दिखावे में
है दम :: मगसमाज क्यों कम
(नोट-- ये आलेख खासकर शाकद्वीपीयसमाज(मग)पर लिखा गया है,किन्तु मगसमाज शब्द को निकाल दें और "हम क्यों कम" कर दें, तो पूरे समाज के लिए आलेख की सार्थकता सिद्ध होगी)
(नोट-- ये आलेख खासकर शाकद्वीपीयसमाज(मग)पर लिखा गया है,किन्तु मगसमाज शब्द को निकाल दें और "हम क्यों कम" कर दें, तो पूरे समाज के लिए आलेख की सार्थकता सिद्ध होगी)
दिखावे में दम है, ये तो
मानना पड़ेगा। मेरे गांव में एक महानुभाव थे, जो रुखी रोटी खाकर भी बाहर निकलते, तो
मूंछ में घी लगाकर और बातें करते तो बिलकुल मुंह सटाकर, ताकि शुद्ध घी की खुशबू
सामने वाले को पूछने पर विवश कर दे।
दिखावा एक मनोविकार है। एक अति
संक्रामक विकार, जो आँखों के माध्यम से भीतर घुसकर, मन को संक्रमित करती है। धीरे-धीरे
आदमी इसके गिरफ़्त में आता जाता है।
दार्शनिक अन्दाज़ में कहूँ
तो कह सकता हूँ कि रुप तन्मात्रा आँखों के
माध्यम से अभिव्यक्त होती है। इन्द्रियों के माध्यम से भीतर आने वाली वृत्तियों
में सर्वाधिक योगदान आँखों का ही है। इनका सीधा प्रभाव मन-मस्तिष्क पर पड़ता है।
सौन्दर्य बहुत आकर्षित-प्रभावित करता है मनुष्य को। इसीलिए इसका प्रदर्शन भी सर्वाधिक
होता है।
शौर्य और ऐश्वर्य ही नहीं, ज्ञान
का दिखावा भी खूब होता है। किन्तु अर्थप्रधान युग में दिखावे का केन्द्र धन-दौलत बन
गया है। बड़प्पन का पैमाना दौलत बन गया है। किन्तु धन में एक बहुत बड़ा दोष है—इसकी
पाट बड़ी उथली है। थोड़ा भी धन संचित हुआ कि क्षुद्र नदी की तरह उफनने लगता है। धन
के बदौलत इन्सान सब कुछ प्राप्त करने की चेष्टा करता है। आज के युग में काफी हद तक
सफल भी हो जाता है। अपवाद स्वरुप, मनस्वी अन्तर्मुखी विद्वानों को छोड़ कर, बाकी
को तो अंगूठाछाप भी धन के बदौलत मुट्ठी में कर ही लेता है। विज्ञान-तकनीक,
न्याय-व्यवस्था...सबको अपने कदमों में झुका लेता है। यहाँ तक कि उनके दुरुपयोग से
भी बाज नहीं आता। अर्थलोलुप विकाऊ मानसिकता विवशता का दास होकर रह जाती है।
वर्णव्यवस्था के नियमानुसार
विप्र की विशेषता विद्या-ज्ञान, धर्म अनुशासनादि में है। क्षत्रिय की विशेषता है
शौर्य और वैश्य की विशेषता है वैभव में । किन्तु युगप्रभाव कहें या कुछ और ये सारा
नियम गडमड हो गया है। वर्णव्यवस्था के अनुसार विहित कर्म बिलकुल पीछे छूट गये हैं। ये सही है कि
गीता की कर्म-मीमांशा के अनुसार पठन-पाठन,यजन-याजन, पौरोहित्यादि मात्र से आज के
ब्राह्मण का जीवनयापन कदापि नहीं हो सकता। क्षत्रिय समुदाय सेना, पुलिस-प्रशासन तक
ही नहीं ठहर सकते। वैश्य केवल वाणिज्य-व्यापार से सन्तुष्ट नहीं रह सकता। शूद्र को
सिर्फ सेवा तक ही सीमित नहीं किया जा सकता। और अब तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था में
सबको समानता का अधिकार मिल गया है। पांचों उँगलियों को बराबर करने की उद्दाम चेष्टा
है ये ।
टैक्स चुकाने के समय भले ही हम
अपनी आय का सही लेखा-जोखा न दें, किन्तु शादी-विवाहादि तथा मकान बनाने में तो पूरी
औकात दिखा देते हैं। ईंच-ईंच में मार्बल-टाईल्स, पुट्टी-पेन्टिंग से नीचे का
डेकोरेशन ही नहीं भाता। ड्राईंगरुम को अनावश्यक आकर्षक वस्तुओं से सजाना, फिज़ूल
की मॉल-मार्केटिंग करना आदि दिखावे के और भी बहुत से तरीके अपनाते हैं हम । इसके
पीछे सबसे बड़ी मानसिकता होती है— सामने वाले को हीन बनाना, नीचा दिखाना वो भी बिना
शब्द-तुणीर के। मजे की बात ये है कि देखने वाला भी इस चोखे तीर से बिलकुल धराशायी
हो जाता है। यहाँ तक कि वेसुधी में खुद की हैसियत भी भूल जाता है और आँख मूंद कर
योजनायें बनाने लगता है अपने से नीचे वाले का शिकार करने की।
शादी-समारोहों का अकूत
प्रदर्शन सामाजिक विकृति की हद तक पहुँच गया है। एक ओर हम दहेज-प्रथा को दोष देते
हैं, तो दूसरी ओर फिज़ूलखर्ची के कटीले बाढ़ को गुलाबजल से सींचते हैं। सचपूछें तो
वास्तविक और अनिवार्य वैवाहिक खर्च ही कितना है? गहराई से
विचारें तो 75% व्यय व्यर्थ का होता है। दिखावे की प्रवृति
या कहें विकृति को नियन्त्रित करने की साहस नहीं संजोते और समाज या कि जमाने को
दोष देने लगते हैं। हम इस उम्मीद से भीड़ बटोरते हैं, वैभव-प्रदर्शन करते हैं कि मेरा
समारोह यादगार बनेगा, समाज में चर्चा होगी; किन्तु इस बात पर
गौर नहीं करते कि निमन्त्रित गण लिफाफा थमाये, डीनर किये, मुंहपर थोडी बड़ाई किए
और फिर बाहर निकलकर हँसते हुए टिप्पणी किए—धनपशु अपनी औकात दिखा रहा है...। आपका
समारोह कभी शिलालेख नहीं बनता—इसे याद रखें।
अपने धन के नशे में हम ये भूल
जाते हैं कि हमारा दिखावा, किसी और के लिए जहर बन रहा है। सबसे दुखदायी बात तो ये
है कि वेटे के विवाह में कन्या-पक्ष का अमानुषी दोहन करके, बिन कमायी के उस पैसे
को पानी की तरह बहाते हैं। हैसियत तो आपकी तब देखें जब बिना दोहन किए, अपने बैंकवैलेंश
को ढीला करके खर्च करें। किन्तु ऐसा होता कहाँ है !
सामाजिक कोढ़ और दहेजदानव का
रोना रोते हैं—तभी तक जबतक वेटी के वाप होते हैं। वेटे की बारी आते ही स्वर बदल
जाते हैं— एकदम नेताओं वाले अन्दाज में। सामाजिक मंच पर दिए गए भाषणों और किए गए
वायदों का भी ध्यान नहीं रहता। ये ठीक है कि दहेज देने वाले और लेने वाले दोनों ही
सामाजिक प्राणी है, किन्तु समाज और मानवता का नियम क्या कहता है? वस्तुतः नियम ये था कि दो परिवार मिलकर तीसरे(नये) परिवार के गठन की
सांगोपांग समुचित व्यवस्था करें । किन्तु आज ये सोच ही बदल गया है। पूरी जिम्मेवारी
कन्यापक्ष का कर्त्तव्य मान लिया गया है। कन्या का पर्याय बन गया—दुहिता।
हृदय से यदि सामाजिक बदलाव
चाहते हैं, तो शोषण और प्रदर्शन की प्रवृत्ति को तिलांजलि देकर, हिम्मत पूर्वक आगे
बढ़ने की आवश्यकता है। पहले स्वयं पर प्रयोग करने की आवश्यकता है। टीका-टिप्पणी
करने वाले थोड़ा-बहुत अपने जुबान की खुजली मिटायेंगे, फिर खुद-व-खुद शान्त-शिथिल
हो जायेंगे।
इसके लिए क्रमिक रुप से सामाजिक
क्रान्ति की आवश्यकता है। आरजू-विनती करनी होगी। घेराव करना होगा। दहेज लेने वाले
का सामाजिक वहिष्कार करना होगा। दहेज देने वाले को भी वौद्धिक बल देना होगा। कुछ
और भी करना पड़ सकता है।
वर-कन्या-वस्त्रालंकार, भोजन,
आवासन, स्वागत, विदाई आदि अत्यावश्यक खर्चों की बात नहीं कर रहा हूँ। वो तो करना
ही है, किन्तु फिजूलखर्जी पर धारदार नश्तर चलाना होगा।
ऐसे साहसी प्रयोदवादी को
भलीभाँति जानता हूँ, जो अपने इकलौते पुत्र के विवाह में वर सहित मात्र ग्यारह
लोगों की बारात ले कर गया था। ऐसा नवयुवक डॉक्टर भी देखा हूँ, जिसने कन्या और कन्या
पक्ष से आशीर्वाद के अतिरिक्त कुछ भी लिया हो। ऐसे लुच्चे को भी जानता हूँ, जो
पचास का वादा करके, तीन सौ बारात लेकर आया था। मिल्की वाइट, सुराहीदार गर्दन के
साथ मोटी रकम लेकर आने वाली बहू की तलाश में पैंतालिस वर्षीय गेंडेनुमा वेटे की तनहाई
भी देखा हूँ। गूंगे-बहरे वेटे के लिए धनपशु के आँगन में गरीब की सर्वांग सुन्दरी
वेटी को घूंघट में उतरते हुए भी देखा हूँ। दरवाजे पर “ओहार” लगाये, पेट्रोल की आश में तीन टांगों पर खड़ी
दहेजुआ गाड़ियों को भी देखा हूँ। आधीरात को मेरा हाथी पगला गया है, इसके इलाज के
लिए अभी के अभी एक किलो कपूर चाहिए — ऐसा हठीला समधी भी देखा हूँ। ऐसी बारात भी देखा
हूँ, जिसमें वरमाला के समय दूल्हा-दुल्हन की “
स्पेशलैंडिंग ” करायी
गयी थी । विवाह का खर्च करोड़ों में था। ऐसी बारात को देख कर भला किस लड़के-लड़की
की इच्छा नहीं होगी कि मेरी भी स्पेशलैंडिंग हो ।
मैं नेता-अभिनेता की बात
नहीं कर रहा हूँ। किसी डॉन की भी बात नहीं कर रहा हूँ। बात कर रहा हूँ समाज के आम
व्यक्तियों की जो खास बनने के चक्कर में सामाजिक जहर घोल रहे हैं। “ हैव-हैवनॉट” की खाई की गहराई और चौड़ाई बढ़ा रहे
हैं।
सौभाग्य से आयी लक्ष्मी का दम्भ-प्रदर्शन
के अतिरिक्त कुछ और भी उपयोग हो सकता है—यदि आप चाहें।
अत्यन्त चिन्ता की बात है कि
हमारा मगसमाज भी देखा-देखी- दिखावे के चक्कर में, तीव्रगति से वणिक-प्रदर्शन में निरन्तर
औंधेमुंह गिरता जा रहा है। इसका त्वरित निवारण करना होगा, अन्यथा हम कहीं के न
रहेंगे । अस्तु।
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