स्वतन्त्रता का द्विजत्व
“जन्मना जायते शूद्रः संस्कार द्विज उच्यते ”— कथन
का अभिप्राय है कि जन्म से सभी शूद्र होते
हैं और संस्कार से द्विजत्व आता है । द्विज-अर्थात दूसरा जन्म यानी संस्कारित होने
को दूसरे जन्म के समान कहा गया है । उपनयन द्विजत्व की प्रक्रिया है। उपनयन का एक
अर्थ भीतरी आँख (प्रज्ञाचक्षु) भी होता
है।
यहाँ मेरा उद्देश्य ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य को द्विज कहना नहीं, वल्कि संस्कार की महत्ता को उजागर करना है । संस्कार
व्यक्ति का हो या राष्ट्र का- संस्कार तो संस्कार है। संस्कार का महत्त्व तब और
बढ़ जाता है, जब कोई संस्कृत (व्यक्ति,राष्ट्र) कालान्तर में असंस्कृत या
कुसंस्कृत हो जाए । या कहें संस्कार शनैःशनैः लुप्त होता जाए और कुसंस्कार हावी
होता चला जाए और अन्ततः संस्कारहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाए।
कोई कह सकता है कि सु-कु-अ
आदि उपसर्ग कहीं न कहीं किसी सापेक्षता की ओर संकेत कर रहे हैं। किसके सापेक्ष? किसे किस ओर रखा जाए—किसके सापेक्ष इन उपसर्गों का प्रयोग किया जाए ! कौन संस्कारी, कौन असंस्कारी —संस्कार का मापदण्ड क्या है ? सवाल तो उठेंगे न?
सुदीर्घ
संघर्ष — सन् १८५७
से १९४७ तक
के कठिन संघर्ष के बाद हमारी स्वतन्त्रता का जन्म हुआ। हमें स्वाधीनता तो मिली,
किन्तु असंस्कारित की तरह ही स्थिति बनी रही जन्म से अब तक । संविधान से लेकर संस्कृति तक—परमुखापेक्षी बने
रहे अब तक।
कहने को तो हमने अपना
संविधान बड़ी मसक्कत से बनाया, पारित किया। किन्तु क्या ये पूर्ण सत्य है?
राष्ट्र का संविधान बहुत ही
आदरणीय, माननीय और पालनीय होता है। होना ही चाहिए। किन्तु विश्व के प्रमुख
संविधानों के कतरन और अंग्रेजों द्वारा भारत पर कठोरता और बर्बरता पूर्वक नियन्त्रण
कायम रखने के लिए बनाये गए Government of India Act 1935 के कॉपी-पेस्ट को स्वाधीन भारत के नये संविधान का सम्मान देने में क्या
हमारे तत्कालीन आकाओं का दिल जरा भी न दुखा था? पदलोलुपता के
आतुर एक शख्श ने ऐसा कौन सा तीर चला दिया था, जिससे सभी राष्ट्रभक्त मूर्छित हो गए
थे? हस्तिनापुर की राजसभा के मूकदर्शकों की तरह हमारी पहली
संसद भी द्रौपदी के चीरहरण का दृश्य देखती रह गयी और माँ भारती की दोनों बाहें बड़े
सुनियोजित ढंग से काट कर रख दी गयीं। कटे बाजुओं की पीड़ा क्या कभी भुलायी जा सकती
हैं? इतना ही नहीं, रामराज्य वाले आर्यावर्त भारतवर्ष की
जनता को सम्यक् न्याय दिलाने में I.P.C. & C.R.P.C. की धाराएं कितना निष्पक्ष हैं - इसे विगत तिहत्तर
वर्षों में हम अच्छी तरह समझ-भुगत चुके हैं। जो जटिल और उलझाऊ शैली कानून लिखने
वाले को ही ठीक से समझ नहीं आया, उसे पढ़-समझ कर कोई न्यायाधीश या अधिवक्ता भला
क्या समुचित न्याय दे-दिला सकता है - सोचने वाली बात है। वस्तुतः ये कानून बने ही
इस उद्देश्य से हैं कि जूझते रहो, चक्कर लगाते रहो, न्याय व्यवस्था की चक्की में
पिसते रहो। बबूल के पेड़ के नीचे आम मिल जाने जैसे संयोग से न्याय मिल जाए कहीं,
तो फूले न समाओ और “सत्यमेव जयते” का
उद्घोष करते रहो। कानून बनाये ही ऐसे गए हैं कि जैसा जी चाहे तोड़-मरोड़ कर अपने
मत को पुष्ट कर सको। मजे की बात है कि न्याय की देवी हस्तिनापुर की पटरानी गांधारी
की तरह अपनी आँखों पर पट्टी बांध रखी हैं और सत्यमेव जयते के स्लोगन पट्टिका के
नीचे बैठे न्यायाधीश महोदय तमस और अन्धकार के प्रतीक काले परिधान में विराज रहे
हैं। ऐसे में गले में बंधा सत्व का प्रतीक छोटा सा सफेद फंदा भला कितना सत्य-साक्षात्कार
करा सकेगा ! आसपास घिरे सभासद (अधिवक्ता) भी वैसे ही परिधान
में हैं। सत्य से दूर दूर का भी वास्ता नहीं हैं यहाँ। निष्पक्ष होकर सोचें तो पता
चलेगा कि जितना अन्याय और मिथ्याचार न्यायालय में है, उतना तो मदिरालय और वेश्यालय
में भी नहीं मिलेगा। धर्मग्रन्थ की मर्यादा की धज्जियाँ उड़ाते हुए, सत्य-शपथ
पूर्वक असत्य का सेहरा बांधे बैठे होते हैं यहाँ सभी शकुनियों , दुर्योधनों और दुश्शासनों
से घिरे हुए । दुर्भाग्य से धर्म की विजय
दिलाने वाले कृष्ण भी नहीं हैं ।
स्वतन्त्रता दिवस तिरंगे
लहरा लेने, भाषण दे लेने और जलेबियाँ खा लेने भर का दिन नहीं है। वल्कि विचारने का
दिन है कि क्या हम सच में स्वतन्त्र हैं?
बहुत लोग तो स्वतन्त्रता का
अर्थ स्वच्छन्दता लगा लिए हैं, निरंकुशता मान बैठे हैं। जिसे जो चाहे बोले, जो चाहे
करे। मन हो तो प्रधानमंत्री को भी गालियाँ दे ले। मन हो तो पुलिस-प्रशासन का भी
कत्ल कर दे। मन हो तो सेना पर भी रोड़े बरसा दे। मन हो तो सेना के बलिदान का भी
प्रमाणपत्र मांगले। मन हो तो टैक्स दे, ना दे । मन हो तो खाद्य से लेकर औषध तक
मिलावट कर दे। मन हो तो भात-रोटी छोड़कर चारा-भूसा ही खा ले, मन हो मिट्टी भी खा
ले। मन हो तो सड़क जाम करदे, ट्रेन-बसों में आग लगा दे। मन हो तो ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे ’ का भी नारा बुलन्द कर
दे...।
किसी तरह कुछ भी कर-करा के, संसद
के भीतर पहुँच जाए । संविधान और कानून से खिलवाड़ करे, मनचाहा छेड़छाड़ करे। भला
कौन
रोकने वाला है !
आखिर इन सब हालातों से
मुक्ति कैसे मिलेगी, कब मिलेगी? विचारने वाली बात
है।
मेरे विचार से स्वतन्त्रता
के द्विजत्व की आवश्यकता है। और इसके लिए सर्वप्रथम कानून और संविधान में आमूलचूल
बदलाव की आवश्यकता है। हाथ में न्यायतुला हिलाती गांधारी देवी को समुद्रपार विदा
करके, धर्मराज को सिंहासनारुढ़ करने की आवश्यकता है। शकुनियों के साथ-साथ भीष्मों
और द्रोणों को भी धराशायी करने की आवश्यकता है। पितृघातक तक्षकनाग के विनाश हेतु
जनमेजय ने सर्पयज्ञ किया था। मातृद्रोही, राष्ट्रविभाजक, राजनैतिक आखेटक, आस्तीन
में छिपे सांप-सपोंलों को चुन-चुन कर नष्ट करने की आवश्यकता है। निरन्तर लुप्त
होती चली जा रही भारतीय संस्कृति को पुनर्जागरित करने की आवश्यकता है। कुकुरमुत्ते
की तरह पसरते चले जा रहे मेकाले की औलादों को खदेड़ कर, उनकी दुकानों पर कब्जा
करके, नये सिरे से गुरुकुलों की स्थापना की आवश्यकता है।
किन्तु ये सब काम पहले से भी
कहीं अधिक कठिन है। पहले वाला शत्रु प्रत्यक्षतः शत्रु स्वरुप में था। अब का शत्रु मित्र के
लिबास में है। आदतन द्विभाषिया है,फलतः यदाकदा मित्रों जैसी भाव-भाषा का प्रयोग भी
कर लेता है—विषकुम्भ पयो मुखं । सफेद गेहुमन से काला करैत ज्यादा खतरनाक
होता है। सफेद चमड़ी वाले अंग्रेज की अपेक्षा काले अंग्रेज ज्यादा खतरनाक हैं।
अतः ये सब करने के लिए फिर
से भगत,आजाद,सुभाष,गोटसे जैसे सपूत संस्कारित करने की आवश्यकता है और सत्पूत पैदा
करने के लिए स्वसंस्कारित होने की अपेक्षा है। अस्तु।
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