निज मन मुकुर सुधार
“ श्रीगुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधार ”— संत तुलसी ने गुरुजी की चरण-धूलि से रगड़-रगड़ कर अपने मन के आईने को झलकाने की बात कह कर एक बहुत ही रहस्यमयी साधना का संदेश दे दिया है।
शीशे पर पड़ी धूल को साफ करने के लिए धूल का ही प्रयोग करना चाहिए और वो धूल गुरु-चरण-रज से बढ़िया भला और क्या हो सकता है ! उद्देश्य यदि मन-मुकुर को स्वच्छ करने का हो।
ध्यान रहे ये बात किसी विशिष्ट प्रयोजन के लिए प्रयुक्त है। साधना की उच्च कोटि की गूढ़ बात की ओर संकेत है संत तुलसी का । विशेष कर उनके लिए, जिसे सही रुप में हृदयंगम करने हेतु योग और तन्त्र की गहराइयों में उतरने की योग्यता और साहस हो । सरल शब्दों में कही गयी किसी बात का वजन भी प्रायः हल्का हो जाता है सामान्य जन-बोध में। ऐसे में गूढ़ बातों का सही भाव समझना बड़ा कठिन हो जाता है।
खैर, लगता है मैं थोड़ा विषयान्तरित हो गया । क्योंकि योग-साधना-चर्चा यहाँ मेरा उद्देश्य नहीं, बल्कि सामाजिक दुर्गति पर किंचित विचार करना है।
मंच और मण्डलियों में उपस्थित होकर हम समाज-सुधार की बात करते हैं। इनमें मात्र मुट्ठीभर लोग तरह-तरह के चिन्तन करते हैं और सही सुझाव भी देते हैं। किन्तु समस्या ये है कि इन उपदेश को सुनने-समझने वाले लोग कितने गम्भीर होते हैं ! ज्यादातर लोग सिर्फ टाईमपास और मनोरंजन करते हैं । कुछ लोगों का उद्देश्य ये भी होता है कि अगले को चढ़ा दो कुछ चिकनी-चुपड़ी बातें करके, ताकि मन में छिपी कुछ बातें चालाकी से उगलवा ली जाए ।
फोड़े में नश्तर लगायेंगे तो मवाद ही निकलेगा न ? इत्र-फुलेल की कामना क्यों कर लेते हैं हम? नश्तर लगेगा तो चुभन और वेदना भी स्वाभाविक है। दर्द होगा तो चीख-चिल्लाहट भी स्वाभाविक है। समझदार रोगी और प्रबुद्ध चिकित्सक इन सब बातों को समझता है। इसके विपरीत नासमझ रोगी चिकित्सक पर ही हमला बोल देता है। रोगी के चीख-चिल्लाहट से उसके अभिभावक भी भ्रमित हो जाते हैं और चिकित्सक पर ही दोषारोपण करने लगते हैं।
खैर, लगता है मैं फिर विषयान्तरित होने लगा— समाज की बात शुरु करके चिकित्सा पर आ गया । किन्तु नहीं, मैं बिलकुल वहीं हूँ— रुग्ण समाज की चिकित्सा और रुग्ण व्यक्ति की चिकित्सा दोनों बिलकुल एक समान नहीं है। व्यक्ति की चिकित्सा अपेक्षाकृत काफी सरल है, जब कि समाज की चिकित्सा अति दुरुह ।
समाज को दो ही तरह से सुधारा जा सकता है—एक तो शिशुपाल वाली विधि से और दूसरा गीता द्वादशअध्याय वाली विधि से। वर्तमान परिस्थिति में ये दोनों विधियाँ अति दुरुह सी हैं। शिशुपाल वाली विधि के लिए कृष्ण की आवश्यकता होगी और गीता द्वादशअध्याय वाली विधि के लिए अर्जुन के वजाय विदेह जनक की।
दुर्भाग्य से आज दोनों का अभाव है।
तो क्या यूँ ही छोड़ दिया समाज को गर्तोन्मुख स्थिति में?
या समय की प्रतीक्षा की जाए?
आप भी जरा सोचिये, मैं तो सोच ही रहा हूँ।
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