श्री कृष्ण जन्माष्टमी विमर्श

 

                                   श्रीकृष्णजन्माष्टमी विमर्श

कौन सा रास्ता सुगम, सरल और निरापद है—ये विचार करने की सहज मानवी प्रवृत्ति है। पथ अनेक हों यदि तो पथिक को कठिनाई होगी ही निर्णय करने में ।

मत-मतान्तर की स्थिति में किसी निर्णय पर पहुँचना और भी कठिन हो जाता है।  कविवर वच्चन ने बड़ी ही रोचक शैली में कहा है—

अलग-अलग पथ बतलाते सब,

पर मैं यह बतलाता हूँ,

राह पकड़ तू एक चलाचल,

पा जायेगा मधुशाला ।

किन्तु किसी एक रास्ते पर आँखें मूँद कर चल पड़ने की साहस हर व्यक्ति में कहाँ होती है ! ध्यातव्य है कि वच्चनजी का इशारा किसी शराबखाने की ओर न होकर, सर्वश्रेष्ठ मदिरा—आनन्द-मदिरा—मोक्ष-प्राप्ति की ओर है। भारतीय संस्कृति में व्रतादि का मूल उद्देश्य भी कुछ ऐसा ही है—सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए, हम निरन्तर मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होते जाएं 

मतान्तरों से व्रत-त्योहारादि भी अछूते नहीं हैं । सहज-स्वभाववश हम हर सम्भव जानकारों से पूछताछ करते हैं। ऐसा नहीं कि किसी एक विश्वस्त पुरोहित-आयार्य से पूछकर सन्तुष्ट हो जाए। चूँकि प्रायः जानकारियाँ निःशुल्क प्राप्त हो जाती है, इसलिए पूछनेवालों की संख्या भी अधिक होती है। बताने वाले भी अनेक हैं।

स्वाभाविक है कि बताने वाला अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर ही अपनी राय व्यक्त करता है। पुराने समय में भी ऋषियों के बीच काफी मतान्तर रहे हैं, तो फिर वर्तमान में आचार्यों के बीच क्यों न रहे !

आए दिन व्रत-त्योहारों के निर्णय में काफी उलझन पैदा हो जाती है। विशेष प्रचलित सामाजिक व्रतों में तो और भी उलझन देखते हैं। महिलाओं का प्रिय व्रत हरितालिका (तीज), जिउतिया, करमा एकादशी, भैयादूज इत्यादि व्रत-निर्णय हर वर्ष विशेष उलझन पैदा करते हैं। लोकप्रिय व्रत श्रीकृष्ण जन्माष्टमी भी इनमें  एक है।

श्रीकृष्णजन्माष्टी कब-कैसे मनाए और व्रत का पारण कब करें—इन बातों पर हर साल सवाल उठते हैं। उलझन न हो तो भी प्रायः उलझन पैदा कर दिया जाता है। अतः इस विषय में संक्षेप में यहाँ कुछ स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ।

            प्रायः पञ्चांगों में भी काफी कुछ बातें लिखी हुई मिल जाती हैं। आवश्यकता है, ऋषि-वाक्यों पर विवेक पूर्वक विचार करते हुए, सामान्य जन को जानकारी देना, न कि उलझनें पैदा कर देना।

            सर्वविदित है कि श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रमास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को बिलकुल आधी रात में हुयी थी। इस समय को निशीथकाल भी कहते हैं।  योगशास्त्रों में इसे तुरीयकाल कहा जाता है। द्वापर युग में श्रीकृष्ण के जन्म के समय भाद्र कृष्ण अष्टमी तिथि को चन्द्र विचार से रोहिणी नक्षत्र उदित हो रहा था। दिन बुधवार था। ऐसे में निश्चित है कि इन्हीं शुभयोगों में उनका जन्मोत्सव मनाना चाहिए।

            प्रश्न है कि मास, पक्ष, तिथि, नक्षत्र ,दिन और निशीथकाल—इन पाँच में हम किसे अधिक महत्व दें । चूँकि ये निश्चित है कि सबका संयोग सब कालों में कदापि नहीं मिल सकता । कलिकाल के प्रभाव से सभी मुहूर्त और योग प्रायः शनैः-शनैः लुप्त होते जा रहे हैं। संयोग जुट जाए तो समझिये की ईश्वर की बड़ी कृपा हुई है।

सम्यक् मुहूर्त-काल आदि के अभाव में ये विचार का विषय हो जाता है कि क्या किया जाए। अपना विचार देने से पहले, इस सम्बन्ध में ऋषिमत पर एक दृष्टि डाल लें—     

अष्टमी कृष्णपक्षस्य  रोहिणीभसमन्विता ।

भवेत्प्रौष्ठपदे मासि जयन्ती नाम सा स्मृता ।। ।।

रोहिण्यामर्द्धरात्रे तु सदा कृष्णाष्टमी भवेत् ।

तस्यामभ्यर्चनं शौरेहन्ति पापं त्रिजन्मजम् ।। ।।

समायोगे तु रोहिण्यां निशीथे राजसत्तमम्।

समजायत गोविन्दो बालरुपी चतुर्भुजः ।। ।।

अष्टमीरोहिणी युक्ता निश्चर्द्धै यदि दृश्यते।

मुख्यकाल इति ख्यातस्तत्र जातो हरिः स्वयम्।। ।।

रोहिणी च यदा कृष्णपक्षेष्टम्यां द्विजोतम्।

जयन्ती नाम सा प्रोक्ता सर्वपाप हरा तिथिः।। ।।

          स्पष्ट है बुधवार दिन की बात उक्त किसी श्लोक में नहीं की जा रही है, किन्तु तिथि, नक्षत्र और काल पर बल दिया जा रहा है। ध्यातव्य है कि एकादशी व्रत की तरह यहाँ गत तिथि (दशमी) वेध की बात यहाँ बिलकुल नहीं की जा रही है। गत और आगत की सन्धि तो कहीं न कहीं होगी ही। तिथि के भोगकाल का विचार करने पर हम पाते हैं कि कुछ तिथियों को सूर्योदय-व्याप्ति का लाभ मिलता है, कुछ को नहीं। कुछ विद्वानों का मत है कि जिस तिथि को सूर्योदय का बल नहीं मिलता, वह बलहीन है। किन्तु सभी जगह ये बात मान्य नहीं है। जयन्ती मनाने के क्रम में स्पष्ट शास्त्र-संकेत है कि जन्मकाल में तिथि की उपस्थिति अनिवार्य है। जैसे श्रीराम का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी तिथि को दिन के बारह बजे (मध्याह्न काल) में हुआ है, अतः रामनवमी का जन्मोत्सव उसी दिन मनायेंगे, जिस दिन मध्याह्न में नवमी तिथि उपलब्ध हो। ठीक इसी भाँति श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव अष्टमी उसी दिन मनायेंगे जिस दिन पर्याप्त अष्टमी तिथि हो। यानी आधी रात को अष्टमी तिथि की उपस्थिति महत्वपूर्ण है। भले ही उस दिन सूर्योदय काल में, या उसके बाद तक सप्तमी तिथि का भोग चल रहा हो। स्पष्ट है कि रात ग्यारह बजकर पचपन मिनट तक भी यदि सप्तमी तिथि का भोग हो तो भी उसी दिन जन्माष्टमी मनायेंगे, क्यों कि मुख्यकाल –- रात बारह बजे अष्टमी तिथि का प्रवेश हो जा रहा है।   

सूर्योदय-भोग्या तिथि की महत्ता पर जोर देने वाले विद्वान अगले दिन व्रत करने की राय देते हैं, जो मेरे विचार से उचित नहीं है। क्योंकि जन्मोत्सव हेतु तत्कालव्यापिनी तिथि-भोग की ही प्रधानता है, न कि सूर्योदय से इसका सम्बन्ध है।

          अब रही बात नक्षत्र की। श्रीराम के जन्मोत्सव में तिथि (पुनर्वसु) की उतनी प्रधानता का प्रचलन नहीं है, क्योंकि वासन्तिक नवरात्र का अन्तिम दिन हुआ करता है—रामनवमी का जन्मोत्सव। किन्तु श्रीकृष्ण जन्मोत्सव के लिए इनके जन्म नक्षत्र रोहिणी पर विद्वानों का (वैष्णव सम्प्रदाय विशेष) में काफी जोर है।

          ऐसा बहुत कम ही मिलता है कि निशीथ व्यापिनी अष्टमी के साथ रोहिणी नक्षत्र का संयोग मिल जाए। नक्षत्र विचार में भी फिर उदयकालिक अथवा निशीथकालिक का प्रश्न उठता है। सूर्योदय-बल का सवाल पैदा होता है। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि एक-दो दिन बाद रोहिणी का संयोग मिलता है अर्द्धरात्रि में। किन्तु अपने मत पर दृढ़ निश्चयी साधु समाज रोहिणी मिलने पर ही जन्मोत्सव मनाते हैं।

          इस प्रकार हम देखते हैं कि कई मत हो गए—निशीथव्यापिनी तिथि मत, निशीथव्यापिनी नक्षत्र-मत, सूर्योदयकालिक तिथि-मत, सूर्योदय कालिक नक्षत्र मत, एवं सिर्फ नक्षत्र मत।

इस सम्बन्ध में मेरा स्पष्ट विचार है कि तिथि को बिलकुल न महत्त्व देते हुए, सिर्फ रोहिणी नक्षत्र को व्रत हेतु ग्रहण करना सिर्फ उनके लिए ही ग्राह्य है, जो बिलकुल विरक्त है। प्रभु-दर्शन, मोक्ष-प्राप्ति आदि के अतिरिक्त जिनके पास कुछ भी सांसारिक इच्छा नहीं है। और आज के युग में ऐसे महापुरुष विलकुल विरल (अल्प संख्या में) हैं। बड़े-बड़े सन्त-महात्मा भी सांसारिक मोहपाश से सर्वथा मुक्त नहीं हैं। षडपशुत्व का नाश नहीं हुआ है।

अतः सामान्य जन को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रतोत्सव उसी दिन मनाना चाहिए, जिस दिन अर्द्धरात्रि में अष्टमी तिथि मिले। संयोग से उस काल में रोहिणी मिल जाये तो अतिउत्तम।

व्रत निर्णय के बाद अब व्रत समाप्ति(पारणा)पर भी ध्यान देना आवश्यक है। पारण के सम्बन्ध में भी काफी मतान्तार और भ्रम है। प्रत्येक स्थिति में पारण-विधि समान नहीं है।  इसे यूँ समझें— व्रत, उत्सव, पर्व, अनुष्ठान आदि में पर्याप्त भेद है। इन सबको कदापि एक न समझें। तदनुसार पारण-विचार भेद भी है। जैसे एकादशी व्रत का पारण अगले सूर्योदय के पश्चात् ही करना चाहिए। अन्य सभी व्रतों में भी तिथि की महत्ता है। नवरात्रादि अनुष्ठान में तिथि सहित पूर्णाहुति की महत्ता है। अज्ञानवश लोग पूर्णाहुति के पश्चात उसी दिन (नवमी को ही) पारण कर लेते हैं। ये बिलकुल गलत है। रक्षाबन्धन(श्रावणीकर्म) पर्व है,इसमें कार्य सम्पादन से सम्बन्ध है। क्रिया समाप्ति के बाद भोजन ग्रहण किया जाना चाहिए। अनन्तव्रत में अनन्तपूजा के पश्चात अन्न ग्रहण कर सकते हैं, किन्तु ध्यान रहे - पुनः (दुबारा- रात्रि में) अन्न नहीं लेंगे। श्रीकृष्णजन्माष्टमी के लिए दोनों विकल्प हैं—तिथि समाप्ति के पश्चात,अगले सूर्योदय के पश्चात,या रात्रि में उत्सव समाप्ति के पश्चात भी अन्न ग्रहण करने का शास्त्रादेश है। निम्न ऋषिवचनों में ये स्पष्ट है—

() तिथ्यन्ते चोत्सवान्ते वा व्रती कुर्वीत पारणम् । तथा च

() स्मार्तानां द्वितीय दिनेष्टम्यां यामद्वयाधिकसत्वेपि प्रातः काल एव पारणोक्ता तिथ्यन्ते  तिथिभान्ते वा पारणा यत्र चोदिता । यामद्वयोर्ध्वगामिन्यां प्रातरेव हि पारणम् ।  

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             इस वर्ष (सन् २०२० विक्रमाब्द २०७६) की स्थिति

                         (विष्णुनगरी गया समयानुसार)

      ११ अगस्त, मंगलवार - भाद्र कृष्ण सप्तमी प्रातः .०६ बजे समाप्त हो रही है। उसके बाद अष्टमी तिथि का प्रवेश है, जो आगामी दिन बुधवार को प्रातः .५३ तक रहेगी। यानि इसी दिन अर्धरात्रि में अष्टमीतिथि का संयोग मिल रहा है। मंगलवार को भरणी नक्षत्र रात्रि ११.१० तक है। उसके बाद कृत्तिका का प्रवेश है। यानी रोहिणी अभी दूर है।

          १२ अगस्त, बुधवार को प्रातः .५३ तक अष्टमी है यानी इस दिन सूर्योदयव्यापी बल मिल रहा है अष्टमी तिथि को। किन्तु रोहिणी नक्षत्र का बल इस दिन भी नहीं मिल रहा है,क्योंकि कृत्तिका नक्षत्र का भोग रात १.२१ बजे तक है। उसके बाद ही रोहिणी का प्रवेश हो रहा है।

१३ अगस्त,गुरुवार को नवमी तिथि है प्रातः ९.१९ बजे तक। किन्तु रोहिणी नक्षत्र की व्याप्ति गत रात्रि से इस रात्रि के ३.०६ बजे तक।

स्पष्ट है कि निशीथ व्यापिनी अष्टमी मतावलम्बियों के लिए मंगलवार ग्यारह अगस्त ही प्रशस्त है। सामान्य जन को बिना किसी तर्क-वितर्क के इसे ही ग्रहण करना चाहिए और अगले दिन प्रातः .५३ के बाद पारण करना चाहिए।

रोहिणी नक्षत्र और निशीथकाल की अवहेलना करते हुए, सूर्योदय व्यापिनी अष्टमी तिथि को महत्व देकर १२ अगस्त, बुधवार को व्रत करना मेरे विचार से सर्वथा अनुचित है।

और इसके आगे १३ अगस्त,गुरुवार को  सिर्फ रोहिणी नक्षत्र की प्राथमिकता और महत्ता के विषय में तो ऊपर स्पष्ट कर ही चुका हूँ कि वो सिर्फ विरक्तों के लिए मान्य हो सकता है, गृहस्थ और सांसारिकों के लिए कदापि नहीं।

शिखा,सूत्र,चीवर,चीमटा,चोलाधारी साधु-सन्यासी सच में विरक्त हों ही कोई आवश्यक नहीं। अतः ये निर्णय उनके अधीन ही छोड़ देने की आवश्यकता है। किसी अन्य के कर्मों के शुभाशुभ भोग हेतु हम क्यों चिन्तित-व्यथित हों ! अस्तु।।

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