थाली में छेद या छेद वाली थाली
आज
भोरमभोर वटेसरकाका की ड्योढ़ी पर पहुँचा तो अजीब माज़रा देखने को मिला— काकीजान
एकदम कच्छड़ भिड़े हुए थी- तालठोंकने के अन्दाज में। उनके दोनों हाथ राख-मिट्टी से
तर-बतर थे। दाहिना हाथ वरतन धोने वाले काले-कलूटे “लूंड़े ” से “ लैश”
था, मानों उसे ही हथियार की तरह प्रयोग करने की तैयारी हो और वायाँ हाथ नटी-भंगिमा
में कमर पर टिका था। ज़ाहिर है कि साड़ी गन्दा होने की फिक्र छोड़कर “
धर्मक्षेत्र ” में कूद पड़ी हैं काकी। कोरानाकाल
में सोशलडिसटेन्सिंग का पालन करने वाले अन्दाज में, आँगन के दूसरे छोर पर बिलकुल
वीरगाथाकाल के महानायक की भाँति रौद्ररस से आक्रान्त वटेसरकाका भी नज़र आये, जिनके
बांये हाथ में कांसे की पुरानी नस्ल की एक थाली थी और दाहिना हाथ शरीर पर से
राख-मिट्टी झाड़ने के असफल प्रयास में व्यस्त था। सीन देखते ही स्पष्ट हो गया कि काकी की ओर से पहला प्रहार
हो चुका है और “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते
तत्र देवता ” के
पोषक काकाजान ने प्रतिप्रहार नहीं किया है।
ड्योढ़ी
के दरवाजे पर ठिठका खड़ा मैं, आँगन का ये दृश्य देखकर सन्न रह गया। किसी की
गृहस्थी में यूँ दखलअन्दाज़ी नहीं करनी चाहिए—विचार आते ही उल्टे पांव पीछे मुड़ने
ही वाला था कि आहट पाकर काका ने हांक लगा दी— “आओ-आओ तुम भी
देख ही लो ये ऐतिहासिक ड्रामा। पता नहीं फिर कभी मिले ना मिले देखने को। ”
शायद
मुझपर नजर पड़ते ही काका का साहस लौट आया, क्योंकि मुख-मुद्रा बिलकुल बदल चुकी थी
क्षण भर में ही। रौद्र का स्थान क्षोभ ने ले लिया। साहसी दर्शक की तरह मैं तनकर
आँगन में जा खड़ा हुआ और आँखों ही आँखों में काकी से सवाल दागा, किन्तु उनसे पहले
ही काका उचरने लगे— “ देख रहे हो न मेरे हाथ में ये
फूल वाली पुरानी थाली, जिसके बीचोबीच काकी ने छेद कर दिया है अपनी नापाक कारीगरी
से। ये वही थाली है जो मेरे दादाजी को तिलक में चाँदी के कटोरे में नारियल-सुपारी-चन्दन
से साथ मिली थी। शादी के बाद जीवनभर दादाजी इसी थाली में खाते रहे। उनके बाद पिताजी
ने भी इसी पात्र-धर्म का निर्वाह किया और उनके बाद मैं इसी में खाते आरहा हूँ। किन्तु
आज इसमें ये भोंड़ा सा छेद उभर आया तुम्हारी काकी की कारगुज़ारी से। कितना मना
किया कि कुल-कपड़ा और वासन संजो कर रखना चाहिए, किन्तु इन्हें कहाँ समझ है मेरी
बातों की। अरे भाई ! मुलायम टीशूपेपर से पिछवाड़ा पोंछकर
निश्चिन्त हो जाने वालों से कुछ तो सीखना ही चाहिए हमें भी। कीमती वरतन को आहिस्ते
से मलना-धोना चाहिए। जहाँ तक हो सके, धोना ही नहीं चाहिए। पोंछ-पांछ-शुद्धि-सूत्र
आंखिर किसलिए बना है? किन्तु ये भाग्यवान बिना ईंट-झांवाँ रगड़े मानने
ही वाली नहीं। सत्यानाश कर दी मेरी पुस्तैनी थाली की। ”
काका की बात पर मुझे ध्यान
आया—आज कई दिनों से पूरे देश में ही थाली की चर्चा है। थाली में छेद अचानक हो गयी
या पैदाईशी थी—कहना जरा मुश्किल है। चैनलों की चीख-चिग्घाड़ से तंग आकर सोचा आज
सुबह की चाय चाची के हाथ का ही पीउंगा, किन्तु यहाँ भी वही थाली वाली चिल्लपों से
वास्ता पड़ गया । काका-काकी की थाली वाली टक्कर के चक्कर में सुबह की चाय भी नदारथ
लग रही है।
काकी का वयान है कि ये थाली
शुरु से ही छेदवाली थी। कोई मसाला भरकर इसके छेद को अलोपित कर दिया गया था, जो आज
अचानक इन्हें नजर आ रहा है। काका इस वयान को झुठलाने का पक्ष रख रहे थे। बात का
बतंगड़ इसी में बन गया।
ज़ाहिर है कि कोई एक पक्ष तो
सरासर झूठ है ही। किन्तु इसका निर्णय कौन करे? घटना ताजी
है या सूचना, छेद नया है या नया है छेद का भेद खुलना —आखिर इसका फैसला कौन करे
!
संयोग से एक शेरनी ने दहाड़
लगायी और एक सियारिन ने सिकस्ती में पत्ते खोले तो चारो ओर भूचाल आ गया।
बड़े-बड़ों को पैरों तले की जमीन खिसकती नजर आने लगी। मायानगरी की मदहोश
अट्टालिकाओं से लेकर, सत्ता के गलियारों में भी सुनामी का खौफ छा गया — पता नहीं
कब किसकी कुर्सी पलट जाए, कौन चारो खाने चित्त हो जाए। और ऐसे में पागल कुत्ते की
तरह दुम सीधी कर सबके सब भौंकने लगे। जिससे भोंकते नहीं बना, वो गोवा और दुबई का
रास्ता नापने लगा। कुछेक ऐसे भी हैं जो कानों में गुलरोगन का तेल डालकर, ऊपर से
मेडिकेटेड कॉटन का फाया कोंच लिए हैं, ताकि बाहर के खट-पट की खबर ना लगे दिमाग को ।
रागदरबारी की बातें ही
विचित्र होती है। सुर-तान मिलाना सबको थोड़े जो आता है। कुछेक ही मंजे खिलाड़ी
होते हैं, जो सदा पर्दे की ओट में साज़ सम्भाले बैठे होते हैं। आवाज भीतर से आती
है, तलाश बाहर होती है...।
मनोभाव पढ़ने में माहिर काका
ने मुझे चुप देखकर टोका— “ लगता है मीडिया
वाली थाली तुम्हारे दिमाग में घूम रही है। कल रात मैं भी बहुत देर तक थाली-चर्चा
पर विचार करता रहा और आज सुबह-सुबह अपनी ही थाली में छेद से सामना हो गया। ये
मीडियावाले जो न करादें। हमें तो लगता है कि किसी पत्रकार ने ही काकी को भड़काया
होगा । कहा होगा कि पुराना छेद उभार दो। यदि
इनकी बात को मैं मान भी लूँ कि थाली का छेद पुराना है, तो सवाल उठता है कि मसाला
कितना लाज़वाब लगाया होगा दादी के मैके वालों ने, जो तीन पीढ़ी तक ढके रहा इतने
बड़े छेद को ! पहले तो इसी का पता लगाना चाहिए, ताकि ऐसा कामयाब
मसाला भारी मात्रा में बनाया जा सके और देश-दुनिया की और थालियों में इस्तेमाल
किया जा सके। हो सके तो इस मसाले का एक्सपोर्ट कर विदेशी मुद्रा भी हासिल की जाए ।
”
काका के ननस्टॉप सुझावों पर
सडेनब्रेक लगाते हुए मैंने कहा— आप काकी पर नाहक ख़फा हो रहे हैं। मुझे तो उनकी
बातों पर पूरा-पूरा य़कीन है। थाली में छेद शुरु से ही रही होगी। अब जरा वर्तमान
संकट— मायानगरी वाली जन्मजात छेदहा थाली को ही क्यों नहीं देखते। अरे, ये कहिए कि पहले
छेद जरा छोटे थे और संख्या में भी कम थे, इस कारण मुल्लम्मा कामयाब रहा। विकास के
युग में छेदों का भी विकास हुआ और इतना विकास हुआ कि थाली चलनी बन गयी—छेद ही छेद—कितना
गिनेंगे, किन-किन छेदों को गिनेंगे, किन-किन को नज़रअन्दाज करेंगे, किन-किन पर
मसाला भरेंगे?
काकाने भी मेरे सुर में सुर
मिलाया— “ मैं तो कहता हूँ कि सारे अनर्थों की जड़ ये मायानगरी ही है। सारे
कुकर्मों का अड्डा ये मायानगरी ही है। सभी माफिया यहीं पलते-बढ़ते हैं। गिनने-छोड़ने
वाली बात ही नहीं है। बिलबिलाते कीड़ों वाला गटर है ये गटर । अपवाद स्वरुप दो-चार
ईंच शुद्ध जमीन कहीं बची भी हो तो उसकी क्या औकात—बत्तीस दांतों के बीच बेचारी
जीभ...। ”
नहीं काका
! आप गलतफ़हमी में हैं—मैंने टोका— अब वो जमाना नहीं रहा। हम काफी प्रबुद्ध
हो गए हैं। समझदार हो गए है। ज्यादे देर तक बरगलाया नहीं जा सकता। हम अगर उठाना जानते हैं, तो फटकना भी आता है। हमारी
गाढ़ी कमाई से तैयार थाली को दहेजुआथाली समझने की भूल न करें। वो हमारी भूल थी, जो
किरदार को दमदार समझ लिया। अभिनय में ओढ़े हुए आदर्श को ही महानायक मान लिया। मनोरंजक
साहित्य के नाम पर क्या परोसा इस मायानगरी ने—कितना हित हुआ समाज का,राष्ट्रका—सोचने
वाली बात है। हमारी संस्कृति को तहसनहस कर दिया इस मायानगरी ने। फैशन के नाम पर
नग्नता परोसी गई और चुटकी भर कला के नाम पर गट्ठरभर भोंड़ापन । कला का गढ़,
भोड़ेपन का ढूह बन कर रहा गया है। स्वच्छ भारत अभियान के तहत इस ढूह और गटर
की जमकर सफाई तो होनी ही चाहिए। हो सकता है—स्वच्छ जमीन की मात्रा कुछ अधिक ही निकल
आए...।
इतनी देर से चुप्पी साधे
खड़ी काकी ने काका के हाथ से छेदवाली थाली झटककर, मुझे देती हुयी बोली— “
जाओ बहुआ ! इस थाली को चालान कर दो ठठेरीबाजार
में। गल-गुल कर, फिर से ढल-ढुलकर नयी थाली आयेगी, जो बिना छेद वाली होगी। ”
मुस्कुराते हुए
काका ने मेरी पीठ थपथपायी —“ काकी की बात पर अमल करो बबुआ। इसी में समाज का हित है। ”
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