माया नगरी का चीरहरण

 

मायानगरी का चीरहरण

            चीरहरण लीला द्वापरकाल की घटना है। यमुनातट पर श्रीकृष्ण द्वारा गोपियों के चीरहरण का प्रसंग पौराणिक कथाओं में  प्रसिद्ध है, जिसपर नासमझों द्वारा अजीबोगरीब टिप्पणियाँ होते रही हैं; जबकि इसकी आध्यात्मिक व्याख्या बड़ी ही गूढ़ है। किन्तु उन रहस्यमयी लीलाओं की व्याख्या में जाना यहाँ मेरा उद्देश्य नहीं है ।

उसी काल में एक दूसरी घटना भी घटी थी — कुरु राजसभा में उनके ही तथाकथित युवराज के आदेश से इन्द्रप्रस्थ की पटरानी द्रौपदी का चीरहरण किया गया था, जो इतिहास की सर्वाधिक मार्मिक घटना रही। नारीजाति के अपमान का ऐसा घिनौना कृत्य ना कभी पहले हुआ था और ना ही बाद में होने की आशंका करनी चाहिए। श्रीकृष्ण के वस्त्रवतार लीला-चमत्कार से द्रौपदी की लाज तो बच गयी थी, किन्तु कुरु राजसभा के अपमान और लांछन को भला कौन धो सकता है ! इसका दण्ड भरतकुल ही नहीं, पूरे भारतवर्ष को भुगतना पड़ा।

            कृष्ण की महानगरी द्वारका के इलाके से बाहर, कुछ दूरी पर बसी आज की मायानगरी, जिसे लोग बॉलीवुड के नाम से जानते हैं, भारत का सबसे बड़ा फिल्म उद्योगकेन्द्र है, जो विगत कई दशकों से भारत ही नहीं, विश्व के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। प्रायः हर युवा का दिवास्वप्न होता है इस मायानगरी में शरण मिलने का। किन्तु बिडम्बना ये है कि कुछेक खानदारी लोगों का ही वर्चश्व है इस महानगरी पर। उन तथाकथितों के कृपा-पात्र बने वगैर यहाँ कतई प्रवेश और स्थान नहीं मिल सकता। कला-पारखियों की पैनी-घिनौनी जाँच-प्रक्रिया से हर नये कलाकार को गुजरना पड़ता है, खासकर उन्हें जो उन खास खानदानों के वारिस नहीं होते। वारिसों की तो टेढ़ी नाक और भैंगी आँख भी क्षम्य हैं, जबकि गैर-वारिस चुनिंदी सुन्दरियों को तो वारवधू बने बिना गुजारा ही नहीं है। प्रोड्यूसर,डारेक्टर से लेकर हीरो तक का बारम्बार विस्तर गरमाये वगैर काम ही नहीं बनता। ऐसा नहीं कि अनाचार सिर्फ औरतों के साथ ही होता है। मर्दों की व्यथा-कथा भी निराली है। आबरु और अस्मिता की लूट सर्वव्यापी है इस मायानगरी में।

            मजे की बात है कि ये बातें अब तक दबी ज़ुबान चर्चित थी। पता नहीं क्यों किसी मीडिया ने भी खुलकर इनपर चर्चा करने की जुर्रत न की आजतक। दुधार गाय की लात भली वाली कहावत को चरितार्थ करती मायानगरी की इज्जत और रौनग बनी रही। रातें रंगीन होती रही और शोहरत की चकाचौंध में सारे काले कारनामें ढके रहे। सबकुछ गंवाकर भी फिल्मिस्तान में पैर जमाने की ललक भी बनी रही युवक-युवतियों की, क्योंकि दौलत और शोहरत का शुमार है यहाँ। और इस बात का भ्रम व्याप्त है समाज में कि दौलत से सबकुछ पाया जा सकता है। शोहरत मिल गया, मानों स्वर्ग मिल गया। धरती का स्वर्ग – ये मायानगरी ही माने जाने लगा।

            विद्वानों नें माया को महाठगनी कहा है। साधकों का जीवन इस माया से संघर्ष और समाधान में ही व्यतीत हो जाता है। ऐसे में बहुत कम लोगों की ही पहुँच  महामाया तक हो पाती है।

            दौलत और शोहरत इन्सान को तथाकथित ऊँचाई तो देती है, किन्तु रसातल का दरवाजा भी इन्हीं रंगीनियों के बीच से होकर गुजरता है। मयदावन की बनायी युधिष्ठिर की राजसभा में दुर्बुद्धि दुर्योधन जिस तरह जल-थल-अग्नि में भेद नहीं कर पाया था, उसी भाँति मायानगरी में कुछ पता ही नहीं चलता कि क्या सत्य है क्या असत्य...क्या पुण्य है क्या पाप। राष्ट्रहित क्या है और समाज का हित किसमें है ! जाति, धर्म, मज़हब, उम्र, नाते, रिश्ते, रात, दिन किसी भी मर्यादा का पालन यहाँ जरुरी ही नहीं समझा जाता। बिलकुल चार्वाकी अन्दाज में जीते हैं यहाँ के लोग—जब तक जीओ सुख से जीओ...दम मारो दम मिट जाए गम...।  कहते हैं न कि काशीनगरी भगवान शिव के त्रिशूल पर टिकी है। उसी भाँति ये मायानगरी शोहरत और ग्लैमर की ऊँची मीनार पर बनी है। यहाँ की चकाचौंध ऐसी है कि कुछ पता ही नहीं चलता—सूरज-चाँद भी धोखे में पड़ जाते हैं।

 ये सच है कि ऊपर उठता इन्सान अचानक कब गिरने लगता है, पता भी नहीं चलता। लुढ़कने का जो न्यूटनथ्योरी है, उसे भला कौन नहीं जानता—गिरावट शुरु होती है तो फिर आसानी से समतल जमीन मिलना कठिन हो जाता है, जहाँ पहुँच कर लुढ़काव को रोका जा सके।

            अभी हाल के दिनों में जो कुछ भी हो रहा है इस मायानगरी में वो बहुत ही चौंकाने वाली बात है, साथ ही आँखें खोलने वाली भी। एक से एक गड़े मुर्दे उखड़ रहे हैं। आदतन टेढ़ी पूँछ वाले कुत्ते भी सीधी पूँछ किये भौंकने पर आमादा हैं। वर्दियों की तो ऐसी भद्द पिटी है कि गिनीज़बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड भी शरमा जाये—चाहे वो खाकी वर्दी हो या सफेद या कि काली। बगुलों के पंख नुचने का भी भरपूर अवसर आया हुआ है। इम्पोर्टेड मेकअप और प्लास्टिक सर्जरी भी चेहरे के दाग-धब्बों को मिटाने-ढकने में नकामयाब सिद्ध हो रहे हैं। अत्याधुनिक डायलीसिश भी खून की खामियों को ठीक से साफ नहीं कर पा रहा है। सारे के सारे जेनेटिकफॉल्ट उजागर हो रहे हैं। कुकर्मों का अन्धेरा गड्ढा भर कर उफनने लगा है और गटर के बिलबिलाते कीड़े रंगीन गलियों में सरेआम बहने लगे हैं। मायानगरी अपनी अस्मिता की तलाश में दरदर भटकने को विवश है। पोख्ती दुरुस्त ज़मीन की तलाश जारी है, जो मिल नहीं पा रही है। कानून के खिलाड़ी मोटी-मोटी पोथियाँ पटलने में मशगूल हैं। अल्लादीन का चिराग पता नहीं कहाँ गुम हो गया है। दौलत-शोहरत वाले रसूकदारों का भ्रम टूट रहा है। पांव तले की धरती खिसकती नजर आ रही है।

दरअसल पर्दे पर के आदर्शों को ही हम असली जीवन के आदर्श मान बैठे हैं। छद्म अभिनय ही सुखी-प्रतिष्ठित जीवन का आधार बन गया है। हम ये विचार करना भी जरुरी नहीं समझते कि नाचती-कूदती, पुती-पुतायी सुन्दरी नायिकाओं का असली चेहरा भी इतना ही सुन्दर होगा और ज़मीनी जीवन भी इतना ही उल्लास पूर्ण होगा।

बुद्धि की आँखें खोल कर, देखने-समझने का समय है। लम्पटों और छिछोरों को कलाकार मान कर महिमामंडित करने से काम नहीं चलेगा। ये हमारे आदर्श कदापि नहीं हो सकते। कहा जाता है कि जैसा अन्न वैसा मन। खून-पसीने की कमाई के वजाय ड्रग और जिश्मफरोखी की कमाई जहाँ होगी, वहाँ से किसी स्वस्थ-सुलझे साहित्य और मनोरंजन की कल्पना ही बेमानी है। अश्लीलता, नग्नता और भेड़ुआपन को कला मान लेना सरासर मूर्खता है।

हालाँकि ऐसा नहीं है सभी ऐसे ही हैं। एक से एक मंजे हुए सच्चे, चरित्रवान कलाकार भी वहाँ मौजूद हैं, किन्तु चन्द अच्छों के बीच कुछेक घिनौने चेहरे जो घुसपैठ बनाये हुए हैं, वर्चश्व बनाये हुए है फिल्मनगरी में, उन पर तो चुन-चुन कर कारवाई होनी ही चाहिए। ड्रग माफियाओं के तानाशाही गढ़ को ध्वस्त करके, नयी फिल्मसीटी बनाई जानी चाहिए।

हमारी सरकारों का ध्यान भी अचानक इस ओर आकृष्ट हुआ है— इसका तहेदिल से स्वागत करना चाहिए। मायानगरी का घूंघटवाला घिनौना चेहरा बेनकाब हो रहा है। इस बार चीरहरण में बिलकुल नग्न हो जाना है मायानगरी को, क्योंकि दुष्ट दुःशासन वाला हाथ नहीं है, जो थककर थम जायेगा और कृष्ण का वस्त्रावतार भी नहीं होने वाला है इस बार,जो लाज बचा देगा।  

किन्तु हाँ, सिर्फ सरकार ही नहीं, आमलोगों का भी पावन कर्तव्य है कि सही-गलत, अच्छे-बुरे की पहचान करें। कलाकार की हैसियत से फिल्मी दुनिया में प्रवेश पाने के ख्वाहिशमन्द युवक-युवतियों को भी सतर्क और सावधान होना चाहिए। दौलत-शोहरत की ललक में अस्मिता को ही नीलाम न कर दें। आबरु लुटाकर, ज़मीर बेंच कर, जीना कोई जीना नहीं कहा जा सकता। ये तो चुल्लुभर पानी में डूब मरने वाली बात है। क्यों ऐसी दीवानगी है फिल्मी दुनिया के प्रति, फिल्मी कलाकारों के प्रति—सोचने वाली बात है। अर्धनग्न शरीर, खुरदरी गालों के चमकदार पॉलिश पर हम क्यों रीझने लगते हैं...भोड़े और अश्लील ठुमके को ही हम क्यों भरतनाट्यम् मान लेते हैं...गधों का हेंपों-हेपों और कौवों के कांव-कांव को ही कोयल की कूक क्यों समझ लेते है...बिना कथ्य और कथा की किसी लपेटू चलचित्र को ही क्यों सूपरहिट करा देते हैं—ये सोचना-समझना हम सबकी जिम्मेवारी है। मीडिया पर भी भरोसा करना ठीक नहीं है, क्योंकि इनका स्तर भी दिनोंदिन रसातल की ओर जा रहा है।

हम क्या देखना चाहते हैं, क्या देखना और दिखाना देशहित तथा समाजहित में है—इसका निर्धारण भी हम ही करेंगे। राष्ट्र द्रोहियों के पैसों से बनी फिल्मों का सर्वथा वहिष्कार भी हमारा ही कर्तव्य है।

सोशलमीडिया ने हमें बहुत बड़ी ताकत दी है—अभिव्यक्ति की आजादी का हम सदुपयोग करना सीखें। बुद्धिहीन भेड़ों की भीड़ का हिस्सा न बने। बुद्धि-विवेक पूर्ण विचार रखते हुए, स्वस्थ समाज और स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण में सहयोगी बने। माँ भारती की कराह को अनसुना न करें। जय हिन्द। बन्देमातरम्।

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Comments

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  2. बहुत बहुत धन्यवाद। आज अचानक आपका कमेन्ट दीख गया तो उत्तर देना आवश्यक लगा। मेरा ब्लॉग आपको अचछा लगा इसके लिए साधुवाद।

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