य मातृकावर्णरुपिणी ।।
१४.शैवागम में माला पर जप करने के
सम्बन्ध में विस्तृत प्रसंग है— मध्यमायां न्यसेन्मालां
ज्येष्ठेनावर्तयेत्क्रमात् । भुक्तिमुक्ति प्रदासेयं मातृकागणनक्रमः ।। अँगुष्ठानामिकाभ्यान्तु
कुर्यादुत्त-म कर्मणि ।। तर्जन्यंगुष्ठ योगाद्धि विद्वेषोच्चाटनेजपः ।
कनिष्ठाङ्गुष्ठकाभ्यांतु जपेन्मारणकर्मणि ।। जपान्यकाले तां मालां पूजयित्वा च
गोपयेत् । जीर्णे सूत्रेपुनःसूत्रं ग्रन्थयित्वा शतंजपेत् ।।
जपेन्निषिद्धसंस्पर्शेक्षालयित्वा यथोचितम् । कासे क्षुते च जृम्भायामेकमावर्तकं
त्यजेत् । प्रमादात्तर्जनीस्पर्शो भवेदावर्तकं त्यजेत् । यदासंत्रुट्यते
मालाग्रन्थयित्वाय पूर्ववत् ।। प्रतिष्ठितायां तस्यां तु मन्त्रं जप्यादन्यधीः।
एवं प्रतिष्ठितायांतु अन्येनैवजपेन्मनुम् ।।
१५.रुद्राक्ष, प्रवाल, मुक्ता, चन्दन, हरिद्रा,
पद्माख आदि किसी भी मनके की माला हो, प्रधान सन्धि पर एक अतिरिक्त मनका आरोपित कर
पुष्पिका लगाते हैं। इसे ही सुमेरु कहते हैं। जपकाल में एक माला पूरा होजाने पर, दूसरी
माला प्रारम्भ करते समय इस बात का सदा सावधानी पूर्वक ध्यान रखना चाहिए कि सुमेरु
का उलंघन कदापि न हो। जिस मनके पर एक सौ आठ की संख्या पूरी हुयी, अगले क्रम में
वही एक हो जायेगा। इसी भाँति आगे भी ध्यान रखना चाहिए। यथा— जपकाले सदा विद्वान्
मेरुं नैव विलंघयेत् । परिवर्तन काले च शङ्घट्टं नैवकारयेत्।।एवं सर्व परिज्ञाय मालायां
जपमारभेत् ।
१६.
जपकाल में तर्जनी अँगुली के स्पर्श से भी बचाना चाहिए
माला को । कुछ लोग सुविधा के लिए जपमालिका में एक छेद करके इसे बाहर कर लेते हैं। अनामिका,
मध्यमा और अँगूठे के सहारे मनकों को सरकाते हुए, शान्ति पूर्वक जप करना चाहिए।
जपकाल में माला को गमछे आदि से ढककर रखे, ताकि किसी की दृष्टि न पड़े । तन्त्रशास्त्र
में यहाँ तक कहा गया है कि जपकाल में गुरु की दृष्टि से भी गोपित रखे सामान्य जन
की बात ही क्या । वस्तुतः मन्त्रजप को मैथुनक्रिया की तरह गोपित रखने की बात कही
गयी है ।
१७.
जप समाप्त हो
जाने पर एकाएक माला छोड़ कर उठ नहीं जाना चाहिए, प्रत्युत पहले सुमेरु को ललाट से
लगावे, फिर माला को अंजुलि में लेकर किए गए जप को इष्टदेव को समर्पित करे— गुह्यातिगुह्यगोप्त्रि
त्वं गृह्यणास्मत्कृतंजपम्। सिद्धिर्भवतु मे देवि ! त्वत्प्रसादान्महेश्वरि
।। पुनः माला की प्रार्थना करे—ऊँ त्वं माले सर्वदेवानां प्रीतिदा शुभदा
भव । शिवं कुरुष्व मे भद्रे यशोवीर्यं च सर्वदा ।
—माला-संस्कार—
सर्वग्राह्य
रुद्राक्षमाला की प्रधानता को ध्यान में रखते हुए, तत्संस्कारविधि की चर्चा की जा
रही है। (साधकों को चाहिए कि अन्यान्य मनकों से निर्मित मालाओं का इसी आधार पर
किंचित वाक्य परिवर्तन करके कार्य सम्पन्न करें)
विधिवत माला तैयार
हो जाने के बाद उसे संस्कारित करना भी अति आवश्यक है - विशेषकर साधना हेतु । धारण करने
के लिए भी सामान्य संस्कार कर लिया जाए तो कोई हर्ज नहीं, किन्तु साधना हेतु तो
असंस्कारित माला कदापि ग्राह्य नहीं है। माला–संस्कार के लिए
सर्वार्थ सिद्धियोग, सिद्धि योग, अमृत सिद्धि योग, गुरुपुष्य योग, रविपुष्य योग, सोम पुष्ययोग आदि में से कोई सुविधाजनक
योग का चुनाव करना चाहिए। चयनित दिन को नित्यक्रियादि से निवृत्त होकर, क्रमशः जल, दूध, दही, घृत, मधु, गुड़, पंचामृत और गंगाजल से (कमशः आठ प्रक्षालन) करने के बाद, तांबे या पीतल के पात्र में पीला या लाल वस्त्र बिछा कर, सामने रखें। स्वयं पूजा के प्रारम्भिक कृत्य- आचमन,
प्राणायामादि करने के बाद जल-अक्षतादि लेकर संकल्प करें-
ऊँ अद्य.....श्री शिव /... प्रीत्यर्थं मालासंस्कारमहंकरिष्ये।
(संकल्पादि पूजा विधि के लिए कोई भी नित्यकर्म पुस्तक का सहयोग लिया जा सकता
है। यहाँ संक्षेप में मुख्य बातों की चर्चा कर दी जा रही है, जो सीधे सामान्य पूजा-पद्धति
में नहीं है।)
अब पुनः जल लेकर विनियोग करेंगे
- ऊँ अस्य श्री शिवपंचाक्षर मंत्रस्य वामदेव ऋषिरनुष्टुप्छन्दः श्री सदाशिवो देवता
ऊँ बीजं, नमः शक्तिः, शिवाय कीलकं साम्बसदाशिवप्रीत्यर्थं
न्यासे पूजने जपे च विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास—
ऊँ वामदेवाय ऋषये नमः शिरसि – कहते हुए अपने शिर का
स्पर्श करे।
ऊँ अनुष्टुप्छन्दसे नमः मुखे - कहते हुए अपने
मुख का स्पर्श करे।
ऊँ सदाशिवदेवतायै नमः हृदि- कहते हुए अपने हृदय का स्पर्श करे।
ऊँ बीजाय नमः गुह्ये - कहते
हुए अपने गुदामार्ग का स्पर्श करे।
ऊँ शक्तये नमः पादयोः - कहते हुए अपने दोनों पैरों का स्पर्श करे।
ऊँ शिवाय कीलकाय नमः सर्वांगे - कहते हुए
अपने मुख का स्पर्श करे।
ऊँ नं तत्पुरुषाय नमः हृदये - कहते हुए अपने
हृदय का स्पर्श करे।
ऊँ मं अघोराय नमः पादयोः - कहते हुए अपने
पैरों का स्पर्श करे।
ऊँ शिं सद्योजाताय नमः गुह्ये - कहते हुए अपने गुदा का स्पर्श करे।
ऊँ वां वामदेवाय नमः मूर्ध्नि - कहते हुए
अपने मूर्धा का स्पर्श करे।
ऊँ यं ईशानाय नमः मुखे - कहते हुए अपने मुख का स्पर्श करे।
करन्यास—
ऊँ अँगुष्ठाभ्याम् नमः - कहते हुए अपने
दोनों अँगूठों का स्पर्श करे।
ऊँ नं तर्जनीभ्याम् नमः - कहते हुए अपने
दोनों तर्जनी का स्पर्श करे।
ऊँ मं मध्यमाभ्याम् नमः - कहते हुए अपने
दोनों मध्यमा का स्पर्श करे।
ऊँ शिं अनामिकाभ्याम् नमः - कहते हुए अपने
दोनों अनामिका का स्पर्श करे।
ऊँ वां कनिष्ठाभ्याम् नमः - कहते हुए अपने
दोनों कनिष्ठा का स्पर्श करे।
ऊँ यं करतलकरपृष्ठाभ्याम् नमः - कहते हुए अपने
दोनों हथेलियों का स्पर्श करे।
हृदयादिन्यास—
ऊँ हृदयाय नमः - कहते हुए अपने
हृदय का स्पर्श करे।
ऊँ नं शिरसे स्वाहा- कहते हुए अपने
सिर का स्पर्श करे।
ऊँ मं शिखायै वषट् - कहते हुए अपने
शिखा का स्पर्श करे।
ऊँ शिं कवचाय हुम् - कहते हुए अपने
दोनों वाजुओं का स्पर्श करे।
ऊँ वां नेत्रत्रयाय वौषट् - कहते हुए अपने
दोनों नेत्रों का स्पर्श करे। ऊँ यं अस्त्राय
फट् - कहते हुए अपने दाहिने हाथ की तर्जनी
और मध्यमा को वायें हाथ की हथेली पर बजावे।
पुनः
जल लेकर विनियोग करे- ऊँ अस्य श्री प्राणप्रतिष्ठामन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा
ऋषयः ऋग्ययुःसामानिच्छन्दान्सि क्रियामयवपुः प्राणाख्या देवता आँ बीजं, ह्रीँ शक्तिः क्रौं कीलकं
देवप्राणप्रतिष्ठापने विनियोगः।
प्रतिष्ठा-न्यासः-ऊँ ब्रह्म-विष्णु-रुद्रऋषिभ्यो
नमः शिरसि(सिर का स्पर्श)
ऊँ ऋग्ययुःसामच्छन्दोभ्यो नमः
मुखे (मुख का स्पर्श)
ऊँ प्राणाख्यदेवतायै नमः हृदि
(हृदय का स्पर्श)
ऊँ आँ बीजाय नमः गुह्ये
(गुदा का स्पर्श)
ऊँ ह्रीँ शक्त्यै नमः पादयोः (पैरों का स्पर्श)
ऊँ क्रौं कीलकाय नमः सर्वांगेषु (पूरे शरीर का स्पर्श)
अब हाथों में रंगीन (लाल, पीला) फूल लेकर दोनों
हाथों से माला को ढककर इन मन्त्रों का उच्चारण करे और भावना करे कि देवता की शक्ति
रुद्राक्ष मनकों में अवतरित हो रही है—
ऊँ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ
सँ हँ सः सोऽहं शिवस्य प्राणाः इह प्राणाः । ऊँ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ
हँ सः सोऽहं शिवस्य जीव इह स्थितः । ऊँ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ सः
सोऽहं शिवस्य सर्वेन्द्रियाणि वाङ्मनस्त्वक्चक्षुःश्रोत्रघ्राणजिह्वापाणिपादपायूष स्थानि
इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।।
अब पुनः अक्षत-पुष्प लेकर, हाथ जोड़कर निम्नांकित
मंत्रो का उच्चारण करते हुए भावना करे कि शिव विराज रहे हैं मनकों में—
ऊँ भूः पुरुषं साम्बसदाशिवमावाहयामि ।
ऊँ भुवः पुरुषं साम्बसदाशिवमावाहयामि । ऊँ स्वः पुरुषं साम्बसदाशिवमावाहयामि ।
इस प्रकार रुद्राक्ष-माला
में साक्षात् शिव को स्थापित भाव से यथासम्भव षोडषोपचार पूजन करे। तत्पश्चात् कम से
कम ग्यारह माला श्री शिव पंचाक्षर मन्त्र का जप,तत्दशांश हवन, तत्दशांश
तर्पण, तत्दशांश मार्जन एवं एक वटुक और एक भिक्षुक को भोजन और
दक्षिणा प्रदान कर माला-संस्कार की क्रिया को सम्पन्न करें।
इस प्रकार पूरे
विधान से संस्कृत रुद्राक्ष माला पर आप जो भी जप करेंगे सामान्य की तुलना में सैकड़ों
गुना अधिक लाभप्रद होगा। इस बात का भी ध्यान रखें कि इस माला की मर्यादा को बनाये रखना
है। जिस-तिस के स्पर्श, यहाँ तक कि दृष्टि से भी बचाना है। कहने का तात्पर्य यह कि
सदा जपमालिका में छिपाकर मर्यादापूर्वक रखना है। बर्ष में एक या दो बार उसके वस्त्र
भी बदल देना है। अस्तु।
जप से पूर्व माला
की प्रार्थना — ऊँ मां माले महामाये सर्वशक्ति स्वरुपिणि ! चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मां
सिद्धिदा भव ।। ऊँ अविघ्नं कुरुमालेत्वं गृह्णामिदक्षिणेकरे । जपकाले च सिद्ध्यर्थं
प्रसीद मम सिद्धये ।। ऊँ ह्रीं सिद्ध्यैनमः ।। ऊँ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि
सर्वमन्त्रार्थ साधिनि साधय साधय सर्वसिद्धि परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा ।। ऊँ ह्रीं
अक्षमालिकायै नमः ।।
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क्रमशः....
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