परथन वाली लिट्टी

 

परथन वाली लिट्टी

            वटेसरकाका  ने अजीब सा सवाल किया— परथन की लिट्टी खाये हो बबुआ?

            बिहार वाले तो इस शब्द से अवश्य परिचित होंगे, किन्तु पता नहीं और राज्यों में इसे क्या कहते हैं। अतः उनके लिए मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि  परथन उस सूखे आटे को कहते हैं, जिसका प्रयोग रोटी वेलने के लिए किया जाता है। नियम ये है कि रोटी बनाने के बाद जो परथन वाला थोड़ा सा सूखा आटा बचा रह जाता है, गूंथ कर एक छोटी सी रोटी या कहें लिट्टी सेंक दी जाती थी। उस लिट्टी को चिड़ियों को दे दिया जाता है। किंबदन्ती ये है कि इस अन्तिम वाली रोटी को खाने से बुद्धि मलिन होती है। पिछली रोटी खाने वाली कहावत शायद इसी से बनी होगी।

            काका का सवाल इसी लिट्टी से था। मगर ये सवाल आज क्यों उनके दिमाग में आया, जिसका जवाब ढूढ़ते मेरे पास चले आए, मुझे समझ न आया। अतः मुस्कुराते हुए सवाल कर दिया— क्या बात है काका जान ! आज ये परथन वाली लिट्टी क्यों याद आ गयी?

            मेरे सवाल पर काका जरा गम्भीर हुए। इधर-उधर झांके कि कहीं कोई सुन तो नहीं रहा है। फिर आश्वस्त होकर कहने लगे— मेरा तो वचपन ही गुजरा है, ऐसी लिट्टियाँ खा-खाकर। अच्छी रोटी-लिट्टी तो शायद ही कभी नसीब हुयी हो चाचीजी की कृपा से। किन्तु मजे की बात है कि बुद्धि कभी पिछड़ी न रही उनके बाल-बच्चों की तुलना में। खैर, ये तो पुरानी बात हो गयी। इस पर अब सोच-विचार करने से क्या लाभ ! असली बात ये है कि आजकल अब ये लिट्टियाँ बनती ही नहीं ज्यादातर घरों में। भला कौन 25रुपये प्रति किलो के आटे का दुरुपयोग करने जाए—चिड़ियों को खिलाने में।  मिया-बीबी दोनों कमाकर किसी तरह भीषण महंगायी में घर चलाते हैं। गिन-गिन कर रोटियाँ बनती हैं—आज तुम कितना खाओगे, पूछ-पाछकर। टाईम-बे-टाईम कोई आ धमके तो समझो कि आफत आगयी, भले ही वो अपना भाई-भतीजा क्यों न हो। न एक्शट्रा कमरा है और न विस्तर। हम दो हमारे दो के जमाने में भला भाई-भतीजों से क्या ताल्लुक ! अकेले आए हैं, अकेले जाना है। फिर फालतू का परिवार बटोर कर क्या करना ! यावत् जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत—का सिद्धान्त तो आँखिर आजकल के लिए ही बना है न। अतिथि देवो भव— का सिद्धान्त अपनाने वालों ने कितना तरक्की कर लिया ? अपनी लिट्टी पर ईंगोरा रखने वाले, निज स्वार्थ में मस्त लोगों को देखो—कहाँ से कहाँ पहुँच गए, और हम हैं कि भरपूर तन ढांकने में ही सफल नहीं हो पा रहे हैं। लाख कमाओ, मन की मुराद पूरी ही नहीं हो पा रही है...।

            काका की बेतुकी बातें मुझे चौंका रही थी। आज से पहले वटेसरकाका तो इस तरह की बातें नहीं करते थे। आज भला क्या हो गया इन्हें ! अतः फिर टोका—क्या बात है काका ! लगता है, आज किसी ने कुछ कह-टोक दिया आपको।

            सिर हिलाते हुए बोले— कहने-टोकने वाले तो रोज मिलते हैं बबुआ । कोई अहंकारी कहता है, कोई असामाजिक, कोई अलगंठी, कोई ज़ाहिल, कोई झक्की...। किसका किसका मुंह रोकते चलें? अभिव्यक्ति की तो स्वतन्त्रता है न, फिर उसका लाभ लोग क्यों न उठाया करें।  

            मैंने भी सिर हिलाया— सो तो है, किन्तु परथन की लिट्टी वाला सवाल ?

            काका फिर दायें-बायें देखते हुए कहने लगे— तुम तो जानते ही हो बबुआ कि भरसक मैं कहीं आता-जाता नहीं।  धड़ल्ले से कहीं खाता-पीता भी नहीं। कहाँ जाऊँ, कहाँ खाऊँ, क्या खाऊँ, क्या न खाऊँ—बड़ा उलझन है। कहीं जाओ और खाओ नहीं तो आफत । खालो तो दूसरी आफत। कहने को तो सब अपने को ऋषिवशिष्ठ ही बताते हैं। सबके घरों में अरुंधती ही बसती हैं। किन्तु छानबीन करने लगो तो सिर पीटना पड़ेगा। तुम जानते ही हो कि कुण्डली-टीपन के साथ-साथ घर-दुआर देखने का भी काम है मेरा। जिसके कारण किसी के अन्तःपुर तक सीधा प्रवेश मिल जाता है। मजे की बात ये है कि चेहरे से लेकर दीवार तक तो रुटीन डिस्टेम्पर होते रहता है। ड्राईंगरुम खूब सजा-संवरा होता है, किन्तु रसोईघर में झांको तो सारा पोल खुल जाए। मिट्टी वाले चूल्हे का जमाना तो अब रहा नहीं। चकमक स्टील के गैसचूल्हे हैं, इन्डक्शन चूल्हे हैं, मारक्रोओवन हैं, ननस्टिक तवे और कड़ाहियाँ हैं। न जाने क्या-क्या हैं। किन्तु इनकी धुलाई-सफाई पर शायद ही किसी आधुनिका गृहणी के पास समय हो। चूल्हे, तवे, कड़ाहियाँ भी धोने-माँजने की चीजें हैं—बहुत कम लोग ही समझते हैं। पता नहीं उनका मॉर्डेन सांइन्स थ्योरी क्या कहता है - इस विषय में। फ्रिज़ तो बना ही होता है बासी खाना और जूठे पानी की बोतलें रखने के लिए। भात-रोटी सब रखते रहो फ्रिज में—इसी में बड़प्पन है, इसी में आधुनिकता है। कच्ची-पक्की और जूठा-संखरी का भेद ही समाप्त हो गया है। परथन के लिए प्रयोग किया गया आटा जो बच जाता है, उसे या तो सीधे स्टॉक में डाल देती हैं देवियाँ, या बहुत हुआ तो एक अलग डब्बे में रख देती हैं, अगले दिन उपयोग हेतु। ऐसे में भला  परथन की लिट्टी कहाँ नसीब है चिड़ियों को। अब सोचो जरा, ऐसे घरों में जाकर, खाना-पीना कितना सही है ! इससे भी मजे की बात है कि एकल परिवार के जमाने में महीने के उन पाँच दिनों की बंदिश भी खतम है। कितने पति हैं जो पाँच दिन चौका सम्भालते हैं? भारतीय संस्कृति का कैसा वीभत्स काल ये आ गया है, न धर्म से मतलब है और न विज्ञान का ज्ञान। आधुनिकता के दैत्य ने निगल लिया है संस्कारों को। धर्म-संस्कार के दारोमदार, समाज के अग्रणी ब्राह्मणों की भी दुर्दशा है, फिर औरों की क्या कहें। संस्कारों का बीज बहुत आहिस्ते-आहिस्ते संग्रहित होता है। शनैःशनैः पनपता है, किन्तु बड़े झटके से विखण्डित हो जाता है—इन बातों का ध्यान  हम नहीं रखेंगे तो और कौन रखेगा..?

            काका की बातों ने बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया। आधुनिकता की वयार में भला ऐसे भी आदमी बहता है !

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