प्रदर्शन

                                                        प्रदर्शन

प्रदर्शन—सहज मानव स्वभाव है। शौर्य,सौन्दर्य,ऐश्वर्य,वैभव, विलास...यहाँ तक कि तथाकथित ज्ञान भी इस सूची से अछूता नहीं रह सका है। जबकि असली ज्ञान बहुत उच्च कोटि की स्थिति है— मानव-मन की। हाँ, ये बात अलग है कि व्यक्ति, समय और स्थान के अनुसार इनका वरीयता-क्रम थोड़ा आगे-पीछे सरकता रहता है। किन्तु मूल मनोग्रन्थि वहीं की वहीं बनी रहती है।  महर्षि पतंजलि की शैली में कहना चाहूँ तो कह सकता हूँ कि वृत्तियाँ सहज ही नष्ट नहीं होती। इसके लिए सतत कठोर अभ्यास की आवश्यकता होती है। बड़े-बड़े योगाभ्यासियों को भी बड़ा ही जतन करना पड़ता है विविध वृत्तियों के निरोध के लिए। जन्म-जन्मान्तर की यात्रा करनी पड़ जाती है—वृत्तियों के समायोजन और विलयन हेतु।
रावण जैसे ज्ञानी पुरुष को भी शौर्य-प्रदर्शन की मनोव्याधि थी। इस व्याधि के कारण ही वह उच्चकुल जात होकर भी राक्षसों की श्रेणी में माना गया। ऐसे शूरवीर ज्ञानी रावण को छः माह तक अपनी काँख में दबाये रहने वाले मर्कटकुल जात सुग्रीवाग्रज वालि ने तो कभी शौर्य प्रदर्शन नहीं किया। हालांकि वो कामव्याधि पीड़ित होने के कारण लांछित हुआ। ये कामव्याधि भी बड़ी विचित्र है। इसके मनोरोगी भरे पड़े हैं हमारे पौराणिक गाथाओं में। भले ही अन्तः शत्रुओं में काम का प्रथम स्थान है और अन्तिम विन्दु पर है अहंकार। यानी अहंकार सर्वाधिक वलिष्ठ शत्रु है मानव का। क्रोध,लोभ,मोह,मद इन दोनों के बीच की चीजें हैं। किन्तु व्यावहारिक रुप में तो यही पाया जाता है कि प्रथम शत्रु से जूझते-जूझते ही जीवन चुक जाता है। सम्भवतः ये सौन्दर्य-बोध का दुष्परिणाम है।
क्योंकि शौर्य के पश्चात् सौन्दर्य की ही बारी आती है। सौन्दर्य हो और उसका मूल्यांकन-अवलोकन करने वाला कोई न हो, तो बड़े कष्ट की बात हो जाती है। गर्दभी को भी सुन्दरी कहकर प्रफुल्लित किया जा सकता है। अपनी ओर आकर्षित कराया जा सकता है, क्यों कि दूसरे के मुंह से सुन्दर कहलाना सहज दुर्बलता है मानव की, विशेष कर नारी की। नारी सौन्दर्य-प्रदर्शन करती है, पुरुष सौन्दर्य-भोग करता है। भले ही ये रसपान उसके विनाश का कारण क्यों न बन जाए।
सौन्दर्य-प्रदर्शन के अमोघ अस्त्र से ही देवराज इन्द्र ने अपने अनेक सम्भावित प्रतिद्वन्दियों को परास्त किया है। हालांकि इन्द्र को भयज व्याधि थी। विश्वामित्र जैसा गायत्री-साधक भी उन्हें अपना प्रतिद्वन्दी ही प्रतीत हुआ, फलतः मेनका को भेजना पड़ा। मेनका के सौन्दर्य-प्रदर्शन के परिणाम स्वरुप ही शकुन्तला का आविर्भाव हुआ। ये वही शकुन्तला है, जो हमारे भारतवर्ष के नामकरण की भूमिका बनी।
षडैश्वर्य तो महेश्वर या कहें त्रिलोकीनाथ के अतिरिक्त कहीं और होता ही है, हो भी नहीं सकता; किन्तु उसका ही तुच्छ रुप धन-वैभव के रुप में मानव को हस्तगस्त हो जाता है। शास्त्र-पुराण कहते हैं कि शौर्य, सौन्दर्य, ऐश्वर्य, वैभव, विलास...आदि की अल्पांश प्रतिच्छाया ही दृष्टिगत है सृष्टि में। और इस तुच्छ को ही सम्भाल नहीं पाता है दुर्बल मानव, फिर उस महाविराट को भला कैसे सम्भाल पायेगा !
यही कारण है कि ये सबके सब प्रदर्शन के वस्तु बन कर रहे गए हैं मानव के लिए। थोड़ा भी अर्जन हुआ कि असह्य हो जाता है। काबू से बाहर होने लगता है। प्रदर्शन किये बिना रह ही नहीं सकता मानव। और प्रदर्शन भी सामान्य नहीं, अति विद्रूप-वीभत्स रुप में।
नारियों के सौन्दर्य-प्रदर्शन की सहज उद्दाम लालसा ने ही आज लगभग अर्द्धनग्नता की स्थिति में ला खड़ा कर दिया है। इस मूर्खतापूर्ण प्रदर्शन के लिए हम सिर्फ पश्चिम को ही जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते । क्यों कि हम उससे भी कहीं आगे निकलते जा रहे हैं इस होड़ में। फिल्मों ने इस पतन की सिर्फ पटकथा ही नहीं लिखी, बल्कि आग में घी ही नहीं, पेट्रोल का काम किया। स्थिति ये है कि आज की तथाकथित सभ्य नारी यहाँ तक कह जाती है कि मेरा शरीर है, मेरी जिन्दगी है, मेरी पसन्द है...। अंकुश लगाना या टिप्पणी करना विकृत पुरुष वर्चश्व का प्रदर्शन है...। और ऐसा आरोप लगाते हुए नारी ये भूल जाती है कि अवगुण्ठित सौन्दर्य ही सौन्दर्यवान होता है। आवरण में ही आकर्षण है। आवरण तिरोहित हुआ, आकर्षण को भी साथ लेता गया । आकर्षण तभी तक है, जब तक अवगुण्ठन है। भूमिका में ही पूरी पुस्तक लिख डालना किसी प्रबुद्ध लेखक की पहचान नहीं हो सकती । उसे तो मूर्ख कहना पड़ेगा। भूमिका को संक्षित और सारगर्भित ही होना चाहिए। उतना ही दिखलाओ कि देखने की ललक बनी रहे।
इस सौन्दर्य-प्रदर्शन ने भारतीय संस्कृति का भारी नुकसान किया है। बहुत सी नयी-नयी विकृतियाँ पनपी हैं समाज में। तथाकथित तकनीकि विकास ने भी भरपूर आहुतियाँ डाली हैं।
प्रदर्शन की कतार में धन-वैभव भला पीछे कैसे रह सकता है ! हालांकि बहुत सारे अनर्थों का जड़ धन ही है। वस्तुतः उलूकवाहिनी लक्ष्मी के आराधक हैं लोग। पद्मासना लक्ष्मी के बारे तो कुछ अता-पता भी नहीं है। प्रकाश की चमक में उल्लू की आँखें काम नहीं करती। धन-वैभव की चकाचौंध में मनुष्य की आँखें दुर्बल पड़ जाती हैं। और सच कहें तो धन मदकारी भी तो है। धन से वह सबकुछ खरीद लेना चाहता है—सुख, शान्ति यहाँ तक कि आनन्द भी। किन्तु मूर्ख मानव को पता ही नहीं कि सिर्फ सुख को ही खरीदा जा सकता है धन से, क्यों कि ये सिर्फ कायिकतल की बात है। इससे बहुत दूर— मानसिक तल की बात है— शान्ति और इससे भी बहुत विलक्षण— आत्मिक तल की बात है आनन्द और ये दोनों धन की लम्बी बाहों में समाने-सिमटने से बहुत-बहुत दूर हैं।
अब जरा ज्ञान की बात कर लें। ज्ञान बहुत दूर की कौड़ी है। बहुत दुर्लभ भी है। हम प्रायः जानकारी को ही ज्ञान कहने-समझने की मूर्खता करते रहते हैं। सुनी-सुनायी, पढ़ी-पढ़ाई बातों के स्मरण को ही ज्ञान मान बैठते हैं। यदि जानकारियों का संग्रह ही ज्ञान हो जाए, तो फिर गूगलबाबा सबसे बड़े ज्ञानी हैं आज के युग में। विडम्बना ये है कि क्षुद्र जानकारियों को ही ज्ञान मान-समझ कर, अपने ज्ञान को दूसरे पर थोपने की धृष्टता भी खूब करते हैं। मिथ्या ज्ञान का ये प्रदर्शन भी कम घातक नहीं है मानवता के लिए, बल्कि ये कहें कि सर्वाधिक घातक यही है।
हमने जाना नहीं, हमने अनुभव किया नहीं और चल दिए उपदेश देने, प्रवचन करने, ज्ञान बांटने । मजे की बात ये है कि अब तो बाकायदा अनेकानेक ज्ञानस्थलियाँ चल रही है। वस्तुतः ये ज्ञान की सजी-धजी दुकानें हैं, जहाँ ज्ञान की प्रदर्शनी लगी है। और  हम उस चमक-दमक में औंधे मुंह धराशायी हैं। तथाकथित बाबाओं की दाढ़ी की सफेदी और लम्बाई देख कर हम आकर्षित हो जाते हैं। ललाट के पेन्ट-पोचारे को देख कर आकर्षित हो जाते हैं। मठ-आश्रम की भीड़ और सजावट को देख कर खिंचे चले आते हैं । और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम अपनी विविध कामनाओं के चंगुल में फंसे हुए हैं। हमें धन चाहिए। हमें पद-प्रतिष्ठा चाहिए। हमें पुत्र चाहिए। हमें शत्रु की पराजय चाहिए। इस चाहिए की भीड़ में बुद्धि कुंठित हो गयी है।
यदि सच में ज्ञान चाहिए तो इसके लिए कहीं जाने की जरुरत ही नहीं है। जहाँ हैं, जिस अवस्था, जिस स्थिति में हैं, वहीं ठहर जाइये। और श्वांसों की डोर थामें, धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा कीजिये। ज्ञान आपके द्वार खटखटाने स्वयं आ जायेगा।
मुख्य बात ये है कि प्रदर्शन की प्रवृत्ति ने मानवता का बहुत बड़ा नुकसान किया है। अतः समझदार व्यक्ति को इससे हरसम्भव बचने का प्रयत्न करना चाहिए। अस्तु
मुख्य बात ये है कि प्रदर्शन की प्रवृत्ति ने मानवता का बहुत बड़ा नुकसान किया है। अतः समझदार व्यक्ति को इससे हरसम्भव बचने का प्रयत्न करना चाहिए। अस्तु।। 

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