एकान्त की ओर



                                 एकान्त की ओर

बहुत सारे भ्रामक शब्दों की सूची में   एकान्त भी एक है, जिसका हम प्रायः गलत अर्थ लगा लेते हैं। ऋषि, महर्षि, स्वामी, संन्यासी, पंडित, आचार्य आदि भी कुछ ऐसे ही शब्द हैं, जिन्हें हम सहज रुप से ग्रहण कर लेते हैं। स्वीकार कर लेते हैं। सम्मान सूचक शब्दों की सूची में सहजता से समाहित कर लिए हैं इन्हें। विप्रवंश जात होने के कारण या पूजा-पाठ- कर्मकाण्ड कराने वाले को पंडित कह देते हैं। जटा-जूट, चीवर-चीमटा, दण्ड-शूलधारी को स्वामी-संन्यासी मान लेते हैं। थोड़ा और आदर देने के ख्याल से ऋषि-महर्षि करार देते हैं । जबकि इन सभी शब्दों का बहुत ही गहन अर्थ है। इन शब्द-मर्यादा की कसौटी पर आज के समय में शायद ही कोई खरे उतरे। मजे की बात है कि सामान्य प्रयोग में आने वाला कुशल शब्द भी इसी सूची में है, जो ठीक-ठाक के अर्थ में रुढ़ हो गया है। जबकि कुश वनस्पति लाने में दक्ष व्यक्ति को कुशल कहा जाता है।  इसी तरह मौन और चुप को एक दूसरे का पर्यायवाची मान लिया जाता है। इन एक-एक शब्दों का विस्तृत विश्लेषण हो सकता है। किन्तु यहाँ इनमें से सिर्फ एक शब्द—एकान्त को लेकर बात आगे बढ़ाते हैं । इस एक के सहारे ही हो सकता है हम अनेक को लब्ध हो जाएँ।
आजकल अकेलापन और एकान्त को लेकर बड़ा ही भ्रम है जनमानस में । क्यों कि अकेलापन को एकान्त मान लिए हैं। असंगवास को भी एकान्त समझ लिए हैं। सोशलमीडिया के दौर में आभासी दुनिया को ही सच मान वैठे हैं। मित्रता, प्रेम, कलह, अफवाह से लेकर आत्महत्या तक सबकुछ आभासी दुनिया के मंच पर घटित हो जा रहे हैं। हमारे मित्र, शत्रु, समर्थक, विरोधी की संख्या लाखों-करोड़ों में गिनी जा रही है। सौ और हजार तो आम बात है। ऐसे में बड़ा ही कठिन है, ये समझापाना कि यह संसार ही मिथ्या है—ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या...।  
समझने और विचारने जैसी बात है कि भोग्य संसाधनों की बहुलता और सुलभता के बीच अवसाद (डिप्रेशन) और आत्महत्या जैसी घटनाएँ बिलकुल आम हो गयी हैं। भोलेभाले किसान, स्कूली बच्चे, कामकाजी या घरेलू महिलाएं, अफसर, उद्योगपति, नेता, अभिनेता यहाँ तक कि साधु-सन्त-महात्मा कहे-माने जाने वाले लोग भी आत्महत्यारे की सूची में हैं।
स्पष्ट है कि अर्थ की महत्ता गौण है यहाँ। ऋणबोझ से दबे किसान की आत्महत्या और परीक्षा में असफल विद्यार्थी की आत्महत्या का कारण कदापि एक समान नहीं हो सकता। घरेलू महिला की आत्महत्या और अफसर, उद्योगपति, नेता, अभिनेता, प्रवचनकर्ता, महात्मा की आत्महत्या कदापि एक जैसी नहीं हो सकती । किन्तु प्रत्यक्ष और दृश्य कारण भले ही भिन्न हों, इनके मूल में अदृश्य कारण तो बिलकुल एक है—इसे स्वीकारना होगा ।
हमारी ऐष्णा, कामना, आकांक्षा अपरिमित हैं। क्षमता, योग्यता, अर्हता का भी हम विचार नहीं करते । वस, इच्छा ही सर्वोपरि हो जाती है। सहनशीलता और धैर्य को तो तिलांजलि दे चुके हैं। फलतः बीज की उपलब्धि सहज-सुलभ हो जाती है।
आत्महत्या का बीज है—अवसाद(डिप्रेशन)। आधुनिक समय में प्रतियोगिता की अन्धी दौड़ में इस बीज को अंकुरित-पल्लवित-पुष्पित-फलित करने के लिए सारे साधन, सारे परिवेश सर्वत्र उपस्थित हैं, उपलब्ध हैं । ऐसे में लोग हठात अवसाद-ग्रस्त हो जाते हैं, इसमें जरा भी आश्चर्य की बात नहीं । हाँ, इससे बचे हुए हैं, वे अतिशय सौभाग्यशाली हैं।
कुछ नहीं बोल पाने की मनःस्थिति-परिस्थिति में हम चुप्पी साध लेते हैं। इस गुपचुप अवस्था को मौन कदापि नहीं कहा जा सकता । मौन बहुत ही महान उपलब्धि है मानव के लिए, जिसमें सुख-शान्ति की कौन कहे, आनन्द का सिंहद्वार खोलने की क्षमता है।
कमरे में अकेले  बन्द होकर, आँखें मीच लेने को ही एकान्त समझ लेते हैं। हमारे आसपास कोई नहीं होता, जिससे हम संवाद-परिवाद कर सकें, तो स्वयं को अकेला कहने लगते हैं।
अतः इसे ठीक से समझने की आवश्यकता है। बाहर की ओर झांकते हुए स्वयं को तुलनात्मक रुप से हीन मान लेना अकेलापन है, जबकि भीतर की ओर झांकने, स्वयं को समझने, परखने की कला को एकान्त कहते हैं। एकान्त और मौन का आपसी सम्बन्ध बहुत ही गहरा है, जबकि चुप्पी और अकेलेपन के सम्बन्ध की प्रगाढ़ता है। एकान्त अन्तर्यात्रा का आनन्ददायी शुभारम्भ है, जबकि अकेलापन अवसाद का आमन्त्रण और आत्महत्या जैसे दुष्परिणाम का जनक ।
योगश्चित्तवृत्ति निरोधः , अभ्यासवैराग्याभ्याम् तन्निरोधःमहर्षि  पतञ्जलि के अनुसार चित्तवृत्तियों का स्वयमेव निरुद्ध हो जाना ही योगसिद्धि है और इसके लिए दृढ़ अभ्यास और प्रबल वैराग्य की आवश्यकता है। और इस स्थिति में जाने के लिए विशेष एकान्त ही एकमेव सम्बल है। चित्तवृत्तियों निरुद्ध होजाना कोई एक-दोदिन,एक-दो वर्ष का खेल नहीं है। कई जन्म भी कम पड़ सकते हैं इस अवस्था की उपलब्धि में। हमारा काम है सिर्फ सतत अभ्यास में लगे रहना । न कि रोज दिन वनिये की तरह नफा-नुकसान का लेखा-जोखा रखना।
एकान्त के लिए जंगल, पहाड़, कन्दरायें ही अनिवार्य हैं, ऐसी बात नहीं। आभासी दुनिया में लाखों की भीड़ में भी जिस तरह अकेलेपन का भान होता है, उसी तरह तुमुल कोलाहल के बीच भी हम एकान्त सेवी हो सकते हैं। आवश्यकता है सिर्फ निरन्तर अभ्यास की। संन्यास ले लेना, गृहत्यागी हो जाना तो कर्तव्यों से पलायन है। मैदान छोड़कर भाग जाने की स्थिति है। च्युति और भटकाव का भय भी है। सद्गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए यम-नियमों के सहारे ऊर्ध्वगति करते हुए, आत्म-संन्यस्त हुआ जा सकता है।  इसमें तनिक भी संशय नहीं ।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी... का संकेत देकर सन्त तुलसी ने अकेलेपन से बाहर निकलकर एकान्त की ओर गमन करने हेतु ही कहा है, क्योंकि इसमें ही मानवमात्र की भलाई है। स्व की खोज में सफल हो जाने पर ही स्वामी हुआ जा सकता है। अपने आप में ही न्यस्थ हो जाने पर  संन्यासी हुआ जा सकता है। बाकी तो सब बाहरी उपाधियों का आडम्बर भर है। अस्तु।
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