सूअरगाड़ी
बैलगाड़ी,घोड़ागाड़ी,ऊँटगाड़ी,
यहाँ तक कि याकगाड़ी, स्लेजगाड़ी इत्यादि नाम भी आप अवश्य सुने होंगे । बहुत लोग
ऐसी गाड़ियों में सवार होकर, सफ़र का लुफ़्त भी लिए होंगे। किन्तु सौभाग्य या कहें
दुर्भाग्य से सूअरगाड़ी का तो नाम भी नहीं सुने होंगे। ऐसे में सफ़री-लुफ़्त का
सवाल ही कहाँ रह जाता है !
दरअसल बात कुछ दूसरे किस्म
की है। चूहादानी, चायदानी, धूपदानी और मच्छरदानी आदि में जो मौलिक अन्तर है, कुछ वैसा
ही अन्तर सूअरगाड़ी में भी है। चूहादानी, चायदानी
और धूपदानी में जिस संज्ञापद की प्रधानता होती है, वो विशेषण पद के अन्दर समाहित
होता है। कमजोर व्याकरण वालों के लिए मैं साफ कर दूँ कि चूहेदानी में चूहा अन्दर
बन्द होता है। चायदानी में भी चाय रखी जाती है और धूपदानी में भक्तगण धूप रखकर
जलाते हैं यानी ये सब अन्दर की ही बात हो गयी—बिलकुल “लक्सकोज़ी” की तरह—ये अन्दर की बात है।
किन्तु अभागा मच्छरदानी ऐसा होता है जहाँ मच्छर बाहर और इन्सान अन्दर। उसी तरह वैलगाड़ी को तो बैल खींचते हैं, किन्तु
सूअरगाड़ी को सूअर खींचते नहीं है, बल्कि सूअरों को खींच कर एक स्थान से दूसरे
स्थान पर ले जाने वाली गाड़ी को सूअरगाड़ी कहा जाता है।
सौभाग्य से मैं विष्णु की
पावन नगरी गयाधाम में लम्बे समय से प्रवासी हूँ। निवासी होने का सौभाग्य अभी तक
नहीं मिला है और न शेष जीवन में मिलने की आशा ही है। क्यों कि नगर-निवासी होने के
लिए अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र में जो शर्ते हैं, वो सब पूरा करने के योग्य मैं
कतई नहीं हूँ। किन्तु कभी-कभी बड़ी प्रसन्नता होती है अपनी इस अयोग्यता पर। ईश्वर
की महती कृपा हुयी कि महानगरों से दूर रहा । महानगर भी भला रहने लायक जगह है ! जीवन भर की कमाई खपा कर बिना सिर-पैर का या कहें “ बिना आसमान और बिना ज़मीन वाला” कबूतरखानानुमा दो-तीन
कमरे का फ्लैट खरीद लेंगे लोग और लगेगा कि
सारी मिल्किय़त ही अपनी हो गई। अरे भाई ! फ्लैटों में तो
आदमी ‘फ्लैट’ ही रहेगा न
? सही-सलामत भला कैसे रह सकता है !
खैर, मैं बात कर रहा था
सूअरगाड़ी की । देशी गायों की तेजी से विलुप्त होती जा रही नस्लों के जमाने में
सूअरों का ही साम्राज्य है न । गरीबों के तथाकथित मशीहा हमारे सरकार बहादुरों का भी
भरपूर ध्यान है देश में सूअरों के विकास के लिए । विस्फोटक जनसंख्या विकास दर की
व्याकुल क्षुधा को शान्त करने में इन सूअरों का बड़ा योगदान है। सुनते हैं कि सूअर
पालन में बहुत मुनाफ़ा है - एक साथ दस, बारह, सोलह बच्चे। यही कारण है जन्मजात
लोककल्याण के पुरोधाओं को ये योजना बड़ी
राश आती है। गाय पालने के लिए सरकारी अनुदान भले न नसीब हो, सूअर पालने के लिए तो मिल
ही जाता है। एक शुभेच्छु नेता ने तो चूहे खाने की भी सिफारिश की थी। अफसोस कि चूहापालन-अनुदान
घोषित नहीं कर पाये, क्योंकि असमय में ही गद्दी छूट गयी।
सूअर पलवाने के चक्कर में
उनके मशीहा ये भूल जाते हैं कि सूअर पालने वाले का जीवन-स्तर गाय पालने वाले जैसा
कभी हो ही नहीं सकता । कहने में तो थोड़ा
अटपटा लगेगा, किन्तु सच्चाई ये है कि सूअर के साथ सूअर जैसा ही बनना पड़ता है।
सामान्य जन जिस सूअर का स्पर्श भी नहीं करना चाहते, उसीके साथ सूअर-पालक रसा-बसा
होता है। सूअर पालना, काट-भूनकर खाना, बेचना और फिर उस मुनाफे से दारु पीना...।
ऐसा कोई भलामानस आपने देखा है जो सूअर बेच कर बहुत तरक्की किया हो
? देखेंगे भी नहीं, क्यों कि सूअर पालक का जीवन-स्तर एक सीमित दायरे
में ही सिमटा रह जाता है। उनके मशीहा भी भला कब चाहेंगे कि वो ऊपर उठे ! क्योंकि यदि वो ऊपर उठ जायेगा, फिर उनकी राजनैतिक दुकानें कैसे चलेंगी ! सच में यदि उनका विकास चाहा होता तो स्वतन्त्रता के 73 वर्षों के बाद भी यही स्थिति रहती ? उन्हें सिर्फ
उनके वोट से मतलब है। उनके ईर्द-गिर्द राजनीति करने से मतलब है। नयी संज्ञायें, नये
विशेषण गढ़-गढ़ करके नेताओं की दुकानें सजती रहती हैं। सूअर पालने वाला आद-औलाद
सूअर ही पालते रह जाता है और पलवाने की सिफारिश करने वालों, अनुदान देने वालों के वेटे
दौलत और डिग्रियाँ वटोरकर ऐश-मौज़ करते हैं।
मैं जहाँ रहता हूँ किराये के मकान में, शहर का बहुत ही पवित्र
स्थान है—देव-पितर दोनों के लिए—गया शहर का पितामहेश्वर स्थान । शहर भर के
दशगात्र-कर्म वहीं होते हैं। प्यासी फल्गु के किनारे पर पुराना सा पीपल का पेड़
है, जिसमें मृतकों के निमित्त छोटी-छोटी घटिकायें लटकी रहती हैं। नदी किनारे हर
दिन स्त्रियों का करुण क्रन्दन सुनाई पड़ता है, जो अपने प्रियजनों के दशगात्र-कर्म
में शामिल होने वहाँ आयी रहती हैं और उधर नदी के गन्दे रेत पर लोटता-छटपटाता सूअर
का कर्कश चीत्कार कानों में पड़ कर कुछ सोचने को विवश कर देता है। सूअर भूनने के
लिए भी शहर में सबसे उपयुक्त स्थान यही है और बाँध-बूँध कर गाड़ी में लादने के लिए
भी। रोज सबेरे एक गाड़ी आती है। घंटे दो घंटे सूअर पकड़ो अभियान बड़े मनोयोग
पूर्वक चलता है और लाद-लूद कर सूअरों को ले जाती है। सूअर पकड़ना भी एक अद्भुत कला
है। प्रशिक्षित कलाकार ही ये बीड़ा उठा सकते हैं।
मनु की सन्तानें— मानवमात्र
स्वभाव से बहुत ही सरल, सीधा करुण और भाउक है। क्रूर कोई जन्मजात नहीं होता। समाज,
कानून और परिवेश क्रूर बनाता है।
यहाँ तो क्रूरता के लिए
प्रोत्साहन राशि मिलती है, ज़ेहादियों को भी और दलितों को भी। कहने को तो एक
निशान, एक विधान की बात करते हैं हम, किन्तु क्या सच में ऐसा है ?
अलग वोर्ड, अलग थाना, अलग
कानून, अलग नियम-कायदे, अलग छूट, अलग व्यवस्था...। फिर एकत्व कैसा?
काश
! ऐसा होता— सबकुछ एक समान होता । स्वतन्त्रता के प्रौढ़त्व के साथ
सबका साथ, सबका विश्वास, सबका विकास—महज़ स्लोगन न रह जाता । नेताओं के चोंचले में
न फंसते हम ।
दशगात्र-कर्म का करुण-क्रन्दन
तो हम रोक नहीं सकते, किन्तु सूअरों का चीत्कार तो बन्द किया ही जा सकता है। इन अज्ञानी
दलितों को किसी और योजना से लाभान्वित कराकर, शिक्षित कराकर, सद नागरिक बनाकर...।
वन्देमातरम्।
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