कुर्सी-कलह

                                            कुर्सी-कलह

          वटेसरकाका अकसरहाँ पते की ही बात करते हैं । प्रायः मेरी बोलती बन्द करा देते हैं। आते ही सवाल दागे—  कुर्सी-कलह में कौन सा समास है बबुआ और इसकी राशि क्या है?
            अचानक के इस प्रश्न-प्रहार से मैं तिलमिला गया । वैसे भी उनके प्रश्नों का उत्तर देना उतना आनन्ददायी नहीं होता, जितना उनके ही श्रीमुख से उत्तर सुनना ।
सहज मानवी स्वभाव है कि लोग वेवकूफ बनने या खुद को बेवकूफ मानने को तैयार ही नहीं होते। ज्यादातर विवादों की वुनियाद यही है। जो जितना बड़ा बेवकूफ, वो उतना बड़ा होशियार समझता है खुद को । अगर आप स्वयं को निहत्था मान लें, तो शायद ही कोई धर्मयोद्धा आप पर वार करे। अधर्मी-विधर्मी के लिए तो कोई नियम ही नहीं है। उसका मनमानी ही ब्रह्मसत्य होता है। किन्तु बहुत बार ऐसा भी होता है कि छड़ीवाला तोप वाले से भिड़ जाता है।
खैर, मैं उनलोगों में नहीं हूँ। हथियार हो ही नहीं, तो डालने को बाकी ही क्या रह जाता है ! काका के सामने मैं आत्मसमर्पण कर दिया करता हूँ हर बात में । वैसे भी काकाओं और आकाओं के सामने आत्मसमर्पण करने में ही बुद्धिमानी है। कम से कम अपनी शान्ति के मूल्य पर तो अवश्य ।
अकसरहाँ लोग अपने प्रश्नों के साथ-साथ अपनी उत्तर-पुस्तिका भी लिए फिरते हैं, भले ही उत्तर गलत क्यों न हो । जरा गौर फरमायें—आपके कोई शुभेच्छु मिलते हैं तो हालचाल लेने के लिए क्या पूछते हैं—ठीक तो हैं न? कैसे हैं—बहुत कम लोग पूछते हैं । और ऐसा पूछने के पीछे सबसे बड़ा कारण होता है कि कहीं आप उनसे कुछ मांग न बैठें । ठीक तो हैं न—का उत्तर भी बिलकुल साफ होता है, उनकी पुस्तिका में—बिलकुल ठीक ।
काका जब भी कोई सवाल करते हैं, तो जवाब के लिए नहीं, बल्कि अपने पासवाले उत्तर से सामने वाले के उत्तर का मिलान करने के लिए । मिल गया तो ठीक, अन्यथा खैर नहीं ।
मेरे सरेन्डर करते ही कहने लगे— कुर्सी और कलह के बीच एक महत्त्वपूर्ण शब्द छिपा हुआ है—कोष । सामासिक पदविच्छेद करने के लिए कुर्सी के लिए कलहकहना सर्वाधिक मान्य है। लोटा-डोरी, रात-दिन, हेड-टेल की तरह समासविग्रह करने में भी कोई हर्ज नहीं। ज्योतिषीय विचार से नक्षत्र-चरण गणना में एकदम एकाधिपत्य योग बनता है इन दोनों में । दोनों की राशियाँ एक हैं। स्वाभाविक है कि राशीश भी एक ही होंगे। इसीलिए कुर्सी और कलह का संयोग सदा बना रहता है। दोनों एक दूजे से अटूट और अदृश्य बन्धन में बँधे रहने को विवश हैं। एक मुहावरा है—चोली दामन का सम्बन्ध । कुर्सी और कलह के साथ ये एकदम फिट बैठता है। निहितार्थ स्पष्ट है— कोष पर कब्ज़ा । हालाँकि ये कोष सिर्फ द्राव्यिक मूल्यों का ही मुहताज़ नहीं होता, सामाजिक प्रतिष्ठा की चमक भी कम मूल्यवान नहीं । यही कारण है कि अवैतनिक पदों (कुर्सियों) के लिए भी कलह कम नहीं होते । दरअसल, कुर्सी सत्ता और शक्ति का प्रतीक है । पावर तो पावर है न । पावर मिलते ही आँखों की लालिमा घनेरी हो जाती हैं। चाल बदल जाती है। प्यादा भी वजीर की चाल चलने लग जाता है। कुर्सी जितनी ऊँची होती है, कलह भी उतनी ही गहरी होती है—ऊँचे मकान के गहरे नींव की तरह । इतनी गहरी कि खुद की ओछाई का भी भान नहीं होने देती । कुर्सी पर बैठना और सम्भल कर, देर तक बैठे रहना बड़ा ही ज़ोखिम और अभ्यास का विषय है। इसलिए शकुनिमामा अपने प्रिय भागिनेय को देर रात हस्तिनापुर के खाली सिंहासन पर एकान्त में बैठने का अभ्यास करने की सलाह दिया करते थे। शकुनि रुप बदल-बदल कर हर युग में हुआ करते हैं। सम्बन्ध भी बदला हुआ होता है। कोई जरुरी नहीं कि मामा ही हों। यार-दोस्त, चेले-चहेते...कुछ भी सम्बन्ध लेकर आपके इर्द-गिर्द वो मौजूद हो सकते हैं, अपनी स्वार्थ-सिद्धि की आश लिए। और मजे की बात ये है कि चुँकि वे हमारे अपने जैसे होते हैं, प्रिय होते हैं। इसलिए उनके मनसों को समझ पाना भी बहुत कठिन होता है। आकार और ऊँचाई के लिहाज़ से स्कूल के मास्टरसाहव की कुर्सी से लेकर समिति, परिषद और संसद तक  कुर्सियों का विविध प्रकार हुआ करता है। कुर्सी पर बैठ कर ज्यादातर लोग ऊँघने लगते हैं। इसीलिए आजकल क्लासरुम से कुर्सियाँ हटा दी गयी हैं। वैसे भी गुरु अयोग्य हो तो उसे कुर्सी पर डटे रहने का अधिकार नहीं है, किन्तु बिडम्बना ये है कि ज्यादातर गुरु ऐसे ही मिलते हैं आजकल । इस संकट को ध्यान में रखकर ही गुरु और नेता बनने के लिए किसी योग्यता की अनिवार्यता को नकार दिया गया है।  कुर्सी के विषय में एक खास बात और है कि कुर्सियों को उठा कर हथियार की तरह इस्तेमाल करने का भी चलन है, इसलिए संसद में जमीन से जड़ी हुयी कुर्सियाँ लगायी जाने लगी हैं। लोक को रिझाने-बहकाने, फुसलाने और शासनतन्त्र को चलाने के लिए लोकतन्त्र में भी एक अच्छी-खासी कुर्सी होती है, जिसे सम्पादक कहते हैं । किन्तु लोकतन्त्र की सर्वाधिक जिम्मेवार ये कुर्सी भी अपना कर्त्तव्य  गिरवी रख दी है। मंहगाई इतनी है कि धरम-ईमान सबकुछ बन्धक रखना पड़ रहा है। कुछ कुर्सियाँ ऐसी भी होती हैं, जिन्हें पीठ कहते हैं। जैसे व्यासपीठ, न्यायपीठ आदि । सामान्य कुर्सियों की तुलना में इनकी गरिमा-महिमा कुछ और ही है। किन्तु खेद की बात ये है कि ये सारे के सारे पीठ पेट के ख्याल से काम करने लगें, तो फिर अभागे पीठ की परवाह कौन करे! अपवाद स्वरुप कुछ खास कुर्सियों को छोड़कर, बाकी की कुर्सियों के साथ अकसरहाँ ऐसा ही होता है। यही कारण है कि आजकल सभी कुर्सियों की चूलें ढीली जान पड़ रही हैं। पाये डगमग कर रहे हैं। परिमामतः, उसपर बैठने वाला हमेशा सशंकित रहता है—पता नहीं कब कुर्सी उलट-पलट जाए । विवश बेचारा कुर्सीधारी पायों को ही अन्धे धृतराष्ट्र की तरह कस कर पकड़ने की जुगत में जिन्दगी गुज़ार देता है। कुर्सी की मर्यादा और दायित्वों का बोध करने का वक्त ही नहीं बचता ।
मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आज वटेसरकाका कुर्सी का किस्सा क्यों सुना रहे हैं। ये किस्सा तो अब से बहुत पहले एक नामी गिरामी लेखक सुना ही चुके हैं—किस्सा कुर्सी का। इसमें जो कुछ कमी रह गयी, उसे भी एक अन्य लेखक ने पूरा कर दिया— रागदरबारी लिखकर। फिर भी चुपचाप काका की बातों पर कान लगाये रहा ।
काका कहते रहे— आजकल बिना चूल (चूर) वाली कुर्सियाँ भी बनने लगी हैं—न चूल रहेगी न हिलने का डर होगा। फिर भी पायों का हिलना कुर्सी का निजी स्वभाव है। ना भी हिले तो, हिलाने वाले सदा तत्पर रहते हैं— नहीं क्यों हिलेगी। ऐसे में सोते-जागते अपनी कुर्सी को ठीक से थामे रहना जरुरी हो गया है। ज्यादातर कुर्सियाँ भोर में खिसकती हैं, जब आदमी अलसायी मुद्रा में होता है। सुबह का अखबार  ये सूचना देता है कि अमुक कुर्सी खिसक गयी अमुक कारणों से और अमुकजी अब उस कुर्सी के दावेदार हैं।
लम्बी सांस खींचने के लिए काका जरा रुके । फिर कहने लगे— कुर्सियों की गिनती नहीं आजकल । क्यों कि इसकी बहुत सी फैक्ट्रियाँ लग गयी हैं—देश, राज्य, जिला, प्रखण्ड से लेकर पंचायत स्तर तक। हर सम्प्रदाय और समाज की भी अपनी-अपनी कुर्सियाँ हैं। अपनी-अपनी समितियाँ है। अपने-अपने संगठन हैं। मजे की बात ये है कि सबका संविधान, सबकी नियमावली यानी बायलॉज देखो तो बिलकुल एक ही जैसा मिलेगा—समाज के कल्याण के साथ-साथ मानवता का कल्याण । किन्तु समाज कहाँ है, किस अवस्था में है—अभी तक पता नहीं चला किसी को । व्यक्त होता है व्यक्ति। समाज तो अव्यक्त ढांचे का नाम है। व्यक्त यदि अव्यक्त पर हावी होने का प्रयास करेगा, तो अव्यक्त का क्या होगा—सोचने वाली बात है। संगठन के नाम पर कभी-कभार मीटिंग-सीटिंग-इटिंग-फिटींग-नीटिंग-नेटिंग करलेना, कुछ भाषण-वासन दे लेना, मन हुआ तो कुछ गाली-गलौज भी कर लेना, एक दूसरे को अपमानित कर लेना, कुछ को चादर ओढ़ाकर, सम्मानपत्र थमाकर, सम्मानित कर देना, माला पहना देना, माला पहन लेना, माला पहनने को आतुर रहना, ताली बजा लेना, कुछ छाप-छूप देना—क्या यही सामाजिक कार्य है? यही उद्देश्य है संगठन का? ”
मुझे विवश होकर सिर हिलाना पड़ा । काका की बातों में कुछ तो दम है। ललक कर पूछ बैठा — आखिर क्या है समाज सेवा ? क्या
है संगठनों का कर्त्तव्य ?
गगनगम्भीरभाव से काका ने कहा— एक छतरी तले थिर होकर खड़ा होना सबसे पहला कर्त्तव्य है। योगसूत्र की भाषा में कहूँ तो कह सकता हूँ— स्थिरःसुखमासनम् सुखपूर्वक, शान्तिपूर्वक, धैर्यपूर्वक, निर्विकार भाव से लम्बे समय तक यथास्थिति में धारित रहना पहला काम है। निन्दा-स्तुति में समत्वबोध हेतु संकल्पित होना दूसरा काम है। परनिन्दा करने से सख्त परहेज करें और अपनी प्रसंशा सुनने को कानों को लालायित  न रखें । यदि ये तीन बातें सध जाती हैं, फिर आगे की बातों पर एक मत से विचार और निर्णय आसानी से लिया जा सकता है। अन्धेरा सबको अन्धेरा ही दीखता है और उजाला उजाला दिखेगा ही, वशर्ते कि देखने के लिए आँखें खुली हों और हम देखने को राजी हों । प्रत्येक गुण-दोष, खामी-खूबी को सापेक्षतासिद्धान्त की तुला पर तौलना भी बुद्धिमानी नहीं है। पाँचों अँगुलियों को बराबर करने की धृष्ठता भी मूर्खता है। अन्धेरे आँगन को रौशन करें, हेलोजन और भेपरलाइटों को अपनी जगह चमकने दें। उनकी रौशनी से आँखें मिलाकर अपनी नेत्र-ज्योति धूमिल न करलें। और कुछ अहम बातें — परिवार बड़ा हो तो कमरे बना लें। यदि और जरुरत हो तो मंजिलें बना लें। और जरुरत लगे तो पास ही नया मकान बना लें। किसी के घर को दखलाने का प्रयास न करें। और हाँ, वाप-दादों की यादगार—पुरानी आँगन में नयी दीवार खड़ी करने की नासमझी तो कदापि न करें...।
मैं सिर झुकाये काका की बातों पर विचार करने लगा । देखता हूँ—कितना उतर पाता है जीवन में । स्वयं को संयमित तो कर लूँ, फिर समाज की बात सोचूँगा । कुर्सी धूआ छूने और चोर-सिपाही का खेल तो नहीं और न कलाकन्द है, जिसे मुंह में धर तर आँखें मूंद तृप्ति लाभ लेता रहा जाए।
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