विजातीयता
का दलदल
एक
थे धारीबाबा — पेशे से पुरोहित और व्यसन से पहलवान। उनकी पहलवानी तो नहीं, किन्तु लंठई
इलाके भर में प्रसिद्ध थी। फलतः कोई भलामानस उनसे मुंह लगने से परहेज करता था।
लोगों का परहेज ही उनके व्यवहार का “टौनिक”
बनता गया। जमाना आज वाला था नहीं। चार भाइयों में किसी एक के “हाड़ में हल्दी” लग जाए तो सौभाग्य की बात होती थी। ये बात दिगर
है कि सम्पन्न लोग “एक मरे तो दूसर कर”
के सिद्धान्तानुसार चार-चार बार मौर पहनकर पालकी चढ़ जाते थे। कोई-कोई तो “वंश उगाने”
के चक्कर में दर्जनों बीबियाँ बटोर लेते थे। किन्तु धारीबाबा उन सौभाग्यवानों में
न थे। जोत-जायदाद थी नहीं। जजमनिका के बदौलत चूल्हा जलता था। लगन का मौसम आते ही
बेचारे रोज सबेरे सजधज कर दरवाजे पर बैठ जाते और सूर्यास्त तक इन्तजार करते। परन्तु
लंठई का डंका इतना बज चुका था कि कोई अगुआ-बतुहार कभी दरवाजे पर न आया। दूर-दराज
का भटका हुआ कोई आ भी जाए तो गोतिया-भाई की कृपा से टिक न पाया। नतीजा ये हुआ कि
बेचारे भरी जवानी लेकर भी कुँआरे बैठे रह गए।
बगल के गांव में उनके एक मित्र थे—वहोनर
मिसिर। जमाना सतुआ-आटा बाँध कर पद-यात्रा वाला था। गरीबी से पीड़ित वहोरन मिसिर गांव
छोड़कर पश्चिम-प्रवासी हो गए थे। उन दिनों पश्चिम का मतलब अमेरिका नहीं, बल्कि संयुक्तप्रान्त
हुआ करता था, जो सुराज मिलने के बाद अपना स्वरुप भी बदल लिया। गोंडा-वहराइच को लोग
पश्चिम और पलामू को दक्खिन कहते थे। ज्यादातर पंडीजी लोग उधर ही जाते थे रोजगार की
तलाश में। साल-दो साल में घूमघाम कर, कुछ लपेट-बटोर कर घर भी आ जाते । इतने समय तक
वे बालब्रह्मचारी बने रहते । ब्रह्मचर्य-साधन कितना कठिन और दुःखदायी है, इसके
बावत भला क्या कहना-समझाना ! न समझ आवे तो किसी
सद्यःविधुर से जान लेना चाहिए। ब्रह्मचर्य जब खलबलाने लगता तो बेचारे बहुत बेचैन
हो जाते। ऐसी ही एक बेचैनी में एक डोमनी से परिचय हो गया। फोर-फुसलाकर उसे अपने
ठिकाने पर ले आए। किन्तु डोमनी में उतनी साहस न थी, जो पंडितजी के साथ उस छोटे से
शहर में सीना तान कर टिकी रह सके। नतीजन, उसे लेकर अपने गांव आना पड़ा।
बहोरन मिसिर ने खूब सिखा-पढ़ा दिया था,
किन्तु जातीय संस्कार आँखिर इतनी आसानी से जाने वाली चीज तो है नहीं। अतः सुरक्षा
के ख्याल से आस-पड़ोस का आना-जाना बन्द करा दिया। समय पर बाल-बच्चे भी पैदा हुए।
मिसिर जी का घर भर गया।
एक दिन शनि की साढ़ेसाती की तरह, मिट्टी
सूंघते उस डोमनी के परिवार वाले आ धमके दरवाजे पर और सारा मामला पानी में किये गए
पखाने की तरह ऊपर छलक पड़ा। मिसिरजी जान बचाकर भागे। डोमनी के परिजन उसे जबरन ले
ले गए।
मिसिरजी
सिर झुकाये, मुंह लुकाये गांव में ही जिन्दगी गुज़ारने लगे। किन्तु वच्चों का
लालन-पालन जी-जान से किए। बच्चे वाकई बड़े आदमी हो गए। सूरत कमाने निकल गए और नयी सूरत
बना करके, धीरे-धीरे समाज की मुख्य धारा में समाहित होते गए। चुन-चुनकर शुद्ध
परिवारों को मोहरा बनाये। नयी समृद्धि ने पुराने मैल को ढक दिया।
काना
भला कब चाहे कि और लोग की दोनों आँखें सलामत रहें ! उसी वहोरन
मिसिर ने हिम्मत बढ़ाया धारीबाबा का भी और एक दिन भरी दोपहरी में पड़ोसी गांव से
दो बच्चों की माँ, कोइरिन जजमानिन को उठा लाए और फिर सीना तान कर घर में ठाट से
रहने लगे। समय पर दो वेटे हुए धारीबाबा के। बड़े होने पर वेटों ने भी जुगाड़
लगाया- एक ने मालिन, एक ने गड़ेरिन उठा लाया और बेशरमी पूर्वक गांव में रहने लगे।
गोत्र-विरादर नाक-भौं सिकोड़ते अपने में सिमटे रहे। किसी ने खुल कर विरोध न किया।
और
फिर आगे धारीबाबा का भरापूरा मायाजाल में निपुण परिवार विजातीयता का चिड़ियाखाना
बन गया, जहाँ सभी जातियों को शरण मिलने लगा। खुलेआम सिलसिला शुरु हो गया है विजातीयता
से सजातीयता के सफर का। दूर-दराज निकलकर, बम्बई-कलकत्ता-सूरत कमाकर लौटे होनहार
वेटे धड़ल्ले से अच्छे खानदानों में परिछाने लगे। दो पीढ़ी में ही सब कुछ बदल गया।
मगध, भोजपुर,पलामू के कितने ही सुसंस्कृत लोग फंसते गए इनकी जाल में।
आज
की तारीख में ये तय कर पाना कठिन है कि किसे शुद्ध, किसे अशुद्ध (मिश्रित) पौध कहा
जाए। इन लोगों ने ही एक बहुत बड़े समुदाय को भ्रष्ट किया। ज़ाहिर है ऐसे धारी और
वहोरन बहुत हुए होंगे ।
पौराणिक
प्रसंगों के जानकार विविध घटनाओं से परिचित होंगे कि कुछ विशेष अपराधों में
मृत्युदण्ड न देकर, “देश-निकाला”
दे दिया जाता था सुदूर टापुओं पर। लम्बे समय से आर्यावर्त के बाहर विभिन्न टापुओं
पर ऐसे ही कुकर्मी और भ्रष्ट जन इकट्ठे होते गए और स्थानीय जनजातियों को परास्त
करके, अपना स्वतन्त्र साम्राज्य कायम कर लिए। आज एशिया से बाहर विभिन्न समृद्ध देश
लगभग उसी श्रेणी के त्याज्य जनसमूह हैं। पुराणों में समुद्र-लंघन को प्रायश्चित
कर्म के अन्तर्गत रखा गया है, किन्तु आज समुद्र-लंघन य़श, सौभाग्य और समृद्धि का
विषय बना हुआ है।
ऐसे
में समझ नहीं आता क्या होगा समाज का। शुद्धाशुद्ध का विचार कैसे किया जाए—किसे
स्वीकारा जाए, किसे त्यागा जाए ! पहले लोग इन बातों
को गाँठ बाँध कर रखते थे। नयी पीढ़ी को दोहे-चौपाई-कवित्त में कुल-चरित रटाते थे। आसानी
से फँसते नहीं थे। फँसाने वाले को बहुत तिकड़म करना पड़ता था। किन्तु आज स्थिति
बिलकुल बदल गयी है। विशेष छानबीन करना, पुराना पंथी माना जाता है। कुलीनता पर
शिक्षा और समृद्धि का मुल्लम्मा चढ़ गया है। हम चिकनी चमड़ी देखते हैं। चमकीले
कपड़े देखते हैं। भड़कदार भवन देखते हैं। ऊँची कुर्सी देखते हैं। डी.एन.ए.
की जाँच-पड़ताल के पचरे में पड़ना जरुरी ही नहीं समझते। नवधनाढ्य धन से ढक लेते
हैं अपनी कुल-भ्रष्टता को । और इस प्रकार विजातीयता के पंक में हम आकंठ धँसते जा
रहे हैं। निकलने का सही रास्ता सूझ नहीं रहा है।
एक
धृतराष्ट्र के पुत्रमोह ने अनेक महान प्रतिभाओं का नाश करा दिया भारतवर्ष से। आज
चारों ओर धृतराष्ट्रों की भरमार है। हिम्मत
नहीं जुटा पाते कुल कलंक पुत्रों के त्याग का, जिसका दण्ड पूरे समाज को भोगना पड़
रहा है।
जागो
मेरे भाईयों
! जागो ! कुकर्मियों का ये साम्राज्य-विस्तार
तुम्हें निगल जाने को आतुर है। जयभास्कर।
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