मगस्य गोष्ठी कलहस्य मूलम्

 (नोट - ये आलेख खास कर शाकद्वीपीय ब्राह्मणों  के आलोक में लिखा गया है)

                मगस्य गोष्ठी कलहस्य मूलम्

 

"मगस्य गोष्ठी कलहस्य मूलम्।

अन्नं न गेहे,वस्त्रं न देहे,

सगर्व वाणी,मदनातुरस्य

सरस्वती च वसति हि कंठे,

मगस्य गोष्ठी "कलहस्य मूलम"। .... ?

उक्त पंक्तियों के रचयिता कौन हैं, किन परिस्थितियों में, कब ये लिखी गयी— ये भी ज्ञात नहीं। कुछ लोगों से जानकारी करने का प्रयास किया, किन्तु सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिला। हालांकि पंक्तियों में छन्द और व्याकरण की त्रुटियाँ हैं, किन्तु चूँकि अर्थ स्पष्ट है, अतः रचयिता के मूल भावनाओं का ध्यान रखते हुए, यहाँ यथावत प्रस्तुत कर दिया हूँ। अर्थ स्पष्ट है—मग(शाकद्वीपीय)की गोष्ठी कलह का मूल है। घर में अन्न नहीं। तन पर वस्त्र नहीं। अहंकार पूर्ण वाणी है। सदा कामवासना से आतुर हैं। सरस्वती का वास है कंठ में...।

शाकद्वीपियों की गोष्ठी कलह का मूल है कथन को आरोप कहूँ या अन्तर्वेदना  ! समझ नहीं पा रहा हूँ, किन्तु कानों में उक्त पंक्तियाँ पड़ते ही ऐसा लगा मानों केवाल मिट्टी में नंगे पांव चलते हुए अचानक बबूल का कांटा चुभ गया हो।  ऐसे में विचार करने पर विवश हो गया कि ऐसा क्यों कहा जा रहा है, हम मगों के विषय में ।

विचार-श्रृंखला में सबसे पहली बात आयी कि निश्चित ही ये आरोप है— जो गैर मगों द्वारा लगाया गया है। जैसा कि समय-समय पर तरह-तरह के आरोप लगाये जाते रहे हैं, महर्षि-शापित दुःखी और कुण्ठाग्रस्त भारतभूमि के मूल पंच द्रविण,पंच गौड़ ब्राह्मणों (भूदेवों) द्वारा । और इनके साथ ही भूमिहार वर्ग भी स्वयं को ब्राह्मण सिद्ध करने के चक्कर में दिव्यजन्मा सूर्यांशों के कम विरोधी नहीं हैं। ईर्ष्यावश, प्रतिद्वन्द्विता में वे तो अपना धर्मशास्त्र भी रच लिए हैं और धड़ल्ले से यज्ञादि अनुष्ठान में आचार्यत्व सम्भाल रहे हैं। दान-दक्षिणा भी ग्रहण कर रहे हैं।

अन्य जनों का विरोध अपनी जगह पर। आत्ममन्थन अपनी जगह पर। बिना विचार किए हम इन पंक्तियों को गैरों द्वारा लगाया गया आरोप कैसे मान लें ! किसी भुक्तभोगी की मनोव्यथा भी तो हो सकती है?  

विचारक्रम में सरोजस्मृति की कुछ पंक्तियाँ ध्यान में आयी, जिसे निज समाज पीड़ित-व्यथित कविवर सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी ने लिखी है—

     "ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार,
             खाकर पत्तल में करें छेद,
            इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
            इस विषय-बेलि में विष ही फल,
             यह दग्ध मरुस्थल - नहीं सुजल।"

           

निराला जैसे प्रखर-बुद्धिमान व्यक्ति भांग पीकर ऐसी पंक्तियाँ नहीं लिखे होंगे ! निश्चित ही उनकी मनोव्यथा ही उद्वेलित होकर निस्सृत हुयी हैं इन पंक्तियों में। अपनी पुत्री के विवाह के लिए काफी परेशान हुए थे निराला जी और इसी आवेग में उन्होंने कहा था— जो कविता में छन्दों का बन्धन तोड़ सकता है, वो भला कन्या-विवाह में जाति-बन्धन में क्यों जकड़ा रहे !

इसका ये मतलब नहीं कि निरालाजी जाति-परम्परा के विरोधी थे। निज जाति-धर्म तो सबको प्रिय होता है। होना भी चाहिए। जड़ से उखड़ा हुआ वृक्ष कभी विकास नहीं कर सकता। उसकी परिणति विनाश में ही है। किन्तु समाज के नाज़-नखरे कभी-कभार समाज के प्रति कठोर टिप्पणी करने पर भी विवश कर देता है। निरालाजी ने यही किया है और सम्भवतः उक्त पंक्तियों— मगस्य गोष्ठी कलहस्य मूलम्— के रचयिता ने भी ।

और फिर, विचारक्रम में कविवर मैथिलीशरण गुप्तजी के भारतभारती की स्वर्णिम पंक्तियों की याद आ जाती है—

हम कौन थे ! क्या हो गए ! और क्या होंगे अभी ?

आओ विचारें बैठकर हम समस्यायें सभी...।

 

ध्यातव्य है कि हम सूर्यांश हैं—सूर्यवंशी नहीं। श्रीकृष्ण की कृपा से भारतभूमि में हमें स्थायी वास मिला है। शाकद्वीप से आना-जाना तो अन्य युगों में भी लगा ही रहता था, किन्तु स्थायी वास श्रीकृष्ण-पुत्र साम्ब के रवि-स्थापन-यज्ञ के पश्चात् ही हुआ। कुछ ऐसी भी चर्चायें मिलती हैं कि त्रेता युग में भी आवासन की व्यवस्था हुयी थी मगों के लिए महाराज दशरथ द्वारा ।

शाकद्वीपीय ब्राह्मण (मगविप्र) मुख्यतः   सूर्यतन्त्र के साधक हैं। साम्ब के कल्याण (कुष्ठरोग-निवारण) हेतु इसी अद्भुत सावित्री विद्या का ही प्रयोग किया गया था, न कि आयुर्वेदीय चिकित्सा हुयी थी। आयुर्वेद और ज्योतिष तो शाकद्वीपियों की घुट्टी में मिला हुआ है। सृष्टितन्त्र इनका दास तुल्य है। सूर्य और गायत्री आराध्य हैं मगों के। यही गौरवगाथा है मगविप्रों की।

किन्तु विगत सवा पाँच हजार वर्षों में ही हम क्या से क्या हो गए !  दादाजी वाला हाथी तो मर गया, परन्तु उसका सांकल हाथों में लिए झंकार रहे हैं अभी भी हम ।

 प्रयोगात्मक सूर्यतन्त्र तो बहुत दूर की बात हो गयी। सम्यक् संज्ञान में भी नहीं है अब । हमारे तेज का मूलाधार— संध्या-गायत्री विलुप्त हो चला है। शिखा-सूत्र  भी व्यर्थ-बोझ सा लगने लगा है। जाति, धर्म, मर्यादा, संस्कृति, परम्परा  तार-तार हो रही हैं। स्वेच्छाचार और स्वच्छन्दता का बोलबाला है। बहुत से शास्त्र-सिद्धान्त, रीति-रिवाज मनोनुकूल रच लिए गए हैं। अपनी अज्ञानता और भूल को यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धं ना चरणीयम् ना चरणीयम् के ब्रह्मास्त्र से छेदित करते रहते हैं।

आपसी बातचीत में भी हम स्वयं को साम्ब का चिकित्सक कहने-मानने लगे हैं। विडम्बना ये है कि आयुर्वेद को भी ठीक से सम्भाल नहीं सके । ज्योतिषीय ज्ञान ज्यादातर तिथिसूचक तक सिमट आया है। वैदिक ज्ञान तिरोहित हो गया है। वैदिक स्वर-ज्ञान नटी-भंगिमा बन गयी है। कर्मकाण्ड में आडम्बर समाहित हो गया है। तन्त्र के नाम पर मिथ्याचार और इन्द्रजाल का पाखण्ड है। दर्प का स्थान दम्भ ने ले लिया है।

हमारे हाथ पांव छूने के वजाय,  ज्यादातर टांग खींचने के लिए आगे बढ़ने लगे हैं। जीभ गुणगान करने के वजाय, झूठी शिकायतें करने में तल्लीन है। आँखें छिद्रान्वेषण में गड़ी हुयी हैं। गोष्ठियों में मिलन कम, आलोचन-विघटन ज्यादा प्रभावी है। परनिन्दा रस सबसे रोचक और आनन्ददायक रस हो गया है। और ऊपर कही गयी पंक्तियाँ सार्थक सिद्ध हो रही हैं।  

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि संस्कारहीनता की पराकाष्ठा पर हम पहुँच चुके हैं। पछुआवयार ने विवेक की आँखों में धूल भर दिया है। येनकेन प्रकारेण धन-संग्रह हेतु बेसुध दौड़ लगाये जा रहे हैं। ज्ञान का स्थान धन ने ले लिया है। यही बड़प्पन का मापदण्ड बन गया है। धनी और धनहीन के बीच की खाई बहुत तेजी से बढ़ रही है।  हमारी स्थिति रजक-श्वान तुल्य हो गयी है।

प्रश्न उठता है— ऐसे में हम क्या करें?

मेरे विचार से सबसे पहला काम ये करें कि—

) महज आलोचना के लिए आलोचना न करें। मुँह पर गुणगान और पीठ पीछे शिकायत की प्रवृति से संकल्प पूर्वक बचें। हम तो बेझिझक बोल देते हैं इसमें अपनी काबलियत न समझें। मिथ्या दम्भ-प्रदर्शन से शख्त परहेज करें।

) लुप्त होती जा रही संस्कारों को पुनः अंगीकार करने का संकल्प लें। अपने पुत्रों को समय पर( ८-१२ वर्ष) यज्ञोपवीत संस्कार कराकर, इसकी महत्ता समझावें। संध्या-गायत्री न कर पाने के लिए बहाना न ढूढें। ये जान लें कि इसी लघु साधना-सूत्र का आलम्ब लेकर हम पुनः अपने शौर्य को प्राप्त कर सकते हैं।

३) श्राद्धभोजन(निज गोत्र के अतिरिक्त)का सर्वथा परित्याग करें।

४) यजमनिका वृत्ति वाले बन्धु संकल्पित दान (शैय्यादान, तुलादान आदि) कदापि ग्रहण न करें।

५) शास्त्रवचन का हवाला देकर,महामृत्युञ्जय मन्त्र-जप का व्यापार न करें। ध्यान रहे—गायत्री और महामृत्युञ्जय का प्रयोग सिर्फ आत्मकल्याण हेतु ही कर ना चाहिए। और ये बातें इन दोनों मन्त्रों के गूढ़ार्थ में ही निहित हैं।

६) एक ओर आधुनिक सांयन्स-टेकनोलॉजी की ओर अग्रसर हों, तो दूसरी ओर अपने वैदिक-पौराणिक पृष्ठभूमि पर भी पैर जमाये रहें। यजन-याजन, कर्मकाण्डादि में संलग्न बन्धुओं को चाहिए कि विधिवत विषयगत शिक्षा ग्रहण करें। ब्राह्मण-पुत्र के नाते आप ब्राह्मण हैं ही—इस भ्रम में न रहें। आपकी इस अज्ञानता से समाज, शास्त्र और स्वयं—तीनों का नुकसान हो रहा है। आप यजमान को ठग नहीं रहे हैं, प्रत्युत स्वयं को ठग रहे हैं और नरक का द्वार खोल रहे हैं।

७) पुत्र-पुत्री का अन्तर मन से निकाल दें। इस भ्रम में न रहें कि अंग्रेजियत में पगा आपका वेटा पिण्डदान देकर उद्धार करेगा ही।  वेटियों को भी समुचित शिक्षा और संस्कार दें।

८) ऐसे व्यक्ति का एकदम वहिष्कार करें, जो भिखमंगे की तरह या डॉन की तरह दहेज मांगता हो। इस आशंका और भय में न रहें कि बिना दहेज के शादी कैसे होगी वेटी की। पाँच साल तक प्रतिज्ञा पूर्व यदि ऐसा करने लगे प्रत्येक वेटी का वाप, तो वेटा वाला झकमार कर आपके चौखट पर नाक रगड़ने आ जायेगा।

वेटी को पढ़ा-लिखाकर योग्य और संस्कारी बना दें—इतना ही काफी है। सास-ससुर को प्रेम और आदर देने का संस्कार दें। ऐसा नहीं कि जाते ही अपना चूल्हा सम्भाल ले।

किन्तु विडम्बना ये है कि अपने ही स्वर दो तरह के होते हैं—वेटे और वेटी के वाप सामाजिक रुतबा ही कुछ और-और बनाये बैठे होते हैं। अतः इस बीमारी का इलाज़ तो सबसे पहले करना होगा, जिसे कोई और नहीं खुद करना होगा। क्या आप भीख मांग कर खाते हैं ? क्या आप दूसरे से मांग कर अपनी गाड़ी में पेट्रोल डलवाते हैं ? खुद की गाड़ी खरीदने की औकात नहीं है आपकी ? यदि नहीं है तो बात ही खत्म। और यदि है, तो फिर दहेजुआ गाड़ी का इन्तजार क्यों ? अपनी हद में जिएँ और दूसरे को भी जीने का अवसर दें।

९) देखादेखी और दिखावे से बचने का सतत प्रयास करें। शादी-विवाह, अन्य पारिवारिक-सामाजिक समारोहों में  अनाप-सनाप खर्च न करें।  पूँजीवादी व्यवस्था में कर्ज लेने-देने का खूब चलन है। दिखावे की प्रवृति बढ़ने के पीछे इस सुविधा का भी बहुत बड़ा योगदान है। पहले हम अपनी चादर के हिसाब से पैर पसारते थे। आज पैर के हिसाब से चादर का जुगाड़ करते हैं, क्यों कि हम खुद को पहले से बुद्धिमान मानने लगे हैं। और ये भूल जाते हैं कि डिप्रेशन और आत्महत्या के पीछे आसानी से मिलने वाले खर्च का भी हाथ है। कर्ज़ के महल से कहीं अच्छा है बिना कर्ज़ की झोपड़ी, जहाँ बिना डाइजीपाम के आप चैन से सो सकें।

१०) कैरियर और ऐडजस्टमेन्ट के चक्कर में विवाह में बहुत विलम्ब हो रहा है। इससे कई तरह की सामाजिक विकृतियाँ और परेशानियाँ आ रही है। शरीर-विज्ञान भी इसकी अनुमति नहीं देता। प्रकृति से विपरीत जाने का खामियाज़ा हमें भोगना ही पड़ेगा। पहले न्यूनतम की अति थी, अब अधिकतम की अति पर पहुँच गए हैं। अतः वालिग होते ही, विवाह कर देना श्रेयस्कर है।

११) महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा बहुत तेजी से बढ़ रही है हमारे समाज में भी। परित्यक्ताओं की भी बाढ़ है। हालांकि इसके अनेक कारण हैं। ऐसा नहीं कि सिर्फ लड़का पक्ष ही दोषी है। लड़की पक्ष भी कम गुनाहगार नहीं है। विलम्बित विवाह के कारण मैके से ही लड़कियाँ परिपक्व होकर आ रही है। पके घड़े पर कुछ भी निशान डालना कठिन हो रहा है। नये परिवेश-परिवार में उनका ऐडजस्टमेंट कठिन हो रहा है। यहीं से पारिवारिक तनाव की शुरुआत हो रही है। लड़की अपने पति के साथ रहे और बहू सास-ससुर के साथ—ये ओछी मानसिकता तो बदलनी होगी।

१२) परित्यकताओं की बढ़ती संख्या का दुष्प्रभाव पुनर्विवाह का अवसर दे रहा है। विधवा-विवाह, विजातीय विवाह का चलन काफी तेजी से बढ़ रहा है। ये सब हमारी संस्कृति के बिलकुल विपरीत है। इस पर जरा गम्भीर होना होगा।

१३) नवयुवक-युवतियों का ये तर्क तो मान्य है कि जीवन उनका है। इसे स्वतन्त्रता पूर्वक जीने का अधिकार मिलना चाहिए। किन्तु स्वतन्त्रता का अर्थ स्वच्छन्दता और स्वेच्छाचार नहीं हो सकता। फिल्मी अन्दाज में ये कह कर निकल जाना कतई उचित नहीं कि प्रेम अन्धा होता है। दरअसल जिसे हम प्रेम कहते हैं, वो सिर्फ कायिक तल की वासना है और वासना की आँधी में बह कर, कुल-परम्परा की अवहेलना कर जाते हैं। प्रेम करते समय ही सोच समझ कर आगे बढ़ना चाहिए, ताकि कुल-परिवार को लज्जित न होना पड़े।

१४) कटी नाक वाला तो हर सम्भव प्रयास करेगा कि औरों की नाक भी कट जाए। वह भला क्यों सोचने जाए कि इसका समाजिक भविष्य क्या होगा ! पहले लोग काफी छानबीन करके वेटी-रोटी सम्बन्ध स्थापित करते थे। प्रायः लोगों के अपने मूल स्थान से छिटक जाने (कहीं और जा बसने) का दुष्परिणाम है कि सही जानकारी चाह कर भी मिल नहीं पाती। ये बात भी सत्य है कि आलस्य और लापरवाही वश संचार सुविधाओं के बावजूद, हम गहन जानकारी इकट्ठा भी नहीं करते। कुल-मर्यादा की रक्षा हेतु हमें सदा सतर्क रहना होगा।

१५) एक बहुत बड़ी कमी देखने को मिल रही है मग समाज में भी — संयुक्त परिवार प्रायः शरशैय्या पर है। एकल परिवार में पुरुष महीने के   उन पाँच दिनों में क्या भोजन स्वयं बनाते हैं? धर्म नहीं तो कम से कम विज्ञान ही सही—इस पुराने नियम का पालन तो हर हाल में होना ही चाहिए। अन्यथा संस्कारहीनता से हमें कोई नहीं उबार सकता।

१६) विकसित संचार सुविधा के कारण दूरस्थ बन्धुओं से भी आसानी से सम्पर्क साधा जा रहा है। इस सुविधा का यथासम्भव लाभ उठाना चाहिए। फेशबुक, वाट्सऐप आदि पर तरह-तरह के समूह बन रहे हैं—ये बड़ी अच्छी पहल है। किन्तु इनकी मर्यादाओं का भी ध्यान रखना आवश्यक है। इन मंचों का प्रयोग संघटन हेतु किया जाय, न कि विघटन हेतु। ये सही है कि हाथ की पाँचों उँगलियाँ समान नहीं होती। उनकी विसमता में ही हाथ का सौन्दर्य है। किन्तु इसका उपयोग मुट्ठी बाँधने में होना चाहिए। और मुट्ठी का प्रयोग किसी को घूसा मारने के लिए न हो। मगों का चतुर्दिक विकास हो, इसके लिए एक्तव सर्वाधिक आवश्यक है। जैसा कि प्रायः अन्य जातियों में देखने को मिलता है।

१७)राजनैतिक व्यवस्था की तरह ही हमारे संगठनों का भी  राष्ट्रीय, प्रान्तीय, मण्डलीय आदि क्रमिक स्वरुप होना चाहिए। ऐसा नहीं कि जिसे मन अपना एक मंच बना ले, अपना एक संगठन बना ले। और फिर सभी लोग सभी मंचो पर भीड़ लगाये रहें। मंच/संगठन बहुद्देश्यीय हों। उसके विभाग-अनुविभाग हों।

१८) कोष-कुर्सी-कलह से बचने की आवश्यकता है। मग एकता और विकास के मार्ग में ये सबसे बड़ा बाधक है।

१९) आर्थिक रुप से सक्षम बन्धु स्वजातियों के कल्याण के लिए विद्यालय,औषधालय आदि  का संचालन कर सकते हैं, जिसमें स्वसमाज को सहूलियत (छूठ) सहित प्राथमिकता मिले। इससे बेरोजगारी में भी कमी आयेगी।

२०) विषयानुसार सक्षम बन्धु स्थानीय स्तर पर सांस्कृतिक शिक्षण-प्रशिक्षण (कर्मकाण्ड, ज्योतिष, आयुर्वेद, योग आदि) की सेवा दे सकते हैं। सेवा-ग्रहण करने वाले बन्धु शुल्क के बजाय श्रद्धेय राशि गुरु दक्षिणा स्वरुप प्रदान करना न भूलें। इस प्रयोग का बहुत बड़ा लाभ भविष्य में समाज को मिलेगा।

२१) मगसंगठन एक स्थायी कोष का सृजन करें, जिसमें सक्षम व्यक्ति स्वेच्छादान दें। जिसका उपयोग समाज के जरुरत मन्दों को विविध सहयोग देने में हो सके। अस्तु।   

वैचारिक सुझाव कुछ और भी हो सकते हैं। 

आपके सुझावों का स्वागत है। 

संघे शक्ति कलियुगे। 

जयभास्कर।

 

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