सप्तशतीरहस्यःःभाग 24


                   श्रीदुर्गासप्तशतीःःएक अध्ययनःःचौबीसवाँ भाग

गतांश से आगे...
                                        ःःअध्याय आठःः 
              (ठ) सप्तौषधि- दशौषधि-सर्वौषधि-शतौषधि-सूची
         सृष्टि में स्थावर-जांगम-उद्भिज-अंडज-स्वेदज (स्थूल-सूक्ष्म, दृश्य-अद्श्य) जो भी हैं, किसी विशिष्ट उद्देश्य से स्रजक ने इनकी सर्जना की है। विभिन्न द्रव्यों का सिर्फ तान्त्रिक ही नहीं,अपितु ज्योतिषीय और कर्मकांडीय उपयोग भी हुआ करता है। पूजा सामग्री की दुकानों पर यदि ढूढने जायें तो प्रायः देखते हैं कि दुकान का कूड़ा-करकट एकत्र कर सर्वौषधि के नाम पर दे दिया जाता है। इसका मुख्य वजह है कि न तो बिक्रेता को पता है और न क्रेता को ही कि सर्वौधियाँ क्या होती हैं। कर्मकांडी ब्राह्मण को भी शायद ही पता हो और हो भी यदि तो जाँचने-परखने का समय कहाँ है उनके पास। यानी व्यावहारिक जानकारी का अभाव है। प्राचीन समय में हम जंगलों से जुड़े हुए थे। अब कंकरीट के जंगलों और कोलतार की क्यारियों ने हमें आधुनिक बना दिया है। "सर्वौषधि" शब्द का अर्थ हम सीधे लगाते हैं - सभी प्रकार की औषधियाँ, किन्तु बात ऐसी नहीं है।
अस्तुपाठकों की सुविधा और जानकारी के लिए यहाँ इसकी सूची प्रमाणिक श्लोक सहित दी जा रही है— मुरा माँसी वचा कुष्ठं शैलेयं रजनीद्वयम् । सठी चम्पकमुस्ता च सर्वौषधिगणः स्मृतः।। अग्निपुराण १७७-१७ के अनुसार मुरामांसी, जटामांसी, वच, कुठ, शिलाजीत, हल्दी, दारुहल्दी, सठी,चम्पक और नागरमोथा-इन दस ओषधियों को ग्रहण किया गया है। अन्यत्र एक प्रमाण में कहा गया है— कुष्ठं मांसी हरिद्रे द्वे मुरा शैलेय चन्दनम् । वचा चम्पक मुस्ता च सर्व्वौषध्यो दश स्मृताः।। यानी कुठ, जटामांसी, हल्दी, दारुहल्दी, मुरामांसी, शिलाजीत, श्वेत चन्दन, वच, चम्पा और नागरमोथा इन दस औषधियों को ही सर्वौषधि कहा गया है। एक अन्य सूची में ऊपरोक्त सभी द्रव्य तो यथावत हैं, किन्तु चम्पक के स्थान पर आंवला लिया गया है। जटामांसी के सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि कहीं-कहीं इसके नाम पर छड़ीला दे दिया जाता है, जबकि असली जटामांसी ठीक जटा की तरह और अति तीक्ष्ण गंधी होता है। अतः उसे ही प्रयोग करना चाहिए।
एक और सूची है सप्तौषधि की - मुरामांसी, जटामांसी, वच, कूठ, शिलाजीत, दारुहल्दी और आंवला। ध्यातव्य है कि हल्दी, चन्दन और नागरमोथा नहीं है इसमें तथा चम्पा की जगह आंवला को ग्रहण किया गया है। इससे ऊपर की सूची शतौषधि और उससे ऊपर की सूची सहस्रौषधी कहलाती हैं । वैदिक, तान्त्रिक, पौराणिक कार्यों में इनका प्रचुर प्रयोग होता है। यज्ञीय वनस्पतियों के सम्बन्ध में एक श्लोक है—शमीपलासन्यग्रोधप्लक्षवैकङ्कतोद्भवाः। अश्वत्थोदुम्बरौ बिल्वश्चन्दनः सरलस्तथा। शालश्च देवदारुश्च खादिरश्चेति याज्ञिकाः ।।
  अब आगे एक और उपयोगी सूची दी जा रही है।                     
                      शतौषधियों की सूची
(१) विष्णुक्रान्ता        

 (२)    मयूरशिखा
(३) सहदेई
(४) पुनर्नवा
(५) शरपुंखा
(६) वाराहीकन्द
(७) विदारीकन्द
(८) चित्रक (चितउर)
(९) काकजंघा                           
(१०) लक्ष्मणा
(११) तुम्बिका
(१२) बदरीपत्र
(१३) कर्पूरी
(१४) करेल
(१५) कर्कोटिका
(१६) चक्रांक
(१७) श्वेतार्क
(१८) व्याघ्रपत्री
(१९) रुदन्ती
(२०) अश्वगन्धा
(२१) श्वेतमुसली
(२२) श्याममुसली
(२३) गिरिकर्णिका
(२४) इन्द्रवारुणी
(२५) अपामार्ग
(२६) शंखपुष्पी
(२७) घृतकुमारी
(२८) शल्लकी
(२९) गन्धप्रसारणी
(३०) निर्गुण्डी
(३१) देवदाली
(३२) वट
(३३) शमी
(३४) प्लक्ष(पाकड़)
(३५) पलास
(३६) अश्वत्थ (पीपल)
(३७) आम्र
(३८) उदुम्बर (गूलर)
(३९) जम्बु(जामुन)
(४०) घनवहेरा
(४१) वेतस(वेंत)
(४२) अम्लवेंत
(४३) नागकेशर
(४४) अर्जुन(कहवा)
(४५) अशोक
(४६) मौलश्री (वकुल)
(४७)पाषाणभेद(पत्थरचूर)
(४८) शाल
(४९) तमाल
(५०) ताड़
(५१) पाटला
(५२) सेवती
(५३) महुआ (मधूक)
(५४) सीरस (सिरिष)
(५५) बिल्व (बेल)
(५६) कंटकारी (रेगनी)बड़ी
(५७) कंटकारी (रेगनी)छोटी
(५८) खरेंटी
(५९) अतिबला
(६०) सोनापाठा
(६१) नागबला
(६२) जावित्री
(६३) जयपाल (जायफल)
(६४) केतकी (केवड़ा)
(६५) कदली (केला)
(६६)बिजौरा(नीम्बू-जाति)
(६७) अरणी
(६८) अगर
(६९) तगर
(७०) अजवाइन
(७१) पुण्ड्रिका
(७२) द्रोणपुष्पी (गूमा)
(७३) कुम्भी
(७४) श्रीपर्णी (शालपर्णी)
(७५) पृष्टपर्णी
(७६) मदन
(७७) चम्पक (चम्पा)
(७८) पद्माख (कमलगटा)
(७९) स्वर्णपुष्पी(कटैला)
(८०) सिद्धेश्वरी
(८१) किरमाला
(८२) धव (धवई) धाय
(८३) कुन्द
(८४) मुचकुन्द
(८५) दाडिम (अनार)
(८६) ब्राह्मी
(८७) आंवला
(८८) भृंगराज (भेंगरिया)
(८९) अधोपुष्पी
(९०) मीनाक्षी
(९१) अडूसा (वासा)
(९२) तरंगिनी
(९३) गिलोय(गुरीच)
(९४) शतावरी
(९५) बावची (वाकुची)
(९६) वनतुलसी
(९७) तुलसी
(९८) कुशा
(९९) इक्षुमूल
(१००) सर्षपमूल

उक्त सौ वनस्पतियों की सूची में विद्वानों में किंचित मतभेद भी है।कुछ विद्वान एक ही वनस्पति के दो अंगों को अलग-अलग ग्रहण कर लिए हैं- संख्या पूर्ति हेतु- जैसे वदरी (बेर) के पत्ते और बेर की जड़। कई पुस्तकों का अवलोकन करने के बाद मैंने स्वविवेक से सूची में किंचित परिवर्तन किया है। इसमें द्रव्यों की महत्ता का ध्यान रखा गया है। कुछ नामों का क्षेत्रीय नाम भी सुविधा के लिए डाल दिया गया है। सतत प्रयास के पश्चात् भी कुछ वनस्पतियों के नाम, रुप पर भ्रम बना हुआ है। विद्वानों से आग्रह है कि कृपया यथोचित संकेत करने का कष्ट करेंगे। इस सम्बन्ध में मैं भी प्रयासरत हूँ - नयी जानकारी मिलने पर पुनः यहाँ संशोधित करुंगा।
            हाँ, यहाँ इतना और स्पष्ट कर दूँ कि शास्त्रों में सुविधा-सहयोग हेतु कहा गया है— सर्वाभावे शतावरी । अतः इस विषय में थोड़ी चर्चा अपेक्षित है।
         जैसा कि वाक्यांश से ही स्पष्ट है - सर्वाभावे शतावरी- सबके अभाव में शतावरी, यानी शतावरी कोई उत्कृष्ट वनस्पति का नाम है, जो सबके अभाव का पूरक है।
जी हां, शास्त्रों का ऐसा ही आदेश है- कर्मकाण्डीय वनस्पति प्रयोग में यदि कुछ न मिले तो शतावरी का प्रयोग करना चाहिए। लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि कुछ ढूढ़ा ही न जाय। ढूढ़ने का प्रयास न करना – कर्म (व्यवहार) की त्रुटि कही जायगी। अतः खोज तो करना ही है - अन्यान्य उपलब्ध वनस्पतियों का।
        शतावरी का एक नाम शतावर भी है। यह एक जंगली लता है, जिसकी पत्तियाँ गहरे हरे रंग की, बहुत ही महीन-महीन होती हैं- शमी से कुछ मिलती-जुलती। शमी की तरह शतावर में भी कांटे होते हैं- बल्कि उससे भी बड़े-बड़े कांटे। दूसरी ओर, शमी का पौधा होता है और शतावर की लता। आजकल बहुत जगह अनजाने में ही शो-प्लान्ट के रुप में लोग गमले में लगाते भी हैं। नये वृन्त पर हल्के पीले- परागकणों से भरपूर छोटे-छोटे फूल लगते हैं, जो प्रौढ़ होकर छोटी गोलमिर्च की तरह फलों में परिणत हो जाते हैं। इन्हीं वीजों से स्वतः ही आसपास नयी लतायें अंकुरित हो आती हैं।
        प्रयोग में आने वाला शतावर इसी लता का मूल है, जो बित्ते भर से लेकर हाथ भर तक के लंबे हुआ करते हैं। इन जड़ों की विशेषता है कि प्रत्येक नया जड़ सीधे मूसला जड़ के ईर्द-गिर्द से ही निकलता है- यानी जड़ों से पुनः पतली जड़ें विलकुल नहीं निकलती। इस प्रकार सभी जड़े लगभग समान आकार वाली होती है। सुविधानुसार साल में एक या दो बार आसपास की मिट्टी को करीने से खोद कर (ताकि पौधे को क्षति न पहुँचे और मुसला जड़ की भी रक्षा हो) मूसला जड़ के अतिरिक्त कुछ और जड़ों को छोड़ कर शेष को एक-एक कर तोड़ लेते हैं और फिर मिट्टी को यथावत पाट देते हैं। इस प्रकार एक बार की लगायी हुयी लता से लम्बे समय तक आवश्यक शतावर प्राप्त किया जा सकता है। एक परिपुष्ट लता से पाँच-दस किलो जड़ प्रतिवर्ष प्राप्त किया जा सकता है। धो-स्वच्छ कर इन जड़ों को हल्का उबाल देते हैं, ताकि आसानी से सूख सके, अन्यथा सूखने में बहुत समय लग सकता है।
            आयुर्वेद में वाजीकरण औषधियों की श्रेणी में इसे रखा गया है। यह बहुत ही पौष्टिक द्रव्य है। इसकी एक और विशेषता है कि दूध बढ़ाने में चमत्कारिक कार्य करता है। जिन महिलाओं की दुग्ध-ग्रन्थियाँ सम्यक कार्य नहीं करतीं, उन्हें इसका क्षीरपाक बनाकर दिया जाता है। जानकार ग्वाले इस जड़ी का प्रयोग अपने दुधारु पशुओं के दुग्ध-वर्धन के लिए करते हैं। किन्तु ध्यान रहे अधिक मात्रा में सेवन हानिकारक भी है। पूजापाठ में इसे सर्वश्रेष्ट औषधि की सूची में रखा गया है। अस्तु।

( क्रमशः जारी....सिर्फ अन्तिम कड़ी शेष)
                                                                 हरिःऊँतत्सत्

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