संस्कृत से
संस्कृति की ओर
श्रावण पूर्णिमा (श्रावणी) रक्षाबन्धन
के नाम से जाना जाता है। वर्तमान समय में ये विशुद्धरुप से मात्र भाई-बहन का
त्योहार बन कर रह गया है, जबकि भारतीय संस्कृति में इसका किंचित विशिष्ट स्थान है।
सन् १९६९ में भारत सरकार के
शिक्षा मन्त्रालय ने इसे संस्कृतदिवस के रुप में घोषित करते हुए, केन्द्र
तथा राज्य सरकारों सहित सभी शिक्षण संस्थानों को आदेश दिया कि संस्कृति के
जनक-वाहक, ऋषि परम्परा की अभिव्यक्ति की वाहिका— संस्कृतभाषा के प्रति आभार
व्यक्त करते हुए इसे समारोह पूर्वक मनाया जाए।
यों तो पर्व, त्योहार, उत्सव,
समारोह बहुल भारतीय संस्कृति में नित्यप्रति कोई न कोई कल्याणकारी कर्म विहित है; जिसमें सभी वर्णों की सहभागिता रहती है, रहनी भी चाहिए। सांस्कृतिक
वर्णव्यवस्था में चारो वर्णों के लिए एक-एक विशेष त्योहार का प्रावधान है। यानी
सभी त्योहारों में सभी वर्णों की भागीदारी
तो है ही, किन्तु चार विशेष त्योहारों को विशेष श्रेणी में रखा गया है। यथा—ब्राह्मणों
के लिए श्रावणी, क्षत्रियों के लिए दशहरा, वैश्यों के लिए दीपावली एवं शूद्रों के
लिए होली।
इस श्रावणी को त्योहार न
कहकर, “
पर्व ” कहना अधिक उचित है। पर्व
यानी किंचित विशिष्ट कर्म। हमारे शास्त्रों में श्रावणीकर्म को “ उपाकर्म ” भी कहा गया है। इसकी विस्तृत-विशिष्ट
पद्धति है। इस दिन के विशेष कृत्य हैं, खास कर ब्राह्मणों के लिए, जिसे वर्तमान
समय में बिलकुल विसार दिया गया है।
प्रातः नित्यकर्म के
अतिरिक्त विशेष विधान से पितृतर्पण किया जाता है, जो अन्यान्य पितृ-तर्पणों से
किंचित भिन्न होता है। तत्पश्चात् वर्ष भर के लिए यज्ञोपवीत तैयार करके, प्राणप्रतिष्ठा
सहित पूजन का विधान है। यज्ञोपवीत पूजनक्रम में अपने नाम, गोत्र, ऋषि, प्रवर, वेद,
उपवेद, शाखा, शिखा, पाद, सूत्रादि का स्मरण किया जाता है। चूँकि ब्राह्मणों में भी
अनेक परम्पराएं हैं। अतः अपनी कुल परम्परानुसार विष्ण्वादि पंचदेवों की (पंचायतन
पूजा) करने का विधान है। पूरी प्रक्रिया लगभग तीन-चार घंटे से अधिक की है। इस
प्रकार इस महान पर्व के दिन हम एक ओर अपनी संस्कृति का स्मरण करते हैं, तो दूसरी ओर
ऋषि-महर्षियों, पूर्वजों के प्रति आभार प्रकट करते हुए, उनका आशीष ग्रहण करते हैं।
वर्ष भर में किए गये अपने ज्ञाताज्ञात कर्मों का समर्पण करके, उनसे क्षमायाचना करते हैं। ध्यातव्य है हमारा कर्म ही सबसे बड़ा
बन्धन है, जो मोक्षमार्ग में बाधक है। शुभाशुभ समस्त कर्मो का क्षय (विलोप) ही
मुक्ति का एकमात्र रास्ता है। इसके लिए श्रावण शुक्ल पूर्णिमा ही सर्वाधिक प्रशस्त
तिथि है।
चूँकि हमारी परम्परागत सारे
ज्ञान-विज्ञान मूलतः देवभाषा संस्कृत में व्यक्त हैं, अतः संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन,
मनन-चिन्तन अत्यावश्यक है। अज्ञानवश हम इस देवभाषा की अवहेलना कर रहे हैं, जो बड़े
दुःख और चिन्ता का विषय है।
वर्तमान समय में अन्तरिक्ष
विज्ञान और गणकविज्ञान(कम्प्यूटरसांयन्स) का युग है। ये बात बहुत कम लोग ही जानते
हैं कि कम्प्यूटर का आधार प्रोग्रामिंग है और प्रोग्रामिंग के लिए संस्कृत भाषा की
देवनागरी लिपि सर्वोत्तम है। ज्ञातव्य है कि देवनागरी लिपि के अकारादि वर्णों को “ अक्षर ” कहा जाता है, यानी इनका क्षय कभी
नहीं होता। फलतः ये सदा-सर्वदा व सर्वत्र विद्यमान रहते हैं। यही कारण है पृथ्वी
से सुदूर अन्तरिक्ष में प्रेषित करने पर भी इनके मूल स्वरुपों में रत्ती भर भी
परिवर्तन नहीं होता।
मोबाइल और कम्प्यूटर के उपयोगकर्ता
ये अच्छी तरह जानते हैं कि आप जिस फॉन्ट का प्रयोग करते हैं, वह किसी अन्य डिवाइस में जाकर गडमड (उथलपुथल)
हो जाता है और विचित्र आकृतियों में दिखने लगता है, यदि आपके डिवाइस में हू-ब-हू
वही फॉन्ट उपलब्ध न हो या फिर उस खास फॉन्ट में आपको परिवर्तन करना पड़ता है।
इस समस्या के समाधान के लिए विशेषतौर
पर जर्मन वैज्ञानिकों ने काफी अनुसंधान किया है। अन्ततः अमेरिकी अन्तरिक्ष
अनुसन्धान केन्द्र - नासा ने सप्रमाण पुष्ट किया है कि संस्कृतभाषा की देवनागरी लिपि
सर्वश्रेष्ठ है। विविध देशों में इस विषय पर शोध निरन्तर जारी है। आने वाला समय
भारतीय संस्कृति का अनुग्राही होने को विवश है, भले ही हम अपनी संस्कृति और भाषा
को पुरानी और अनुपयोगी सिद्ध करने पर तुले हों । वर्तमान को देखते हुए और भविष्य
का विचार करते हुए, हमें इन बातों को विवश होकर स्वीकारना पड़ेगा — इसमें कोई दो
राय नहीं।
सन् २०२०
विश्वव्यापी संकट का वर्ष रहा है। वड़े-बड़े शूरमाओं के दाँत खट्टे हो रहे हैं। जरा
गौर करें—क्या हम उन्हीं सिद्धान्तों और नियमों की उच्चस्वर से घोषणा नहीं कर रहे
हैं, जिनके बारे में हमारी संस्कृति सदियों से कहते आ रही है !
सोशल डिस्टेंसिंग, साफ-सफाई, एकान्त सेवन, सात्विक व ताजा भोजन, शुद्ध
आचरण, पारम्परिक चिकित्सा का अनुकरण व अनुसरण—क्या ये सब आसमान से टपके हैं या कि
हमारी संस्कृति में रसे-वसे हैं ! जिस छूआछूत को हमारे “वोटभूखू ” नेता “मनुवादी” दूषित प्रवृति कह कर, मूल सिद्धान्तों
और तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रचारित करते रहे हैं, क्या आज आप उन्हीं बातों को
दूसरे शब्दों में व्याख्यायित करके, अंगीकार करने की अनुशंसा नहीं कर रहे हैं?
अतः आँख-कान खोल कर, दुराग्रह-पूर्वाग्रह
से मुक्त होकर, संस्कृत को समझें, संस्कृति को जानें। इसी में हमारी भलाई है। अस्तु।
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