नाक-नकेल-नाकाबन्दी

नाक-नकेल-नाकाबन्दी

 नाक इज्जत-प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता है।   नाककटना ’  - हिन्दी मुहावरा इसका प्रमाण है । नकचढ़ी, नाकोदम आदि और भी कुछ शब्द हैं, नाक की महिमा उजागर करने वाले । नकेल और नाकाबन्दी भी इस  इज्ज़त वाले नाक से ही सम्बन्धित हैं।
आसानी से वश में न आने वाले पशुओं के नाक के अन्दरुनी भाग में छेद करके, उसमें  रस्सी पिरो दी जाती है जिसे नाथ कहते हैं और इस नाथ से उस असली वाले नाथ का कुछ वास्ता नहीं है । किन्तु नथिया -नथुनी का सम्बन्ध इसी नाथ से है, भले ही वो सोने-चाँदी का क्यों न हो। भले ही उसे विवाहिता के लिए अत्यावश्यक श्रृंगार की श्रेणी में क्यों न रख दिया गया हो चतुर सुजान समाज शास्त्रियों द्वारा । जो भी हो नाथ, नथिया, नथुनी ये तीनों हैं तो किसी न किसी गुलामी के ही प्रतीक।
खैर, जो भी  हो, वटेसरकाका बहुत दुःखी और थोड़े चिन्तित दिखायी पड़ रहे हैं। आते ही कहने लगे —
हरामखोर चपटीनाक वाले ने तो दुनियावालों के नाकों में दम कर रखा है। अच्छे-अच्छों की हेकड़ी गुम हो गयी है। अब इसे उसकी लापरवाही कहूँ, गुस्ताखी कहूँ या सुनियोजित षड़यन्त्र । जो भी हो, भुगतना तो सबको पड़ रहा है बिना भेदभाव के । मित्र-शत्रु, अमीर-गरीब, साधु-असाधु सब भुगतने को विवश हैं । मानवता की नाक कटवा कर रख दी इस एक ने ।  WHO को भी लम्बे समय तक झांसे में रखा । आदतन जरा देर से जगने वाला, इस बार नयी सरकार की कृपा से थोड़ा जल्दी जग गया। हाथ मिलाई कम, टांग खिंचाई ज्यादा करने वाला विपक्ष भी थोड़ा सहमा-सहमा सा रहा कुछ दिनों, किन्तु डेढ़-दो माह के मौन के बाद अब वो भी मुखर होने लगा है। आखिर कितना दमसाधे बेचारा  विपक्ष ! विपक्ष का तो मतलब ही होता है पक्ष का उलटा यानी हमेशा उल्टी-सीधी बातें करते रहना । जन्मजात डरपोक आदमी को नयी बीमारी के खौफ में डालकर, लॉकडाउन का नकेल पहना दिया । डेगेडेग नाकाबन्दी करके खाकीवालों का भाव बढ़ा दिया। खादीवाले तो पहले से ही भावखा रहे थे। और ये नकेल वाली रस्सी ऐसी है, जो हनुमान की पूँछ जैसी बढ़ती ही जा रही है। जमींदारी जमाने में नर्तकीघरानों में नथ उतारने का एक रस्म हुआ करता था । पता नहीं ये नाथ-गरौटी कब उतरेता । महामारी से मरे ना मरे भूख से तो मर ही जाना है। आत्मनिर्भरभारत वाली झोली चली तो है दिल्ली से, परन्तु रास्ते में कहाँ-कहाँ किन-किन महल-मड़ैओं में रुकेगी, कैसे-कैसे खुलेगी - भगवान जाने। खुलने का तरीका तो पुराने वाले अन्दाज  में ही  होगा न । लाख कोशिश के बाद भी मिज़ाज कहाँ बदला है ! कुत्ते की दुम भी भला सीधी होने वाली चीज है ! जानकार लोग बताते हैं कि दुम सीधी हो जाए तो समझो कुत्ता पगला गया है।  और शुभेच्छु होने के नाते हम भला कुत्तों को पगलाने की कामना क्यों करें ! अब सोचो जरा इतना खून-पसीना बहाकर मुखिया,पार्षद आदि की कुर्सी मिलती है। दरोगा-सिपाही तो दूर की कौड़ी है, चपरासी के लिए भी कम पापड़ थोड़े बेलना पड़ता है। तभी तो देखते हैं कि इस छोटे से पद के लिए बड़े-बड़े डिग्रीधारी भी धक्कामुक्की करते रहते हैं । अब सोचो जरा, इतने मश़क्कत के बाद यदि कुछ खास हासिल न हुआ तो कुर्सी अकारथ गयी की नहीं !  अफसोस इसी बात का है कि न मुखिया-पार्षद हो पाया और न सरकारी दफ़तर का चपरासी ही। छोटा-मोटा सिपाही भी होता तो इस लॉकडाउन में दो-चार बीघा ज़मीन खरीद लेता। सच पूछो तो इसी बात की चिन्ता मुझे खाये जा रही है।  सोचता हूँ कि किसी नये स्टार्टअप के लिए ग्रान्ट सैंक्शन करा लूँ, किन्तु उसके लायक जातिगत योग्यता कहाँ है !  लाभ लेने की योग्यता रहे न रहे, हानि का बोझ तो उठाना ही है न नागरिक होने के नाते । मदद की बाढ़ की भरपाई तो मंहगाईभत्ता के रुप में सबको चुकाना ही होगा न । ऐसे में समझ नहीं पा रहा हूँ कि आत्मनिर्भरभारत अभियान का स्वागत करुँ या सिर पीटूँ?  ” — कहते हुए काका मेरी ओर आशाभरी नजरों से देखने लगे। 
मेरा विचार है कि पहले स्वागत करें। बाद में सिर तो अपने आप पिटाने लगेगा—मैंने सिर हिलाते हुए कहा ।
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