विजातीय गर्तोन्मुख समाज

 

      विजातीय गर्तोन्मुख समाज

            युद्धभूमि में अर्जुन को विषाद हुआ तो श्रीकृष्ण जैसे सखा-गुरु ने समाधान के समस्त द्वार खोल दिए। ये आवश्यक नहीं कि सभी सुझाव प्रत्यक्षतः धर्मोन्मुख ही हों। इसीलिए कृष्ण ने धर्म को अतिव्यापक रुप से परिभाषित और विश्लेषित किया, क्यों कि अज्ञानतावश प्रायः हम अधर्म को भी धर्म ही समझ लेते हैं। अर्जुन के साथ भी यही समस्या थी— अधर्म को ही धर्म मान बैठा था।  

            हमारे समाज की भी आज यही दुर्गति है। विडम्बना ये है कि आज श्रीकृष्ण जैसा न तो गुरु है और न अर्जुन जैसा आज्ञाकारी शिष्य और सखा ही। अतः आज की स्थिति पहले से बहुत भयावह है। आदेश तो दूर;  ज्ञान,अनुभव व सुझाव भी किसी को देना चाहें तो पचास तरह के कुतर्क करते हुए कहेगा कि आप ही इतना काबिल हैं...।

            विषाद योग में श्लोकसंख्या ३८ से ४४ तक अर्जुन ने अपनी व्यथा स्पष्ट की है— कुल के नाशसे उत्पन्न दोषको जानने वाले हमलोगों को इस महापाप से बचने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए? ” हम इसमें एक और बात जोड़ देते हैं—युगबोध की दलदलीय पगडंडी को राजमार्ग मानने पर क्यों तुले हैं?

            विजातीय सम्बन्ध छिपे रुप से पहले भी होते थे। अब खुलेआम हो रहे हैं। क्योंकि पहले भय था समाज का। अब हम निडर या कहें निर्लज्ज हो गए हैं। एक ओर सामाजिक एकता की बात करते हैं और दूसरी ओर सामाजिक मान-मर्यादाओं की धज्जियाँ उड़ाते हैं। आधुनिकता की आँधी में कुल, गोत्र, परम्परा, संस्कार सब तेजी से लुप्त होते जा रहे हैं।  

पहले विजातीय सम्बन्ध वाले लोग अपना मूल स्थान छोड़कर, कहीं दूर जा बसते थे – निन्दा-अपमान के भय से। अब उनके ही वंशज समाज में सही ठिकाना तलाश रहे हैं। अनजान   लापरवाहीवश आसानी से ठिकाना मिल भी जा रहा है।

नालियाँ भी नदी में मिल कर अपना कलेवर सहज ही बदल देती  हैं। और फिर नदी तो नदी है। ये तय कर पाना असम्भव है कि कौन सा जल-कण नाली का है और कौन सा नदी का। किन्तु ध्यान रहे वो समय ज्यादा दूर नहीं जब नदी ही अपना स्वरुप खो देगी। वरसात के दो-चार दिन छोड़कर विष्णुनगरी गया  में फल्गु की धारा का कोई अतापता नहीं होता। परन्तु अन्धश्रद्धावश लोग उससे ही आचमन कर स्वयं को धन्य मान लेते हैं।

          छूआछूत की मान्यता पहले विशेष रुप से थी । होटली सभ्यता का इतना विकास नहीं हुआ था । संयमित यात्रायें और प्रवास हुआ करते थे। सत्तू-आटा बांध कर चलते थे लोग। नियम-संयम के डोर में बंधे होते थे। बेटी-रोटी का सम्बन्ध बहुत बारीकी से छानबीन कर करते थे। किन्तु आज आँखें खोलने वाली, सबक सिखाने वाली कोरोना जैसी महामारी में भी छूआछूत की परिभाषा ठीक से समझ नहीं पा रहे हैं हम ।  खान-पान,रहन-सहन,आवास-प्रवास सब विकृत हो रहे हैं। कुछ वर्षों पूर्व खाने-पीने के लिए जाति-विचार नहीं करते थे। प्रवासीय परिस्थिति या लाचारी—कहकर, निश्चिन्त हो जाते थे।  अब वैवाहिक सम्बन्धों के लिए भी जाति-वर्ण-विचार की अनिवार्यता नहीं समझ पा रहे हैं। जो आ रहा है आने दो। जो हो रहा है होने दो...। क्योंकि आँखों के विचलन को ही प्रेम का उपहार मान बैठे हैं। ऐन्द्रिक भ्रष्टता को ही ऐश्वरिक नियति मान लिए हैं।

   सेनेटाइजेशन, कॉरेनटाइन और डी.एन.ए. का विकसित विज्ञान तब भी था, किन्तु उसका पैमाना अब जैसा स्थूल सांयन्सवादी न होकर सूक्ष्म विज्ञानवादी था। सप्तकुल और सगोत्र की बात हम समझते थे, मानते भी थे। वैवाहिक गणनाक्रम में वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रहमैत्री, गण, भकूट और नाड़ी का विचार करते थे। इसकी अपनी वैज्ञानिकता है। अपना मनोविज्ञान है। किन्तु दुःखद बात ये है कि अब हाइब्रीड कल्चर का बोलबाला है । हाइब्रीड यानी विशुद्ध वर्णसंकरता ।

            अब से कोई ५०-५५ साल पहले की बात है, एक बड़े नेता ने उच्चस्वर से सुझाया था अपनी विरादरी को सम्बोधित करते हुए— रात में भी घर के दरवाजे खुले रखो...।  ये कोई रामराज्य की घोषणा नहीं, बल्कि असुर-राज्य की परिकल्पना थी। हाइब्रीड का खुला आमन्त्रण था। ५०-५५ वर्षों में दो पीढ़ियाँ खडी हो जाती हैं। हाइव्रीड वाली दो पीढ़ियाँ खड़ी हो चुकी हैं ।

  सुनियोजित ढंग से हम गिराये जा रहे हैं। आधुनिकता के नाम पर विजातीयता के अन्धगर्त में सहर्ष छलांग लगाये जा रहे हैं। कोई ऊपर उठने की रणनीति अपना रहा है, कोई नीचे गिरने को ही विकास माने बैठा है। पहले आक्रमणकारियों द्वारा धर्म परिवर्तन कराये जाते थे। विधर्मियों द्वारा अब भी वही क्रम जारी है। तरीका थोड़ा बदला हुआ है। धन-यौवन-प्रलोभन –  जो अस्त्र जहाँ काम आ जाए, प्रयोग किया जा रहा है। और सबसे बड़ी बात ये है कि गिरने को हम स्वयं आतुर हों यदि, फिर गिराने वाले का भला क्या दोष !

अर्जुनविषादयोग की विकट घड़ी आज भी उपस्थित है। धर्म की परिभाषा फिर से समझने की जरुरत है। कुरुक्षेत्र का मैदान सजा हुआ है तथाकथित धर्मयोद्धाओं से। कौन कटेगा, कौन बचेगा—कहा नहीं जा सकता। फिर भी सोचने-विचारने की आवश्यकता तो है ही। समय है अभी भी —चेतने का। चेताने का। सोचने का। सोचवाने का। अस्तु। 

जयभास्कर।

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