स्वजातीय स्वाभिमान का सम्बल
“ पुनर्मूषिको भव
!”— एक
चुहिया और ऋषि की संस्कृत कथा का हिन्दी रुपान्तरण काफी प्रसिद्ध है— चुहिया पर
दया करके ऋषि ने क्रमशः योनि परिवर्तन करते हुए विकास पथ दिखलाया, किन्तु सबसे
महान रहने के चक्कर में, अन्ततः उसे चुहिया ही बना डाला, क्यों कि उसे कोई और योनि
रास नहीं आयी। कथा सुप्रसिद्ध है, इसलिए कथा-विस्तार में न जाकर, कथ्य की बात करता
हूँ। चुहिया के जन्मगत संस्कार ही प्रबल होकर, उसे पुनः चुहिया ही बनने रहने को
विवश किया। इसे विपरीत अर्थ में न लेकर, स्वजातीय मोह के अर्थ में लेना चाहिए।
स्वजातीय स्वाभिमान बड़ा ही
महत्त्वपूर्ण है। हालाँकि इन दोनों पदों में प्रयुक्त “स्व” का मूल भाव बहुत ही उच्चकोटि का
है, किन्तु प्रचलित भाव में अपना / निज के अर्थ में
प्रयुक्त होता है। अपनी जाति (पहचान) के प्रति
सजग रहने की सतत आवश्यकता है। जरा भी चूके
कि पीछे वाला सिर पर सवार होकर, कुचल डालेगा। बाबाधाम के भक्तों को इसका विशेष
अनुभव अवश्य होगा। कैसी दुर्दशा होती है उनकी, जो तनकर मजबूती से कतार में खड़े
नहीं रहते। कहने को तो वहाँ सभी शिवभक्त ही होते हैं, किन्तु उनमें स्वार्थ (आध्यात्मिक
अर्थ में नहीं, प्रचलित अर्थ में) का गट्ठर इतना भारी होता है कि सामने वाले को
कुचलने को सदा आतुर रहते हैं।
हर
समाज में ऐसे लोग ताक लगाये घूर रहे हैं। मौके की तलाश में हैं। अतः निरन्तर
सावधानी वरतने की जरुरत है। कब, कौन, कहाँ चूना लगा दे। धक्के देकर औंधे मुंह गिरा
दे और कंधे पर पांव धर कर स्वयं ऊपर उठ जाए।
बकरे वाली एक कहानी सुने होंगे — एक
बकरा कुएँ में गिर गया था। निकलने का उपाय नहीं सूझ रहा था। तभी एक दूसरा बकरा
वहाँ पहुँचा और पूछा— “ क्या बात है भाई ! कुएँ में कैसे गिर पड़े?” पहले वाले बकरे ने
अक्लमन्दी दिखायी— “ मूरख हो क्या ? कुएँ
में गिरा कहाँ हूँ कि पानी पीने नीचे उतरा हूँ। ऐसा पानी तो कहीं दूर-दूर तक इलाके
में नहीं है।” दूसरे बकरे ने आव देखा न ताव, चट कूद पड़ा
कुएँ में। पहला बकरा तो इसी ताक में था।
चट उसके कंधे पर सवार हुआ और छलांग लगाकर कुएँ से बाहर निकल भागा । दूसरा बकरा
मिमियाते रह गया।
यदि
आप कुलगौरव, संस्कार, स्वाभिमान खो बैठे हैं, आधुनिकता की आँधी में आँखें चकाचौंध
हो गयी हैं, तो जान लीजिये कि आपकी भी दुर्गति उस दूसरे बकरे जैसी ही होनी तय है। त्राण पाने का कोई उपाय नहीं है।
“स्व” का संज्ञान लिया नहीं कभी, जिसका
नतीजा है कि चौरासी लाख योनियों में न जाने कब से भटक रहे हैं, कब तक भटकते रहेंगे।
और नहीं तो कम से कम इस मानव-योनि का तो समादर करें। सौभाग्य से अच्छे कुल में पैदा
हुए हैं। अच्छे संस्कार रहे हैं हमारे वाप-दादाओं के। तो फिर हम भटक क्यों रहे हैं
अन्धेरे गलियारे में?
ये नहीं कहता कि विज्ञान और तकनीकि का ज्ञान न
लें। समयोचित समुचित शिक्षा तो अनिवार्य है। इसके बिना प्रगति बाधित होगी। वर्ण-व्यवस्था
के अनुसार कार्य-पालन आज के समय में कठिन ही नहीं असम्भव और अव्यावहारिक सा है। शास्त्रों ने भी स्पष्ट निर्देश दिया है
कि आपात स्थिति में क्रमशः नीचे उतरें, न कि हठात् कूद जाएं- एक दम नीचे। ब्राह्मण
लाचारी में व्यापार करना चाहते हैं तो भी चर्म, मदिरा और रस-व्यापार (लवण और अन्य
तरल पदार्थ—दूध, घी, तेल इत्यादि) का व्यापार कदापि न करें। किन्तु खटाल खोल कर
दूध बेंचने वाले बहुत से बन्धु मिल जायेंगे। किराना व्यापारी भी काफी हैं। अन्य
निकृष्ट व्यापार में भी यदाकदा लोग दीख ही जाते हैं।
ऐसा
इसलिए कि उनका सोच बदल गया है। दृष्टि बदल गयी है। अर्थ-तुला पर सबकुछ तौला-मापा
जा रहा है समाज में। देखा-देखी का बाजार गरम है। स्वाभिमान तिरोहित हो गया है।
जमाने
के साथ चलने का ये अर्थ तो नहीं कि अपनी संस्कृति को विसार दें। अपना संस्कार खो
दें। पैर तो जमीन पर रहना ही चाहिए, नज़रें भले आसमान पर टिकी हों। जड़ जितना ही गहरा
होगा, तना उतनी ही मजबूती से ऊपर उठेगा।
किन्तु
हाँ स्वाभिमान अभिमान में न बदल जाए—इसका भी ध्यान रखना होगा। और ऐसा तभी होगा, जब
संस्कार का आत्मबल होगा। आजकल ज्यादातर स्वाभिमान अपना रुप बदल कर घूम रहा है समाज
में। संस्कार और स्वजातीयता का तेज-दर्प नहीं रह गया है । बल्कि मिथ्या अहंकार ने
आ घेरा है। इस घेरे को तोड़कर, साहस और
बुद्धिमानी पूर्वक बाहर आना होगा।
अग्नि-तेज
को खोकर, राख ही शेष बचता है। सूर्य के अस्त होने पर अन्धकार का ही विकास होता है।
अतः स्वाजातीय स्वाभिमान को सही अर्थों में समझकर, संस्कारों को जीवित, जागृत रखना
होगा। अन्यथा हम कहीं के न रहेंगे। क्योंकि यही हमारा सम्बल है। यही आधार है। यही
पहचान है।
इसी प्रसंग में एक वाकया
सुनाता हूँ— डालमिया परिवार सुख्यात है । शहर में कोई कार्यक्रम हो डालमियाजी के
सहयोग के बिना अधूरा है। आए दिन प्रायः हर संस्था के लोग हाथ पसारे उनकी ड्योढ़ी
पर खड़े मिलेंगे। सप्ताह-दस दिन पर उनका फोन आता और मैं भी उनके घर पहुँच जाता—कुछ
मांगने नहीं, बल्कि कुछ देने। जब भी फुरसत
में होते पारिवारिक सत्संग हेतु मुझे आहूत करते। ऐसा नहीं कि कुछ मिलता नहीं था,
भरपूर मिलता था, किन्तु मांगने की आवश्यकता न थी। मांगना स्वभाव भी नहीं है।
पहुँचते के साथ ही सपत्निक उठ कर चरण-स्पर्श करते, कुछ फलाहार कराते और फिर लम्बा
प्रसंग छिड़ जाता — धर्म, अध्यात्म, ज्योतिष, तन्त्र, योग कुछ भी विषय । पुनः
सत्संग समाप्ति पर बाहर दरवाजे तक सपत्निक आते, चरण-स्पर्श करके विदा करते ।
ऐसे ही एक अवसर पर मैं विदा
हो रहा था। मेरा चरण-स्पर्श करके, नजरें ऊपर उठाए तो आठ-दस विप्रों की टोली सामने
हाथ जोड़े खड़ी नजर आयी। वे लोग एक समिति के लिए चन्दा उगाही में आए थे। डालमियाजी
ने बड़े नीरस भाव से कहा— “ आपलोगों की कितनी
टोलियाँ हैं? आज तीसरी बार है इस समिति के नाम पर...।”
विप्रगण हाथ जोड़े, खींसें
निपोरते हुए बोले—“जी हमलोग की समिति अलग है।”
हेय दृष्टि से उनकी ओर देखते
हुए डालमियाजी ने जेब में हाथ डाला और सौ रुपये उनकी ओर बढ़ा दिए। विप्रों ने फिर
हाथ जोड़ा और मेरी ओर ईर्ष्या-दग्ध आँखों से देखते हुए वापस चले गए।
वे प्रसन्न होकर चले गए,
किन्तु मैं इस दृश्य को देख कर आपादमस्तक तिलमिला उठा। श्रद्धावनत, दानवीर डालमिया
की निगाहें भी मुझे तप्त-शलाखों सी चुभती हुयी सी लगी और स्वयं को भी उसी पंक्ति
में खड़ा महसूस किया—हाय रे मेरी विरादरी !
उस दिन के बाद कभी उनके
दरबार में नहीं गया। एक धनाढ्य बनियें के सामने ब्राह्मणों का हाथ जोड़ना क्या
दरशाता है? जातीय स्वाभिमान और कुल-संस्कार यदि जरा भी होता तो क्या किसी ब्राह्मण
के आशीर्वाद वाले हाथ प्रणाम मुद्रा में जुड़ते ? कदापि
नहीं।
मगर अफसोस कि ऐसे अनगिनत
ब्राह्मण धनाढ्यों के द्वार पर चारणवृत्ति में लगे हुए हैं। ऐसे अनेक प्रसंग हैं,
जो मन को व्यथित करते रहे हैं । सेठों का गढ़ है कलकत्ता। अन्य महानगरियाँ भी। ब्राह्मणों
की शरणस्थली भी है यही है। कलकत्ते के ब्राह्मणों को बहुत करीब से देखने का अवसर मिला है। कुछएक अपवादों को
छोड़कर देखा जाए तो सबकी यही गति है। ऐसे विप्र-परिवार भी देखे हैं, जो सेठों के
यहाँ रसोईया और “शैरन्ध्री” बने
हुए हैं। उनके छाड़न-छूड़न कपड़े तक इस्तेमाल कर रहे हैं। एक ऐसे विप्र को भी
अच्छी तरह जानता हूँ, जो नीमतल्ला घाट पर जमावड़ा लगाये बैठे होते हैं। मोटी
दक्षिणा के लोभ में “तिलदूध” पीने
में भी शरमाते।
“चाकरी”
अपने आप में हेय कर्म है चाहे वो चपरासी हो या कलक्टर। हाथ जोड़कर “यस सर, जी साहब” कहने की लत जब एक बार लग
जाती है, तो आसानी से छूटती नहीं। और कु-जगह भी हाथ जुड़ ही जाते हैं, जैसे कुत्ते
की दुम स्वभावतः हिलने लगती है।
इसे समय की लाचारी कह कर न
टालें। अपने आप को पहचानें। अपने सोये ब्रह्मतेज को जगायें। इसी में वर्तमान और
भविष्य की भलाई है।
श्राद्धभोजन, दानग्रहण, यहाँ
तक कि किसी प्रकार का परान्न भक्षण हमारे संस्कारों को धूमिल कर देता है। धूमिल
संस्कार, शनैः-शनैः विलुप्त होते चले जाते हैं। संस्कारों की ऊष्मा तिरोहित हो
जाती है। और फिर राख ही बचा रह जाता है। वही राख अभिमान (अहंकार) का रुप ले लेता
है। स्वाभिमान और अभिमान में यही तो
सूक्ष्म अन्तर है।
भविष्य के द्वार पर नया
सबेरा स्वागत के लिए बाहें फैलाये खड़ा है । आवश्यकता है आँखें खोलकर बाहर निकलने
की। अस्तु।
जयभास्कर।
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